बुधवार, सितंबर 21, 2011

चिंता में मालवा का मौसम और मिट्टी



देश मालवा गहन गंभीर, डग डग रोटी पग पग नीर।   
                                                    - अमीर खुसरो


ते रहवीं सदी के कवि अमीर खुसरो की ये पंक्तियां मालवा की समृद्धि का बयान करती हैं। इतिहासकार रोमिला थापर का कहना है कि कविता की पंक्तियों में इतिहास भी दर्ज होता है। लेकिन हाल ही में मालवा अंचल की भूमि एवं कृषि पर वैज्ञानिकों ने 500 से अधिक गांवों  पर जांच रिर्पोट प्रस्तुत की है। इस दौरान 2900 परीक्षण नमूने एकत्रित किए गए। इसमें मालवा अंचल के अधिकांश जिलों में मिट्टी अनुपजाऊ होते जाने की जांच परख की गई है। मालवा की माटी ज्वालामुखी के लावे से निर्मित होने के कारण अत्यंत उपजाउ रही है। मालवा में  पानी के लिए छोटी बड़ी नदियों का जाल बिछा है। वर्षा यहां वरदान की तरह होती रही है। मालवा का अधिकांश भाग चंबल नदी तथा इसकी शाखाओं द्वारा संचित है, पश्चिमी भाग माही नदी द्वारा संचित है। कृषि भूमि के उपजाऊ और आर्थिक रूप से समाज की समृद्धि के कारण  कारण यहां संस्कृति के विविध रंग आए। इतिहासकार डीसी गांगुली का लिखते हैं कि ‘मालवा वर्तमान में लगभग 46,760 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में फैला हुआ है। मालवा में ज्वालामुखी उद्गार से बनी काली परत होने के कारण आधारभूत रूप से उपजाऊ है। मालवा का गेंहू दुनिया भर में इस मिटटी के कारन स्वादिस्ट है ....


मा  लवा को अब ऐसा क्या हो गया कि इसकी उपजाऊ जमीन बंजर में बदल रही है। जांच कर्ताओं ने जो नमूने लिए थे उनमें रासायनिक खादों के अत्यधिक इस्तेमाल प्रमुख कारण माना गया है।  पेड़ और जंगल कटने के कारण मिट्टी में प्राकृतिक तरीके से मिलने वाले जैविक अंश खत्म हो गए। मृदा वैज्ञानिक  डॉ. आरए शर्मा का कहना है कि मालवा की मिट्टी में नाइट्रोजन और गंधक जैसे सूक्ष्म तत्वों की भारी कमी है। वैज्ञानिकों के अनुसार अनियमित फसल चक्र, रासायनिक उर्वरकों अधिक इस्तेमाल, अधिक पानी का दोहन, जिसमें ट्यूबबेल लगा कर पानी लेना प्रमुख है। किसानों द्वारा एक ही फसल को बार-बार बोना, जैविक  पदार्थों का खेतों खाद के रूप में इस्तेमाल की परंपरा का बंद होना और परंपरागत खेती से दूर होने के कारण खेतों की मिट्टी उर्वरा क्षमता घट रही है। ये हालात मालवा ही नहीं कई जगहों पर भी पैदा हो रहे हैं। लागत वसूलने के लिए किसान अत्यधिक रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों का इस्तेमाल करने लगा है। ऐसे मामलों में भूमि के दूरगामी प्रभावों के बारे में उसकी जानकारी शून्य है। वह सरकार की नीतियों के तहत उर्वरकों का इस्तेमाल कर रहा है।

इं  दौर कृषि कॉलेज के डीन डॉ. अशोक कृष्ण का कहना है कि किसानों को ज्यादा से ज्यादा गोबर और अन्य जैविक पदार्थों का इस्तेमाल करते हुए मिट्टी की उर्वरता बनाए रखना आवश्यक है। इस मामले में सरकार को भी ध्यान देना चाहिए।  इस मामले में कृषि विभाग और उसके कर्मचारियों को मिल कर पूरे प्रदेश में एक सतर्कता अभियान चलाना चाहिए। किसानों को प्रशिक्षण भी इन हालातो से निबटने में मददगार होंगे।

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