सोमवार, नवंबर 21, 2011

शिक्षा का पश्चिम मॉडल


भारत मे शिक्षा रटा हुआ पाठ और स्मृति आधारित कुशलता बनाई जा रही है, जिसमें रचनात्मकता गायब है।

भा रत की शिक्षा व्यवस्था और नीतियां आजादी से पहले और आजादी के बाद विवादास्पद रही हैं। प्रधानमंत्री के सूचना तकनीकी सलाहकार एवं ज्ञान आयोग के पूर्व अध्यक्ष सत्यनारायण गंगाराम (सैम) पित्रोदा ने राष्ट्रीय शिक्षा सम्मेलन में कहा है कि देश में उच्च शिक्षा का विकास पश्चिमी मॉडल से नहीं हो सकता। श्री पित्रोदा का यह कथन इशारा करता है कि आज भी हम एक अच्छी और अपने देश के लिए उपयुक्त शिक्षा व्यवस्था के निर्माण में सक्षम नहीं हुए हैं। सैम अगर सही हैं तो उनके अनुसार देश में केवल 10-15 विश्वविद्यालय ही स्तरीय हैं। वे कहते हैं कि भारत में अध्यापक शोध नहीं करते और जो शोध करते हैं वे पढ़ाते नहीं हैं। देश में फोटोकॉपी करके शोध पत्र तैयार कराए जाने के मामले सामने आने का मतलब है कि शोध की बहुत कमी है। केवल शोध करना या केवल पढ़ाना दोनों ही स्थितियां अति पर जाती हैं। इससे शोध आधारित रचनात्मक शिक्षा को बढ़ावा नहीं मिल पा रहा। भारत मेेंं शिक्षा रटा हुआ पाठ और स्मृति आधारित कुशलता बनाई जा रही है, जिसमें से रचनात्मकता गायब है। इस शिक्षा की शुरुआत स्कूलों से ही हो जाती है। भारत को शिक्षा में अत्याधुनिक नवाचारों और उसमें निहित रचनात्मक संभावनाओं पर बहुत काम करने की आवश्यकता है। शिक्षा में इंटरनेट सोशल साइट्स जैसे माध्यमों की भूमिका को जगह मिलना चाहिए।                                                                                                                                                                                                                                          






मंदी ने बनाया पशुओं को आवारा
यूरोपीय देशों में पालतू जानवार का खर्च एक इंसान की तरह महंगा होता है। उनका इलाज और भोजन दोनों खर्चीले हैं।
मं  दी किस कदर लोगों को हैरान परेशान कर रही है यह भारतीय नहीं समझ सकते लेकिन ब्रिटेन में मंदी के कारण लोग पालतू पशुओं का खर्च वहन नहीं कर पा रहे हैं। वहां पालतू पशुओं को डॉग्स एंड कैट्स होम में सौंपने की दर पिछले साल की तुलना में इस साल 50 प्रतिशत अधिक है। भारत की तरह पश्चिम में पालतू पशुओं को किसी भी स्थिति में नहीं रखा जा सकता। उनके खाने, ठहरने और इलाज पर काफी खर्च होता है। भारत में कुत्ते बिल्ली पालना उतना महंगा नहीं हुआ है जबकि यूरोपीय देशों में पालतू जानवार का खर्च एक इंसान की तरह होता है। यहां न पंजीयन की आवश्यकता है और न बीमा की। चाहो तो करा लो, वरना आपकी मर्जी। यह सांस्कृतिक भिन्नता का फर्क भी हो सकता है। यहां गाय को पाला और पूजा जाता है। उसे आवारा छोड़ देना या पालना दोनों में कोई फर्क नहीं। पश्चिम की जीवन शैली में बेहद अकेलापन है जिसे पालतू पशुओं द्वारा पूरा करने की कोशिश की जाती है। वहां की जीवनशैली में पालतू जानवर पालना सामाजिक आवश्यकता की तरह देखा जाता है। आज मंदी उनका यह सुकून भी छीन रही है।

1 टिप्पणी:

मनोज कुमार ने कहा…

आलेख पसंद आया।