गुरुवार, जून 17, 2010

एक कवि का दिल्ली में कुछ दिन रहना...

  कुनाल ये तुम्हारा संस्मारन था ... तीन जगह ठीक किया है... मैं  भाभियों के बच्चे कब खिलाता था यार ... चलो बहुत अच्छा लग रहा हैं... शानदार है.... कुछ बदमाशियां भी हैं तुम्हारी इसमें .. कुछ हरे कि सुनाई हुई गप्पें भी हैं...

रवीन्द्र स्वप्निल प्रजापति पर कुणाल सिंह का संस्मरण

एक कवि का दिल्ली में कुछ दिन रहना...

बात उन दिनों की  है जब मैं कलकत्ता छोड़ के दिल्ली आया हुआ था। कलकत्ते के दिनों में कथाकार राजीव कुमार (उन दिनों वह भी कलकत्ते में ही रहा करते थे) से परिचय हुआ था। उन्होंने अभी कहानियाँ लिखना शुरू ही किया था। उनकी दो कहानियाँ मेरे ‘वागर्थ’ में रहते छपी थीं। एक बार पहले भी जब कथा अवार्ड के सिलसिले में दिल्ली आना हुआ था, जेएनयू के गोमती गेस्टहाउस में ठहरा हुआ था। भारत भारद्वाज की मदद से वहाँ आसानी से सस्ते कमरे मिल जाया करते थे। तो एक दिन जब मंडी हाउस का चक्कर लगाने के लिए गेस्टहाउस से निकल ही रहा था कि गेट पर राजीव नमूदार हुए। मैं दंग रह गया कि ये यहाँ कैसे! तब तक मुझे पता नहीं था कि राजीव अब दिल्ली ही शिफ़्ट हो गये हैं और अपने साले साहब (इत्तेफ़ाक़ से उनका नाम भी राजीव कुमार ही ठहरा) के साथ शाहदरा में रहते हैं। उन्हें मंडी हाउस में ‘हंस’ के तत्कालीन उपसम्पादक गौरीनाथ ने बताया था कि इन दिनों में दिल्ली आया हुआ हूँ।

  हाँ तो इस बार जब कलकत्ता छोड़कर हमेशा  के लिए दिल्ली आना हुआ तो पहली चिन्ता रिहाइश की हुई। गेस्टहाउस को तो पर्मानेंट अड्रेस बनाया नहीं जा सकता था। कलकत्ते में ही राजीव से इस बाबत बातें हुर्इं। राजीव ने मित्रतापूर्वक इसरार किया कि जब तक दिल्ली में मेरा कोई स्थायी ठौर नहीं हो जाता, मैं उनके यहाँ शाहदरा में ही रहूँ। मेरे पास दूसरा कोई विकल्प था भी नहीं। जहाँ तक मुझे याद है, मैं 10 अक्तूबर 2006 को दिल्ली आया और उसी दिन दोपहर में वाणी प्रकाशन में सम्पादक की नौकरी मुझे मिल गयी। अरुण माहेश्वरी के बारे में मैंने बहुत कुछ सुन रखा था, इसलिए थोड़ा डरा हुआ भी था। लेकिन नौकरी के पहले दिन से ही उन्होंने मुझे जो मान-आदर और स्नेह दिया, उसका मैं मुरीद हो गया। वहाँ सुधीश पचौरी से भी मुलाक़ात हुई, वे वाणी की पत्रिका ‘वाक् ’ में सम्पादक थे। मुझे उनका सहायक भी होना था, सो हुआ। बहरहाल, दिल्ली के दरियागंज इलाक़े में वाणी प्रकाशन के उस दफ़्तर में मैंने कोई एक सप्ताह भर नौकरी की। तब तक रवीन्द्र कालिया भी ‘वागर्थ’ छोड़कर भारतीय ज्ञानपीठ के निदेशक होकर दिल्ली आ गये थे। एक दिन शाम को उनका फोन आया कि क्या मैं ज्ञानपीठ ज्वाइन कर सकता हूँ? यह मेरे लिए एक सुनहरा मौक़ा था। कालियाजी के साथ ‘वागर्थ’ में तक़रीबन तीन साल तक बतौर सहायक सम्पादक काम कर चुका था। उनके साथ मेरी ट्यूनिंग ग़जब की थी। फिर उनके साथ काम करते हुए मुझे कभी नहीं लगा कि मैं किसी के मातहत काम कर रहा हूँ। हमेशा वे एक पिता की तरह ही काम सौंपते। दिल्ली, जो तब तक मेरे लिए परायी ही थी, में अकस्मात अपने इस ‘पुराने पिता’ के पास लौटने के आमन्त्रण का मेरे लिए कितना महत्त्व हो सकता है, आप सहज ही अनुमान लगा सकते हैं।

