शुक्रवार, सितंबर 30, 2011

आपका स्वागत है Green N Earth Organization India Bhopal - Composite Manure Organic Soil Tonic

आपका स्वागत है Green N Earth Organization India Bhopal - Composite Manure Organic Soil Tonic

‘अच्छे आदमी’ पर भारी पड़े एक्सपेरीमेंट

  नाटक
अच्छे आदमी करीब के साल पहले खेला गया था ... ये रिपोर्ट समीक्षा पीपुल्स समाचार में छापी थी ....

युवा नाट्य निर्देशक सरफराज हसन द्वारा निर्देशित नाटक ‘अच्छे आदमी’ ने नाटकीयता के लिए कई नई संभावनाओं को जन्म दिया। उन्होंने प्रयोगों के खतरे उठाए। कहानी को तोड़ा मरोड़ा, गीतों को जोड़ा और एक हाउस फुल नाटक विद टिकिट के साथ किया। लेकिन क्या वे नाटक के साथ नाटक को कर पाए...

रवीन्द्र भवन में युवा सरफराज हसन द्वारा निर्देशित और राजेश जोशी द्वारा लिखा ‘अच्छे आदमी’ ने अभिनय को कुछ नए रंग देने के साथ रंगमंच को भी कुछ नए रंग देने की कोशिश की। हालांकि ये रंग इतने अधिक हो गए कि हर रंग एक दूसरे में मिल गया। खैर नाटक की कहानी एक पकौड़ी वाली बुढ़िया, एक चाय वाले और बुढ़िया की रिश्तेदार के रूप मे काम कर रही सीता और ठेकेदार के बीच घटती है। नाटक में गांव का युवक उजागिर एक खूबसूरत बहू के लिए गांव से निकलता है और उसे पकौड़ी वाली बुढ़िया के यहां सीता मिलती है। इसी तानेबाने में नाटक के दूसरे किरदारों को जगह मिलती है। सीता और उजागिर में चल रही चाय पकौड़ी चटनी अंतत: शादी में बदल जाती है। शादी के बाद उजागिर वापस अपने गांव आता है और जैसा कि गांव में होता है कि उसकी बहू कैसी है, कहां की है, क्या है छोटी छोटी गांव में चलने वाली चर्चाओं को नाटक में पर्याप्त स्पेश के साथ उठाया है। इसमें श्रुति सिंह, कृतिका, कनक आदि ने अच्छे अभिनय से इन दृश्यों को उठाया, लेकिन यहां उनके अभिनय को उत्कृष्ट नहीं कहा जा सकता। ‘गांव वाली औरतें’ बनने में अभी वे हिचक रही थी। इस हिचक को तोड़ कर जब कलात्मक अनुशासन में अभिनय होता है तब वह लाजबाव होता है।
नाटक में पहला हिस्सा अधिक हास्य और गति से चलता है। दूसरे हिस्से में कुछ मंथर हो जाता है। एक तरह की गंभीरता नाटक में आती है। अपने गांव लौटे नाटक के मुख्य किरदार उजागिर के लिए लोभ लाालच का चारा ठेकेदार से मिलने लगता है। वह पैसे में रम जाता है। इधर उजागिर की पत्नी सीता ठेकेदार के साथ राग की अभिव्यक्ति करती है। नाटक में सीता का चरित्र बहुत ही सूक्ष्म और जटिल संकेतों से मिल कर बनता है। इसे निर्देशक ने अपनी कल्पना से और अधिक उभारा है। जैसे कि जब भी उजागिर और सीता के बीच बातचीत में ठेकेदार का जिक्र आता है, संगीत हल्की अलग ट्यून अख्तियार कर लेता है। इससे नाटक एक खास किस्म की भीतर लय ताल को पाता है। इन दोनों के चरित्र में खास बात ये है कि ये कोई सच्चा नहीं है। सीता सब समझते इस राह को स्वीकार करती है तो उजागिर भी अपनी लोलुपता के चलते ठेकेदार से लाभ पाने के लिए जानते बूझते यह स्वीकार करता है। ये बातें संवादों में काव्यात्मक संकेतों से की जाती हैं। जैसे एक संवाद है कि पकौड़ी अच्छी हैं। यह उजागिर की पत्नी के लिए प्रयोग किया गया है। संवादों में इस तरह के कई प्रयोग हैं। संवादों में ही नाटक हमारे आसपास सामाजिक विद्रूपताओं में हास्य तलाशता है और धीरे धीरे अपने समाज का एक आइना बनता चला जाता है।
नाटक की शुरुआत में गांव वालों की ‘क्राउड’ के दो दृश्य कमजोर रहे। उनमें एक साथ कहानी का सब कुछ बता देने की जल्दबाजी थी। दूसरी तरफ ऐसे दृश्यों के लिए रवीन्द्र भवन का मंच उपयुक्त नहीं था। हालांकि गीत के बाद नाटक रफ्तार पकड़ लेता है। नाटक में अभिनय चायवाले के रूप में डॉ. विपिन खासे जमे। इसी तरह सीता के रूप में खुश्बू पांडे का ताजा अभिनय कुछ लोच और लचक की मांग कर रहा था। वे एक दो बार संवाद में अटक गर्इं थीं लेकिन उनके अभिनय में एक संभावना नजर आने जैसी बात तो थी। खुश्बू ने संगीत भी दिया है। कुछ गीतों को वे गा भी रही थीं। इससे उनकी छवि एक बहुमुखी प्रतिभा की बन रही थी। शराबी के रूप में रवि तिवारी दर्शकों की ओर से हिट शराबी रहे। बुढ़िया के रूप में डॉ. राजकुमार ने प्रयास तो अच्छा किया पर लोग कह रहे थे कि अरे ये तो लड़का है। राजकुमार ने अपने हाथों में पुराने कड़े पहने होते तो शायद लोग उन्हें कुछ कम सहजता से पहचान पाते। बस ड्रायवर के रूप में फैज की एक्टिंग इस नाटक में अलग ही लकीर खींच रही थी। शुरुआत में वे एक रिजर्व अभिनेता की तरह लगे थे। बाद में उन्होंने अपने आप को जस्टिफाई किया। पहलवान के रूप में अनंत सोनी ने भी अभिनय की अच्छी पहलवानी की। नाटक हाउस फुल था और लोगों को हास्य से सराबोर कर गया।
मंच पर लाइटों की बात की जाए तो पहले दूसरे दृश्य में सफेद कपड़ों पर इतनी लाइट थी कि कैमरामैनों के फोटो भी आउट हो रहे थे। इतनी चमक आंखों को भी चुभ रही थी। कहा जा सकता है कि उसने मंच के रंग अनुशासन को बहुत हद तक भंग किया। यही काम मंच पर बने सेट ने किया। यह सेट बुढ़िया के बैकग्राउंड से अधिक किसी अमीर का घर अधिक लग रहा था। गीतों को भी नहीं बख्शा जा सकता। इतने अधिक गीत वह भी भारी संगीत के कारण नाटक की मूल कथा पर बोझ बन गए महसूस हुए। जैसा कि बताया गया ये गीत यंग्स थियेटर की टीम ने लिखे हैं तो इसका मतलब यह नहीं है कि आप एक नाटक को गीता भरी कहानी बना दें। इसके अलावा नाटक की कहानी में स्वभाविक स्थितियों के हास्य की जगह अभिनय में निहित हास्य से भरा था। अगर वैसा अभिनय नहीं किया जाता तो दर्शक उस हास्य को पकड़ने में भी मुश्किल   महसूस करते। एक और चीज निर्देशक को ध्यान में रखना चाहिए। प्रॉपर्टी की अधिकता में कई बार नाटक का बेसिक अभिनय छुप सा जाता है। नाटक ‘अच्छे आदमी’ सरफराज के अच्छे निर्देशन की जो विशेषता है उसमें अवश्य सफल रहा। उन्होंने पहले भी मंजी में इस तरह के सिनेमेटिक तकनीक भरे प्रयोग किए हैं। पर मंजी एक अलग बैकग्राउंड का नाटक था, वही चीज सरफराज ने यहां लागू की तो वह लाउड हो गई। हो सकता है ये सरफराज के युवा होने की मजबूरी रही हो। प्रयोग और नए करने की पहल के कुछ खतरे तो होते ही हैं।




