बुधवार, अक्तूबर 06, 2010

दिन और मैं

ये कविता कल रात में लिखी है... 


जब मैं दिन का टुकड़ा था
माथे पे पसीना था
कतरा कतरा जमा कर देखा
ये धूप का खजाना था


मेरी राह में वक्त के टुकड़े बिखरे थे
ये मेरी जिंदगी का जीना था
मैंने उन्हें ठुकरा कर देखा
वो टूट कर मेरी षक्ल में नजर आते थे


मेरे दिन आज भी हाथों मेें रोषनी रखते हैं
जाने से पहले समुंदर में किनारों पर षाम रखते हैं


ये दिन भी क्या चीज हैं दुनिया की
हर जगह हवा में लहराते फिरते हैं


ये दिन नौकरियां छोड़ कर चले आए हैं
हद है कि हवाओं की वफाओं पे इतराते हैं



दोस्तो कल पढ़िएगा एक नई कविता
हवा बादल और रेस्टोरेंट

4 टिप्‍पणियां:

Udan Tashtari ने कहा…

बढ़िया...षाम को शाम कर लिजिये...ष को श...

gyaneshwaari singh ने कहा…

आप श को ष क्यों लिखते है??

उड़न तश्तरी जी ने आपको इंगित कर दिया है कि आप सुधर कर ले..

स्वप्निल ने कहा…

ye convertar se ho gaya

sorry

swapnil

Narendra Vyas ने कहा…

बहुत ही सुन्दर रचना ! बस वर्तनी में कहीं-कहीं शायद टंकण के कारण कमी लगी..पर वो गौण सी है..! साधुवाद ! प्रणाम !