गुरुवार, अक्टूबर 13, 2011

प्रासंगिकता

 
किसी भी चीज की प्रासंगिकता तब खत्म होती है जब कोई चीज या संगठन प्रसंगहीन हो जाए। लेखक संघों की प्रासांगिकता अभी खत्म नहीं हुई। बस शर्त यही है कि वे कुछ करें। जब उनके पास करने और कहने कुछ नहीं होगा तो वे कैसे प्रसांगिक रह जाएंगे। प्रगतिशील लेखक संघ बड़ा संघ है लेकिन उसे ‘कप्तानों’ने टाइटेनिक बना दिया। वह डूबता हाथी हो रहा है। नवाचार बंद हो चुका है। बदलती परिस्थितियों में उसने लेखकों के लिए कुछ नहीं किया। वह अपना वही राग अलाप रहा है जो उसकी स्थापना से बनाया गया था। यथाथर््ा आज लेखक संघों से अधिक गतिशील हैं। अधिक चलायमान हैं। पूंजीवाद भी अब वह नहीं रहा। वह जनसामान्य की आवश्यकता बन गया है। बाजार को कोसने से कुछ नहीं होगा। बाजार आज से नहीं था बाजार मनुष्य के सामाजिक होने के साथ अस्तित्व में आया था। आज जो बाजार है वह तो विकास क्रम का हिस्सा है। आनेवाले वक्त में यह सब भी बदल जाएगा।
अगर नहीं बदलेगा तो वह भी अपनी प्रासांगिकता खो देगा।
नए लेखकों के लिए करने के लिए संघठनों के पास कुछ नहीं है। नवाचार नहीं है। पूर्वाग्रही और जड़ लोगों जब किसी चीज पर कब्जा कर लेते हेैं तो वहप् प्रसंग और संदर्भहीन होकर अपनी प्रासंगिकता खो देते हैं।
रवीन्द्र स्वप्निल प्रजापति
भोपाल मप्र

कोई टिप्पणी नहीं: