हैप्पी बर्थ डे
शनिवार, फ़रवरी 12, 2011
रविवार, फ़रवरी 06, 2011
संदेह - दृष्टि
संदेह - दृष्टि
ये आलेख गीत चतुर्वेदी और सबद निरंतर ब्लॉग से साभार है ...
बोर्हेस ने ‘द रिडल ऑफ पोएट्री’ में कहा है- ‘सत्तर साल साहित्य में गुज़ारने के बाद मेरे पास आपको देने के लिए सिवाय संदेहों के और कुछ नहीं।‘ मैं बोर्हेस की इस बात को इस तरह लेता हूं कि संदेह करना कलाकार के बुनियादी गुणों में होना चाहिए। संदेह और उससे उपजे हुए सवालों से ही कथा की कलाकृतियों की रचना होती है। इक्कीसवीं सदी के इन बरसों में जब विश्वास मनुष्य के बजाय बाज़ार के एक मूल्य के रूप में स्थापित है, संदेह की महत्ता कहीं अधिक बढ़ जाती है। एक कलाकार को, निश्चित ही एक कथाकार को भी, अपनी पूरी परंपरा, इतिहास, मिथिहास, वर्तमान, कला के रूपों, औज़ारों और अपनी क्षमताओं को भी संदेह की दृष्टि से देखना चाहिए।
अपनी बात को स्पष्ट करते हुए एक सूत्र तक पहुंचाने के लिए मैं फिर एक बार बोर्हेस को ही कोट करूंगा। उनकी एक कहानी है- ‘द रोज़ ऑफ़ पैरासेल्सस’, जिसमें एक किरदार राख से गुलाब बनाता है। जब एक व्यक्ति उससे यह हुनर सीखने आता है, तो वह मना कर देता है कि उसके पास ऐसी कोई चमत्कारी शक्ति नहीं है। उस व्यक्ति के जाते ही पैरासेल्सस नाम का वह किरदार फिर चमत्कार करते हुए राख से गुलाब बना देता है। बोर्हेस की यह कहानी अपने मेटाफि़जि़कल और मेटाहिस्टॉरिक अर्थों में बहुत महत्वपूर्ण है, लेकिन इंटर-टेक्स्चुअल रीडिंग से ज़रा खेलते हुए मैं बोर्हेस की इस कहानी को हिंदी फि़क्शन के संदर्भ में मेटाकॉमिक तरीक़े से देखता हूं।
कुछ लोग हिंदी कहानी से इसी कि़स्म के राख से गुलाब बना देने वाले चमत्कार का दावा करते हैं, लेकिन अपने किस अकेलेपन में वह यह चमत्कार कर रही है? जैसे ही वह पाठक के सामने जाती है, पैरासेल्सस की तरह चमत्कार से इंकार कर देती है, अपना वांछित या प्रोजेक्टेड असर तक नहीं छोड़ती, जबकि बार-बार कहा जा रहा है कि वह चमत्कारी है, तो फिर यह चमत्कार किस निर्जनता या नीरवता में है?
इस समय हिंदी कहानी में जिस तथाकथित रचनात्मक विस्फोट की बात की जाती है, उसे देखकर बरबस मुझे ‘पोएटिक्स ऑफ़ डीफैमिलियराइज़ेशन’ की याद आ जाती है। यह कला का एक सिद्धांत या प्रविधि है, जिसे पुराने ज़माने के रूसी लेखकों ने और बीसवीं सदी की शुरुआत के अमेरिकी लेखकों ने ख़ासा इस्तेमाल किया था। इसमें नैरेटर किसी जानी-पहचानी साधारण-सी चीज़ को इस क़दर नाटकीय और हल्लेदार बनाकर प्रस्तुत करता था कि देखने वाले को यह अहसास हो जाए कि दरअसल वह पहली बार ही उस चीज़ को देख रहा है। इस चौंक के कलात्मक लाभ और छौंकदार हासिल को वह फिक्शन मान लेता था। हिंदी कहानी से ज़्यादा उसका परिदृश्य इस समय उसी पोएटिक्स को एन्ज्वॉय करता जान पड़ता है।
इसके पीछे बहुधा मुझे हिंदी कहानी के विकास की सरणियों के पेचो-ख़म दिखाई देते हैं। हिंदी कथा साहित्य का विकास और हिंदी सिनेमा का विकास कुछ बरसों के आगे-पीछे में ही होता है। दोनों स्टोरी-टेलिंग की दो विधाएं हैं, लेकिन इस विकास में मुझे हिंदी सिनेमा की लोकप्रिय कथ्य-धारा अत्यधिक हावी होती दिखाई देती है। सिनेमा ने साहित्य को समृद्धि ही दी है, ऐसा हम दुनिया के कई बड़े लेखकों का आत्मकथ्य पढ़कर जान पाते हैं, लेकिन हिंदी में सिनेमा के लोकप्रिय कथानक-कथात्मक दबाव ने, कुछ ख़ास अर्थों में भारतीय-हिंदी समाज की संरचना ने भी, हिंदी कथा-साहित्य को चीज़ों को ब्लैक एंड व्हाइट में देखने का जो अत्यंत सरल, सुपाच्य कि़स्म का फॉर्मूला दिया है कि वह आज भी हमारे कथाकारों, किंचित पाठकों और अधिकतर आलोचकों से छुड़ाए नहीं छूट रहा। हमने नैरेशन की चेखोवियन शैली को तो अपना लिया, लेकिन अंतर्वस्तु की चेखोवियन जटिलताओं को ख़ुद से दूर ही रखा। आज भी हम तथाकथित पोस्ट-मॉडर्न नैरेटिव से उसी कि़स्म के सरलीकृत, लेकिन हाहाकारजनित नतीजे ही निकाल रहे हैं।
क्या इसके पीछे कहीं ये कारण तो नहीं कि हम शुरू से ही, हिंदी कथा के परिक्षेत्र में, डेमी-गॉड्स और लेसर-गॉड्स को पूजते आ रहे हैं? क्या हिंदी कहानी लगातार रॉन्ग्ड पैट्रन्स के हाथों में रही है? क्यों ऐसा होता है कि मुझे हिंदी कहानी के शिखर पुरुष हिंदी से बाहर कहीं दिखाई ही नहीं देते? और दुनिया के आला दरजे के फिक्शन का एक हिस्सा पढ़ लेने के बाद अपने इन लेसर-गॉड्स की कहानियों में मेरी कोई दिलचस्पी रह ही नहीं पाती? हां, उनकी कथेतर साहित्यिक-सामाजिक तिकड़में, शरारतें, बदमाशियां मुझे उनकी कहानी से ज़्यादा आकर्षित करती हैं। फिक्शन का अगर कोई मानचित्र हो, तो उसमें हमारी पोजीशनिंग कहां है? यक़ीनन, कहीं नहीं। हम साहित्य में रणजी ट्रॉफ़ी मुक़ाबलों से ही अंतरराष्ट्रीय विजय-प्राप्ति का आनंद भोग ले रहे हैं।
नहीं, यह न सोचा जाए कि इसके पीछे कोई पश्चिमपरस्त मानसिकता है, अपने जातीय-भाषाई स्वभावगत विशेष सरलीकृत तुरत-फुरत आरोप-निष्पादन की फेहरिस्त में इज़ाफ़ा करते हुए यह न कह दिया जाए कि कुछ लोगों को विदेशी चीज़ों में ही आनंद आता है, बल्कि यह एक कड़वी सचाई है, जिसे कम से कम ब्लैक एंड व्हाइट में न देखा जाए। तो वह चमत्कार जो उस कहानी में पैरासेल्सस कर रहा है और हमारे परिदृश्य में हिंदी कहानी कर रही है, उसे जांच लिया जाए। स्ट्रैटजिक टाइमिंग्स के सहारे नहीं, बल्कि साहित्य की गुणवत्ता को मानदंड बनाकर। हम डीफैमिलियराइज्ड की आत्मरति से बाज़ आएं, लेसर-गॉड्स के होलसेल प्रोडक्शन से भी.