उसने ओम थानवी का कान कैसे पकड़ा और क्या कहा





(सतीश जायसवाल कहानीकार हैं। कोरबा में रहते हैं। ये पोस्ट उनके ब्लॉग से ली है। पीपुल्स समाचार में प्रकाशित है...  )


  क्या, किसी के लिये भी यह बात विश्वसनीय हो सकती है कि हिंदी के राष्ट्रीय दैनिक ‘जनसत्ता’ के प्रमुख संपादक श्री ओम थानवी अपने कान की सफाई के लिए नई दिल्ली के ‘एम्स’ को छोड़ कर कटघोरा (जिला-कोरबा, छत्तीसगढ़) में एक कान सफाई करने वाले के हत्थे चढ़ जाएंगे? लेकिन कटघोरा के व्यवहार न्यायालय परिसर में कई लोगों ने वह दृश्य देखा कि वहां घूम-घूम कर अपना ग्राहक ढूंढ रहे एक सड़क छाप कान सफाई करने वाले ने थानवी जी का कान पकड़ रखा है। देखने वालों में एक मैं भी हूं इसलिये इस बात की विश्वसनीयता बिलकुल भी संदिग्ध नहीं है। यह एक दिलचस्प प्रसंग है।
थानवी जी अपने किसी अदालती मामले में कटघोरा आए  हुए थे और अपने पुकारे जाने का रास्ता देखते हुए अदालत के परिसर में पेड़ के नीचे खड़े थे। तभी, ‘कान का मैल साफ़  करने वाले’ ने ग्राहक ढूंढने की अपनी कला का प्रमाणित परिचय दिया। उसके और उसके धंधे के प्रति एक पत्रकार के पास जैसे सवाल हो सकते हैं, वो सब थानवी जी के पास थे और उनकी पत्रकारिता और उनकी हैसियत से बिलकुल अनजान उस कान सफाई करने वाले ने उनके प्रत्येक सवाल का जवाब दिया। दाम भी बताया, 10 रुपये प्रति कान। लेकिन थानवी जी अपने कान को जोखिम में डालने का साहस नहीं कर सके। और उन्होंने उसे मना कर दिया। लेकिन वह भी, हाथ आये अपने एक तगड़े ग्राहक को ऐसे ही कैसे छोड़ सकता था ? उस ने हिम्मत नहीं हारी और थानवी जी से कहा, चाहे सफाई ना कराएं लेकिन अपना कान देखने की इजाजत तो दे सकते हैं? थानवी जी ने भी कहा, देखते हैं कि क्या देखेगा? और वह इतना ही चाहता था। एक बार उनका कान उसके हाथ में आया तो वह अपने हाथ का हुनर दिखा कर ही माना। उस के पास एक ही मौका था जिसे धैर्य और पूरे आत्मविश्वास के साथ इस एक मौके को अपने हक़  में कर लिया। थानवी जी ने भी उसे 10 की जगह पूर 50 रुपये देकर उसकी चतुराई को सम्मानित किया।
चमड़े के छोटे से बैग में कुछ सुइयां, रुई के कुछ फाहे, बांस की कुछ पतली-पतली सींकें और 2-3 छोटी शीशियों में रंग-बिरंगी दवाइयां लेकर सड़कों और भीड़ वाली जगहों में घूमते हुए ऐसे ‘कान का मैल निकालने वाले’ अब शहरों में नहीं दिखते। चम्पी और चम्पी-मालिश करने वाले भी नहीं  दिखते। यह एक लम्बी सूची है जिसमें हमारे देखे हुए दृश्य एक-एक करके हमारे अनुभव-संसार से लुप्त होते जा रहे हैं। एक आंख में खुर्दवीन की ऐनक लगा कर घड़ी सुधारने वाले घड़ीसाज, तालाचाबी बनाने वाले, छतरी और बिगड़ी हुई टार्च बत्तियां सुधारने वाले, पीतल के बर्तनों में कलाई करने वाले कारीगर, घोड़े के खुरों में नाल ठोकने वाले लौहार, कपड़ों में रंगाई करने वाले रंगरेज वगैरह-वगैरह। अब यह कितना विचित्र और गैर जिम्मेदाराना लगता है कि अब हम उन्हें रूमानी ‘नोस्टेल्जिया’ में जाकर याद कर रहे हैं? जबकि ये सब की सब किन्हीं ना किन्हीं सामाजिक संरचनाओं का हिस्सा रहे हैं। उन्नत कौशलों ने इन पारंपरिक कौशलों से जीवन यापन करने वाले असंगठित समूह के विशेषज्ञों, कारीगरों के लिए कोई विकल्प नहीं छोड़े।  ऐसे में यह आशा करना सुखद होगा  कि उनके पुनर्वास की भी कहीं चिंताएं हो रही होंगी और योजनाएं बन रही होंगी कि विकास में उनकी भी साझेदारियां निर्धारित की जा सकें। लेकिन ऐसा जरूरी तौर पर होना चाहिए था। अभी भी समय है।
 

जनसंख्या नियंत्रण केरल की एक पहल


 किसी नागरिक को धार्मिक या अन्य आधार पर जनसंख्या नियोजन से बचने या न मानने की अनुमति नहीं


ऐसे में यह कानून उन गरीबों के साथ कैसे न्याय करेगा जिनके बच्चे असमय इलाज के अभाव में मर जाते हैं।


के रल सरकार द्वारा प्रस्तावित केरल ‘वुमेन कोड बिल 2011’ जनसंख्या नियंत्रण के लिए सबसे प्रभावी कानून हो सकता है। जस्टिस वीआर कृष्णा अय्यर की अध्यक्षता वाली 12  सदस्यीय कमेटी ने इस कानून का ड्राफ्ट केरल सरकार को सौंपा है। जस्टिस वीआर कृष्णा एक विद्वान और दूरदर्शी सोच के व्यक्ति हैं। उनकी अध्यक्षता में इस काननू का ड्राफ्ट तैयार किया है तो निश्चय ही यह  तार्किक होगा। बढ़ती जनसंख्या के नियंत्रण के लिए यह जरूरी है कि एक सर्वव्यापी कानून हो। केरल में प्रस्तावित इस कानून से जनसंख्या वृद्धि दर नियंत्रित होगी। महिला कल्याण तथा बाल विकास सूचकांक में भी सुधार होगा। इस बिल में कई अच्छी बातें शामिल हैं।  इसमें सबसे प्रमुख यही है कि प्रदेश के किसी नागरिक को धार्मिक, जाति, क्षेत्र या राजनीतिक आधार पर जनसंख्या नियोजन से बचने या न मानने की अनुमति नहीं होगी। शादी के समय गर्भ निरोधक उपायों एवं इससे संबंधित जानकारी भी निशुल्क प्रदान की जाएगी। निशुल्क गर्भपात की व्यवस्था भी इसमें है। 19 साल की उम्र के बाद शादी और 20 साल के बाद बच्चा पैदा करने पर प्रोत्साहन राशि देने का प्रावधान रखा गया है। केरल सरकार का यह कानून महिला कल्याण तथा जनसंख्या नियंत्रण के लिए कारगर पहल साबित होगा।


