गुरुवार, जुलाई 26, 2012

  क्षेत्रीय दलों की मानसिकता अपने आप को मजबूत करने की रही है। इनके बाजू में राजनीतिक अवसरवाद भी खूब पनपता है। नैतिकता का परिचय तो भूले से नहीं मिलता।



तमाम मतभेदों के बाद भी राजनीतिक नैतिकता को त्यागना क्षेत्रीय दलों की मूल प्रवृति में शामिल हो चुका है। जब भी और जैसे भी अवसर आए, हथियाने के लिए सदैव तत्पर। हाल ही में कांग्रेसनीत संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार (यूपीए)में पिछले आठ साल से सहयोगी रही राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी ने प्रणव मुखर्जी के रायसीना हिल में जाना पक्का होने के बाद अपनी मानसिकता का खुल कर प्रदर्शन किया। शरद पवार सरकार में शामिल  हैं लेकिन उन्होंने स्पष्ट किया कि कुछ मुद्दों पर उसके कांग्रेस के साथ मतभेद हैं। तुरत फुरत शरद पवार की मांगों पर कई तरह से विचार किया गया। नौ विधायकों के मालिक शरद पवार की नाराजगी के चलते यूपीए सरकार पर खतरा मंडराने लगा था। फिलहाल सोनिया से मुलाकात के बाद संकट कमजोर पड़ गया है।
राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार बनाए जाने के बाद प्रणब मुखर्जी के सरकार से अलग हो जाने के बाद इस बात को लेकर बहस तेज हो गई कि सरकार में नंबर दो कौन होगा। ये बहस प्रणब मुखर्जी के इस्तीफे के बाद पहली बार हुई मंत्रिमंडल की बैठक में शरद पवार को प्रणब वाली सीट मिली लेकिन हफ्ते भार बाद मंत्रिमंडल की दूसरी बैठक में प्रणब वाली सीट पर रक्षा मंत्री और कांग्रेस नेता एके एंटनी को बिठा दिया गया। शरद पवार मानते हैं कि यूपीए में प्रणब मुखर्जी के बाद वो सबसे वरिष्ठ नेता हैं, इसलिए जो हैसियत मनमोहन सरकार में प्रणब को मिली थी, उसके पहले हकदार वह हैं। उनके सहयोगी प्रफुल्ल पटेल द्वारा इस्तीफे का तुरुप चलने से हालात बिगड़े और विवाद गरमा गया। आपसी विवाद यूपीए पर तूफान बन कर मंडराने लगा तब सोनिया गांधी और शरद पवार ने मुलाकात की और खतरे के इस तूफान को संयमित किया।
एनसीपी की मांगे सदैव कांगे्रस को कमजोर नहीं तो कदम ठिठका देने वाली रही हैं। महाराष्ट्र में भ्रष्टाचार के गर्त से बाहर निकलने की कोशिश हो या फिर अपनी बेटी सुप्रिया सुले के राजनीतिक भविष्य को सुनिश्चित करने की बात। पिछले एक हफ्ते के दौरान कांग्रेस से नाराज एनसीपी सुप्रीमो शरद पवार की मांग सूची बेहद लंबी है। माना जा रहा है कि वह कांग्रेस से अपनी बेटी के लिए कैबिनेट मंत्री की कुर्सी मांग रहे हैं। इसके लिए वह ग्रामीण विकास राज्य मंत्री अगाथा का इस्तीफा भी करवाने के लिए तैयार हैं। मगर दूसरी ओर सिर्फ नौ सांसदों वाली पार्टी को तीन कैबिनेट मंत्री देने की बात कांग्रेस को पच नहीं रही है और यह किसी को भी नहीं पचेगी। कांग्रेस-एनसीपी के बीच इस दूरी का यूपीए पर असर होगा ही।
वैसे यूपीए के लिए शरद पवार भरोसेमंद साथी रहे हैं और उनकी पार्टी ने प्रत्यक्ष विदेश निवेश के मुद्दे पर सरकार का खुलकर साथ दिया है। वो आर्थिक सुधारों के पक्ष में रहे हैं और उन्होंने राष्ट्रपति तथा उपराष्ट्रपति चुनाव में कांग्रेस का खुलकर साथ दिया। लेकिन इस तरह की सौदेबाजी लोकतंत्रिक मूल्यों को छिन्न भिन्न करने का ड्रोन हमला बन कर सामने आती हैं। ऐसे हालात बनने से पहले ही देश के राजनीतिक नेतृत्व को सजगता बरतना सीख लेना चाहिए।


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