मैं यहां किसी कि़स्म के सामाजिक यथार्थ, वर्तमान की चुनौतियां, समकालीन हिंदी कहानी का संकट, यथार्थ और विभ्रम, 90 के पहले और बाद का यथार्थ, दशा और दिशा जैसे सेमिनारी क्लीशे में नहीं जाना चाहता, क्योंकि एक ख़ास, सीमित दबाव डालने के अलावा इन सारी बातों का आर्ट ऑफ द फि़क्शन से कोई लेना-देना भी नहीं होता, लेकिन फिर भी मैं यहां पहले पैराग्राफ़ की बात को दोहराते हुए महज़ इतना कहना चाहूंगा कि हम इतिहास के साथ-साथ अपनी पूरी कथा-परंपरा को भी संशयग्रस्त होकर देखें।
(30 अक्टूबर 2009 को रामगढ़, नैनीताल में हिंदी कहानी पर आयोजित सेमिनार में कुछ ज़बानी जोड़ के साथ पढ़ा गया आलेख.)
शुक्रवार, फ़रवरी 04, 2011
बसंत मेरा दोस्त
बसंत फूलों के खिलने की तरह नहीं आता। कैलेंडर की तारीखों से भी मैंने बसंत को नहीं पहचाना। बसंत मुझे अपने आसपास महसूस हुआ। कई सालों तक बसंत अनाम रहते हुए मुझे महसूस होता रहा जब मैं उसे पहचान नहीं पाया था। मैं उसे मना भी नहीं सका।
यह गांवों और शहरों के बीच आने जाने के दिन थे। गांव के करीब से रोड निकल रही थी। रास्ते के दरख्तों को हटाया जा रहा था।बेलगाडी की गाद्मात की जगह छोड़ा रोड आ रहा था. यह एक बदलाव था जिसे हम गांव के बच्चे आश्चर्य से देखते रहते थे। लेकिन दुखी होते थे पेडों के कटने से, जो हमारे दोस्त की तरह थे। मुझे उस समय कई पेड़ों की याद आती थी और सच बताऊ आज भी वे पेड़ न जाने क्यों स्मिरती में बने हुए हैं ।
यह बसंत का ही असर था कि मुझे पेड़ों की, छांव की यादें आने लगीं थी। यह वह समय भी था जब बिजली के खंभों को खड़ा किया जा रहा था। माहौल गांव में एक नए मौसम की ताजगी जैसा था। पेड इतने करीब थे कि वे बिजली के खंभे और खंभे इतने नए थे कि रोशनी के पेड़ जैसे लगने लगे थे।
इसी परिवर्तन के साथ मैं बसंत को महसूस कर रहा था। एक दिन मैंने महसूस किया कि मैं दौडना चाहता हूं। यह एक दोपहर थी लेकिन मैं दौड़ा नहीं। अचानक ही मुझे लड़कियां अच्छी लगने लगीं। यह बसंत की ही कोई दोपहर थी। तब सच में मैंने गांव से बाहर की तरह दौड़ लगाई। यह मेरी दौड़ नहीं थी यह बसंत की दौड़ थी। यह बसंत का उत्साह था... यह मेरा पहला बसंत था और मैं रोज घर से बाहर कुछ फासले पर खड़े पीपल के पेड़ तक जाने लगा था। मैं देखने लगता हूं कि पीपल के फल गिर रहे हैं। उसकी शाखों पर किरउएं चिहुंक रही हैं। पुराने पत्ते झर रहे हैं। हवाओं में अजीब सी ताजगी और खनक महसूस होने लगी। क्या यह बसंत था। हां यह बसंत ही था...मैंने इसी तरह ही बसंत को पहचाना था।
बसंत को पहचानने में मैं अकेला नहीं था। गांव के कई हम उम्र थे। बसंत के परिवर्तन हम सब पर एक साथ तारी हुए थे। हमने बसंत को पेड़ों, लड़कियों और जंगलों में फैला हुआ पाया था। हमें ये समझ में नहीं आता था कि आखिर हमें अच्छा सा फील क्यों हो रहा है। क्यों हम
हमने किसी कलैंडर में देख कर नहीं मनाया था। यह मेरे तन मन में उतरा था। यह बसंत मुझे प्रकृति ने उपहार में दिया था।