  बहरहाल, ज्ञानपीठ ज्वाइन करने के बाद  सबसे बड़ी दिक्कत आवागमन की  हुई। ज्ञानपीठ का दफ़्तर लोदी रोड पर था और हालाँकि शाहदरा से वहाँ तक के लिए सीधी बस थी, लेकिन आने जाने में तक़रीबन चार घंटे रोज़ के ज़ाया हो जाते थे। फिर शाहदरा में राजीव ख़ुद ही बतौर ‘पाहुन’ रह रहे थे, ऐसे में मेरा वहाँ रहना उनके ऊपर बोझ सदृश था। यही सब देखते हुए मैं लोदी रोड के आसपास ही किसी सस्ती रिहाइश की फिराक़ में था। एक दिन दफ़्तर में अचानक युवा कवि हरेप्रकाश उपाध्याय का आना हुआ। हरेप्रकाश उन दिनों दिल्ली के अधिकांश लिखने-पढ़ने वाले लड़कों की तरह फ्रीलांसिंग कर रहे थे। ‘वागर्थ’ में युवा कवियों के लिए एक नियमित स्तम्भ चलता था, उनमें एक बार हरेप्रकाश पर भी फ़ोकस किया गया था। उसी सिलसिले में एकाध बार उनसे बातें हुई थीं। औसत क़द के, थोड़े साँवले, साठोत्तरी कथाकारों की तरह चेहरा दाढ़ी से भरा हुआ। हरे ने यों ही पूछा कि यहाँ मैं कहाँ रह रहा हूँ। मैंने बताया और साथ ही कहा कि यदि यहीं कहीं आसपास कोई जगह मिल जाती तो मज़ा आ जाता।

  उसी शाम जब मैं दफ़्तर से कोई साढ़े पाँच के आसपास निकला तो किसी अपरिचित नम्बर से एक फोन आया। दूसरी तरफ़ युवा कथाकार अजय नावरिया थे। अजय से मेरी पहली मुलाक़ात बीकानेर में संगमन की गोष्ठी में हुई थी। उन दो-एक दिनों में उनसे अच्छी यारी हो गयी थी। मैं चकित था कि इतनी जल्दी अजय को मेरा दिल्ली वाला नया नम्बर कैसे मिल गया। बहरहाल, अजय ने पूछा कि मैं अभी कहाँ हूँ।

  मैंने कहा, ‘‘दिल्ली में।’’

  ‘‘सो तो पता है, लेकिन अभी कहाँ हो?’’

  ‘‘ज्ञानपीठ के आॅफिस के सामने जो  सार्इं बाबा का मन्दिर है, वहीं। शाहदरा  के लिए बस लेने जा रहा हूँ।’’

  ‘‘तुम मिलकर जाओ। मैं अभी पाँच मिनट में वहाँ पहुँच रहा हूँ। ...या ऐसा करो, तुम वहाँ से लौट पड़ो पीछे की तरफ़। मैं भी आ ही  रहा हूँ, बीच में कहीं मुलाक़ात हो जाती है।’’

  ‘‘पीछे की तरफ़, मतलब?’’

  ‘‘अभी तुम्हारा चेहरा रोड की तरफ़ है न, वहाँ से मुड़ो और पश्चिम की तरफ़ चलते चले आओ।’’

  ‘‘पश्चिम किधर है?’’

