मंगलवार, सितंबर 28, 2010

  दोस्तो एक पुरानी पोस्ट का साक्षात्कार फिर दे रहा हूँ....

 

हमारी परिकल्पना देश की लोक सर्जना को गणतंत्र दिवस में समाहित करने की थी

कपिल तिवारी से रवीन्द्र स्वप्निल प्रजापति की बातचीत
आपने पहला लोकरंग आयोजित किया था। उस समय इसका स्वरूप क्या था और कैसी परिस्थिति थीं? आपके उद्देश्य क्या थे?

देश के गणतंत्र दिवस पर देश की लोक सर्जना में कोई काम नहीं होता था। हमारी परिकल्पना देश की लोक सर्जना को गणतंत्र दिवस में समाहित करने की थी। हम जन सामान्य के लिए काम करना चाहते थे। संस्कृति सिर्फ कुछ सौ लोगों के लिए ही हो यह मैं नहीं चाहता था। इसलिए ऐसा कुछ प्लान करना जरूरी था जिसमें लोग चेतना का समावेश हो। आम लोगों को उसमें आत्मीय आमंत्रण हो। जहां प्रवेश के लिए कोई सुरक्षा जांच न करे, कोई प्रवेश पत्र नहीं हो। सब आएं सबकी संस्कृति में, ये सब चीजें काम कर रही थीं उस समय।

मध्यप्रदेश के बारे में क्या कहेंगे?
मध्यप्रदेश संस्कृति के प्रति दोहरी भूमिका में है। संस्कृति को भूगोल से अलग नहीं किया जा सकता है। मध्यप्रदेश संस्कृति के प्रति नई भूमिका में है। उसके चारों ओर विभिन्न संस्कृतियों का भूगोल है। प्रांत हैं। अब जरूरी था कि संस्कृति के मामले में सबसे पहले मध्यप्रदेश को संवेदित किया। इसके बाद हम राष्ट्र और अपने पड़ोसी देशों की ओर गए। आज देश ही नहीं हम एशिया का सबसे बड़ा मेला इसे बनाने की कल्पना संजोए हैं। क्योंकि पड़ोसी के बिना सिर्फ आपकी संस्कृति नहीं हो सकती।

लोगों को उनकी अपनी ही संस्कृति से जोड़ने के लिए आपने परंपरा से क्या लिया?

इसके लिए मैं अपनी परंपराओं की तरफ गया और मेरा ध्यान शताब्दियों से चल रहे लोक आयोजन ‘मेलों’ की तरफ गया। सोचा क्यों न गणतंत्र पर संस्कृतियों का मेला आयोजित किया जाए। इसमें उस बात का प्रतिकार भी शामिल था कि कला संस्कृति को एसी हाल और पांच सौ लोगों तक सीमित कर दिया था, वह दूर हो। समाज और कला का एक समवेत मैं बनाना चाहता था। जिसमें एक गणतंत्र की एकता की भावना की सामुदायिकता की भावना का संचार हो। लोक की सृजनात्मकता का समावेश हो। इन सारी चीजों के लिए मेला ही मुझे भारतीय लोक परंपरा में सबसे जीवंत उपाय लगा। आप देख रहे हैं, लोक संस्कृतियों का मेला।

यह मेला वैसा तो नहीं है जो हमारे कस्बों में होते रहे हैं?
हां नहीं है, लेकिन इसकी कल्पना कस्बों से अलग कला का मेला था। मैं समझ रहा था कि भारतीय समाज में मेलों की चाहत कभी कम नहीं होगी। आरंभ से ही मेले के रूप में अपने देश की साधारण जनता के असाधारण अनुभवों को समवेत करना चाहता था। हमारी जनता को प्रारंभ से ही पहचाना नहीं था। गणतंत्र में लोक को आजादी से ही बाहर रखा गया। अब मुझे काम करना था और लोक आयोजन को जनता में समारोहित करना चाहता था।

1 टिप्पणी:

ओशो रजनीश ने कहा…

बढ़िया प्रस्तुति .......

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काशी - हिन्दू तीर्थ या गहरी आस्था....

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