स  रकार अब बच्चे पैदा करने पर नियंत्रण कर रही है।  हम सरकार को बताएंगे कि हम 20 साल के हो गए। हम बच्चा पैदा कर रहे हैं। सरकार समाज की परंपराएं और उसके रीतिरिवाजों को ध्यान में रखे  बिना कानून बना रही हैं। सरकार का यह कानून प्रदेश की सामाजिक सांस्कृतिक पृष्ठभूमि में हस्तक्षेप है। यह कानून नागरिकों के मौलिक अधिकारों में भी दखल है। बच्चा पैदा करना एक प्राकृतिक प्रक्रिया है, जिस पर सरकार नियंत्रण करना चाहती है। तीसरा बच्चा पैदा होने पर पति को 10 हजार का जुर्माना और तीन साल की सजा का प्रावधान है। इस तरह की सजाएं व्यक्ति को अपने ही बच्चे को इंकार करने वाले हादसों को अंजाम दे सकती हैं। हो सकता है कि तीसरे बच्चे के जन्म के लिए दूरदराज के लोग अस्पतालों में ही न जाएं। एक गरीब के लिए तीन चार बच्चे उसके घरेलू कामों में हाथ बंटाने और सहयोगी होते हैं। अमीर परिवारों की अपेक्षा बाल मृत्युदर गरीब परिवारों में  अधिक होती है। ऐसे में यह कानून उन गरीबों के साथ कैसे न्याय करेगा जिनके बच्चे असमय इलाज के अभाव में मर जाते हैं। रोज कमाने वाले मजदूर के लिए जनसंख्या नियोजन कानून की कैद  परिवार के लिए भूखों मरने जैसे स्थितिएं पैदा करेगा।



क्  या अब राज्य तय करेगा कि आपको कितने बच्चे पैदा करना है।    यह राज्य द्वारा व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अतिक्रमण है। बच्चे पैदा करना एक प्राकृतिक परिघटना है इसमें कानूनी बंदिशें और अनुशासन व्यक्ति की स्वतंत्रता और उसके निजी जीवन के फैसलों मेंअनावश्यक दखल है। इस तरह के कानूनों की जगह में  लोगों में स्वभाविक तरीके से जनसंख्या नियंत्रण को प्रेरित करना चाहिए। इस दिशा में देश ने सफलताएं अर्जित की हैं।

बच्चों की सुरक्षा में कानून का नया ड्राफ्ट

 
इस कानून में  14 से 18 वर्ष की आयु के बच्चों के बीच आपसी सहमति से सेक्स संबंध आपराधिक नहीं होंगे।



बा ल सुरक्षा विधेयक-2011 का ड्राफ्ट चर्चा में है। बच्चों के अधिकारों और उनके यौन शोषण के खिलाफ एक समग्र कानून ड्रॉफ्ट किया गया है। इस कानून में यौन अपराधों को दो वर्गों में बांटा गया है। किशोर वर्ग के यौन-सबंध और बच्चों की सुरक्षा में लगे अधिकारियों जैसे पुलिस, शिक्षक, प्राचार्य, हॉस्टल वार्डन, परिवार तथा रिश्तेदार आदि द्वारा शारीरिक शोषण जिसे जघन्य अपराध माना गया है। इस अपराध की सजा आजीवन है। यह कानून जीवन के सामाजिक  बदलावों को स्वीकार करता है क्योंकि समृद्ध जीवन शैली के कारण किशोरों की शारीरिक परिवर्तन की उम्र कम हो गई है। डॉक्टरों के अनुसार आजादी के समय रजस्वाला होने की उम्र 12-13 वर्ष थी जो अब 9-11 हो गई है। टीवी फिल्म और अन्य दृश्य श्रृव्य माध्यमों के कारण बच्चों में सेक्स के प्रति जिज्ञासा बढ़ रही है। समाज में 14 से 18 वर्ष के किशोरों के बीच सेक्स संबंधों में वृद्धि हुई है। इस कानून में 14 से 18 वर्ष की आयु के बच्चों के बीच आपसी सहमति से सेक्स संबंध आपराधिक नहीं माने जाएंगे। उन पर कोई सजा लागू नहीं होगी। यह एक प्रकार से बच्चों को अपराध बोध से मुक्त रखने का प्रयास है।

इन प्रावधानों से लड़कियों की बदनामी को शह मिलेगी और इससे सामाजिक आचार विचार ध्वस्त हो जाएंगे।


अ भी तक 18 साल तक के किशोरों को सेक्स संबंधों पर साधारण कानून था। जिसके तहत बच्चों पर आइपीसी की धाराओं में रेप का केस दर्ज होता था। बाल सुरक्षा कानून के ड्राफ्ट में  इसको बदला गया है। इस बदलाव के लिए लाए गए दो प्रावधानों पर समाज को आपत्ति है। पहला 14 से 16 वर्ष तक के बच्चों में नॉन पेनीट्रेटिव सेक्स को जायज माना गया है। 16 से 18 वर्ष तक के बच्चों के बीच सहमति से पेनीटेÑटिव सेक्स संबंधों को कानूनी अनुमति होगी। समाज के एक तबके का कहना है कि इंटरनेट, टीवी और फिल्मों से किशोरों में पहले से ही इस संबंध में जानकारियां हैं। अगर कानूनी अनुमति मिलती है तो किशोर उन्मुक्त हो जाएंगे। भारतीय समाज अभी तक ऐसे परिवर्तनों के लिए तैयार नहीं है। यहां कौमार्य को अभी भी महत्व दिया जाता है। इस कानून से लड़कियों की बदनामी को शह मिलेगी और सामाजिक आचार ध्वस्त हो जाएंगे। दूसरा मुद्दा है कि 18 साल तक के किशोर की सेक्स संबंधों के प्रति मूल भावना क्या है? इस कानून में इसका उल्लेख नहीं है।




कि सी भी समाज की स्थितियों, समस्याओं और स्थापनाओं के साथ शोषण और दमन को खत्म करने के लिए केवल कानून ही पर्याप्त नहीं होते। मानवीय समाज में नियम कानूनों के साथ उनके प्रति जागरूकता होना आवश्यक है। समाज को नियमों में बांधने से पूर्व उसका सामाजिक सांस्कृतिक अध्ययन जरूरी हैं। भारतीय समाज परिवर्तन स्वीकार करता है लेकिन पहले सांस्कृतिक-सामाजिक तार्किता पर भी कसता है।

