रविवार, सितंबर 04, 2011

मंदी का गुब्बारा

 

रवीन्द्र स्वप्निल प्रजापति
भारत की आर्थिक विकास दर को लेकर दुनिया अक्सर चिंतित हो रही है। हाल ही के दिनों में इसका 8.8 से गिर कर 7.7 प्रतिशत हो गया है।  पिछले साल की इसी पहली तिमाही यानी अप्रैल मई और जून 2011 की सकल घरेलु उत्पाद (जीडीपी) वृद्वि दर में 1.1 प्रतिशत का अंतर आ गया है।  2010 में इसी समयावधि में यह दर 8.8 प्रतिशत थी। जीडीपी आधुनिक दुनिया में आर्थिक विकास का पैमाना है। इस पैमाने पर ही दुनिया के अर्थ शास्त्री किसी देश का विकास और जीवन स्तर का आकलन करते हैं। हालांकि इस तरह की विकास दरों को खारिज भी किया है। वैश्विक अर्थ व्यवस्थाओं का विकास एक दूसरे पर आश्रित है, इसलिए किसी बड़ी देश की अर्थ व्यवस्था में उतार-चढ़ाव से अन्य देश भी प्रभावित होते हैं। अमेरिकी अर्थ व्यवस्था से जुड़े देशों पर इसके प्रभाव साफ देखे गए हैं। भारत को एक प्रतिशत की सुस्ती से चिंतित होने की जगह अपनी अर्थ व्यवस्था में कृषि, घरेलू उद्योग और बचत को मजबूत करना जरूरी है। दवा उद्योग में भारत तीसरा सबसे बड़ा निर्यातक देश है। दवा कारोबार एक लाख करोड़ से ऊपर जा रहा है। कृषि उत्पादन में 3.9 प्रतिशत की बढ़ौतरी दर्ज की गई है। इसी प्रकार सेवा क्षेत्र भी इस सुस्ती से अछूता रहा है। सेवा क्षेत्र जिसमें बीमा, रियल एस्टेट, होटल, परिवहन एवं संचार शामिल हैं। इनमें वृद्धि दर 12.8 प्रतिशत रही है। गांवों में आर्थिक गतिविधियों के चलते पिछले पांच सालों में 2 करोड़ 77 लाख अतिरिक्त रोजगार सृजित किए गए हैं। रिजर्व बैंक ने आशा व्यक्त की है कि आने वाली तिमाहियों में जीडीपी 8 प्रतिशत रहेगी।
इन तीन माहों में वृद्धि दर में 1.1 प्रतिशत की गिरावट से चिंता स्वभाविक है। विनिर्माण क्षेत्र में वस्तुओं के उत्पादन में गिरावट आ रही है। 2010 की इसी तिमाही में यह वृद्धि 10.6 प्रतिशत थी जो कि इस समय घट कर 7.2 प्रतिशत रह गई है। खनन क्षेत्र में भी वृद्धि दर 1.8 प्रतिशत ही रही। 2010 में खनन क्षेत्र की वृद्धि दर 7 के आसपास थी। आर्थिक विश्लेषकों के अनुसार देश में भारी लागत वाली परियोजनाओं में विलम्ब के कारण यह गिरावट दर्ज की गई है। आटोमोटिव कलपुर्जा विनिर्माण संगठन ने गिरावट के रुझान वाले आंकड़ों पर चिंता जताई है। 2010 में यह उद्योग 34 प्रतिशत की दर से बढ़ा लेकिन 2011 की पहली तिमाही में12 प्रतिशत ही है। इससे औद्योगिक क्षेत्र बुरी तरह प्रभावित हो सकता है। जनवरी से जुलाई के आंकड़ों के अनुसार चाय निर्यात में 17.8 प्रतिशत की गिरावट दर्ज की है। आर्थिक सुस्ती के ये आंकड़े देश की अर्थ व्यवस्था में आने वाले निराशाजनक परिदृश्य के संकेत हैं।
बाबा रामदेव का कहना है कि यह जीडीपी का मतलब किसानों और मजदूरों के लिए कोई मायने नहीं रखता है। हमारी जीडीपी कैसे बढ़ रही है इसका एक उदाहरण है। अगर आप किसी चीज को खरीदते हैं और फिर बेचते हैं। इसमें जो मुनाफा होगा वह जीडीपी को बढ़ाता है, इसमें उत्पादन की बढौतरी नहीं होती। इसमें आपका अन्न भंडार नहीं बढ़ता। फसलों को उत्पादन नहीं बढ़ता। इस तरह के विकास की वकालत आधुनिक अर्थ शास्त्री और अमेरिकी समर्थक करते रहे हैं। धीरे धीर मंदी का यह गुब्बारा मंदी का एक चक्र लेकर आता है। क्योंकि जीडीपी निरंतर फूलने वाली चीज है। यह फूलती रहती है और एक दिन पूंजीवाद की यह प्रक्रिया दुनिया की अर्थ व्यवस्थाओं के सामने एक गुब्बारा बन कर फट जाती है। जीडीपी का यह खेल मंदी का गुब्बारे के रूप में कई देशों की हालत खराब कर देता है। अमेरिकी मंदी इसी का नतीजा है।
भारत की स्थिति अमेरिका से प्रभावित रही है। 1 प्रतिशत की गिरावट से मंदी देश के वित्तमंत्री प्रणव मुखर्जी निराश हो जाते हैं। उनका इस तिमाही पर उनका ब्याह कि उन्होंने भी विकास की गति को निराशजनक करार दिया है।
यह सच है कि अर्थ व्यवस्थाएं वैश्विक नेटवर्क से जुड़ चुकी हैं। अब वे एक दूसरे से प्रभावित होती हैं। वैश्विक अर्थ व्यवस्था होने के साथ हमें अपनी अर्थ व्यवस्था के फंडामेंटल्स जैसे कृषि, घरेलू बचत और देश के अंदर व्यापार को मजबूती से स्थापित करना आवश्यक है। कर्ज पर आधारित अर्थ व्यवस्थाएं जल्दी ढहती हैं। हमें आर्थिक विकास का लचीला ढांचा विकसित करने पर जोर दिया जाना चाहिए, जिसमें आर्थिक उतार-चढ़ावों को सहने की क्षमता हो। भारत की वर्तमान स्थिति इस मायने में ठीक है। यहां के लोगों की आर्थिक बचत और जोड़ कर रखने की प्रवृत्ति ने देश को मंदियों से बचाया है।

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