कैलेंडर तो मैंने बहुत बाद में देखे। बसंत का उत्सव मैंने बाद में जाना। प्रकृति मुझे चुपचाप बसंत दे गई थी। यह बंसत कई रूपों में मेरे साथ है। स्मृति और बदलाव, जीवन और संग साथ, शहर और गांव। आज मैं बसंत को एक ऐसे मौसम के रूप में दे ाता हूं जो गांव से मेरे साथ शहर आ गया। यहां उसकी खूबसूरती शहरी चमक और तमाम तरह की रसायनिक गंधों सुगंधों में मिल गई है। पिछले कई सालों से षहरों के आसपास बसंत देखने की कोषिष करता हूं। कई बार पार्कों में लगे हुए पेड़ों पर तो कई बार कालोनियों के बड़े बंगलों में घिरे फूलों के झाड़ों पर उस दोस्त बसंत को पहचानने की कोषिष करता हूं जो मेरे गांव से साथ आया था।
मुझे यकीन नहीं होता कि मेरेा बसंत मुझसे कहीं दूर है। लगता है मेरे रहने की जगह उसे पसंद नहीं आई इसलिए वह षहर और गांव के बीच कहीं ठहर गया है। कहीं छुप गया हैं। कई दफा ऐसा हुआ है बसंत पंचमी कब आ गई यह कैलेंडर से देख कर पता चला लेकिन मैंने तो यह जाना कि बसंत तारीखो में घटने वाली घटना नहीं है। यह धरती अपने प्रेमी से मिलने की घटना है। जब यह होती है तो कण कण में यह व्यापती है। महकती है।
मैं उस महक को पहचानना चाहूं तो मुझे फिर से इस मौसम मैं अपने गांव के खेतों की ओर जाना ही पड़ेगा। अपने उसे सखा बसंत को खोजना पडंेगा। खेतों की मेढ़ों पर टहलना और सड़कों के शोर से दूर...चाहे तो आप भी चल सकते हैं। यह बसंत है जो दूर खड़ा रह कर भी आज लिखने के लिए मजबूर कर रहा है।
-रवीन्द्र स्वप्निल प्रजापति
बसंत फूलों के खिलने की तरह नहीं आता। कैलेंडर की तारीखों से भी मैंने बसंत को नहीं पहचाना। बसंत मुझे अपने आसपास महसूस हुआ। कई सालों तक बसंत अनाम रहते हुए मुझे महसूस होता रहा जब मैं उसे पहचान नहीं पाया था। मैं उसे मना भी नहीं सका।
यह गांवों और शहरों के बीच आने जाने के दिन थे। गांव के करीब से रोड निकल रही थी। रास्ते के दरख्तों को हटाया जा रहा था।बेलगाडी की गाद्मात की जगह छोड़ा रोड आ रहा था. यह एक बदलाव था जिसे हम गांव के बच्चे आश्चर्य से देखते रहते थे। लेकिन दुखी होते थे पेडों के कटने से, जो हमारे दोस्त की तरह थे। मुझे उस समय कई पेड़ों की याद आती थी और सच बताऊ आज भी वे पेड़ न जाने क्यों स्मिरती में बने हुए हैं ।
यह बसंत का ही असर था कि मुझे पेड़ों की, छांव की यादें आने लगीं थी। यह वह समय भी था जब बिजली के खंभों को खड़ा किया जा रहा था। माहौल गांव में एक नए मौसम की ताजगी जैसा था। पेड इतने करीब थे कि वे बिजली के खंभे और खंभे इतने नए थे कि रोशनी के पेड़ जैसे लगने लगे थे।
इसी परिवर्तन के साथ मैं बसंत को महसूस कर रहा था। एक दिन मैंने महसूस किया कि मैं दौडना चाहता हूं। यह एक दोपहर थी लेकिन मैं दौड़ा नहीं। अचानक ही मुझे लड़कियां अच्छी लगने लगीं। यह बसंत की ही कोई दोपहर थी। तब सच में मैंने गांव से बाहर की तरह दौड़ लगाई। यह मेरी दौड़ नहीं थी यह बसंत की दौड़ थी। यह बसंत का उत्साह था... यह मेरा पहला बसंत था और मैं रोज घर से बाहर कुछ फासले पर खड़े पीपल के पेड़ तक जाने लगा था। मैं देखने लगता हूं कि पीपल के फल गिर रहे हैं। उसकी शाखों पर किरउएं चिहुंक रही हैं। पुराने पत्ते झर रहे हैं। हवाओं में अजीब सी ताजगी और खनक महसूस होने लगी। क्या यह बसंत था। हां यह बसंत ही था...मैंने इसी तरह ही बसंत को पहचाना था।