पीपुल्स समाचार में प्रकाशित

बुधवार, सितंबर 21, 2011

चिंता में मालवा का मौसम और मिट्टी



देश मालवा गहन गंभीर, डग डग रोटी पग पग नीर।   
                                                    - अमीर खुसरो


ते रहवीं सदी के कवि अमीर खुसरो की ये पंक्तियां मालवा की समृद्धि का बयान करती हैं। इतिहासकार रोमिला थापर का कहना है कि कविता की पंक्तियों में इतिहास भी दर्ज होता है। लेकिन हाल ही में मालवा अंचल की भूमि एवं कृषि पर वैज्ञानिकों ने 500 से अधिक गांवों  पर जांच रिर्पोट प्रस्तुत की है। इस दौरान 2900 परीक्षण नमूने एकत्रित किए गए। इसमें मालवा अंचल के अधिकांश जिलों में मिट्टी अनुपजाऊ होते जाने की जांच परख की गई है। मालवा की माटी ज्वालामुखी के लावे से निर्मित होने के कारण अत्यंत उपजाउ रही है। मालवा में  पानी के लिए छोटी बड़ी नदियों का जाल बिछा है। वर्षा यहां वरदान की तरह होती रही है। मालवा का अधिकांश भाग चंबल नदी तथा इसकी शाखाओं द्वारा संचित है, पश्चिमी भाग माही नदी द्वारा संचित है। कृषि भूमि के उपजाऊ और आर्थिक रूप से समाज की समृद्धि के कारण  कारण यहां संस्कृति के विविध रंग आए। इतिहासकार डीसी गांगुली का लिखते हैं कि ‘मालवा वर्तमान में लगभग 46,760 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में फैला हुआ है। मालवा में ज्वालामुखी उद्गार से बनी काली परत होने के कारण आधारभूत रूप से उपजाऊ है। मालवा का गेंहू दुनिया भर में इस मिटटी के कारन स्वादिस्ट है ....


मा  लवा को अब ऐसा क्या हो गया कि इसकी उपजाऊ जमीन बंजर में बदल रही है। जांच कर्ताओं ने जो नमूने लिए थे उनमें रासायनिक खादों के अत्यधिक इस्तेमाल प्रमुख कारण माना गया है।  पेड़ और जंगल कटने के कारण मिट्टी में प्राकृतिक तरीके से मिलने वाले जैविक अंश खत्म हो गए। मृदा वैज्ञानिक  डॉ. आरए शर्मा का कहना है कि मालवा की मिट्टी में नाइट्रोजन और गंधक जैसे सूक्ष्म तत्वों की भारी कमी है। वैज्ञानिकों के अनुसार अनियमित फसल चक्र, रासायनिक उर्वरकों अधिक इस्तेमाल, अधिक पानी का दोहन, जिसमें ट्यूबबेल लगा कर पानी लेना प्रमुख है। किसानों द्वारा एक ही फसल को बार-बार बोना, जैविक  पदार्थों का खेतों खाद के रूप में इस्तेमाल की परंपरा का बंद होना और परंपरागत खेती से दूर होने के कारण खेतों की मिट्टी उर्वरा क्षमता घट रही है। ये हालात मालवा ही नहीं कई जगहों पर भी पैदा हो रहे हैं। लागत वसूलने के लिए किसान अत्यधिक रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों का इस्तेमाल करने लगा है। ऐसे मामलों में भूमि के दूरगामी प्रभावों के बारे में उसकी जानकारी शून्य है। वह सरकार की नीतियों के तहत उर्वरकों का इस्तेमाल कर रहा है।

इं  दौर कृषि कॉलेज के डीन डॉ. अशोक कृष्ण का कहना है कि किसानों को ज्यादा से ज्यादा गोबर और अन्य जैविक पदार्थों का इस्तेमाल करते हुए मिट्टी की उर्वरता बनाए रखना आवश्यक है। इस मामले में सरकार को भी ध्यान देना चाहिए।  इस मामले में कृषि विभाग और उसके कर्मचारियों को मिल कर पूरे प्रदेश में एक सतर्कता अभियान चलाना चाहिए। किसानों को प्रशिक्षण भी इन हालातो से निबटने में मददगार होंगे।

सोमवार, सितंबर 19, 2011

आतंक से सुरक्षा देने में नाकामयाब सरकार

 

पी चिदंबरम के बयान में लाचारी झलक रही है। अभी उन्हें ये बताना भी संभव नहीं कि इस समय ये बताना संभव नहीं कि इसके पीछे किस गुट का हाथ है।