  ‘‘अबे यार, जिधर सूरज डूब रहा है अभी?’’

  ‘‘यार मैं दिल्ली में नया-नया हूँ।  मुझे नहीं पता यहाँ सूरज किस तरफ़ डूबता है!’’

  अजय ठठाकर हँसा। मेहरचन्द मार्केट में  मुलाक़ात हुई। साथ में कविवर हरेप्रकाश   भी। पता चला, दोनों  ने मेरे लिए एक कमरा ढूँढ लिया है वहीं लोदी रोड पर। मैं  चौंका भी, ख़ुश भी हुआ। लोदी  कालोनी के ब्लॉक बारह में बरसाती पर दो कमरे थे। एक में अजय ने अपना ‘आॅफिस’ टाइप कुछ खोल रखा था, दूसरा कमरा अभी ख़ाली था। सीढ़ियाँ बाहर से होकर थीं, सो हम सीधे ऊपर पहुँचे। मकान मालिक शर्माजी अभी थे नहीं, सो बन्द कमरे को बाहर-बाहर से देखकर मैंने स्वीकृति दे दी और शाहदरा लौट आया।

  इस  प्रकार दिल्ली पहुँचने के एक  सप्ताह के भीतर मैंने एक अच्छी नौकरी छोड़कर एक दूसरी अच्छी नौकरी कर ली, और अब मेरे पास एक अपना कमरा था, एक बहुत अपना मित्र भी। हरेप्रकाश लोदी कालोनी से ही सटी बी.के.दत्त कालोनी में रहता था। उसके बारे में पता चला कि उसने आज तक कहीं तीन महीने से ज़्यादा न तो कहीं नौकरी की और न ही किसी से दोस्ती निभायी। मैं पहला शख़्स था जिसके साथ उसकी शुरू से अब तक दोस्ती चल रही है। बल्कि कई जगहों पर मुझे शक़ की निगाह से देखा जाता है कि वह मैं ही हूँ जिसकी हरे से इतनी लम्बी दोस्ती चली।

  हरे खरा आदमी है। जो भी महसूस  करता है, मुँह पर बोल देता है। नक़ली चीज़ें उसे पसन्द नहीं, न ही नक़ली लोग। दिल से प्यार करता है और दिल से दुश्मनी भी निभाता है। उसके दुश्मनों की फेहरिस्त लम्बी-चौड़ी है। वह बड़े चाव से दुश्मन बनाता है। कई बार इस दुश्मनी बनाने की प्रक्रिया का मैं चश्मदीद हुआ। जिससे उसे दुश्मनी करनी होती है, उसे शाम को वह फोन करता है और तारीफों के पुल बाँधने लगता है। कहता है, महोदय ‘क’, आपकी कविताओं ने मेरे जीवन को एक नयी दिशा दे दी। हाय-हाय अब तक मैं किस नरक में जी रहा था। आपने पहले लिखना क्यों नहीं शुरू किया? यदि लिखना शुरू भी किया था तो अब तक दो कौड़ी की पत्रिकाओं में क्यों छपते रहे? आप नहीं जानते अनजाने में आपसे कितना बड़ा पाप हुआ है! यक़ीन जानिए, आज ‘ल’ पत्रिका में छपने के लिए सम्पादक को आपने जितनी महँगी दारू पिलायी होगी, यदि एक साल पहले ही पिला देते तो आज आप घुटन्ना सा अदना कवि न होकर महाकवि होते!

