सोमवार, जून 28, 2010

http://www.poemhunter.com/poem/kiss-68/

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विकास का मतलब महंगाई क्यों हुआ

आज सरकार जिन फैसलों पर अमल कर रही है, क्या उसमें जनता के हितों का ध्यान रखा गया है...


पेट्रोल, डीजल के साथ रसोई गैस के दाम बढ़ने से किसी तरह जीवन गुजारने वाले गरीब और दैनिक वेतन भोगी ही नहीं बल्कि सामान्य सी हैसियत वाले परिवारों वाला एक तबका स्तब्ध है। इस समय महंगाई अपने चरम पर है। ऐसे में तेल कंपनियों का घाटा खत्म करने की सरकारी चिंता अचंभे में डालती है। कुछ दिन से समाचार पत्रों के माध्यम से सरकार संभावित मूल्य वृद्धि की खबरें हवा में तैर रही थीं। जो कि शनिवार को सामने आ गर्इं और जनता को पता चल गया कि क्या-क्या कितना महंगा हुआ है।
 भारत के लोकतांत्रिक ढांचे में विश्व व्यापार पर आधारित आर्थिक तंत्र का प्रवेश हो चुका है। सरकार भी इस व्यवस्था का जमकर समर्थन कर रही है। यह पूरी व्यवस्था निजीकरण और विश्व अर्थव्यवस्था पर केंद्रित रही है। विश्व व्यापार पर आधारित अर्थ व्यवस्था में सबसे अधिक हनन लोक कल्याणकारी राज्य की अवधारणा का हो रहा है। निजीकरण को सरकार संरक्षण और प्रोत्साहन तो पिछले कुछ सालों से लगातार मिल रहा था। यह मंदी के आने पर और अधिक मुखर हो गया है। अरबों रुपए के राहत पैकेज जारी किए गए। इन सबका लाभ देश के व्यापक जन समूह तक पहुंचाने की सरकार की कोई इच्छा शक्ति  दिखाई नहीं देती। इस जनसमूह में देश की लगभग 60 प्रतिशत जनता है जो मामूली से रोजगार, छोटे उद्योगों, कुटीर उद्योगोें,  कृषि मजदूर और रोज काम करके पेट भरने वालों से बना है। ये जन समूह देश के गांवों और कस्बों में रहता है। मंदी में दिया गया सारा पैसा कंपनियों के अपने लाभ के खाते में गया, लेकिन जिन फैसलों से सामान्य जनता राहत मिले उन पर विचार करने के लिए सरकार और उसके मंत्रियों के पास समय ही नहीं है। आज सरकार जिन फैसलों पर अमल कर रही है, क्या उनकी रजामंदी इन लोकतांत्रिक सरकारों ने अपनी जनता से ली है। क्या उसे अपने फै सलों में शामिल किया है। लगता है देश कंपनियां ही चलाने लगी हैं। और जिन जनप्रतिनिधियों से मिलकर सरकार बनी है, उसमें सार्वजनिक जीवन की मजबूरियां समझने की क्षमता जैसे खो गई है। जबकि सरकार को सबसे ज्यादा चिंता आम जनता की ही होनी चाहिए।

ravindra swapnil prajapati

बुधवार, जून 23, 2010

  पर्यावरण पर कुछ काव्य भाव 
-रविन्द्र स्वप्निल प्रजापति

मैं एक पेड़ हूं मुझे डराओ मत
उगने दो मैं तुम्हें छांव और फल दूंगा

...

हवाएं मेरी प्रेमिकाएं हैं
वे मुझमें सरसराती हैं
तुम भी सरसराओ मनुज
मेरी छांव में आओ

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मैं नदी हूँ  और वक्त की  हथेली पर बहती हूं
मुझे मिटाया तो जिंदगी की रेखा भी मिटेगी

...

ओ बादल तुम धरती के प्यार हो
अपना प्यार बरसाओ मैं पुकारता हूं

...

बादल बरसो तुम धरती के प्यार हो
मैं तुम्हें पुकारता हूं ...


...

धरती को मुस्कुराना आता है
वो मुस्कुराती है
दुनिया में कोई फूल खिलता है
देखो एक फूल खिला है

...

हम तुम्हारे सहचर हैं ओ धरती के मालिक
तुम ये मत सोचो कि जंगल सर्फ तुम्हारे हैं

...

हरियाली धरती का आंचल है
आओ फूलों के सितारे टांकें
...

हवाएं सांसों में ही नहीं बसतीं
तूफान भी उन्हीं से जन्म लेते हैं
...

वक्त अपनी पहचान पेड़ों में रख गया है
लौट के आएगा अपनी पहचान पूछेगा

....

ओ मनुष्य तुम्हारी हर निर्माण
हवा-पानी के बिना अधूरा है
...

मत भूलो कि सभ्यताएं पानी ने नष्ट की हैं
हवाओं के बेटे तूफान ही मिट्टी में मिलाते हैं

...

मैं हरियाली हूं ,सभ्यताओं की प्रेमिका
जब रूठती हूं तो रेगिस्तान आते हैं

...

डर लगता है ये पेड़ कल रहे न रहे

 

उर्मिला शिरीष से बातचीत पर आधारित


मेरी चिंता डर में बदल गई है। मैं अक्सर आते जाते किसी पेड़ को देखती हूं और सोचती हूं कि कहीं यह कल न दिखा तो। कहीं यह कट गया तो... कब यह दिखना बंद हो जाएगा पता नहीं...।  लेकिन मुझे आशा है कि जल्दी ही हम अपने परिवेश और पर्यावरण के बीच पौधों
को इस डर से मुक्त कर लेंगे।


.......
पर्यावरण का मतलब हरियाली नहीं है जो कि कभी होता था। अब पर्यावरण का मतलब है कि आसपास उजाड़ जंगल, सूखी, गंदी नदियां। प्रदूषित वायु, गंदा पानी ये सब पर्यावरण के अर्थ की तरह हो गए हैं। आज पर्यावरण को कानून की आवश्यकता है। पर्यावरण का मतलब है कि पेड़ काटे जाना बंद होना चाहिए। पर्यावरण की रक्षा के लिए विकास के नाम पर प्रकृति की बरबादी कानूनन बंद हो जाना चाहिए। सबसे अधिक विकास के नाम पर पेड़ों की कटाई हो रही है। कई तरीके से लोग प्रकृति को बरबाद करने पर तुले हुए हैं। हम सब इसके लिए जिम्मेदार हैं। हमें प्रकृति के साथ रहना ही नहीं आया। हम जो कुछ कर रहे हैं वह प्रकृति पर अत्याचार की तरह है।
 चारों तरफ विकास के नाम पर पेड़ काटे जा रहे हैं। चाहे सड़क चौड़ी करना हो या फिर कोई नई कालोनी बसाना हो। पेड़ और प्रकृति का परिवेश ही उजड़ता है। यही कारण है कि वन्य जीवों के प्राकृतिक रहवास नष्ट हो रहे हैं। उन्हें नदियों और जंगलों से उजाड़ कर हम अपनी कालोनियां, कारखाने, उद्योग लगाए जा रहे हैं। अब वे इंसानी बस्तियों की ओर पानी और भोजन की तलाश में मरने चले आते हैं। गांव और शहरों के लोग समान रूप से निरीह और खतरों से अनजान जानवरों को निर्दयता से मारने दौड़ते हैं या मार डालते हैं। बस्ती में आना जानवर की मजबूरी है, जिसे मनुष्य ने ही पैदा किया है। क्या कारण है कि जानवरों के लिए बहने वाली नदियां सूख गर्इं। उनके रहने के स्थान को नष्ट कर खेतों में बदल दिया गया। इस सबका क्या अर्थ होगा, जब मौसम ही आपका साथ नहीं देगा, तब क्या जीवन होगा मनुष्य का? हवाओं के बीच भी रहना मुश्किल हो जाए और पीने का पानी भी नसीब न हो।
पेड़ों को काटना गैर जमानती आपराधिक कृत्य में शामिल किया जाना जरूरी है। एक पेड़ के साथ कई चीजें अपने आप ही सामने आती हैं। जहां पेड़ न हों वहां मकान बनाने की अनुमति नहीं देना चाहिए। किसी समय भोपाल सघनता से हरा-भरा था लेकिन आज उसकी हरियाली पर संकट है। चीखते सब हैं पर वास्तविक धरातल पर कोई सामने नहीं आता। हर मकान के साथ कुछ पेड़ लगाने का नियम अनिवार्य होना चाहिए। जिस किसी खेत में पेड़ हों उस किसान को बैंक ऋणों के मिलने में आसानी होना चाहिए। इस तरह के प्रयासों के अलावा हमें जंगलों की सुरक्षा के उपाय भी करने होंगे। जंगल बचेगा तभी तो हमारे लिए ऐसा मौसम बचेगा जो मनुष्य को पर्यावरणीय संकटों से बचाएगा।
हमारी सरकारों का रवैया घोषणाओं का अधिक होता है। वे सिर्फ घोषणाएं करती हैं और धरातल पर क्या हो रहा है कितना अमल हो रहा है उसे देखने की किसी को फुरसत नहीं है। बीते वर्षों में लाखों वृक्ष रोपे गए, लेकिन वे कहां हैं? उनका रख रखाव नहीं होता। उनकी देखभाल नहीं होती। उनको समय पर पानी नहीं मिलता। अप्रशिक्षित लोगों के हाथों में पौधरोपण सौंप कर हम जिम्मेदारी पूरी समझ लेते हैं। अब पर्यावरण एक व्यापक समस्या बन चुकी है तो समाज के अन्य लोगों की जिम्मेदारी बढ़ जाती है। हमें अपने परिवेश में पेड़ों, जंगलों, नदियों की वैसी ही देखभाल करना होगी जैसी हम अपने बच्चों की करते हैं।
पर्यावरण के लिए मेरी चिंता एक डर में बदल गई है। मैं अक्सर आते जाते पेड़ों को देखती हूं और सोचती हूं कि कहीं यह पेड़ कल न दिखा तो। कहीं यह कट गया तो... कब यह दिखना बंद हो जाएगा, पता नहीं...। मुझे आशा है कि जल्दी ही हम अपने परिवेश और पर्यावरण के बीच जंगलों को इस डर से मुक्त कर लेंगे और धरती फिर हरियाली से भर जाएगी।