सा त  सितम्बर की सुबह दिल्ली में आतंकवादियों ने 11 लोगों को मौत के नींद सुला दिया। दिल्ली उच्च न्यायालय के गेट नम्बर पांच में हुए इस विस्फोट में 76 से अधिक लोग घायल हुए हैं। इस विस्फोट की जांच राष्टीय जांच एजेंसी (एनआईए) के सुपुर्द कर दी गई है, जिसमें बीस लोगों की टीम काम कर रही है। एक विशाल देश की राजधानी का दुर्भाग्य है कि उसमें 15 सालों में 17 धमाकों की वारदातें हुई हैं। इनमें दिल्ली करीब 128 नागरिकों खो चुकी है। 350 से अधिक लोग स्थाई रूप से विकलांग हो चुके हैं। धटना के बाद सरकार में बैठे आला मंत्रियों और प्रधानंमत्री ने एक बार फिर गृहमंत्री और प्रधानमंत्री ने अपने भावनात्मक बयानों को दोहरा दिया है। आज देश की जनता इन वारदातों के पीछे नेटवर्क पर की गई कार्यवाही का हिसाब चाहती है। कोई बताने तैयार नहीं है कि आखिर पी चिदम्बरम ने किया क्या। मुंबई के विस्फोटों के घाव ताजा ही थे कि फिर दिल्ली को जख्म उठाना पड़े।
आतंकवादियों द्वारा देश के नागरिकों को हत्या करना सरकार और उस देश की संप्रभुता और स्वतंत्रता पर हमला करना है। ये विस्फोट देश की शांति और अखंडता को बड़ी चुनौती बनते जा रहे हैं। आतंकवादियों का उद्देश्य  सिर्फ हिंसा है और यह भी साफ जाहिर है कि यह षड्यंत्र सरकार और देश के खिलाफ युद्ध है। मुंबई सहित देश में होने वाली आतंकी वारदातों के मद्दे नजर सरकार और सुरक्षा एजेंसियां लगातार दबाव में काम कर रही हैं। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने संकल्प दोहराया है कि ये आतंकवादियों का एक कायरतापूर्ण क़दम है. हम आतंकवाद के दबाव में झुकेंगे नहीं और इसका सामना करेंगे और ये एक लंबी लड़ाई है जिसमें सभी भारतीयों और सभी राजनीतिक दलों को एक साथ खड़ा होना होगा जिससे बढ़ते आतंकवाद को कुचला जा सके। प्रधानमंत्री का ये बयान क्या दोहराव नहीं लगता? वही शब्द वही धैर्य और मिलजुल कर मुकाबला करने की बातें? आखिर कब तक? हम देश को एक संगठित शक्ति और आक्रामकता का विकास कब तक कर पाएंगे? लोग पूछते हैं और बातें करते हैं कि आखिर देश में यह सब क्यों हो रहा है। किसी भी  शह पर हो लेकिन वह देश में क्यों? आज आतंकियों ने यह कह दिया कि अफजल गुरू की फांसी का फैसला रद्द करो?  यह वे क्यों कह सके। हम वोटों और राजनीतिक आत्मविश्वास के बिना कब तक जिएंगे।
 एनआईए प्रमुख एस सी सिन्हा ने मीडिया से बातचीत में कहा कि हूजी के ईमेल संदेश की सत्यता के बारे में कहना जल्दबाजी होगी, हालांकि एजेंसियां ईमेल को गंभीरता से ले रही हैं। यह सवाय यहां भी अनुत्तरित रह जाता है कि आंतक का नेटवर्क हमारी एजेंसियां क्यों नहीं पकड़ पाती हैं।
देश के प्रमुख शहरों मुंबई और दिल्ली में हो रहे धमाकों से सुरक्षा एजेंसियों ने कोई सबक नहीं लिया है। वे आतंक के नेटवर्क को पहचानने और उसे ध्वस्त करने में असफल रही हैं। बार बार हो रहे विस्फोट और हमलों से आतंक के जख्म लोगों में दहशत और असुरक्षा की भावना को स्थाई रूप से अंकित करते जा रहे हैं।  प्रधानमंत्री ने जो भावनात्मक बयान दिया है कि उससे नहीं लगता कि वे आतंक पर कोई बहुत ठोस कार्यवाही करने जा रहे हैं। हम अपने गृह मंत्री की बयानों की पड़ताल करलें। ताकि पता चल सके कि उनके विचार और योजनाएं आतंकवाद पर नर्म और लिजलिजी हैं। गृहमंत्री के बयान में भी लाचारी साफ झलक रही है । वे कहते हैं कि ‘दिल्ली आतंकवादी गुटों के निशाने पर रहा है। खुफिया एजेंसियां पुलिस से जानकारी साझा करती हैं लेकिन इस समय ये बताना संभव नहीं है कि इसके पीछे किस गुट का हाथ है।’ प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और गृह मंत्री पी चिदंबरम ने दिल्ली उच्च न्यायालय के बाहर हुए विस्फोट को आतंकवादी घटना बताते हुए कहा है कि ‘अभी इसके लिए किसी को जिÞम्मेदार ठहराना जल्दबाज़ी होगी।’
दूसरी तरफ बांग्लादेशी आतंकी संगठन हूजी मीडिया को भेजे ईमेल में कहता है, ‘दिल्ली हाईकोर्ट में आज हुए विस्फोट की ज़िम्मेदारी हम लेते हैं...हमारी मांग है कि अफजल गुरु की मौत की सज़ा को तत्काल रद्द किया जाए।’ ये विस्फोट देश के सामने चुनौती हैं। आ  तंक से लड़ने की वर्तमान शैली पूरी तरह से अक्षम साबित हो रही है। हम वारदात को अंजाम देने वाले अपराधियों को खोजने में असमर्थ साबित हो रहे हैं। आवश्यकता है कि इन मामलों को देश के साथ युद्ध और संप्रभुता के हनन से जोड़ा जाए। सरकार के आतंक से लड़ने के कानूनी तरीकों को और आक्रामक, सटीक और व्यस्थित बनाए जाने की दरकार है।

गांधी के उपवास में मोदी की घुसपैठ


अप्रैल 2011 में क्रिकेट टीम विश्व कप लेकर आई थी तब हर खिलाड़ी को एक करोड़ रुपए की राशि दी गई थी।


ए शिया कप विजेता हॉकी खिलाड़ियों को मात्र 25-25 हजार देकर हाकी संघ ने मजाक बनाया था। बाद में हॉकी खिलाड़ियों की तीखी प्रतिक्रिया से घबड़ा कर मामला संभाल लिया गया और सम्मान की राशि बढ़ा दी गई। हॉकी खिलाड़ियों की प्रतिक्रिया सही थी। अप्रैल 2011 में क्रिकेट टीम विश्व कप लेकर आई थी तब हर खिलाड़ी को एक करोड़ रुपए की राशि दी गई थी। लगता है जेंटलमैनों के खेल क्रिकेट ने भारतीयों को पागल बना दिया था। क्रिकेट एक जमाने में अभिजात्य वर्ग का खेल होता था। गुलामी के दौर में जमींदार, बड़े कास्तकार, नवाब, दलाल, व्यापारी आदि बड़े लोग क्रिकेट खेलते थे। आजादी के बाद नजारा बदल गया। क्रिकेट गली गली में खेला जाने लगा। हर भारतीय लगान का क्रिकेटर बन गया। दिन हो या रात हमारे शहरों की गलियां क्रिकेट के बुखार से भरी रहती हैं। क्रिकेट ने महत्वपूर्ण काम किया है। उसने संपूर्ण भारत को एक सूत्र में बांध दिया है। भारतीय क्रिकेट के पीछे अपना सब कुछ छोड़ सकते हैं। भारतीयों की क्रिकेट दीवानगी के लिए एक और कहावत चली है कि क्रिकेट भारतीयों का खेल है, अंग्रेजों से केवल खेलना सीखा है। यही कारण आज बच्चा बच्चा गली गली में लगान क्रिकेट खेल रहा है।
दूसरा पहलू
क्रि क्रेट खेलने, जीतने और हारने के मामले में हमारी आदत क्रिकेट मैनिया की तरह हो चुकी है। क्रिकेट के अलावा देश को, देश के नेताओं को दूसरे खेल दिखाई ही नहीं देते। हॉकी और फुटबाल देश के किस कोने में खेले जाते हैं, खेल मंत्री और मंत्रालय के लोग ही जानते होंगे। एकमात्र क्रिकेट के कारण हमने ओलिंपिक और दूसरी विश्वस्तरीय प्रतियोगिताओं के लिए इन्हें उपेक्षित कर दिया। जिन  ओलिंपिक  खेलों में कभी हम विश्व विजेता रहे आज उनका कोई नाम नहीं लेता। भारत ने हॉकी में 1928 से 1956 तक 6 ओलिंपिक विश्वकप लगातार जीते थे। आज हॉकी के इस इतिहास का कोई नाम लेवा नहीं है। तैराकी,  ऊंचीकूद, जिमनास्टिक,दौड़ जैसे खेलों में हम गिनती लायक ओलिंपिक पदक नहीं जीत सके। खेलों के प्रति हमारे खेल मंत्रालय, संगठनों और नेताओं बनाई नीतियां अदूरदर्शी और गैरजिम्मेदार हैं। भारतीयों ने जो भी ओलिंपिक जीते हैं वे खिलाड़ियों के अपने निजी प्रयास अधिक रहे हैं। हॉकी टीम को पर्याप्त महत्व, सम्मान और प्रोत्साहन इस समय जरूरी है।

को ई भी खेल अपनी खेल भावना से महत्वपूर्ण होता है। खेलों को रुतबे का प्रतीक नहीं बनाया जा सकता। गांव कस्बों में खेल खासकर क्रिकेट खेल संगठन इसी रुतबे का नाम हैं। खेल संगठनों जिम्मेदार व्यक्ति को खेल के प्रति अपनी हार्दिकता से काम करना चाहिए। सभी खेल महत्वपूर्ण हैं और विकास के लिए सभी खेलों को खेल-भावना के अनुसार प्रोत्साहित करने की नीति का पालन जरूरी हो गया है।