बसंत को पहचानने में मैं अकेला नहीं था। गांव के कई हम उम्र थे। बसंत के परिवर्तन हम सब पर एक साथ तारी हुए थे। हमने बसंत को पेड़ों, लड़कियों और जंगलों में फैला हुआ पाया था। हमें ये समझ में नहीं आता था कि आखिर हमें अच्छा सा फील क्यों हो रहा है। क्यों हम
हमने किसी कलैंडर में देख कर नहीं मनाया था। यह मेरे तन मन में उतरा था। यह बसंत मुझे प्रकृति ने उपहार में दिया था।
कैलेंडर तो मैंने बहुत बाद में देखे। बसंत का उत्सव मैंने बाद में जाना। प्रकृति मुझे चुपचाप बसंत दे गई थी। यह बंसत कई रूपों में मेरे साथ है। स्मृति और बदलाव, जीवन और संग साथ, शहर और गांव। आज मैं बसंत को एक ऐसे मौसम के रूप में दे ाता हूं जो गांव से मेरे साथ शहर आ गया। यहां उसकी खूबसूरती शहरी चमक और तमाम तरह की रसायनिक गंधों सुगंधों में मिल गई है। पिछले कई सालों से षहरों के आसपास बसंत देखने की कोषिष करता हूं। कई बार पार्कों में लगे हुए पेड़ों पर तो कई बार कालोनियों के बड़े बंगलों में घिरे फूलों के झाड़ों पर उस दोस्त बसंत को पहचानने की कोषिष करता हूं जो मेरे गांव से साथ आया था।
मुझे यकीन नहीं होता कि मेरेा बसंत मुझसे कहीं दूर है। लगता है मेरे रहने की जगह उसे पसंद नहीं आई इसलिए वह षहर और गांव के बीच कहीं ठहर गया है। कहीं छुप गया हैं। कई दफा ऐसा हुआ है बसंत पंचमी कब आ गई यह कैलेंडर से देख कर पता चला लेकिन मैंने तो यह जाना कि बसंत तारीखो में घटने वाली घटना नहीं है। यह धरती अपने प्रेमी से मिलने की घटना है। जब यह होती है तो कण कण में यह व्यापती है। महकती है।
मैं उस महक को पहचानना चाहूं तो मुझे फिर से इस मौसम मैं अपने गांव के खेतों की ओर जाना ही पड़ेगा। अपने उसे सखा बसंत को खोजना पडंेगा। खेतों की मेढ़ों पर टहलना और सड़कों के शोर से दूर...चाहे तो आप भी चल सकते हैं। यह बसंत है जो दूर खड़ा रह कर भी आज लिखने के लिए मजबूर कर रहा है।
-रवीन्द्र स्वप्निल प्रजापति
ओ सोने जैसी धूप
मेरे रांद्रा
ये कविता मैंने दो दिन पहले लिखी थी
ओ सोने जैसी धूप तुम मेरे साथ हो
मेरे चारों ओर शुभकामनाओं की तरह चमकती
तुम धूप हो और मैं तुममें मिला सोने का कण
ओ सोने जैसी धूप तुम मेरे साथ रहती हो
जब मैं काम पर निकलता हूं
जब मैं कुछ सोचता हूं
जब मैं कुछ करता हूं
ओ सोने जैसी धूप
जब तुम बहुत गर्म होती हो
तब भी मुझे बुरा नहीं लगता
तुम मेरी फसलें पकाती हो
तुम धरती को गर्म रखती हो
तुम मेरी अच्छी दोस्त हो
तुम मेरी व्यापक दोस्त हो
ओ सोने जैसी धूप
तुम सारे दिन मेरे साथ रहती हो
जब मैं आराम करता हूं तब भी
जब मैं किसी कल्पना में खोता हूं
कहीं जाता हूं तब भी साथ साथ
ओ प्यार भरी सुनहरी धूप
तुम शाम को मेरे कमरे में आती हो
जब तुम जा रही होती हो
तुम मेरे दरवाजे में आती हो
आहिस्ता से मेरे बिस्तर पर बैठ जाती हो