रविवार, जून 20, 2010

 
हमारी नीतियों का बायप्रोडक्ट है पर्यावरण समस्या
भगवत रावत 
 विचारक एवं कवि
 रवीन्द्र स्वप्निल प्रजापित से बातचीत पर आधारित

पर्यावरण विनाश पूंजीवादी संस्कृति है। यह लेखक कवि या दुकानदार की निजी समस्या नहीं है। यह एक व्यापक समस्या है। यह दस पेड़ लगाने की समस्या नहीं है। ऐसा नहीं है कि केवल दस पेड़ लगा कर पर्यावरण को ठीक किया जा सकता है। एक व्यक्ति पेड़ लगाए यह अच्छी बात है लेकिन इससे पर्यावरण की क्षतिपूर्ति का संबंध जोड़ना उचित नहीं है।



पर्यावरण कोई अलग समस्या नहीं है जिसे अलग से हल किया जाए। यह तो हमारे फैसलों और नीतियों का बाई प्रोडक्ट है। पर्यावरण विनाश पूंजीवादी संस्कृति है। यह किसी व्यक्ति की निजी समस्या नहीं है। यह एक व्यापक और ग्लोबल समस्या है। यह दस पेड़ लगाने की समस्या नहीं है। हां, एक व्यक्ति पेड़ लगाए यह अच्छी बात है लेकिन इससे पर्यावरण की क्षतिपूर्ति का संबंध जोड़ना उचित नहीं है। लोग पेड़ वैसे भी लगाते ही हंै। आप देखो जहां कोई बस्ती होती है वहां कुछ पेड़ अवश्य ही लगाए जाते हैं, लेकिन यह पर्यावरण जैसे व्यापक शब्द के लिए पर्याप्त नहीं होता। पर्यावरण एक विशाल अर्थ वाला शब्द है जिसे आप दस पांच पेड़ों से तय नहीं कर सकते।
इसके लिए हमें सरकारी नीतियों को सुधारने की आवश्कता है। जब विशाल फैक्ट्रियां और कारखाने लगते हैं तब पर्यावरण की चिंता की बात करना चाहिए। सरकार इन फैक्ट्रियों को अनुमति देते समय पर्यावरण के लिए जो शर्तें रखती है वे कहां पूरी होती हैं। अब समय है हमने जो शर्तें रखी हैं वे और कड़ी हों। उनका पालन सुनिश्चित होना चाहिए। अक्सर होता ये है कि कोई बड़ा उद्योगपति शर्तें मानने की हां तो भर देता है लेकिन करता वही है जो उसे करना होता है। वह प्रदूषण फैलाता है और पर्यावरण को बरबाद करता है। आखिर में वही फैक्ट्री नदियों और हवाओं को गंदा करती है। पानी में जहर घोलती है। दूर न भी जाएं तो भोपाल के आसपास तमाम कारखाने, फैक्ट्रियां आसपास की नदियों को बरबाद कर चुके हैं। जिन नदियों में कभी साल भर पानी रहता था वहां अब गंदगी है। उनमें बरसात के बाद पानी सूख जाता है। एक नदी के सूखने से जो नुकसान होता है, उसकी क्षतिपूर्ति का आंकलन कौन कर रहा है?
ऐसा नहीं है कि व्यवस्था हो नहीं सकती। हो सकती है और इसके लिए जिम्मेदार  लोगों को आगे आना चाहिए।
अब ऐसा भी नहीं है कि जो सुविधाएं समाज ने प्राप्त कर ली हैं तो वह उन्हें छोड़ दे। हम आधुनिकता विरोधी नहीं हैं कि जंगल में चले जाएं। लेकिन मकान और फैक्ट्री बनाने के जो मानक तय हैं जैसे कि रेनवाटर हार्वेस्टिंग, उसका कितना पालन हो रहा है। कितनी फैक्ट्रियों में यह लागू हो रहा है। कितने घरों की अनुमति देते समय यह सुनिश्चित किया जा रहा है। तो आपको यह सब देखना पड़ेगा। यह आज समझ में आ रहा है कि पानी बचाना है। आज भी इस नियम को लागू नहीं करने के मामले में सबसे अधिक पूंजीपति वर्ग जिम्मेदार है। यही सबसे अधिक पानी बरबाद करता है।
कहा जा रहा है कि कविता में, लेखन में प्रकृति खो गई है। प्रकृति बची ही नहीं है तो आएगी कहां से। आज किसी कवि को नीलकंठ नहीं दिखता तो वह कैसे उसे लिख पाएगा। चिड़ियां नहीं दिखाई देतीं। उनकी बोली बच्चों को याद नहीं है। किसी समय हम स्कूल जाते थे तो रास्ते में मोर दिखाई देते थे। लौटते थे तो नदी के पानी से नहा कर घर पहुंचते थे। आज वे सारी नदियां सूखी पड़ी हैं। उनका प्रवाह शांत हो चुका है। पेड़ों की घनी छांव जो सहज ही उपलब्ध होती थी गायब है। जंगल नहीं दिखाई देते। ये सब गायब हो रहे हैं। न जमीन पर हैं न उपन्यास और कविता में हैं। अब तो गंगा का बहना भी थम रहा है। कुछ दिनों में, अगर हम नहीं संभल सके तो बच्चों को ये भी पता नहीं होगा कि नदी बहती कैसे थी। उसका प्रवाह क्या होता था। बच्चे नदी के परिवेश और उसके जल की वास्तविक अनुभूति से वंचित हो जाएंगे। बच्चों को समझाना पड़ेगा कि नदी ऐसे बहती थी।
मेरा कहना है कि पर्यावरण की समस्या को व्यक्ति की समस्या बना कर पेश किया जा रहा है। यह समूह की समस्या है। यह पूंजीवाद की समस्या है। पूंजीवादी सभ्यता का विकास निजीकरण को बढ़ावा देता है। निजीकरण दोहन करता है, वह प्रकृति और इंसानों का निर्ममता से शोषण करता है। कुछ साल पहले छत्तीसगढ़ में बहुत अधिक हरियाली थी और नदियों में स्वच्छ जल बहता था। नदियों में जल का साफ सुथरा बहना ही पर्यावरण है। अब जगदलपुर से आगे लोहे के तमाम उद्योगों ने हरियाली को नष्ट कर दिया है। नदियों के प्रवाह को छीन लिया है। उनकी स्वच्छता  छीन ली है। कुछ महीनों पहले मेरा वहां जाना हुआ था। उन नदियों के पानी का रंग बेहद खराब हो चुका है। उसका न पीने के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है और न खेतों में उसका उपयोग है। इसे कंट्रोल करना पड़ेगा। किसी पूंजीपति के लाभ की कीमत पर जिंदगी और उसका पर्यावरण दांव पर नहीं लगाया जा सकता। लाभ और मौत में कोई फर्क तो करना ही होगा हमें। तो ऐसा है, यह बड़ा काम है, किसी व्यक्ति का नहीं है। सरकारों का अधिक है।