बुधवार, सितंबर 14, 2011

देर से मिला न्याय प्रासांगिकता खो देता है

 
मामला राजनीतिक हो या आपराधिक न्याय में देरी
से न्याय खो जाता है।


सुप्रीम कोर्ट ने गोधरा कांड और उसके बाद भड़के दंगे और हिंसा नहीं रोकने के कथित आरोपों पर मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी के खिलाफ कोई फैसला सुनाने से इंकार कर दिया। दंगों के 9 मामलों की जांच कर रहे तीन सदस्यीय विशेष जांच दल ने अपनी जांच रिपोर्ट सुप्रीम कोर्ट में पेश की थी। सुप्रीम कोर्ट ने निचली अदालत को ही इस मामले में फैसला दिए जाने के लिए कह दिया है कि वह नरेंद्र मोदी सहित 63 अधिकारियों के खिलाफ जांच कार्रवाई करने या नहीं करने का फैसला करे।
दस साल गुजर जाने के बाद भी अहसान जाफरी केस पर कोई फैसला नहीं हो सका है। इन दस सालों में कई लोग न्याय के लिए अर्जी लगा कर अपनी जिंदगी से चले गए। उचित न्याय के लिए वर्षों खिंचते कई केस हैं जो फैसले की मंजिल पर नहीं पहुंच सके हैं। न्याय हो और कोई भी ऐसा व्यक्ति सजा न भुगते जिसने अपराध न किया हो। न्याय की यह अवधारणा निरपराध लोगों को अनाधिकृत सजा से बचाती है लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि मामलों को सीमाहीन समय तक खींचा जाता रहे। सुप्रीम कोर्ट ने अगर नरेंद्र मोदी व अन्य का केस मजिस्ट्रेट को वापस किया है तो न्यायालय का विवेक है। इसमें नरेंद्र मोदी और उनके समर्थकों को खुश होने की आवश्यकता नहीं है।

न्याय त्वरित हो और इस उद्देश्य के लिए न्यायालय आवश्यक सुधारों की पहल कर सकता है।


न्या य में यह देरी क्यों? यह एक बड़ा सवाल है। इन दंगों में मरने वाले लोगों के परिजन भटक रहे हैं। न्याय के लिए वैधानिक प्रक्रियाएं इतनी जटिल और पेचीदगी भरी हो गई हैं कि लोगों को न्याय भी न्याय की तरह नहीं लगता। दस साल होने के बाद भी न्याय पालिका अब तक दंगों में हिंसा के अपराध के दोषियों और भागीदारों को देश के सामने नहीं ला सकी। न्याय का एक सिद्धांत है- सौ लोग छूट जाएं पर एक भी निरपराध को सजा न हो। नरेंद्र मोदी को इस केस की जांच में दस साल हो गए हैं। उनका केस फिर दूसरे दुष्चक्र में उलझ गया है। अब फिर मजिस्ट्रेट, हाईकोर्ट की प्रक्रियाओं से गुजरेगा। तब तक शायद नरेंद्र मोदी अपने सार्वजनिक जीवन में न रहें और जाकिया  जाफरी की स्थिति अदालत में खड़े होेने लायक भी न रहे। बोफोर्स केस भी न्याय में देरी का एक उदाहरण है। लेकिन देर का मतलब है कि हम पूरी प्रक्रिया को अपनाते हैं। जल्दबाजी में न्याय के कई पक्ष छूट सकते हैं, जिससे समुचित न्याय प्राप्त नहीं होगा। न्यायालय सभी पक्षों पर विचार करता है। हालांकि मामला कोई भी हो उसमें देरी से प्रासंगिकता खो जाती है। गुजरात केस एक उदाहरण बन रहा है जिसमें देरी के कारण न्याय  खो सकता है।

न्या य के लिए समय सीमा उतनी ही महत्वपूर्ण है जितनी कि जीवन मरण से जूझ रहे व्यक्ति के लिए दवाओं का समय पर मिलना। हजारों मामलों में फैसला आते आते इतनी देर हो जाती है कि वह संबंधित व्यक्ति के लिए अप्रासांगिक हो जाता है। हमें अपनी न्यायिक प्रक्रियाओं को तेज और सक्षम बनाने के प्रयास करने चाहिए। ऐसा न हो कि यह मामला फैसला विहीन ही बंद करना पड़े।

शुक्रवार, सितंबर 09, 2011

स्ट्रीट लाइट Street Light: कोचिंग संस्थान शिक्षा के नए रूप और अध्याय

स्ट्रीट लाइट Street Light: कोचिंग संस्थान शिक्षा के नए रूप और अध्याय

कोचिंग संस्थान शिक्षा के नए रूप और अध्याय

 

भोपाल में पहली आईएएस कोचिंग 1990 में खुली थी और 2009 में इसने आईएसओ 2009 प्रमाण पत्र ले लिया।

म  ध्यप्रदेश सरकार प्रदेश के कोचिंग संस्थानों को कानूनी नियमितता प्रदान करने जा रही है। इस नियमन के लिए सरकार ने एक कमेटी बना दी है। इससे प्रदेश में चल रहे कोचिंग संस्थानों को एक सुनिश्चित मार्गदर्शन मिलेगा। कोचिंग संस्थान शासन की नजरों में बहुत दिनों से थे लेकिन अब सरकार ने कोचिंग संस्थानों में चल रहे शिक्षण प्रशिक्षण को नियमों में बांधने का निश्चय किया है। कोचिंग संस्थानों ने प्रतियोगिता परीक्षाओं और अध्ययन की कठिनइयों के बीच जन्म लिया। आज यह युवाओं की सबसे पहली प्राथमिकता में शामिल हैं। कोचिंग लेकर द्वारा छात्र आत्मविश्वास तो प्राप्त करते ही हैं, संबंधित विषय में कुशलता भी तेजी से प्राप्त करते हैं।
भोपाल में पहली आइएएस कोचिंग 1990 में खुली थी और 2009 में इसने अंतरराष्ट्रीय मानकीकरण आइएसओ 2009 प्रमाणपत्र ले लिया है। इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि कोचिंग संस्थानों के विकास की गति कितनी तेज है। यह विकास समाज में उनके महत्व और आवश्यकताओं को भी बताता है। सरकार प्रदेश के गांव-कस्बों में फैलते कोचिंग संस्थानों का नियमन करके उन्हें एक पंजीकृत संस्था के रूप में देखना चाहती है।
को चिंग संस्थानों को विधायी बंदिशों के तहत लाए जाने का मतलब है कि वे कहीं न कहीं स्वतंत्रता का दुरुपयोग कर रहे थे। कानून भी तभी अस्तित्व में आता है जब किसी संस्थान से शोषण की शिकायतें आती हैं। कानून और नियम बना सरकार कोचिंग संस्थानों से छात्रों के शोषण से मुक्ति मुश्किल है। एक अनुमान के अनुसार 300 करोड़ रुपए से अधिक का कारोबार कर रहे कोचिंग संस्थानों का निजी एवं सरकारी कालेजों के साथ अघोषित, लचीला और मजबूत अनुबंधों का जाल फैला हुआ है। इस कानून से कोचिंग संस्थान सरकार को राजस्व अवश्य देंगे और इस राजस्व का भार संस्थान छात्रों पर ही डालेंगे। सरकार को कोचिंग संस्थानों की कुकुरमुत्ता की तरह गांवों शहरों में आई बाढ़ को हतोत्साहित करने की आवश्यकता है। इस नियमन से संस्थान अपने अनाप-शनाप शुल्क को कानूनी जामा पहना कर वसूल करेंगे। पंद्रह साल पहले कोचिंग  संस्थान में कोई बच्चा इसलिए जाता था कि वह गणित या विज्ञान में कमजोर लेकिन आज कोचिंग छात्रों के बीच स्टेटस सिंबल बन चुके हैं। कोचिंग संस्थान शिक्षा के वास्तविक उद्देश्यों को शार्टकट से पाने का माध्यम बनते जा रहे हैं।