  इसके बाद वह जंग जीतकर आये किसी  वीर की भाँति फोन रख देता।


लोदी रोड की उस बरसाती में मैं लगभग दो सालों तक रहा। इस बीच वहाँ ‘सूरमा’ भोपाली रवीन्द्र स्वप्निल प्रजापति भी आ गया था। रवीन्द्र से भी मेरी पहली मुलाक़ात उतनी ही अजीब थी, जितना कि वह ख़ुद। हुआ क्या कि कलकत्ता छूटने के बाद मेरा मछली खाना भी छूट गया। दिल्ली में फिश टिक्का वग़ैरह तो ख़ूब उपलब्ध थे, लेकिन उन्हें बनाने की प्रविधि कुछ इस तरह अपचिति थी कि लगता ही नहीं था मछली खा रहा हूँ। तो एक बार मैंने हरेप्रकाश से कहा कि यार कुछ इसका जुगाड़ करो कि घर जैसी मछली खाने को मिले। हमारी मित्र मंडली में राजीव कुमार मछली बहुत अच्छी बनाते थे। तो तय हुआ कि एक दिन उन्हीं के यहाँ शाहदरा में धमका जाए। पता चला कि उनके साले महोदय भी घर गये हुए हैं। एक शनिवार मैं और हरे शाहदरा पहुँचे, राजीव को अपनी नेकनीयती का पता बताया। राजीव ख़ुश हुए। इस बीच हरे ने रवीन्द्र स्वप्निल प्रजापति को भी फोन कर के बुला लिया जो उन दिनों वहीं कहीं रहता था। राजीव और हरे पास के ही मार्केट में मछली ख़रीदने के लिए गये। मैं वहीं रह गया कि इस बीच कहीं प्रजापति आये तो कमरे पर ताला लटकता देख वापस न लौट जाए। रवीन्द्र की कविताएँ मैंने पढ़ रखी थीं और वह मेरे प्रिय कवियों में था, लेकिन अब तक उससे कोई मुलाक़ात नहीं हुई थी। दरवाज़े पर दस्तक हुई तो मैंने पाया कि हरे और राजीव मछली लिये आ चुके हैं और उनके पीछे रवीन्द्र भी खड़ा था। आगे बढ़कर मैंने उससे हाथ मिलाया और गर्मजोशी से बगलगीर हुआ। मैंने उसकी एक-दो कविताओं का हवाला देते हुए उसकी तारीफ़ों के पुल बाँधे। लेकिन रवीन्द्र तो बस प्रजापति था! उसने छूटते ही कहा, ‘‘यार छोड़ो न, दोस्तों के बीच ऐसी बातें अच्छी नहीं लगतीं।’’

  चिन्ता की बात हुई कि भई मछली तो ले आये हैं, अब मसाला कहाँ कूटा जाए! राजीव ने कहा कि उसके पास सिल-लोढ़ा नहीं, सो किसी ऐसे बन्दे की तलाश की जाए जिसके यहाँ मसाला तैयार किया जा सके। मेरे जानते रवीन्द्र वहाँ पहली बार ही आया था, लेकिन वह फौरन तैयार हो गया कि उसे मसाला दिया जाए और वह आधे घंटे में आस-पड़ोस की किसी महिला को भाभीजी-ताईजी कहकर मसाला कुटवाकर ले आयेगा। राजीव ने हाथ जोड़ लिये कि इस कालोनी में वह बतौर दामाद रह रहा है, सो अगर कुछ ऊँच-नीच हो गया तो ख़बर सीधे उसकी नयी-नवेली बीवी के पास पहुँच जाएगी।

  ‘‘यार अभी बमुश्किल साल भर ही हुए  हैं मेरी शादी के।’’ वह जैसे गिड़गिड़ा  रहा हो।

  ‘‘मुझ  पर यक़ीन करो, मैं उन्हें सच्चे मन से भाभीजी मानकर रिक्वेस्ट करूँगा।  उनसे मेरा सम्बन्ध सिर्फ़ मसाला कूटने तक ही सीमित रहेगा। ’’

  ‘‘नहीं तुम खतरनाक कवि हो, मैं तुम्हारा यक़ीन चाहकर भी नहीं कर सकता।’’

  ‘‘कवि तो हरे भी है।’’ रवीन्द्र ने जैसे कोई चुटकुला सुना हो। वह अपनी ही तरह हँसने लगा।