हम अहंकारी नजरिये से सोचते हैं

  पर्यावरण स्पेशल

जैसा उन्होंने रवीन्द्र स्वप्निल प्रजापति को बताया
प र्यावरण के प्रति मनुष्य का नजरिया थोड़ा अलग हो रहा है। उसमें अहंकार की बू आती है। वर्तमान में मनुष्य समाज की सोच है कि सब कुछ प्रकृति का तापमान, हवा, तूफान-उसकी सोच और सुविधा के अनुसार चलें। तो ऐसा किसी भी तरीके से संभव नहीं है। इंसान ने पहले तो खुद ही प्रकृति के परिवर्तन के नियम में खलल डाला। अब वह रो रहा है कि प्रकृति का संतुलन खराब हो रहा है। नदियां सूख गई हैं। ये हो गया है, वो हो गया है। इस बात पर कोई नहीं सोचता कि आखिर जो हो रहा है वह क्यों हो रहा है? उसके पीछे कारण क्या हैं? अगर हम प्रकृति के असंतुलित होने के कारणों पर जाएं तो हम ही सबसे अधिक दोषी पाए जाएंगे।
हाल ही में मैं एक विदेशी लेखक का आर्टिकल पढ़ रहा था। उसने कुछ बहुत ही मौलिक तरीके से प्रकृति और पर्यावरण को समझने का प्रयास किया है। उसने पूरे समाज की बनावट पर ही प्रश्न खड़ा किया। उसने अपने आलेख में स्थापित किया कि पर्यावरण और प्रकृति का जो स्वभाव है, वह स्थिरता का नहीं है। उसे आप टेक्निकली फिक्स डाटा में सहेज कर नहीं रख सकते। वह कहना चाहता है कि प्रकृति को गणित से नहीं समझा जा सकता। उसकी अपनी गति है, उसके अपने रंग हैं। प्रकृति अपनी हवाओं को दोहराती नहीं है। उनके  चलने का अलग ही अंदाज हैं। प्रकृति का स्वभाव ही परिवर्तन है लेकिन इंसान ने गड़बड़ की है। यह पिछले दो तीन सौ सालों से लगातार जारी है, जब से उसने डाटा एकत्रित करना प्रारंभ किया है। इसके बाद से ही वह तापमान ज्यादा हो गया, कम हो गया का रोना रोने लगा है। प्रकृति में होने वाले परिवर्तन ही हमारे लिए वरदान हैं। तापमान कम या ज्यादा होना प्रकृति का हिस्सा है। उसका इंसान ने जो चार्ट बना लिया है, उसका प्रकृति से कोई मतलब नहीं है। हमने विकास के नाम पर एक चार्ट बना लिया है। एक मौसम का नक्शा बना लिया है। नक्शों से प्रकृति नहीं चलेगी।
 मनुष्य ने प्रकृति के कामों में अनावश्यक हस्तक्षेप किया। वह चाहे नदी हो या पहाड़ सब जगह हस्तक्षेप किया है- बांधों के माध्यम से, जंगलों को उजाड़ कर, हवाओं में अनावश्यक गैसें छोड़ कर। प्रदूषण का मतलब है कि हमने वह काम किए हैं जो नेचर के व्यवहार से मैच नहीं करते। हमने यह सोचा ही नहीं कि हमारे कामों से प्रकृति की निरंतरता में कितना परिवर्तन आएगा। जब तापमान बढ़ रहा है, मौसम अनियंत्रित हो रहा है और हमें तकलीफ होने लगी है तो हमें समझ आने लगा।
महत्वपूर्ण है कि हम प्रकृति से अपने रिश्तों को समझें। हम प्रकृति से खुद को अलग नहीं मानें। हमें प्रकृति से बहु उद्देशीय होना सीखना ही होगा। आज जिस तरह का विकास का माडल है उसमें प्रकृति के दृष्टिकोण से कोई फैसला नहीं होता। अब अगर कोई बंजर जमीन पड़ी है तो वह हमारे टाउन एंड कंट्री प्लानिंग वालों के लिए या एक इंजीनियर या एक बिल्डर के लिए फालतू है। लेकिन व्यापक दृष्टिकोण से सोचें तो वह फालतू नहीं है। प्रकृति के लिए वह बंजर फालतू नहीं है। वह प्रकृति का हिस्सा है जिसे हम यूं ही खत्म करते चले जा रहे हैं। हमें शहरों और बड़ी बस्तियों के बीच इस तरह की जमीनों का, पेड़ पौधों का अस्तित्व बचाए रखना चाहिए। वह बंजर जमीन कई प्रकार के जीव जन्तुओं का आसरा होती है जिसे हम नहीं देखते हैं।
मेरे ख्याल से हमें प्रकृति की चीजों के बहुतेरे उपयोग करना चाहिए। नए आर्कीटेक्चरल दृष्टिकोण की आवश्यकता है। यह नहीं चलेगा कि एक मैदान है तो उस पर सिर्फ क्रिकेट या फुटबाल हो, हमें वे सब इस तरह से बनाना होंगे कि उनके कई तरह से इस्तेमाल हो सकें। कभी वहां रैली हो, कभी वहां रावण जले। इस प्रकार खाली जमीनों का इस्तेमाल होना चाहिए। भवनों और सड़कों को भी इस तरह से भविष्य में डिजाइन किया जाना आवश्यक होगा। शहरों में खाली पड़े मैदानों को, पेड़-पौधों को कई उद्देश्यों के लिए इस्तेमाल करना चाहिए।  प्रकृति का अपना एक तरीका है, जिसे हम अपना सकते हैं और पर्यावरण को बहुत कुछ नया दे सकते हैं।


देवीलाल पाटीदार

--
Ravindra Swapnil Prajapati
sub editor
Peoples Samachar
6, Malviye Nagar, Bhopal MP

blog: http://ravindraswapnil.blogspot.com

शनिवार, जून 19, 2010

जो दिख रहा है वह सब कला है

 

बीमार शेर जिस तरह से शिकार नहीं कर पाता उसी तरह से बीमार कलाकार कलाकृति की रचना नहीं कर पाता। कला के लिए जीवन को बीमारी से बचाना जरूरी है। जीवन की बीमारियां हैं चापलूसी, रिश्वत, बेईमान होना एक कलाकार तभी बनता है जब वह तप्त हो। उसके पास एक आग हो। वरना वह साधारण होकर बुझ जाता है।

प्रख्यात चित्रकार अखिलेश से रवीन्द्र स्वप्निल प्रजापति की बातचीत
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 कला कहां कहां है? कला में देखने का क्या महत्व है?
चित्रकला की बात करें तो इसमें देखना ही होता है। यह चाक्षुष कला है। पेंटिंग में देखने के बाद भाव का स्थान आता है। पेंटिंग में देखना एक व्यक्तिगत क्रिया है। हर कलाकार और देखने वाला इसे अपनी तरह से देखता है। एक कलाकृति देखने को जाग्रत करती है। देखने से यह जाग्रति स्मृति तक जाती है।
अच्छी कलाकृति बड़े समूह की स्मृति और देखने को एक साथ जाग्रत करती है। कला सब जगह है। वह कोई कलाकार के पास नहीं होती। वह सड़क, गली, मित्रों और जो कुछ दिखाई दे रहा है वहां वहां व्याप्त है।

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एक कलाकार के देखने और एक साधारण व्यक्ति के देखने में क्या फर्क है?

एक कलाकार का देखना उतना ही साधारण होता है जितना कि कोई साधारण व्यक्ति देखता है। लेकिन कलाकार के पास एक सजगता होती है। जब कोई कलाकार चीजÞ देखता है तो उसके पास एक सजगता होती है। वह उसके रंग उसके, आकार, उसके भाव से एक तादात्म बनाता है। साधारण व्यक्ति का देखने में सजगता नहीं होती। वह उसके रंग, रूप से स्मृति की तलाश नहीं करता। वह देखता है और आगे चला जाता है। कलाकार का देखना संबंध स्थापित करने की तरह होता है।
कलाकार देखता है तो चीजों के रंगों को देखता है। खाने पीने की चीजों के स्वाद के साथ रंग और आकारों को भी देखता है।
बचपन में बच्चा कई आकृतियां देखता है, लेकिन धीरे-धीरे वह उनसे अपने रिश्ते भूल जाता है। उसका भूलना उसकी कला से विमुखता की तरह की एक प्रक्रिया होती है। जब वही बच्चा बड़े होकर किसी कलाकृति को देखता है तो उसे अपनी स्मृति वापस मिलती है। कला में देखना और फिर उसे वापस पाना एक अनोखी चीज होती है।
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बाजार और कला का क्या रिश्ता है?
बाजार और कला का रिश्ता हमेशा से संग साथ रहा है। कला का बाजार ही उसके महत्व को निधार्रित करने में एक भूमिका निभाता है। कला अपने आप में मूल्यवान होती है लेकिन बाजार उसे एक प्राइस देता है।
यह भी है कि बाजार कभी भी कला पर हावी नहीं रहा है। कलाकार पर हावी नहीं रहा। अगर होता है तो वह नुकसानदेह होता है। किसी कलाकृति का बाजार होना उस कलाकृति की ताकत है।

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आज की कला प्रवृत्तियों के बारे में क्या कहना चाहेंगे?

आज की कला प्रवृत्ति संयोजन की अधिक है। संयोजन में काम अधिक हो रहा है। कलाकार कई तरह से इसे अभिव्यक्ति देना चाहते हैं। इसलिए युवा कलाकार अपनी कला में एक साथ कई चीजों का प्रयोग करते हुए अपनी कला को प्रदर्शित करते हैँ। इसमें देश के ही नहीं विदेश के लोग भी हैं।
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कला के बेसिक क्या हैं? इनके बिना कोई कला की परंपरा संभव है?

