रविवार, मार्च 03, 2013

राज्य के खेलों में राज

खेल देश की सांस्कृति धरोहर का हिस्सा रहे हैं। आज लोकतांत्रिक राजनीति में खेलों द्वारा युवाओं को प्रभावित करने वाले हथियार की तरह भी इस्तेमाल किया जा रहा है।

मु ख्यमंत्री राज्य खेल समारोह का उद्घाटन मुख्यमंत्री शिवराज सिंह ने किया। साथ ही देशी खेलों के प्रति अपने झुकाव को प्रदर्शित करते हुए,उन्होंने कबड्डी अकादमी की स्थापना की घोषणा की। यह देश और प्रदेश में अपने ही खेलों को महत्व देना वाला दृष्टिकोण है और यह एक उपलब्धि है। आज खेलों का संसार व्यापक हो चुका है। अंतरराष्ट्रीय खेलों की तैयारी भी स्कूलों से जुड़ चुकी है। खेलों को प्रदेश सरकार का प्रोत्साहन नई खेल संस्कृति के विकास का सूचक भी है। लेकिन जिस तरह के विवाद मध्यप्रदेश में खेल संघों, पदाधिकारियों और राजनीति के बीच  होते रहे हैं उनकी आवाज आज भी गूंज रही है। संगठनों को लेकर विवाद कोई नई बात नहीं है। हर थोड़े अंतराल पर हो-हल्ला उठता है और फिर सब कुछ उसी पुराने ढर्रे पर चलने लगता है। इसमें सबसे दुखद बात यह है कि इन खेल संगठनों से संबंधित खेलों और उनके खिलाड़ियों को बहुत नुकसान उठाना पड़ता है। खेल संगठनों के शीर्ष पदों पर जिस तरह के लोग लंबे समय से काबिज हो जाते हैं, वह सब खेल स्वास्थ खेल संस्कृति के लिए एक घातक रसायन की तरह होता है। राजनीतिक प्रभाव से लोग खेल संघों के पैसे से निजी यात्राएं करने के मामले उठे हैं। खेल संगठन ऊपर से तो बड़े ठीक-ठाक लगते हैं, पर उनके अंदर में जमकर राजनीति होती है। जो खेल संगठन का मुखिया होता है, वह हुक्म चलाता है। अंतरराष्ट्रीय ओलंपिक समिति जैसी संस्था भारतीय ओलंपिक संघ को मानक नियमों व शर्तों की अवहेलना करते देखती है, तो उसे कड़े कदम उठाने पड़ते हैं। यही कारण है कि हमारी व्यवस्थागत राजनीति के दौरान ओलंपिक संघ से कुश्ती का पत्ता कट जाता है और कोई विरोध करने वाला भी नहीं होता। यह हमारी लापरवाही भी है।
खेल संस्कृति के लिए हर गांव जिले और प्रदेश पर एक स्वस्थ्य माहौल हो जिसमें हम अपने प्रतिभाशाली बच्चों को समय पर चयनित कर सकें। इसके अलावा खेल बिल को भी अस्तित्व में आना चाहिए। खेलों में सुधार की जो जरूरत है, वह इस बिल से आ रहे हैं, लेकिन यह भी राजनीति का शिकार है। देश के अधिकतर खेल संघों पर खेल की समझ न रखने वाले लोगों का कब्जा है जिन्हें संबंधित खेल के बारे में एबीसीडी भी पता नहीं होती है। बड़ी बात यह है कि ऐसे लोग इन पदों को छोड़ना भी नहीं चाहते हैं। खेलों के साथ यह राजनीति राष्ट्रीय स्तर पर या खेल बिल के साथ ही नहीं है, प्रादेशिक स्तर पर भी यही सब होता है। भाई भतीजावाद और भ्रष्टाचार होता है। सुविधाओं की जगह फर्जी खेल आयोजन कर दिए जाते हैं। यह सब खेलों को ध्वस्त करने जैसा है। खेल सुधार को लेकर बनाए गए राष्ट्रीय खेल बिल के ड्रॉफ्ट का विरोध क्यों किया गया? भारतीय हॉकी की महा-दुर्दशा के तमाम कारणों में से एक यह भी है। शायद ही कोई खेल संगठन हो जो राजनीतिक विवादों से मुक्त हो। इसे हम राजनीति की विफलता मानें या खेल की? सोचें आखिर हमारे खेल किस मैदान पर खेले जा रहे हैं। ऐसे में मप्र को देश की खेल संस्कृति का प्रतिभाशाली केंद्र बनने के लिए स्थापित किया जाना जरूरी है।