 ‘‘हाँ लेकिन मैं भोपाल का कवि नहीं जो केलि-केलि करता फिरूँ। ये दिल्ली है मेरे यार।’’  यह हरेप्रकाश था, उसने कहा ‘‘सुनो, यहाँ से कोई तीन-चार किलोमीटर दूर एक और कवि रहता है— रमेश प्रजापति। उसके घर   में खुली छत पर सिल रखा मैंने देखा था। ै।’’
पर इतनी दूर तक जाने वाला यह आइडिया किसी को जमा नहीं।
  तय हुआ कि मसाले का पत्थर  राजीव किसी पड़ौसी से लेकर आएंगे। पत्थर आया और उस पर राजीव के किसी मित्र को राई पीसने में जुटा दिया। हरे और राजीव रम तीनों के लिए और मुझे एक हाफ वोदका लेने शाहदरा की किसी वाइन शॉप पर चले गए। मैं और रवीन्द्र पीछे रह गये। उनके जाने के बाद अचानक रवीन्द्र ने अपनी कमीज़ उतारी, फिर पतलून उतारी। मैं उसे देख रहा था कि ये जितना अच्छा कवि है उतना अहंकारी और मुंहफट इंसान। बनियान भी उतारकर सिर्फ़ चड्डी में वह कमरे से बाहर निकला और आँगन में घूमने लगा। कभी कभी वह ऊँची आवाज़ में कोई गाना भी गाने लगता। मैंने सोचा, दुनिया बनाने वाले क्या तेरे मन में समायी जो इसे सुदर्शन बनाया, कवि बनाया मगर भेजे वाले फ्लैट पर कुछ नहीं बनाया। फिर मैने सोचा ये कवि ऐसे ही होते हैं।
  कोई  एक-डेढ़ घंटे बाद राजीव और हरे लौटे, और तब तक रवीन्द्र का अंग प्रदर्शन चलता रहा। मैं बिस्तर पर लेटा कोई किताब पढ़ने लगा था। जैसे ही दरवाज़े पर दस्तक हुई, रवीन्द्र भागकर कमरे में लौटा और पतलून पहनने लगा।

  बहरहाल, राजीव की पाककला के बारे में  जैसा सुना था, वह उससे भी बढ़िया बावर्ची निकला। जब तक राजीव किचन में मछलियाँ तलता रहा, रवीन्द्र किसी बिल्ली की तरह पाँव दबाकर जाता मैं भी इस चोरी की मछली के मजे लेता। घूंट घूंट दारू और मछली। क्या मजेदार थे वे दिन। रवीन्द्र कई बार तली हुई मछली उठाकर लाता रहा। जब राजीव ने देखा कि अरे ये तो सब खा जाएंगे। अन्त में राजीव को चिमटा लेकर मछली की सुरक्षा करना पड़ी - ‘‘ अरे भाई पीने के साथ ही सब खा लोगे, भात के लिए भी बचने दोगे।’’ राजीव मछली बनाते हुए बोला।