कला के आधार कभी नहीं बदलते। जैसे कि लेखक के पास कवि के पास शब्द तो उतने ही होते हैं लेकिन हजारों लेखक उनसे कुछ अलग अलग ही लिखते हैं। वाक्य भी वैसे ही बनते हैं। प्रक्रिया एक ही होती है। लेकिन उनका प्रयोग बदल जाता है। यही चीज पेंटिंग में और दूसरी कलाओं में है।

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जीवन का कला से क्या रिश्ता है?
संबंध गहरा है। कला का जीवन से संबंध बहुत गहरा है। अगर आपके पास जीवन नहीं होगा तो आप किसी तरह की रचना नहीं कर पाएंगे। कहने का मतलब बीमार शेर जिस तरह से शिकार नहीं कर पाता उसी तरह से बीमार कलाकार कलाकृति की रचना नहीं कर पाता। कला के लिए जीवन को बीमारी से बचाना जरूरी है। जीवन की बीमारियां हैं चापलूसी, रिश्वत, बेईमान होना एक कलाकार तभी बनता है जब वह तप्त हो। उसके पास एक आग हो। वरना वह साधारण होकर बुझ जाता है। कलाकार चित्रकारी करे या कविता लिखे या संगीत रचना करे, अगर उसके जीवन में सच नहीं होगा तो वह कलाकृति की रचना नहीं कर पाएगा। हमने समाज में कई प्रतिभाशाली लोगों को इन बीमारियों से गृसित होगर मरते देखा है।
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कला में प्रभावित होना क्या है? क्या कोई कलाकार प्रभावित हुए बिना सृजन कर सकता है?

कतई नहीं। जो कलाकार प्रभावित होने से इंकार करता है वह संवादहीन होता है। प्रभावित नहीं होने की बात कह कर आप एक खास तरह का झूठ ही बोलते हैं।
जब आप प्रभावित होते हैं तो आप अपनी पूरी परंपरा से जुड़ते हैं। इस प्रकार बगैर प्रभावित हुए आप अच्छे चित्रकार नहीं हो सकते। 
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मध्यप्रदेश में कला का परिवेश कैसा है? आप क्या संभावनाएं देखते हैं?

युवा लगातार अच्छा काम कर रहे हैं। उन्हें सीधी राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय पहचान मिल रही है। इंटरनेट की सुविधा से यह काम आसान हो गया है। भोपाल के ही युवा कलाकार गोविन्द बहुत ही संभावना के साथ हमारे सामने आए हैं। अच्छे काम के साथ लगातार करते रहना भी आवश्यक है।

नई सभ्यता में पृथ्वी के प्रति दयाभाव चाहिए

 

-ध्रुव शुक्ल

अखबार में एक लेखक के बयान देने भर से पर्यावरण का संकट दूर नहीं हो सकता, क्योंकि ऐसे बयान पूरी बीसवीं सदी में संसार भर में छपते रहे हैं। यह संकट तब दूर होगा जब लेखक समाज नागरिक धर्म के जागरण के लिए - समाज के बीच में जाएगा। पेड़ लगाएगा और लगाने के लिए प्रेरित भी करेगा। जैसा कि 7-8 बरस पहले मैंने महाकवि तुलसी की रामकथा के माध्यम से जल सत्यागृह की आवाज उठाई थी। और मुझे दुख है कि वो एक नारा बन गई, लेकिन सच्चे अर्थों में अभी शुरू नहीं हुआ है।
ये बहुत जरूरी है हमारे समाज में कि हम अपने छोटे-छोटे रचनात्मक कर्मों के प्रस्ताव पूरी पृथ्वी के हित में अपनी-अपनी जगहों पर रहते हुए करें। जैसा कि महात्मा गांधी हमसे बार-बार कह गए हैं कि विचारों से कितने भी संदेश निकलते रहें जब तक वे जीवन से नहीं निकलेंगे तब तक विचारों का काई अर्थ नहीं होगा। तभी तो मनुष्य का कल्याण करने वाली कितनी सारी विचारधाराओं का बीसवीं सदी में अंत हो गया।
गांधी मार्ग या प्रकृति की रक्षा का मार्ग किसी सड़क का नाम रख देने से नहीं बनेगा। हमें इसके लिए अपने जीवन में ही कोई मार्ग निकालना पड़ेगा। और वह मार्ग है पूरी पृथ्वी के प्रति दया-भाव।
आखिर हम ये क्यों नहीं देख पा रहे हैं कि पृथ्वी तो हमें हमारे सारे अन्यायों के बावजूद करोंड़ों साल से क्षमा करती आ रही है, लेकिन हम पृथ्वी के जल, वायु और उसके हरित कणों के प्रति जरा भी चिंतित नहीं हैं।
मुझे लगता है कि मानव जाति के इतिहास में ये बात अंतिम रूप से कोई इतिहासकार लिखे कि पृथ्वी पर मनुष्य ने बहुत सारे गड्डे खोदे और खुद गिर कर दफन हो गया।
पृथ्वी पर ये बहुत सारे गड्डे खोदने की कला हमें उपभोक्तवादी संस्कृति सिखा रही है, जिसने लोभ और लालच के तरह-तरह के गड्डे खोदना हमें सिखा दिया है और जिनमें मनुष्य भी डूबा चला जा रहा है। क्या इन गड्डों को हम अपने ही लोभ और लालच के गड्डे कह सकते हैं?
अगर हां तो वह कहावत मनुष्य जाति के जीवन में चरितार्थ हो रही है कि जो अपने लिए खाई खोदता है सो अपनी ही खोदी खाई में गिरता है।
यहां एक और कहावत भी चरितार्थ होती रही है कि जो जैसा बोता है वैसा ही काटता है।
हमारे समाज का स्वर्णमृग विज्ञापन की दुनिया है। इस स्वर्णमृग का पीछा प्रत्येक नागरिक कर रहा है। जब इस मृग का पीछा करने से श्रीराम तक ने धोखा खाया तो आज कल के घासीरामों की कौन कहे। मुझे निजी तौर पर दु:ख होता है कि कि हमारे समाज की विश्वव्यापी राजनीति नीतियां अब राजनीति जैसी नहीं लगतीं। लगता है जैसे कोई हमारे साथ साजिश कर रहा है। हाल ही में 25 बरस की पीढ़ा की पोटली खुली है। जो मेरे ही शहर भोपाल से जुड़ी है। उस पूरे घटना चक्र का मैं एक चश्मदीद गवाह रहा हूं। गैस त्रासदी की उस रात मैं अपी पत्नी और दो बेटियों को लेकर हवा में घुल गए जहर का सामना कर रहा था। आज जब 25 साल

बाद सारी आर्थिक और राजनीतिक शक्तियां फिर एक दूसरे पर दोषारोपण कर रही हैं।
उनकी बात सुनकर अब यह मेरा विश्वास पूरी तरह दृढ़ हो गया है कि हमारे देश के साधारण जन पेड़ पौधे, वनस्पति इन सबको भारत के राजनीतिक, प्रशासनिक न्याय पर पुर्नविचार करना चाहिए।  क्योंकि यह सारी व्यवस्था उस सारी प्रथा के विरूद्ध काम कर रही है जिसमें समूचे भारत की प्रकृति की लूट भी शामिल है।
(जैसा उन्होंने रवीन्द्र स्वप्निल प्रजापति को बताया।)

गुरुवार, जून 17, 2010

एक कवि का दिल्ली में कुछ दिन रहना...

  कुनाल ये तुम्हारा संस्मारन था ... तीन जगह ठीक किया है... मैं  भाभियों के बच्चे कब खिलाता था यार ... चलो बहुत अच्छा लग रहा हैं... शानदार है.... कुछ बदमाशियां भी हैं तुम्हारी इसमें .. कुछ हरे कि सुनाई हुई गप्पें भी हैं...

रवीन्द्र स्वप्निल प्रजापति पर कुणाल सिंह का संस्मरण

एक कवि का दिल्ली में कुछ दिन रहना...