ओ मेरी सुनहरी धूप
तुम जाते हुए मेरा माथा सहलाती हो
और फिर चली जाती हो
पहाड़ों के पीछे अपने चांद के पास
ओ सुनहरी धूप तुम सुबह आती हो
मेरे सोफे पे बैठ कर पेपर पड़ती हो
मुझे जगाती हो और साथ चाय पीती हो
मुझे काम करने के लिए कहती हो
ओ मेरी सुनहरी धूप
मुझे जगा कर दिन के काम बताती हो
फिर सारी दुनिया में फैल जाती हो
-रवीन्द्र स्वप्निल प्रजापति
ये कविता मैंने दो दिन पहले लिखी थी
ओ सोने जैसी धूप तुम मेरे साथ हो
मेरे चारों ओर शुभकामनाओं की तरह चमकती
तुम धूप हो और मैं तुममें मिला सोने का कण
ओ सोने जैसी धूप तुम मेरे साथ रहती हो
जब मैं काम पर निकलता हूं
जब मैं कुछ सोचता हूं
जब मैं कुछ करता हूं
ओ सोने जैसी धूप
जब तुम बहुत गर्म होती हो
तब भी मुझे बुरा नहीं लगता
तुम मेरी फसलें पकाती हो
तुम धरती को गर्म रखती हो
तुम मेरी अच्छी दोस्त हो
तुम मेरी व्यापक दोस्त हो
ओ सोने जैसी धूप
तुम सारे दिन मेरे साथ रहती हो
जब मैं आराम करता हूं तब भी
जब मैं किसी कल्पना में खोता हूं
कहीं जाता हूं तब भी साथ साथ
ओ प्यार भरी सुनहरी धूप
तुम शाम को मेरे कमरे में आती हो
जब तुम जा रही होती हो
तुम मेरे दरवाजे में आती हो
आहिस्ता से मेरे बिस्तर पर बैठ जाती हो
ओ मेरी सुनहरी धूप
तुम जाते हुए मेरा माथा सहलाती हो
और फिर चली जाती हो
पहाड़ों के पीछे अपने चांद के पास
ओ सुनहरी धूप तुम सुबह आती हो
मेरे सोफे पे बैठ कर पेपर पड़ती हो
मुझे जगाती हो और साथ चाय पीती हो
मुझे काम करने के लिए कहती हो
ओ मेरी सुनहरी धूप
मुझे जगा कर दिन के काम बताती हो
फिर सारी दुनिया में फैल जाती हो
-रवीन्द्र स्वप्निल प्रजापति
मंगलवार, जनवरी 18, 2011
मैंने प्यार किया बादल की तरह
दो नई कविताएं
1
मैंने प्यार किया बादल की तरह
तुमने चांद की तरह मुस्कुराया
मैं नदी में उतर कर पानी बन गया
तुम उसमें हिलती हुई चांदनी हुईं
हमने फिर खूब प्यार किया
तुम उजली रात थीं और मैं एक पुल
उस रात शहर रोशनी से भरा था
और मै टिमटिमाता आसमान था
........
2
पिघल कर चांद का कोई हिस्सा
तुम्हारी गलियों में गिर गया है
अंधेरे का कोई फाहा
हमारी जिंदगियों मे मिल गया है
कैसे पार करें यादों के जंगल को
फासला सा राह में आ गया है
किसी से कुछ दिल चाहता नहीं
मैंने लफजों में बहुत रख दिया है
तुम बहुत दूर हो चुके हो
हमने अब ये मंजूर कर लिया है
रवीन्द्र स्वप्निल प्रजापति,
टॉप 12, क्रिसेंट स्कूल के सामने, हाईलाईफ कॉम्लेक्स, चर्च रोड, जहांगाीराबाद, भोपाल मध्यप्रदेष मो-9826782660
दोस्तो ये कवितायेँ मेरे जीवन का पूरा सच नहीं है ........जो सच है वो न जाने किस शक्ल में
सामने आ रहा है .
सामने आ रहा है .
अक्सर उदासियों से भरे एक रिश्ते कि शक्ल है इन कविताओं में
आप पढ़ लें ये भी क्या कम है 1
मैंने प्यार किया बादल की तरह
तुमने चांद की तरह मुस्कुराया
मैं नदी में उतर कर पानी बन गया
तुम उसमें हिलती हुई चांदनी हुईं
हमने फिर खूब प्यार किया
तुम उजली रात थीं और मैं एक पुल
उस रात शहर रोशनी से भरा था
और मै टिमटिमाता आसमान था
........