  यह नौटंकी इतने में ही ख़त्म नहीं हुई। अचानक देर रात हम सब उठकर बैठ गये, जब बहुत पास से किसी बिल्ली की आवाज़ आई। गौर करने पर पता चला, यह रवीन्द्र था जो दरवाज़े के पास गरमी और मच्छरों से परेशान चादर बिछाकर लेटा था। उसे नींद नहीं आ रही थी, इसलिए वह टाइम पास करने के लिए बिल्ली की आवाज़ निकाल रहा था। हम सबने अपना सिर पीट लिया। उससे गुजारिश की गयी कि कृपया वह सोने की कोशिश करे। उसने भन्नाई आवाज़ में कहा, ‘‘सोना चाहूँ भी तो ये मच्छर सोने नहीं देते।’’
  वाक़ई मच्छर तो वहाँ थे, और हम भी इससे ख़ासे परेशान होकर ही सो रहे थे। राजीव ने कहा कि घर में न कोई मॉस्क्यूटो क्वायल है न मच्छरदानी। रात के दो बज चुके हैं, इसलिए अब कोई उपाय नहीं है।
  ‘‘हमारे बाप-दादा कहा करते थे कि धुएँ से मच्छरों का बैर है। जब गाय-बैल मच्छरों से परेशान हो जाते थे तो उनके पैरों के पास धुआँ कर दिया जाता है।’’ रवीन्द्र ने अपनी स्मृति पर ज़ोर डाला।
  ‘‘हम क्या गाय-बैल हैं?’’ मैंने पूछा।
  ‘‘माना कि गाय-बैल नहीं, लेकिन जो हमें काट रहे हैं वे ज़रूर मच्छर हैं।’’ रवीन्द्र की तर्क शक्ति का जवाब नहीं।
  ‘‘लेकिन  यार, अब इतनी रात में धुआँ कौन करे!’’ हम में से कोई बोला।
  ‘‘तुमलोगों  को नींद आ रही है तो सो जाओ। मैं तो जगा हुआ ही हूँ, मैं  धुआँ करता हूँ।’’
  हम  निश्चिन्त होकर सो रहे। कोई दो-तीन घंटे के बाद मुझे लगा, मेरा दम घुटने वाला है। उठा तो पाया, कमरा धुएँ से भरा हुआ है। हरे बिस्तर के एक कोने पर बैठा तमाशा देख रहा है और राजीव आग बबूला हुआ रवीन्द्र को फटकार लगाये जा रहा है कि आइन्दा मेरे यहाँ तुमने क़दम रखा तो मुझसे बुरा कोई नहीं होगा। दरअसल रात में रवीन्द्र को धुआँ करने के लिए कुछ नहीं मिला तो उसने कमरे के एक कोने में रखे काग़ज़ बाहर नीम के पीले पत्तों को समेँट कर एक कबाड़ी से तसले में आग जला रहा था। रवीन्द्र एक-एक कर पन्ने फाड़ता और उन्हें दियासलाई दिखा देता। हम लोग हंसते भी और धुंए से आंखें भी मलते। 
बी.के.दत्त कालोनी में हरे और रवीन्द्र एक ही कमरे में रहते थे। एक ही साथ सोते, आँखें मींचते हुए उठते और एक ही बस में दरियागंज को रवाना होते। तब तक रवीन्द्र वाणी प्रकाशन में मेरी जगह पर विराजमान हो चुका था और हरेप्रकाश ‘हंस’ में बतौर सहायक सम्पादक काम करने लगा था। मौक़ा मिलते ही रवीन्द्र अंसारी रोड पर ‘हंस’ के दफ़्तर में जा पहुँचता, और जब तक अरुण माहेश्वरी के दो-चार फोन न आ जाते, वहीं जमा रहता। एक बार आज़िज आकर राजेन्द्र जी ने उससे पूछा कि तुम जब देखो, यहीं बैठे रहते हो, भला अपने दफ़्तर में काम क्या करते होगे! रवीन्द्र का जवाब था, ‘‘काम तो होता ही रहता है राजेन्द्र जी, चाहे करो या न करो।’’
  सुनकर राजेन्द्रजी ठगे रह गये। कोई अचरज नहीं कि जब हरे ने ‘हंस’ छोड़ा और रवीन्द्र ने उसकी जगह के लिए अप्लाई किया, तो राजेन्द्रजी ने फौरन से पेश्तर उसकी अर्जी चूल्हे में झोंक दी। वैसे सच ये था कि राजेन्द्र जी संजीव जी को कुल्टी से बुला चुके थे।
  रवीन्द्र को वाणी में कालियाजी ने लगवाया था। एक दिन ज्ञानपीठ में मेरे पास आया। मैंने उसे कालिया जी से मिलवाया। कालिया से मिलकर रवीन्द्र खुश हुआ। उसने कहा हिंदी साहित्य की दुनिया में कालिया जी पहले लेखक हैं जिन्होंने किसी को दिल्ली में नौकरी तलाशते देख कर मुंह नहीं बिचकाया। उन्होंने कितनी जिंदादिली से स्वागत किया   यार। इसके बाद रवीन्द्र उनका मुरीद हो गया। करीब घंटे भर ठहर कर रवीन्द्र चला गया।
  कालियाजी ने भले दुनिया देखी हो, लेकिन मेरा दावा है कि ऐसे किसी कवि से उनका पाला नहीं पड़ा होगा तब तक। इधर मेरे वाणी प्रकाशन छोड़ने के बाद कई बार अरुण माहेश्वरी ने कालियाजी से कहा था कि ज्ञानपीठ मुझे जितना देता है, उससे दोगुनी तनख्वाह वह मुझे देने के लिए तैयार हैं। कालियाजी ने अरुणजी को फोन लगाया कि भोपाल से एक बहुत ही प्रतिभावान कवि अभी-अभी दिल्ली पहुँचा है। मेरे बहुत कहने के बाद वह किसी तरह आपके यहाँ काम करने को राजी हुआ है। भेज रहा हूँ। दूसरे दिन रवीन्द्र ने मेरी खाली हुई कुर्सी वाणी में सम्हाल ली।
  तो इस प्रकार रवीन्द्र वाणी में लग गया। वहाँ उसने कोई साल भर तक काम किया, लेकिन हरे के ‘हंस’ छोड़ने के बाद उसका मन