बात उन दिनों की  है जब मैं कलकत्ता छोड़ के दिल्ली आया हुआ था। कलकत्ते के दिनों में कथाकार राजीव कुमार (उन दिनों वह भी कलकत्ते में ही रहा करते थे) से परिचय हुआ था। उन्होंने अभी कहानियाँ लिखना शुरू ही किया था। उनकी दो कहानियाँ मेरे ‘वागर्थ’ में रहते छपी थीं। एक बार पहले भी जब कथा अवार्ड के सिलसिले में दिल्ली आना हुआ था, जेएनयू के गोमती गेस्टहाउस में ठहरा हुआ था। भारत भारद्वाज की मदद से वहाँ आसानी से सस्ते कमरे मिल जाया करते थे। तो एक दिन जब मंडी हाउस का चक्कर लगाने के लिए गेस्टहाउस से निकल ही रहा था कि गेट पर राजीव नमूदार हुए। मैं दंग रह गया कि ये यहाँ कैसे! तब तक मुझे पता नहीं था कि राजीव अब दिल्ली ही शिफ़्ट हो गये हैं और अपने साले साहब (इत्तेफ़ाक़ से उनका नाम भी राजीव कुमार ही ठहरा) के साथ शाहदरा में रहते हैं। उन्हें मंडी हाउस में ‘हंस’ के तत्कालीन उपसम्पादक गौरीनाथ ने बताया था कि इन दिनों में दिल्ली आया हुआ हूँ।

  हाँ तो इस बार जब कलकत्ता छोड़कर हमेशा  के लिए दिल्ली आना हुआ तो पहली चिन्ता रिहाइश की हुई। गेस्टहाउस को तो पर्मानेंट अड्रेस बनाया नहीं जा सकता था। कलकत्ते में ही राजीव से इस बाबत बातें हुर्इं। राजीव ने मित्रतापूर्वक इसरार किया कि जब तक दिल्ली में मेरा कोई स्थायी ठौर नहीं हो जाता, मैं उनके यहाँ शाहदरा में ही रहूँ। मेरे पास दूसरा कोई विकल्प था भी नहीं। जहाँ तक मुझे याद है, मैं 10 अक्तूबर 2006 को दिल्ली आया और उसी दिन दोपहर में वाणी प्रकाशन में सम्पादक की नौकरी मुझे मिल गयी। अरुण माहेश्वरी के बारे में मैंने बहुत कुछ सुन रखा था, इसलिए थोड़ा डरा हुआ भी था। लेकिन नौकरी के पहले दिन से ही उन्होंने मुझे जो मान-आदर और स्नेह दिया, उसका मैं मुरीद हो गया। वहाँ सुधीश पचौरी से भी मुलाक़ात हुई, वे वाणी की पत्रिका ‘वाक् ’ में सम्पादक थे। मुझे उनका सहायक भी होना था, सो हुआ। बहरहाल, दिल्ली के दरियागंज इलाक़े में वाणी प्रकाशन के उस दफ़्तर में मैंने कोई एक सप्ताह भर नौकरी की। तब तक रवीन्द्र कालिया भी ‘वागर्थ’ छोड़कर भारतीय ज्ञानपीठ के निदेशक होकर दिल्ली आ गये थे। एक दिन शाम को उनका फोन आया कि क्या मैं ज्ञानपीठ ज्वाइन कर सकता हूँ? यह मेरे लिए एक सुनहरा मौक़ा था। कालियाजी के साथ ‘वागर्थ’ में तक़रीबन तीन साल तक बतौर सहायक सम्पादक काम कर चुका था। उनके साथ मेरी ट्यूनिंग ग़जब की थी। फिर उनके साथ काम करते हुए मुझे कभी नहीं लगा कि मैं किसी के मातहत काम कर रहा हूँ। हमेशा वे एक पिता की तरह ही काम सौंपते। दिल्ली, जो तब तक मेरे लिए परायी ही थी, में अकस्मात अपने इस ‘पुराने पिता’ के पास लौटने के आमन्त्रण का मेरे लिए कितना महत्त्व हो सकता है, आप सहज ही अनुमान लगा सकते हैं।

  बहरहाल, ज्ञानपीठ ज्वाइन करने के बाद  सबसे बड़ी दिक्कत आवागमन की  हुई। ज्ञानपीठ का दफ़्तर लोदी रोड पर था और हालाँकि शाहदरा से वहाँ तक के लिए सीधी बस थी, लेकिन आने जाने में तक़रीबन चार घंटे रोज़ के ज़ाया हो जाते थे। फिर शाहदरा में राजीव ख़ुद ही बतौर ‘पाहुन’ रह रहे थे, ऐसे में मेरा वहाँ रहना उनके ऊपर बोझ सदृश था। यही सब देखते हुए मैं लोदी रोड के आसपास ही किसी सस्ती रिहाइश की फिराक़ में था। एक दिन दफ़्तर में अचानक युवा कवि हरेप्रकाश उपाध्याय का आना हुआ। हरेप्रकाश उन दिनों दिल्ली के अधिकांश लिखने-पढ़ने वाले लड़कों की तरह फ्रीलांसिंग कर रहे थे। ‘वागर्थ’ में युवा कवियों के लिए एक नियमित स्तम्भ चलता था, उनमें एक बार हरेप्रकाश पर भी फ़ोकस किया गया था। उसी सिलसिले में एकाध बार उनसे बातें हुई थीं। औसत क़द के, थोड़े साँवले, साठोत्तरी कथाकारों की तरह चेहरा दाढ़ी से भरा हुआ। हरे ने यों ही पूछा कि यहाँ मैं कहाँ रह रहा हूँ। मैंने बताया और साथ ही कहा कि यदि यहीं कहीं आसपास कोई जगह मिल जाती तो मज़ा आ जाता।

  उसी शाम जब मैं दफ़्तर से कोई साढ़े पाँच के आसपास निकला तो किसी अपरिचित नम्बर से एक फोन आया। दूसरी तरफ़ युवा कथाकार अजय नावरिया थे। अजय से मेरी पहली मुलाक़ात बीकानेर में संगमन की गोष्ठी में हुई थी। उन दो-एक दिनों में उनसे अच्छी यारी हो गयी थी। मैं चकित था कि इतनी जल्दी अजय को मेरा दिल्ली वाला नया नम्बर कैसे मिल गया। बहरहाल, अजय ने पूछा कि मैं अभी कहाँ हूँ।

  मैंने कहा, ‘‘दिल्ली में।’’

  ‘‘सो तो पता है, लेकिन अभी कहाँ हो?’’

  ‘‘ज्ञानपीठ के आॅफिस के सामने जो  सार्इं बाबा का मन्दिर है, वहीं। शाहदरा  के लिए बस लेने जा रहा हूँ।’’

  ‘‘तुम मिलकर जाओ। मैं अभी पाँच मिनट में वहाँ पहुँच रहा हूँ। ...या ऐसा करो, तुम वहाँ से लौट पड़ो पीछे की तरफ़। मैं भी आ ही  रहा हूँ, बीच में कहीं मुलाक़ात हो जाती है।’’

  ‘‘पीछे की तरफ़, मतलब?’’

  ‘‘अभी तुम्हारा चेहरा रोड की तरफ़ है न, वहाँ से मुड़ो और पश्चिम की तरफ़ चलते चले आओ।’’

  ‘‘पश्चिम किधर है?’’

  ‘‘अबे यार, जिधर सूरज डूब रहा है अभी?’’

  ‘‘यार मैं दिल्ली में नया-नया हूँ।  मुझे नहीं पता यहाँ सूरज किस तरफ़ डूबता है!’’

  अजय ठठाकर हँसा। मेहरचन्द मार्केट में  मुलाक़ात हुई। साथ में कविवर हरेप्रकाश   भी। पता चला, दोनों  ने मेरे लिए एक कमरा ढूँढ लिया है वहीं लोदी रोड पर। मैं  चौंका भी, ख़ुश भी हुआ। लोदी  कालोनी के ब्लॉक बारह में बरसाती पर दो कमरे थे। एक में अजय ने अपना ‘आॅफिस’ टाइप कुछ खोल रखा था, दूसरा कमरा अभी ख़ाली था। सीढ़ियाँ बाहर से होकर थीं, सो हम सीधे ऊपर पहुँचे। मकान मालिक शर्माजी अभी थे नहीं, सो बन्द कमरे को बाहर-बाहर से देखकर मैंने स्वीकृति दे दी और शाहदरा लौट आया।

  इस  प्रकार दिल्ली पहुँचने के एक  सप्ताह के भीतर मैंने एक अच्छी नौकरी छोड़कर एक दूसरी अच्छी नौकरी कर ली, और अब मेरे पास एक अपना कमरा था, एक बहुत अपना मित्र भी। हरेप्रकाश लोदी कालोनी से ही सटी बी.के.दत्त कालोनी में रहता था। उसके बारे में पता चला कि उसने आज तक कहीं तीन महीने से ज़्यादा न तो कहीं नौकरी की और न ही किसी से दोस्ती निभायी। मैं पहला शख़्स था जिसके साथ उसकी शुरू से अब तक दोस्ती चल रही है। बल्कि कई जगहों पर मुझे शक़ की निगाह से देखा जाता है कि वह मैं ही हूँ जिसकी हरे से इतनी लम्बी दोस्ती चली।

  हरे खरा आदमी है। जो भी महसूस  करता है, मुँह पर बोल देता है। नक़ली चीज़ें उसे पसन्द नहीं, न ही नक़ली लोग। दिल से प्यार करता है और दिल से दुश्मनी भी निभाता है। उसके दुश्मनों की फेहरिस्त लम्बी-चौड़ी है। वह बड़े चाव से दुश्मन बनाता है। कई बार इस दुश्मनी बनाने की प्रक्रिया का मैं चश्मदीद हुआ। जिससे उसे दुश्मनी करनी होती है, उसे शाम को वह फोन करता है और तारीफों के पुल बाँधने लगता है। कहता है, महोदय ‘क’, आपकी कविताओं ने मेरे जीवन को एक नयी दिशा दे दी। हाय-हाय अब तक मैं किस नरक में जी रहा था। आपने पहले लिखना क्यों नहीं शुरू किया? यदि लिखना शुरू भी किया था तो अब तक दो कौड़ी की पत्रिकाओं में क्यों छपते रहे? आप नहीं जानते अनजाने में आपसे कितना बड़ा पाप हुआ है! यक़ीन जानिए, आज ‘ल’ पत्रिका में छपने के लिए सम्पादक को आपने जितनी महँगी दारू पिलायी होगी, यदि एक साल पहले ही पिला देते तो आज आप घुटन्ना सा अदना कवि न होकर महाकवि होते!