2
पिघल कर चांद का कोई हिस्सा
तुम्हारी गलियों में गिर गया है
अंधेरे का कोई फाहा
हमारी जिंदगियों मे मिल गया है
कैसे पार करें यादों के जंगल को
फासला सा राह में आ गया है
किसी से कुछ दिल चाहता नहीं
मैंने लफजों में बहुत रख दिया है
तुम बहुत दूर हो चुके हो
हमने अब ये मंजूर कर लिया है
रवीन्द्र स्वप्निल प्रजापति,
टॉप 12, क्रिसेंट स्कूल के सामने, हाईलाईफ कॉम्लेक्स, चर्च रोड, जहांगाीराबाद, भोपाल मध्यप्रदेष मो-9826782660
सोमवार, जनवरी 17, 2011
एक पत्र
जब में कुछ नहीं था तब तू आई .........तू मुझ में मिल गई .... तू हवा थी ... और
एक दिन तुने मुझे बादल बना दिया .... सच सा बादल .... हम दोनों अब इस आसमान के
एक हिस्से की तरह है ....
वक्त के साथ चल रहे है .........तू कुछ कहती है और मै सुनता रहता हूँ
मुझे तेरा कुछ कहना अच्छ लगता है .... कभी कभी तू दोनों हो जाती है कभी में दोनों हो के
बोल उठता हूँ .... हम दोना कभी कभी एक दुसरे से भागते है
फिर कभी में तेरी गोद में सिर रख देता हूँ कभी तू मेरे सीने में दुबक जाती है
कुछ देर ठहरती है तू हवा है
तू मुझे आसमान बना कर उड़ने लगती है.....जाने कहाँ कहाँ ...........
मैं बादल हूँ ........... तू हवा ...........
चल अपने ही शहर पर उड़ते हैं
जब में कुछ नहीं था तब तू आई .........तू मुझ में मिल गई .... तू हवा थी ... और
एक दिन तुने मुझे बादल बना दिया .... सच सा बादल .... हम दोनों अब इस आसमान के
एक हिस्से की तरह है ....
वक्त के साथ चल रहे है .........तू कुछ कहती है और मै सुनता रहता हूँ
मुझे तेरा कुछ कहना अच्छ लगता है .... कभी कभी तू दोनों हो जाती है कभी में दोनों हो के
बोल उठता हूँ .... हम दोना कभी कभी एक दुसरे से भागते है
फिर कभी में तेरी गोद में सिर रख देता हूँ कभी तू मेरे सीने में दुबक जाती है
कुछ देर ठहरती है तू हवा है
तू मुझे आसमान बना कर उड़ने लगती है.....जाने कहाँ कहाँ ...........
मैं बादल हूँ ........... तू हवा ...........
चल अपने ही शहर पर उड़ते हैं
कुछ दिन और मैं
दोस्तो मैने ये कविता कुछ दिन पहले लिखी थी
आज ये एक सच सा है ....पर अभी
कुछ दिन और मैं
मैंने दिनों को स्ट्रीट लाइट बना दिए
मैंने अपने दिन प्यार से रंगे
मैंने शहर में हर तरफ अपने दिन टांग दिए
मेरे दिन जो नीले लाल थे
मेरे दिन चमक रहे हैं चारो ओर
सारा शहर गुजर रहा है उनके साये में
दिनों में चमक रहा है मेरा प्यार
बरस रहा है शहर पर
मेरे दिन प्यार कर रहे हैं ...
आज ये एक सच सा है ....पर अभी
कुछ दिन और मैं
मैंने दिनों को स्ट्रीट लाइट बना दिए
मैंने अपने दिन प्यार से रंगे
मैंने शहर में हर तरफ अपने दिन टांग दिए
मेरे दिन जो नीले लाल थे
मेरे दिन चमक रहे हैं चारो ओर
सारा शहर गुजर रहा है उनके साये में
दिनों में चमक रहा है मेरा प्यार
बरस रहा है शहर पर
मेरे दिन प्यार कर रहे हैं ...