दरियागंज  से उचट गया। बाद में उसने भी वाणी प्रकाशन वाली नौकरी छोड़ दी। दूसरा कारण उसने बताया कि अरुण माहेश्वरी ने दो दिन की छुट्टी के पैसे काट लिए थे। इसकी शिकायत सुधीश पचौरी से भी की थी जिसके उत्तर में पचौरी जी ने कहा-मैं प्रबंधन में हस्तक्षेप नहीं कर सकता। इस पर रवीन्द्र ने मेरी छत पर पौने दो घंटे का एक लेक्चर दिया था और नौकरी छोड़ने की घोषणा की थी। इसके दूसरे दिन शाम को उसने फोन पर ही नौकरी छोने का इस्तीफा पेश कर दिया। फिर वह वाणी के आॅफिस ही नहीं गया।  दरअसल वाणी वाली नौकरी के दौरान ही उसने किसी नेता टाइप साधू या साधू टाइप नेता को पटा लिया था या दोस्ती हो गई थी। जिन दिनों हम (मैं और हरेप्रकाश) नौकरीपेशा होने के बावजूद पचास रुपये वाला पौव्वा पीकर गुजारा करते, उन दिनों बेकार होकर भी रवीन्द्र कभी होटलों और क्लबों में स्ट्रॉबेरी फ्लेवर का कॉकटेल पीकर आता तो कभी बनाना फ्लेवर का। रात दो बजे गुड़ गांव में बैठा है तो कभी करोलबाग। कभी गाजियाबाद ।
मेरे बरसाती वाले कमरे के सामने एक खुली छत थी, मकान मालिक यदा कदा ही ऊपर आता। सो उन दिनों ज़्यादातर बैठकें मेरे ठिए पर ही होतीं। खा-पीकर सब अक्सर वहीं सो पड़े भी रहते। कभी-कभी बैठक हरे के कमरे पर भी होतीं।  जहाँ वह रहता था, आसपास खायी-अघायी भाभियों का जमघट लगा रहता। ग्राउंड फ्लोर पर लगभग बीस-पच्चीस कमरे थे, सबमें हरियाणा-पंजाब की मुटल्ली औरतें भरी पड़ी रहतीं। जब कभी हम वहाँ होते, दरवाज़े को अच्छी तरह बन्द करने के बाद ही हाहा-हीही करने की हिमाक़त करते। ख़ासकर हरे इन औरतों से दूर-दूर ही छिटका रहता, जबकि वे ऐसी थीं कि आते-जाते टोक देतीं— ‘‘भाईसाब, बरामदे में इतनी शीशी-बोतल क्यों जमा कर रखा है, भतेरे कबाड़ी आते हैं, मेर्को दे देना मैं बेक दूँगी सब।’’
  हरे इस कान से सुनता, और चेहरे पर बिना कोई शिकन लाये उस कान से निकाल देता। धीरे-धीरे वे औरतें भी उससे  बचने में ही अपनी भलाई समझने लगीं। इसके विपरीत रवीन्द्र उन औरतों से बातें करता रहता। रवीन्द्र बच्चों से दोस्ती बहुत अच्छी कर लेता है। या बच्चे उसकी तरफ आकर्षित होते हैं। एक बार हम तीनों खन्ना मार्केट के पास एक गली से गुज़र रहे थे कि एक तीन-चार साल का बड़ा प्यारा बच्चा दौड़ा-दौड़ा आया और उसकी कलाई पकड़कर झूल गया। हम तीनों तब और चौंके जब वह बच्चा रवीन्द्र को ‘पापा-पापा’ कहने लगा। शाम के धुँधलके में बच्चे को शायद धोखा हो गया हो, रवीन्द्र ने किसी तरह अपनी कलाई छुड़ायी और आंखें फाड़ कर चारों तरफ देखने लगा। हम तीनों देर तक हँसते रहे।