  इसके बाद वह जंग जीतकर आये किसी  वीर की भाँति फोन रख देता।


लोदी रोड की उस बरसाती में मैं लगभग दो सालों तक रहा। इस बीच वहाँ ‘सूरमा’ भोपाली रवीन्द्र स्वप्निल प्रजापति भी आ गया था। रवीन्द्र से भी मेरी पहली मुलाक़ात उतनी ही अजीब थी, जितना कि वह ख़ुद। हुआ क्या कि कलकत्ता छूटने के बाद मेरा मछली खाना भी छूट गया। दिल्ली में फिश टिक्का वग़ैरह तो ख़ूब उपलब्ध थे, लेकिन उन्हें बनाने की प्रविधि कुछ इस तरह अपचिति थी कि लगता ही नहीं था मछली खा रहा हूँ। तो एक बार मैंने हरेप्रकाश से कहा कि यार कुछ इसका जुगाड़ करो कि घर जैसी मछली खाने को मिले। हमारी मित्र मंडली में राजीव कुमार मछली बहुत अच्छी बनाते थे। तो तय हुआ कि एक दिन उन्हीं के यहाँ शाहदरा में धमका जाए। पता चला कि उनके साले महोदय भी घर गये हुए हैं। एक शनिवार मैं और हरे शाहदरा पहुँचे, राजीव को अपनी नेकनीयती का पता बताया। राजीव ख़ुश हुए। इस बीच हरे ने रवीन्द्र स्वप्निल प्रजापति को भी फोन कर के बुला लिया जो उन दिनों वहीं कहीं रहता था। राजीव और हरे पास के ही मार्केट में मछली ख़रीदने के लिए गये। मैं वहीं रह गया कि इस बीच कहीं प्रजापति आये तो कमरे पर ताला लटकता देख वापस न लौट जाए। रवीन्द्र की कविताएँ मैंने पढ़ रखी थीं और वह मेरे प्रिय कवियों में था, लेकिन अब तक उससे कोई मुलाक़ात नहीं हुई थी। दरवाज़े पर दस्तक हुई तो मैंने पाया कि हरे और राजीव मछली लिये आ चुके हैं और उनके पीछे रवीन्द्र भी खड़ा था। आगे बढ़कर मैंने उससे हाथ मिलाया और गर्मजोशी से बगलगीर हुआ। मैंने उसकी एक-दो कविताओं का हवाला देते हुए उसकी तारीफ़ों के पुल बाँधे। लेकिन रवीन्द्र तो बस प्रजापति था! उसने छूटते ही कहा, ‘‘यार छोड़ो न, दोस्तों के बीच ऐसी बातें अच्छी नहीं लगतीं।’’

  चिन्ता की बात हुई कि भई मछली तो ले आये हैं, अब मसाला कहाँ कूटा जाए! राजीव ने कहा कि उसके पास सिल-लोढ़ा नहीं, सो किसी ऐसे बन्दे की तलाश की जाए जिसके यहाँ मसाला तैयार किया जा सके। मेरे जानते रवीन्द्र वहाँ पहली बार ही आया था, लेकिन वह फौरन तैयार हो गया कि उसे मसाला दिया जाए और वह आधे घंटे में आस-पड़ोस की किसी महिला को भाभीजी-ताईजी कहकर मसाला कुटवाकर ले आयेगा। राजीव ने हाथ जोड़ लिये कि इस कालोनी में वह बतौर दामाद रह रहा है, सो अगर कुछ ऊँच-नीच हो गया तो ख़बर सीधे उसकी नयी-नवेली बीवी के पास पहुँच जाएगी।

  ‘‘यार अभी बमुश्किल साल भर ही हुए  हैं मेरी शादी के।’’ वह जैसे गिड़गिड़ा  रहा हो।

  ‘‘मुझ  पर यक़ीन करो, मैं उन्हें सच्चे मन से भाभीजी मानकर रिक्वेस्ट करूँगा।  उनसे मेरा सम्बन्ध सिर्फ़ मसाला कूटने तक ही सीमित रहेगा। ’’

  ‘‘नहीं तुम खतरनाक कवि हो, मैं तुम्हारा यक़ीन चाहकर भी नहीं कर सकता।’’

  ‘‘कवि तो हरे भी है।’’ रवीन्द्र ने जैसे कोई चुटकुला सुना हो। वह अपनी ही तरह हँसने लगा।

 ‘‘हाँ लेकिन मैं भोपाल का कवि नहीं जो केलि-केलि करता फिरूँ। ये दिल्ली है मेरे यार।’’  यह हरेप्रकाश था, उसने कहा ‘‘सुनो, यहाँ से कोई तीन-चार किलोमीटर दूर एक और कवि रहता है— रमेश प्रजापति। उसके घर   में खुली छत पर सिल रखा मैंने देखा था। ै।’’
पर इतनी दूर तक जाने वाला यह आइडिया किसी को जमा नहीं।
  तय हुआ कि मसाले का पत्थर  राजीव किसी पड़ौसी से लेकर आएंगे। पत्थर आया और उस पर राजीव के किसी मित्र को राई पीसने में जुटा दिया। हरे और राजीव रम तीनों के लिए और मुझे एक हाफ वोदका लेने शाहदरा की किसी वाइन शॉप पर चले गए। मैं और रवीन्द्र पीछे रह गये। उनके जाने के बाद अचानक रवीन्द्र ने अपनी कमीज़ उतारी, फिर पतलून उतारी। मैं उसे देख रहा था कि ये जितना अच्छा कवि है उतना अहंकारी और मुंहफट इंसान। बनियान भी उतारकर सिर्फ़ चड्डी में वह कमरे से बाहर निकला और आँगन में घूमने लगा। कभी कभी वह ऊँची आवाज़ में कोई गाना भी गाने लगता। मैंने सोचा, दुनिया बनाने वाले क्या तेरे मन में समायी जो इसे सुदर्शन बनाया, कवि बनाया मगर भेजे वाले फ्लैट पर कुछ नहीं बनाया। फिर मैने सोचा ये कवि ऐसे ही होते हैं।
  कोई  एक-डेढ़ घंटे बाद राजीव और हरे लौटे, और तब तक रवीन्द्र का अंग प्रदर्शन चलता रहा। मैं बिस्तर पर लेटा कोई किताब पढ़ने लगा था। जैसे ही दरवाज़े पर दस्तक हुई, रवीन्द्र भागकर कमरे में लौटा और पतलून पहनने लगा।

  बहरहाल, राजीव की पाककला के बारे में  जैसा सुना था, वह उससे भी बढ़िया बावर्ची निकला। जब तक राजीव किचन में मछलियाँ तलता रहा, रवीन्द्र किसी बिल्ली की तरह पाँव दबाकर जाता मैं भी इस चोरी की मछली के मजे लेता। घूंट घूंट दारू और मछली। क्या मजेदार थे वे दिन। रवीन्द्र कई बार तली हुई मछली उठाकर लाता रहा। जब राजीव ने देखा कि अरे ये तो सब खा जाएंगे। अन्त में राजीव को चिमटा लेकर मछली की सुरक्षा करना पड़ी - ‘‘ अरे भाई पीने के साथ ही सब खा लोगे, भात के लिए भी बचने दोगे।’’ राजीव मछली बनाते हुए बोला।