आ  वश्यकता आविष्कार की जननी है। समाज को जिस तरह की आवश्यकताएं होगी, वैसी संस्थाएं जन्म लेंगी। प्रदेश सरकार के कानून का स्वरूप अभी पूरी तरह से सामने नहीं आया है। लेकिन समझा जा रहा है कि इससे छात्रों और अभिभावकों को कई प्रकार की राहतें मिलेंगी। आज प्रदेश में कोई यह नहीं बता सकता कि प्रदेश में कुल कितने कोचिंग संस्थान संचालित हो रहे हैं। यह अराजक स्थिति भी दूर होगी।

बुधवार, सितंबर 07, 2011

आतंक से सुरक्षा देने में नाकामयाब सरकार

 
  पी चिदंबरम के बयान में लाचारी झलक रही है। अभी उन्हें ये बताना भी संभव नहीं कि इस समय ये बताना संभव नहीं कि इसके पीछे किस गुट का हाथ है।

बुधबार की सुबह लोग अदालत में अपने काम से आए हुए थे। वे अन्दर जाने के लिए  पास बनवा रहे थे और अचानक एक विस्फोट  होता है। इस तरह  सात  सितम्बर की सुबह दिल्ली में आतंकवादियों ने 11 लोगों को मौत के नींद सुला दिया। दिल्ली उच्च न्यायालय के गेट नम्बर पांचपर  हुए इस विस्फोट में 76 से अधिक लोग घायल हुए हैं। इस विस्फोट की जांच राष्टÑीय जांच एजेंसी (एनआईए) के सुपुर्द कर दी गई है, जिसमें बीस लोगों की टीम काम कर रही है। एक विशाल देश की राजधानी का दुर्भाग्य है कि उसमें 15 सालों में 17 धमाकों की वारदातें हुई हैं। इनमें दिल्ली करीब 128 नागरिकों खो चुकी है। 350 से अधिक लोग स्थाई रूप से विकलांग हो चुके हैं। धटना के बाद सरकार में बैठे आला मंत्रियों और प्रधानंमत्री ने एक बार फिर गृहमंत्री और प्रधानमंत्री ने अपने भावनात्मक बयानों को दोहरा दिया है। आज देश की जनता इन वारदातों के पीछे नेटवर्क पर की गई कार्यवाही का हिसाब चाहती है। कोई बताने तैयार नहीं है कि आखिर पी चिदम्बरम ने किया क्या। मुंबई के विस्फोटों के घाव ताजा ही थे कि फिर दिल्ली को जख्म उठाना पड़े।
आतंकवादियों द्वारा देश के नागरिकों को हत्या करना सरकार और उस देश की संप्रभुता और स्वतंत्रता पर हमला करना है। ये विस्फोट देश की शांति और अखंडता को बड़ी चुनौती बनते जा रहे हैं। आतंकवादियों का उद्देश्य  सिर्फ हिंसा है और यह भी साफ जाहिर है कि यह षड्यंत्र सरकार और देश के खिलाफ युद्ध है। मुंबई सहित देश में होने वाली आतंकी वारदातों के मद्दे नजर सरकार और सुरक्षा एजेंसियां लगातार दबाव में काम कर रही हैं। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने संकल्प दोहराया है कि ये आतंकवादियों का एक कायरतापूर्ण क़दम है. हम आतंकवाद के दबाव में झुकेंगे नहीं और इसका सामना करेंगे और ये एक लंबी लड़ाई है जिसमें सभी भारतीयों और सभी राजनीतिक दलों को एक साथ खड़ा होना होगा जिससे बढ़ते आतंकवाद को कुचला जा सके। प्रधानमंत्री का ये बयान क्या दोहराव नहीं लगता? वही शब्द वही धैर्य और मिलजुल कर मुकाबला करने की बातें? आखिर कब तक? हम देश को एक संगठित शक्ति और आक्रामकता का विकास कब तक कर पाएंगे? लोग पूछते हैं और बातें करते हैं कि आखिर देश में यह सब क्यों हो रहा है। किसी भी  शह पर हो लेकिन वह देश में क्यों? आज आतंकियों ने यह कह दिया कि अफजल गुरू की फांसी का फैसला रद्द करो?  यह वे क्यों कह सके। हम वोटों और राजनीतिक आत्मविश्वास के बिना कब तक जिएंगे।
 एनआईए प्रमुख एस सी सिन्हा ने मीडिया से बातचीत में कहा कि हूजी के ईमेल संदेश की सत्यता के बारे में कहना जल्दबाजी होगी, हालांकि एजेंसियां ईमेल को गंभीरता से ले रही हैं। यह सवाय यहां भी अनुत्तरित रह जाता है कि आंतक का नेटवर्क हमारी एजेंसियां क्यों नहीं पकड़ पाती हैं।
देश के प्रमुख शहरों मुंबई और दिल्ली में हो रहे धमाकों से सुरक्षा एजेंसियों ने कोई सबक नहीं लिया है। वे आतंक के नेटवर्क को पहचानने और उसे ध्वस्त करने में असफल रही हैं। बार बार हो रहे विस्फोट और हमलों से आतंक के जख्म लोगों में दहशत और असुरक्षा की भावना को स्थाई रूप से अंकित करते जा रहे हैं।  प्रधानमंत्री ने जो भावनात्मक बयान दिया है कि उससे नहीं लगता कि वे आतंक पर कोई बहुत ठोस कार्यवाही करने जा रहे हैं। हम अपने गृह मंत्री की बयानों की पड़ताल करलें। ताकि पता चल सके कि उनके विचार और योजनाएं आतंकवाद पर नर्म और लिजलिजी हैं। गृहमंत्री के बयान में भी लाचारी साफ झलक रही है । वे कहते हैं कि ‘दिल्ली आतंकवादी गुटों के निशाने पर रहा है। खुफिया एजेंसियां पुलिस से जानकारी साझा करती हैं लेकिन इस समय ये बताना संभव नहीं है कि इसके पीछे किस गुट का हाथ है।’ प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और गृह मंत्री पी चिदंबरम ने दिल्ली उच्च न्यायालय के बाहर हुए विस्फोट को आतंकवादी घटना बताते हुए कहा है कि ‘अभी इसके लिए किसी को जिÞम्मेदार ठहराना जल्दबाज़ी होगी।’
दूसरी तरफ बांग्लादेशी आतंकी संगठन हूजी मीडिया को भेजे ईमेल में कहता है, ‘दिल्ली हाईकोर्ट में आज हुए विस्फोट की ज़िम्मेदारी हम लेते हैं...हमारी मांग है कि अफजल गुरु की मौत की सज़ा को तत्काल रद्द किया जाए।’ ये विस्फोट देश के सामने चुनौती हैं। आ  तंक से लड़ने की वर्तमान शैली पूरी तरह से अक्षम साबित हो रही है। हम वारदात को अंजाम देने वाले अपराधियों को खोजने में असमर्थ साबित हो रहे हैं। आवश्यकता है कि इन मामलों को देश के साथ युद्ध और संप्रभुता के हनन से जोड़ा जाए। सरकार के आतंक से लड़ने के कानूनी तरीकों को और आक्रामक, सटीक और व्यस्थित बनाए जाने की दरकार है।

