रविवार, अप्रैल 04, 2010

सिमी की पहचान मालवा के माथे पर कलंक





पुलिस के ढीले रवैये के कारण खुफिया सूचनाएं घास के तिनकों की तरह हाथ में ही रह जाती हैं।


मा लवा की अपनी पहचान अभी भी आतंक से नहीं है। आतंक की पहचान को कोई सहन करना भी नहीं चाहता क्योंकि मालवा सुनहरे रंग वाले गेंहू से पहचाना जाता है। यह गेंहू का कटोरा कहा जाता रहा है। यह सुनहरापन ही मालवा की पहचान है। कम से कम हाल ही तक तो कोई सवाल ही नहीं उठाया जा सकता था कि इसके अलावा कोई दूसरी पहचान से लोग इस छोटे से अंचल को जानें। लेकिन पिछले कुछ सालों में स्टूडेंट आॅफ इस्लामिक मूवमेंट आॅफ इंडिया (सिमी) की गतिविधियों के कारण मालवा का नाम चर्चा में रहा है।
सि मी का नाम मालवा खासकर इंदौर, उज्जैन, खंडवा जैसे कस्बों शहरों से जुड़ा रहा है। सिमी से जुड़ा आतंक के तार। यही तार और संबंध मालवा को प्रदेश में आतंक के नए गढ़ के रूप में देखा जाने लगा है। सिमी ताकत प्राप्त कर रहा है। इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि पिछले साल खंडवा में हुई एटीएस कांस्टेबल सीताराम और दो अन्य लोगों का हत्यारा आज तक नहीं मिला है। पुलिस जांच पड़ताल की अपनी प्रक्रिया में कुछ और तथ्य हाथ लगे हैं। पुलिस को कई नई जानकारियां मिली हैं, एक तो यही है कि आतंकी हर उस आदमी को मारना चाहते हैं जिसे सिमी से संबंधित जानकारियां हासिल हैं। या वह सिमी का दुश्मन है। सिमी के मंसूबे पुलिस के आत्मबल को कमजोर करने के भी हो सकते हैं। सीताराम की शहदत इसका जीता जागता सबूत भी है। जानकारियां सिमी के सदस्य आतंकियों के मंसूबों को उजागर करती है। ये जानकारियां तभी उपयोगी हो सकती हैं जबकि इनका सही ढंग से इस्तेमाल किया जाए। पुलिस का रवैया अगर ढील ढाल कर मामलों को अपने आप खत्म हो जाने की मानसिकता से ग्रस्त रहा है। पुलिस के ढीले रवैये के कारण खुफिया सूचनाएं घास के तिनकों की तरह हाथ में ही रखी रह जाती हैं।




अपना गांव अपनी योजना
गांव के लोगों पर यकीन किया जाता तो आज सरकारी योजनाओं के खाते में सफल योजनाएं मील के पत्थर की तरह गांवों में दिखाई देतीं। गांवों के अधिकांश लोगों की मानसिकता सरकारी योजनाओं के प्रति अविश्वास से देखने की हो चुकी है। गांव वाले जानते हैं कि सरकारी योजनाएं उनके लिए आती तो हैं लेकिन उनकी बंदरबांट और खानपीना, मिलने न मिलने का फैसला ब्लॉक कार्यालयों, तहसील मुख्यालयों में सक्रिय दलालों और बाबूओं से घिरी एक घिनौनी तिकड़ी में फंसी रहती है। जहां सरपंच हो या सचिव सब जानते हैं कि किस अधिकारी को कितने प्रतिशत कमीशन देना है। पिछले साठ साल से अविश्वास का ऐसी दीवार बनाई गई है जिसे हम आज और मोटा किए जा रहे थे। मध्यप्रदेश के संदर्भ में देखें तो अविश्वास की इस दीवार को प्रदेश सरकार ने मांग आधारित योजना की अवधारणा के माध्यम से गिराने की कोशिश की है। इस योजना में गांव के लोगों को आवश्यकता के अनुसार योजना में बदलाव और मद बदलने अधिकार मिल रहे हैं। हर गांव का एक अलग परिवेश है। कई गांव बरसात के दलदलों में घिर जाते हैं तो वहां सबसे पहले पहुंच मार्ग की आवश्यकता है। जहां स्कूल नहीं है तो वहां पहुंच मार्ग का पैसा स्कूल के विस्तार में लगाया जा सकता है। मांग आधारित योजनाओं की अवधारणा के परिणाम सकारात्मक आ रहे हैं। इसका प्रयोग बीते वर्ष में राजगढ़, छतरपुर, रायसेन, मंडला आदि में सफल रहा है। इसका बहुत कुछ दारोमदार ग्राम सभा पर निर्भर करता है। यह एक सच्चे विकास की ईबारत है जिसे गांव का व्यक्ति अपनी तरह से लिखने की कोशिश करेगा। सरकार और दूर गांव के बीच बनी अविश्वास की दीवार गिराई जा सकेगी।

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