  यह नौटंकी इतने में ही ख़त्म नहीं हुई। अचानक देर रात हम सब उठकर बैठ गये, जब बहुत पास से किसी बिल्ली की आवाज़ आई। गौर करने पर पता चला, यह रवीन्द्र था जो दरवाज़े के पास गरमी और मच्छरों से परेशान चादर बिछाकर लेटा था। उसे नींद नहीं आ रही थी, इसलिए वह टाइम पास करने के लिए बिल्ली की आवाज़ निकाल रहा था। हम सबने अपना सिर पीट लिया। उससे गुजारिश की गयी कि कृपया वह सोने की कोशिश करे। उसने भन्नाई आवाज़ में कहा, ‘‘सोना चाहूँ भी तो ये मच्छर सोने नहीं देते।’’
  वाक़ई मच्छर तो वहाँ थे, और हम भी इससे ख़ासे परेशान होकर ही सो रहे थे। राजीव ने कहा कि घर में न कोई मॉस्क्यूटो क्वायल है न मच्छरदानी। रात के दो बज चुके हैं, इसलिए अब कोई उपाय नहीं है।
  ‘‘हमारे बाप-दादा कहा करते थे कि धुएँ से मच्छरों का बैर है। जब गाय-बैल मच्छरों से परेशान हो जाते थे तो उनके पैरों के पास धुआँ कर दिया जाता है।’’ रवीन्द्र ने अपनी स्मृति पर ज़ोर डाला।
  ‘‘हम क्या गाय-बैल हैं?’’ मैंने पूछा।
  ‘‘माना कि गाय-बैल नहीं, लेकिन जो हमें काट रहे हैं वे ज़रूर मच्छर हैं।’’ रवीन्द्र की तर्क शक्ति का जवाब नहीं।
  ‘‘लेकिन  यार, अब इतनी रात में धुआँ कौन करे!’’ हम में से कोई बोला।
  ‘‘तुमलोगों  को नींद आ रही है तो सो जाओ। मैं तो जगा हुआ ही हूँ, मैं  धुआँ करता हूँ।’’
  हम  निश्चिन्त होकर सो रहे। कोई दो-तीन घंटे के बाद मुझे लगा, मेरा दम घुटने वाला है। उठा तो पाया, कमरा धुएँ से भरा हुआ है। हरे बिस्तर के एक कोने पर बैठा तमाशा देख रहा है और राजीव आग बबूला हुआ रवीन्द्र को फटकार लगाये जा रहा है कि आइन्दा मेरे यहाँ तुमने क़दम रखा तो मुझसे बुरा कोई नहीं होगा। दरअसल रात में रवीन्द्र को धुआँ करने के लिए कुछ नहीं मिला तो उसने कमरे के एक कोने में रखे काग़ज़ बाहर नीम के पीले पत्तों को समेँट कर एक कबाड़ी से तसले में आग जला रहा था। रवीन्द्र एक-एक कर पन्ने फाड़ता और उन्हें दियासलाई दिखा देता। हम लोग हंसते भी और धुंए से आंखें भी मलते। 
बी.के.दत्त कालोनी में हरे और रवीन्द्र एक ही कमरे में रहते थे। एक ही साथ सोते, आँखें मींचते हुए उठते और एक ही बस में दरियागंज को रवाना होते। तब तक रवीन्द्र वाणी प्रकाशन में मेरी जगह पर विराजमान हो चुका था और हरेप्रकाश ‘हंस’ में बतौर सहायक सम्पादक काम करने लगा था। मौक़ा मिलते ही रवीन्द्र अंसारी रोड पर ‘हंस’ के दफ़्तर में जा पहुँचता, और जब तक अरुण माहेश्वरी के दो-चार फोन न आ जाते, वहीं जमा रहता। एक बार आज़िज आकर राजेन्द्र जी ने उससे पूछा कि तुम जब देखो, यहीं बैठे रहते हो, भला अपने दफ़्तर में काम क्या करते होगे! रवीन्द्र का जवाब था, ‘‘काम तो होता ही रहता है राजेन्द्र जी, चाहे करो या न करो।’’
  सुनकर राजेन्द्रजी ठगे रह गये। कोई अचरज नहीं कि जब हरे ने ‘हंस’ छोड़ा और रवीन्द्र ने उसकी जगह के लिए अप्लाई किया, तो राजेन्द्रजी ने फौरन से पेश्तर उसकी अर्जी चूल्हे में झोंक दी। वैसे सच ये था कि राजेन्द्र जी संजीव जी को कुल्टी से बुला चुके थे।
  रवीन्द्र को वाणी में कालियाजी ने लगवाया था। एक दिन ज्ञानपीठ में मेरे पास आया। मैंने उसे कालिया जी से मिलवाया। कालिया से मिलकर रवीन्द्र खुश हुआ। उसने कहा हिंदी साहित्य की दुनिया में कालिया जी पहले लेखक हैं जिन्होंने किसी को दिल्ली में नौकरी तलाशते देख कर मुंह नहीं बिचकाया। उन्होंने कितनी जिंदादिली से स्वागत किया   यार। इसके बाद रवीन्द्र उनका मुरीद हो गया। करीब घंटे भर ठहर कर रवीन्द्र चला गया।
  कालियाजी ने भले दुनिया देखी हो, लेकिन मेरा दावा है कि ऐसे किसी कवि से उनका पाला नहीं पड़ा होगा तब तक। इधर मेरे वाणी प्रकाशन छोड़ने के बाद कई बार अरुण माहेश्वरी ने कालियाजी से कहा था कि ज्ञानपीठ मुझे जितना देता है, उससे दोगुनी तनख्वाह वह मुझे देने के लिए तैयार हैं। कालियाजी ने अरुणजी को फोन लगाया कि भोपाल से एक बहुत ही प्रतिभावान कवि अभी-अभी दिल्ली पहुँचा है। मेरे बहुत कहने के बाद वह किसी तरह आपके यहाँ काम करने को राजी हुआ है। भेज रहा हूँ। दूसरे दिन रवीन्द्र ने मेरी खाली हुई कुर्सी वाणी में सम्हाल ली।
  तो इस प्रकार रवीन्द्र वाणी में लग गया। वहाँ उसने कोई साल भर तक काम किया, लेकिन हरे के ‘हंस’ छोड़ने के बाद उसका मन

दरियागंज  से उचट गया। बाद में उसने भी वाणी प्रकाशन वाली नौकरी छोड़ दी। दूसरा कारण उसने बताया कि अरुण माहेश्वरी ने दो दिन की छुट्टी के पैसे काट लिए थे। इसकी शिकायत सुधीश पचौरी से भी की थी जिसके उत्तर में पचौरी जी ने कहा-मैं प्रबंधन में हस्तक्षेप नहीं कर सकता। इस पर रवीन्द्र ने मेरी छत पर पौने दो घंटे का एक लेक्चर दिया था और नौकरी छोड़ने की घोषणा की थी। इसके दूसरे दिन शाम को उसने फोन पर ही नौकरी छोने का इस्तीफा पेश कर दिया। फिर वह वाणी के आॅफिस ही नहीं गया।  दरअसल वाणी वाली नौकरी के दौरान ही उसने किसी नेता टाइप साधू या साधू टाइप नेता को पटा लिया था या दोस्ती हो गई थी। जिन दिनों हम (मैं और हरेप्रकाश) नौकरीपेशा होने के बावजूद पचास रुपये वाला पौव्वा पीकर गुजारा करते, उन दिनों बेकार होकर भी रवीन्द्र कभी होटलों और क्लबों में स्ट्रॉबेरी फ्लेवर का कॉकटेल पीकर आता तो कभी बनाना फ्लेवर का। रात दो बजे गुड़ गांव में बैठा है तो कभी करोलबाग। कभी गाजियाबाद ।
मेरे बरसाती वाले कमरे के सामने एक खुली छत थी, मकान मालिक यदा कदा ही ऊपर आता। सो उन दिनों ज़्यादातर बैठकें मेरे ठिए पर ही होतीं। खा-पीकर सब अक्सर वहीं सो पड़े भी रहते। कभी-कभी बैठक हरे के कमरे पर भी होतीं।  जहाँ वह रहता था, आसपास खायी-अघायी भाभियों का जमघट लगा रहता। ग्राउंड फ्लोर पर लगभग बीस-पच्चीस कमरे थे, सबमें हरियाणा-पंजाब की मुटल्ली औरतें भरी पड़ी रहतीं। जब कभी हम वहाँ होते, दरवाज़े को अच्छी तरह बन्द करने के बाद ही हाहा-हीही करने की हिमाक़त करते। ख़ासकर हरे इन औरतों से दूर-दूर ही छिटका रहता, जबकि वे ऐसी थीं कि आते-जाते टोक देतीं— ‘‘भाईसाब, बरामदे में इतनी शीशी-बोतल क्यों जमा कर रखा है, भतेरे कबाड़ी आते हैं, मेर्को दे देना मैं बेक दूँगी सब।’’
  हरे इस कान से सुनता, और चेहरे पर बिना कोई शिकन लाये उस कान से निकाल देता। धीरे-धीरे वे औरतें भी उससे  बचने में ही अपनी भलाई समझने लगीं। इसके विपरीत रवीन्द्र उन औरतों से बातें करता रहता। रवीन्द्र बच्चों से दोस्ती बहुत अच्छी कर लेता है। या बच्चे उसकी तरफ आकर्षित होते हैं। एक बार हम तीनों खन्ना मार्केट के पास एक गली से गुज़र रहे थे कि एक तीन-चार साल का बड़ा प्यारा बच्चा दौड़ा-दौड़ा आया और उसकी कलाई पकड़कर झूल गया। हम तीनों तब और चौंके जब वह बच्चा रवीन्द्र को ‘पापा-पापा’ कहने लगा। शाम के धुँधलके में बच्चे को शायद धोखा हो गया हो, रवीन्द्र ने किसी तरह अपनी कलाई छुड़ायी और आंखें फाड़ कर चारों तरफ देखने लगा। हम तीनों देर तक हँसते रहे।
  इसी बीच पता चला कि रवीन्द्र ने उस साधू उर्फ़ नेता को सुझाव दिया कि एक पत्रिका निकाले तो उसका ख़ूब प्रचार-प्रसार होगा। आनन फानन में उसने रवीन्द्र को करोलबाग में एक आॅफिस दिला दिया। एक कमरा, एक चपरासी, एक कम्प्यूटर, एक फोन और बियर रखने के लिए एक फ़्रिज। रवीन्द्र ताबदस्ती से रोज़ सुबह नौ बजे आॅफिस पहुँच जाता और शाम तक (कभी देर रात तक)वहाँ बना रहता। समय बिताने की गरज से उसने पहले कविताएँ लिखनी शुरू कीं, फिर भी समय न बीतता तो कहानियों पर हाथ आजमाइश करने लगा। मंटो ने कहीं लिखा था कि वह रोज़ एक कहानी लिख लेता है, रवीन्द्र के मामले में हमने इसे सही होते देखा। शाम को सीधे मेरे पास पहुँचता और सुनाने लग पड़ता उस दिन की लिखी कहानी। मैं आज़िज आ गया, तो एक दिन उसने भावुक होते हुए कहा, ‘‘जानते हो, आज मैं बहुत दुखी हूँ।’’
  ‘‘क्यों, क्या हुआ? हरेप्रकाश ने कमरे से निकाल दिया क्या?’’ मैंने अपना डर छुपाते हुए पूछा, कि कहीं यह मेरे यहाँ ही रहने के लिए न आ धमके। वैसे मेरा कमरा ऐसा नहीं था कि जिसमें रवीन्द्र जैसा घोड़ा हिनहिनाते हुए रह ले।
  ‘‘नहीं, बात इससे भी ज़्यादा सेंसिटिव है।’’ रवीन्द्र ने कहा।
  मैंने राहत की साँस ली। पूछा, ‘‘क्या?... बोलो बोलो, आख़िर दोस्त ही दोस्त  के काम आता है!’’
  वह रुँआसा हो आया, ‘‘दरअसल मैंने  आज साम्प्रदायिकता के मुद्दे पर एक कहानी लिखी है! जानते हो आज हमारे समाज में साम्प्रदायिकता का ज़हर कितने गहरे तक समा गया है?
  ‘‘अबे चुप कर यार! चल मोमोस खाते हैं और वोदका का हाफ लेते हैं।’’ मैंने अपनी जेब में पैसे टटोले और खन्ना मार्केट की तरफ चले गए। मैंने देखा शराब की दुकान पर सांप्रदाकिता नहीं है। बाद में उसने लोदीकालोनी में   कहानी का पाठ किया था। उसने कहानी का नाम टीन टप्पर रखा था।’’ मैंने उसे कहा कि तू कवि इतना अच्छा है कि कहानीकारों पर भारी पढ़ता है तो फिर कहानी क्यों लिखता है?’’ रवीन्द्र का जबाव भी अजीब ही होते है- कहा यार जिंदगी में पहाड़, मैदान, नदी और शहर सब कुछ है। अब किसी पर प्रतिबंध नहीं कि जो नदी किनारे घूम लिया वह पहाड़ों पर नहीं चढ़ेगा। मैंने कहा चढ़ साले चढ़ हम कहानीकार तुझे चढ़ने ही नहीं देंगे।