  इसी बीच पता चला कि रवीन्द्र ने उस साधू उर्फ़ नेता को सुझाव दिया कि एक पत्रिका निकाले तो उसका ख़ूब प्रचार-प्रसार होगा। आनन फानन में उसने रवीन्द्र को करोलबाग में एक आॅफिस दिला दिया। एक कमरा, एक चपरासी, एक कम्प्यूटर, एक फोन और बियर रखने के लिए एक फ़्रिज। रवीन्द्र ताबदस्ती से रोज़ सुबह नौ बजे आॅफिस पहुँच जाता और शाम तक (कभी देर रात तक)वहाँ बना रहता। समय बिताने की गरज से उसने पहले कविताएँ लिखनी शुरू कीं, फिर भी समय न बीतता तो कहानियों पर हाथ आजमाइश करने लगा। मंटो ने कहीं लिखा था कि वह रोज़ एक कहानी लिख लेता है, रवीन्द्र के मामले में हमने इसे सही होते देखा। शाम को सीधे मेरे पास पहुँचता और सुनाने लग पड़ता उस दिन की लिखी कहानी। मैं आज़िज आ गया, तो एक दिन उसने भावुक होते हुए कहा, ‘‘जानते हो, आज मैं बहुत दुखी हूँ।’’
  ‘‘क्यों, क्या हुआ? हरेप्रकाश ने कमरे से निकाल दिया क्या?’’ मैंने अपना डर छुपाते हुए पूछा, कि कहीं यह मेरे यहाँ ही रहने के लिए न आ धमके। वैसे मेरा कमरा ऐसा नहीं था कि जिसमें रवीन्द्र जैसा घोड़ा हिनहिनाते हुए रह ले।
  ‘‘नहीं, बात इससे भी ज़्यादा सेंसिटिव है।’’ रवीन्द्र ने कहा।
  मैंने राहत की साँस ली। पूछा, ‘‘क्या?... बोलो बोलो, आख़िर दोस्त ही दोस्त  के काम आता है!’’
  वह रुँआसा हो आया, ‘‘दरअसल मैंने  आज साम्प्रदायिकता के मुद्दे पर एक कहानी लिखी है! जानते हो आज हमारे समाज में साम्प्रदायिकता का ज़हर कितने गहरे तक समा गया है?
  ‘‘अबे चुप कर यार! चल मोमोस खाते हैं और वोदका का हाफ लेते हैं।’’ मैंने अपनी जेब में पैसे टटोले और खन्ना मार्केट की तरफ चले गए। मैंने देखा शराब की दुकान पर सांप्रदाकिता नहीं है। बाद में उसने लोदीकालोनी में   कहानी का पाठ किया था। उसने कहानी का नाम टीन टप्पर रखा था।’’ मैंने उसे कहा कि तू कवि इतना अच्छा है कि कहानीकारों पर भारी पढ़ता है तो फिर कहानी क्यों लिखता है?’’ रवीन्द्र का जबाव भी अजीब ही होते है- कहा यार जिंदगी में पहाड़, मैदान, नदी और शहर सब कुछ है। अब किसी पर प्रतिबंध नहीं कि जो नदी किनारे घूम लिया वह पहाड़ों पर नहीं चढ़ेगा। मैंने कहा चढ़ साले चढ़ हम कहानीकार तुझे चढ़ने ही नहीं देंगे।



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Ravindra Swapnil Prajapati
Peoples Samachar
6, Malviye Nagar, Bhopal MP

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