रविवार, सितंबर 04, 2011

मंदी का गुब्बारा

 

रवीन्द्र स्वप्निल प्रजापति
भारत की आर्थिक विकास दर को लेकर दुनिया अक्सर चिंतित हो रही है। हाल ही के दिनों में इसका 8.8 से गिर कर 7.7 प्रतिशत हो गया है।  पिछले साल की इसी पहली तिमाही यानी अप्रैल मई और जून 2011 की सकल घरेलु उत्पाद (जीडीपी) वृद्वि दर में 1.1 प्रतिशत का अंतर आ गया है।  2010 में इसी समयावधि में यह दर 8.8 प्रतिशत थी। जीडीपी आधुनिक दुनिया में आर्थिक विकास का पैमाना है। इस पैमाने पर ही दुनिया के अर्थ शास्त्री किसी देश का विकास और जीवन स्तर का आकलन करते हैं। हालांकि इस तरह की विकास दरों को खारिज भी किया है। वैश्विक अर्थ व्यवस्थाओं का विकास एक दूसरे पर आश्रित है, इसलिए किसी बड़ी देश की अर्थ व्यवस्था में उतार-चढ़ाव से अन्य देश भी प्रभावित होते हैं। अमेरिकी अर्थ व्यवस्था से जुड़े देशों पर इसके प्रभाव साफ देखे गए हैं। भारत को एक प्रतिशत की सुस्ती से चिंतित होने की जगह अपनी अर्थ व्यवस्था में कृषि, घरेलू उद्योग और बचत को मजबूत करना जरूरी है। दवा उद्योग में भारत तीसरा सबसे बड़ा निर्यातक देश है। दवा कारोबार एक लाख करोड़ से ऊपर जा रहा है। कृषि उत्पादन में 3.9 प्रतिशत की बढ़ौतरी दर्ज की गई है। इसी प्रकार सेवा क्षेत्र भी इस सुस्ती से अछूता रहा है। सेवा क्षेत्र जिसमें बीमा, रियल एस्टेट, होटल, परिवहन एवं संचार शामिल हैं। इनमें वृद्धि दर 12.8 प्रतिशत रही है। गांवों में आर्थिक गतिविधियों के चलते पिछले पांच सालों में 2 करोड़ 77 लाख अतिरिक्त रोजगार सृजित किए गए हैं। रिजर्व बैंक ने आशा व्यक्त की है कि आने वाली तिमाहियों में जीडीपी 8 प्रतिशत रहेगी।
इन तीन माहों में वृद्धि दर में 1.1 प्रतिशत की गिरावट से चिंता स्वभाविक है। विनिर्माण क्षेत्र में वस्तुओं के उत्पादन में गिरावट आ रही है। 2010 की इसी तिमाही में यह वृद्धि 10.6 प्रतिशत थी जो कि इस समय घट कर 7.2 प्रतिशत रह गई है। खनन क्षेत्र में भी वृद्धि दर 1.8 प्रतिशत ही रही। 2010 में खनन क्षेत्र की वृद्धि दर 7 के आसपास थी। आर्थिक विश्लेषकों के अनुसार देश में भारी लागत वाली परियोजनाओं में विलम्ब के कारण यह गिरावट दर्ज की गई है। आटोमोटिव कलपुर्जा विनिर्माण संगठन ने गिरावट के रुझान वाले आंकड़ों पर चिंता जताई है। 2010 में यह उद्योग 34 प्रतिशत की दर से बढ़ा लेकिन 2011 की पहली तिमाही में12 प्रतिशत ही है। इससे औद्योगिक क्षेत्र बुरी तरह प्रभावित हो सकता है। जनवरी से जुलाई के आंकड़ों के अनुसार चाय निर्यात में 17.8 प्रतिशत की गिरावट दर्ज की है। आर्थिक सुस्ती के ये आंकड़े देश की अर्थ व्यवस्था में आने वाले निराशाजनक परिदृश्य के संकेत हैं।
बाबा रामदेव का कहना है कि यह जीडीपी का मतलब किसानों और मजदूरों के लिए कोई मायने नहीं रखता है। हमारी जीडीपी कैसे बढ़ रही है इसका एक उदाहरण है। अगर आप किसी चीज को खरीदते हैं और फिर बेचते हैं। इसमें जो मुनाफा होगा वह जीडीपी को बढ़ाता है, इसमें उत्पादन की बढौतरी नहीं होती। इसमें आपका अन्न भंडार नहीं बढ़ता। फसलों को उत्पादन नहीं बढ़ता। इस तरह के विकास की वकालत आधुनिक अर्थ शास्त्री और अमेरिकी समर्थक करते रहे हैं। धीरे धीर मंदी का यह गुब्बारा मंदी का एक चक्र लेकर आता है। क्योंकि जीडीपी निरंतर फूलने वाली चीज है। यह फूलती रहती है और एक दिन पूंजीवाद की यह प्रक्रिया दुनिया की अर्थ व्यवस्थाओं के सामने एक गुब्बारा बन कर फट जाती है। जीडीपी का यह खेल मंदी का गुब्बारे के रूप में कई देशों की हालत खराब कर देता है। अमेरिकी मंदी इसी का नतीजा है।
भारत की स्थिति अमेरिका से प्रभावित रही है। 1 प्रतिशत की गिरावट से मंदी देश के वित्तमंत्री प्रणव मुखर्जी निराश हो जाते हैं। उनका इस तिमाही पर उनका ब्याह कि उन्होंने भी विकास की गति को निराशजनक करार दिया है।
यह सच है कि अर्थ व्यवस्थाएं वैश्विक नेटवर्क से जुड़ चुकी हैं। अब वे एक दूसरे से प्रभावित होती हैं। वैश्विक अर्थ व्यवस्था होने के साथ हमें अपनी अर्थ व्यवस्था के फंडामेंटल्स जैसे कृषि, घरेलू बचत और देश के अंदर व्यापार को मजबूती से स्थापित करना आवश्यक है। कर्ज पर आधारित अर्थ व्यवस्थाएं जल्दी ढहती हैं। हमें आर्थिक विकास का लचीला ढांचा विकसित करने पर जोर दिया जाना चाहिए, जिसमें आर्थिक उतार-चढ़ावों को सहने की क्षमता हो। भारत की वर्तमान स्थिति इस मायने में ठीक है। यहां के लोगों की आर्थिक बचत और जोड़ कर रखने की प्रवृत्ति ने देश को मंदियों से बचाया है।