रविवार, जून 20, 2010

 
हमारी नीतियों का बायप्रोडक्ट है पर्यावरण समस्या
भगवत रावत 
 विचारक एवं कवि
 रवीन्द्र स्वप्निल प्रजापित से बातचीत पर आधारित

पर्यावरण विनाश पूंजीवादी संस्कृति है। यह लेखक कवि या दुकानदार की निजी समस्या नहीं है। यह एक व्यापक समस्या है। यह दस पेड़ लगाने की समस्या नहीं है। ऐसा नहीं है कि केवल दस पेड़ लगा कर पर्यावरण को ठीक किया जा सकता है। एक व्यक्ति पेड़ लगाए यह अच्छी बात है लेकिन इससे पर्यावरण की क्षतिपूर्ति का संबंध जोड़ना उचित नहीं है।



पर्यावरण कोई अलग समस्या नहीं है जिसे अलग से हल किया जाए। यह तो हमारे फैसलों और नीतियों का बाई प्रोडक्ट है। पर्यावरण विनाश पूंजीवादी संस्कृति है। यह किसी व्यक्ति की निजी समस्या नहीं है। यह एक व्यापक और ग्लोबल समस्या है। यह दस पेड़ लगाने की समस्या नहीं है। हां, एक व्यक्ति पेड़ लगाए यह अच्छी बात है लेकिन इससे पर्यावरण की क्षतिपूर्ति का संबंध जोड़ना उचित नहीं है। लोग पेड़ वैसे भी लगाते ही हंै। आप देखो जहां कोई बस्ती होती है वहां कुछ पेड़ अवश्य ही लगाए जाते हैं, लेकिन यह पर्यावरण जैसे व्यापक शब्द के लिए पर्याप्त नहीं होता। पर्यावरण एक विशाल अर्थ वाला शब्द है जिसे आप दस पांच पेड़ों से तय नहीं कर सकते।
इसके लिए हमें सरकारी नीतियों को सुधारने की आवश्कता है। जब विशाल फैक्ट्रियां और कारखाने लगते हैं तब पर्यावरण की चिंता की बात करना चाहिए। सरकार इन फैक्ट्रियों को अनुमति देते समय पर्यावरण के लिए जो शर्तें रखती है वे कहां पूरी होती हैं। अब समय है हमने जो शर्तें रखी हैं वे और कड़ी हों। उनका पालन सुनिश्चित होना चाहिए। अक्सर होता ये है कि कोई बड़ा उद्योगपति शर्तें मानने की हां तो भर देता है लेकिन करता वही है जो उसे करना होता है। वह प्रदूषण फैलाता है और पर्यावरण को बरबाद करता है। आखिर में वही फैक्ट्री नदियों और हवाओं को गंदा करती है। पानी में जहर घोलती है। दूर न भी जाएं तो भोपाल के आसपास तमाम कारखाने, फैक्ट्रियां आसपास की नदियों को बरबाद कर चुके हैं। जिन नदियों में कभी साल भर पानी रहता था वहां अब गंदगी है। उनमें बरसात के बाद पानी सूख जाता है। एक नदी के सूखने से जो नुकसान होता है, उसकी क्षतिपूर्ति का आंकलन कौन कर रहा है?
ऐसा नहीं है कि व्यवस्था हो नहीं सकती। हो सकती है और इसके लिए जिम्मेदार  लोगों को आगे आना चाहिए।
अब ऐसा भी नहीं है कि जो सुविधाएं समाज ने प्राप्त कर ली हैं तो वह उन्हें छोड़ दे। हम आधुनिकता विरोधी नहीं हैं कि जंगल में चले जाएं। लेकिन मकान और फैक्ट्री बनाने के जो मानक तय हैं जैसे कि रेनवाटर हार्वेस्टिंग, उसका कितना पालन हो रहा है। कितनी फैक्ट्रियों में यह लागू हो रहा है। कितने घरों की अनुमति देते समय यह सुनिश्चित किया जा रहा है। तो आपको यह सब देखना पड़ेगा। यह आज समझ में आ रहा है कि पानी बचाना है। आज भी इस नियम को लागू नहीं करने के मामले में सबसे अधिक पूंजीपति वर्ग जिम्मेदार है। यही सबसे अधिक पानी बरबाद करता है।
कहा जा रहा है कि कविता में, लेखन में प्रकृति खो गई है। प्रकृति बची ही नहीं है तो आएगी कहां से। आज किसी कवि को नीलकंठ नहीं दिखता तो वह कैसे उसे लिख पाएगा। चिड़ियां नहीं दिखाई देतीं। उनकी बोली बच्चों को याद नहीं है। किसी समय हम स्कूल जाते थे तो रास्ते में मोर दिखाई देते थे। लौटते थे तो नदी के पानी से नहा कर घर पहुंचते थे। आज वे सारी नदियां सूखी पड़ी हैं। उनका प्रवाह शांत हो चुका है। पेड़ों की घनी छांव जो सहज ही उपलब्ध होती थी गायब है। जंगल नहीं दिखाई देते। ये सब गायब हो रहे हैं। न जमीन पर हैं न उपन्यास और कविता में हैं। अब तो गंगा का बहना भी थम रहा है। कुछ दिनों में, अगर हम नहीं संभल सके तो बच्चों को ये भी पता नहीं होगा कि नदी बहती कैसे थी। उसका प्रवाह क्या होता था। बच्चे नदी के परिवेश और उसके जल की वास्तविक अनुभूति से वंचित हो जाएंगे। बच्चों को समझाना पड़ेगा कि नदी ऐसे बहती थी।
मेरा कहना है कि पर्यावरण की समस्या को व्यक्ति की समस्या बना कर पेश किया जा रहा है। यह समूह की समस्या है। यह पूंजीवाद की समस्या है। पूंजीवादी सभ्यता का विकास निजीकरण को बढ़ावा देता है। निजीकरण दोहन करता है, वह प्रकृति और इंसानों का निर्ममता से शोषण करता है। कुछ साल पहले छत्तीसगढ़ में बहुत अधिक हरियाली थी और नदियों में स्वच्छ जल बहता था। नदियों में जल का साफ सुथरा बहना ही पर्यावरण है। अब जगदलपुर से आगे लोहे के तमाम उद्योगों ने हरियाली को नष्ट कर दिया है। नदियों के प्रवाह को छीन लिया है। उनकी स्वच्छता  छीन ली है। कुछ महीनों पहले मेरा वहां जाना हुआ था। उन नदियों के पानी का रंग बेहद खराब हो चुका है। उसका न पीने के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है और न खेतों में उसका उपयोग है। इसे कंट्रोल करना पड़ेगा। किसी पूंजीपति के लाभ की कीमत पर जिंदगी और उसका पर्यावरण दांव पर नहीं लगाया जा सकता। लाभ और मौत में कोई फर्क तो करना ही होगा हमें। तो ऐसा है, यह बड़ा काम है, किसी व्यक्ति का नहीं है। सरकारों का अधिक है।

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