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Ravindra Swapnil Prajapati
Peoples Samachar
6, Malviye Nagar, Bhopal MP

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बुधवार, जून 09, 2010

लोकल में ही ग्लोबल की संभावनाएं हैं

 
देवीलाल पाटीदार से रवीन्द्र स्वपिल प्रजापति की बातचीत




सिरेमिक आर्टिस्ट और चित्रकार देवीलाल पाटीदार कला को ऐसा माध्यम मानते हैं जो व्यक्ति की आंतरिक  विचारों-भावनाओं को रूपों और आकारों में अभिव्यक्त करती है। फिर वह चाहे पेंटिंग हो या फिर शिल्प और सिरेमिक। सभी कलाएं माध्यम हैं जो इंसान को प्रकृति को, उसके प्राकृतिक होने को बताती हैं। हाल ही में उन्होंने कुछ कलाकारों के साथ मिल कर आर्ट2020 डॉट काम लांच की है।


Þ1
सिरेमिक में क्या नया हो रहा है?
दरअसल कला को नया ही होना होता है। कला प्रतिदिन का जन्म है। कला ही नहीं जन्म लेती, कलाकार भी नया जन्म लेता है। इसका कारण है। नया वही रच सकता है, वही कर सकता है जो जन्म लेता है। कलाकार नया करता है, क्योंकि उसकी कला रोज नई होती है। प्रकृति के रिश्ते की तरह है ये। मां सिर्फ अपने बच्चे को जन्म नहीं देती वह खुद भी नया जन्म गृहण करती है। तो कलाकार भी नया कर रहे हैं। सिरेमिक में नए प्रयोग हो रहे हैं। नए आकार आ रहे हैं। कल्पनाशीलता का नया संसार सिरेमिक में सामने आ रहा है।

2
भोपाल में किसी समय भारत भवन अंतरराष्ट्रीय मंच था, कुछ मायनों में आज भी है। आप इस संदर्भ में अपनी क्या भूमिका देखते हैं?

भारत भवन आज भी अंतरराष्ट्रीय महत्व बनाए हुए है। इसमें यह अवश्य देखना पड़ेगा कि जिस समय भारत भवन का प्रारंभ हुआ था, तब यह देश का एक यूनिक स्थान था। नए उभरते और स्थापित दोनों तरह के कलाकार यहां आते थे, वह आज भी आ रहे हैं। कुछ चीजो में फर्क आया है तो उनका असर हम सब को दिख रहा है।
व्यक्तिगत रूप से मेरी भूमिका इसमें एक कलाकार की हैै। मैं चाहता हूं कि नया निर्माण हो, नया सृजन हो, यही चीज भारत भवन को स्थापित करेगी।

3
आजकल कला और इंटरनेट आपस में मिल कर ग्लोबल हो रहे हैं। आपने हाल ही में भोपाल के कलाकारों को लेकर किसी वेबसाइट लांच की है?


लोकल ही ग्लोबल होता है। वास्तविक रूप से लोकल होने का मतबल ही है कि आप इस ग्लोबल में यूनिक हैं। ग्लोबल का मतलब है एक जैसा होना नहीं है। आजकल

सबसे अधिक अंतरराष्ट्रीय स्तर पर लोक कलाओं की चाह बड़ी है। इसका क्या कारण हो सकता है? इसका कारण है कि दुनिया के कलाप्रेमी कुछ यूनिक देखना देखना चाहते हैं। यह यूनिक उन्हें लोक कलाआें में दिखाई देता है। आदिवासियों की कलाओं में दिखाई देता है। जहां भी यूनिक दिखाई देगा, उसका संसार स्वागत करेगा। आज अधिकांश लोक कला इंटरनेट के सहारे से विश्व मंच पर जा रही है।
भोपाल के कलाकारों के लिए जिस वेबसाइट की बात आपने की है, वह कुछ कलाकारों का व्यक्तिगत स्तर पर सामूहिक प्रयास है। इसमें मैं भी जुड़ा हूं।


4
इसके उददेश्य क्या हैं?
इस साइट का उद्देश्य है कि हम भोपाल के कलाकारों को विश्व स्तर पर प्रस्तुत करें। यह साइट जहां तक जा सकती है जाएगी। नेट ही इसका सहारा है। यह नए लोगों को प्रस्तुत करने के साथ, कला पर आधारित विचार विमर्श, बहस और संवाद को भी अपने उद्देश्यों को शामिल करेगी। साइट अस्तित्व में आ चुकी है।

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कला की दुनिया में आप नए और पुराने लोगों का साथ पाया है। आज युवा और बिलकुल नए लोगों को लेकर आप क्या सोचते हैं। ऊर्जा है नए बच्चों में?

 नए बच्चों में ऊर्जा है इससे इनकार नहीं किया जा सकता, लेकिन कला के लिए जिस धैर्य की आवश्यकता होती है, वह नहीं है। इसके पीछे ये हो सकता है कि नए बच्चों को जो माहौल हम दे रहे हैं, वह कैरियर की तरफ केंद्रित है। कैरियर आवश्क है लेकिन वह कला पर हावी होगा, तो कला व्यवसाय हो जाएगी, कला नहीं होगी। उसका सौंदर्य खो जाएगा। उसका कला होना नहीं बचेगा।
पुराने लोगों में भी ऐसा था पर मात्रा के हिसाब से कम था। आज अधिक है। कुछ बच्चों में निकलता है धैर्य, वे ही नया करते हैं। वे ही आगे की लंबी यात्रा कर सकते हैं।

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सिरेमिक कलाकार के लिए क्या आवश्यक है?

कला में धैर्य जैसी चीज तो ऊपर बताई है। दूसरी बात सिरेमिक में आवश्यक है कि आप संसार को किस नजर से देखते हैं, किस रूप में देखते हैं। संसार से क्या रिश्ता बनाते हैं। जो संबंध होगा वही आपकी कला में आएगा। यह हर कलाकार की अलग अनुभूति की तरह है। इसे अपने ही अंदर खोजना पड़ता है। कोई तय मापदंड नहीं हैं।