manas ji ke in savalo ke javab likh raha hoon
हमारी त्रैमासिक पत्रिका ‘पाण्डुलिपि’ हेतु परिचर्चा के अंतर्गत इस बार ‘अंतिम दशक के कवियों का समय और उनकी कविता’ बिषय पर विमर्श प्रस्तावित है । हम चाहते हैं कि आप अपनी बात विस्तार से रखें ताकि अंतिम दशक के कवियों और उसकी कविताओं का वास्तविक मूल्याँकन हो सके । उम्मीद है आप परिचर्चा के विषय एवं महत्व की देखते हुए इस विषय पर अवश्य लिखना चाहेंगे । विश्वास है - आप अपनी सामग्री हमें 10 दिवस अर्थात् 25 जनवरी, 2011 तक ई-मेल से भेज देंगे । सादर
जयप्रकाश मानस
कार्यकारी संपादक
अंतिम दशक के कवियों का समय और उनकी कविता
प्रश्नावली
01. अंतिम दशक की कविता की शुरूआत सोवियत संघ के विघटन से हुई, भूमंडलीकरण व बाज़ारवाद जैसी अवधारणायें भी इसी दशक से प्रारंभ हुई । क्या इसका कुछ-बहुत प्रभाव अंतिम दशक के कवियों की कविताओं की वैचारिकता पर पड़ा ?
02. वैसे अंतिम दशक के कवियों का समय, अपने पूर्ववर्ती कवियों, विशेषकर नवें दशक के स्थापित कवियों से किन अर्थों में भिन्न है ?
03. नयी कविता की बिम्ब प्रधानता, अकविता की सपाटबयानी तथा समकालीन कविता के उक्ति आधारित पंक्तियों की आवृत्तियाँ व प्रतीक-ब्यौरों आदि कला के बाद अंतिम दशक के कवियों का शिल्प कितना कुछ अलहदा दिखलाई पड़ता है ?
04. क्या हिन्दी कविता के भीतर अकविता की मनःस्थिति पुनः अंतिम दशक के कवियों की कविता में परिलक्षित की जा सकती है ? ऐसा मैं आर. चेतनक्रांति की ‘हम क्रांतिकारी नहीं थे’, या वसंत त्रिपाठी की ‘कालाहांडी’ जैसी कविताओं को पढ़कर भी कह रहा हूँ ?
05. वैसे आप अंतिम दशक के कवियों में किन किन कवियों के नामों का उल्लेख करना चाहेंगे और क्यों ?
06. इस दशक के ज्यादातर कवियों की कविताओं का काव्य शिल्प, काव्य-संप्रेषण पर हावी रहता है । यदि आप भी ऐसा मानते हैं, तो यह स्थिति हिन्दी कविता के विकास के लिए कितना उचित लगती है ?
हमारी त्रैमासिक पत्रिका ‘पाण्डुलिपि’ हेतु परिचर्चा के अंतर्गत इस बार ‘अंतिम दशक के कवियों का समय और उनकी कविता’ बिषय पर विमर्श प्रस्तावित है । हम चाहते हैं कि आप अपनी बात विस्तार से रखें ताकि अंतिम दशक के कवियों और उसकी कविताओं का वास्तविक मूल्याँकन हो सके । उम्मीद है आप परिचर्चा के विषय एवं महत्व की देखते हुए इस विषय पर अवश्य लिखना चाहेंगे । विश्वास है - आप अपनी सामग्री हमें 10 दिवस अर्थात् 25 जनवरी, 2011 तक ई-मेल से भेज देंगे । सादर
जयप्रकाश मानस
कार्यकारी संपादक
अंतिम दशक के कवियों का समय और उनकी कविता
प्रश्नावली
01. अंतिम दशक की कविता की शुरूआत सोवियत संघ के विघटन से हुई, भूमंडलीकरण व बाज़ारवाद जैसी अवधारणायें भी इसी दशक से प्रारंभ हुई । क्या इसका कुछ-बहुत प्रभाव अंतिम दशक के कवियों की कविताओं की वैचारिकता पर पड़ा ?
02. वैसे अंतिम दशक के कवियों का समय, अपने पूर्ववर्ती कवियों, विशेषकर नवें दशक के स्थापित कवियों से किन अर्थों में भिन्न है ?
03. नयी कविता की बिम्ब प्रधानता, अकविता की सपाटबयानी तथा समकालीन कविता के उक्ति आधारित पंक्तियों की आवृत्तियाँ व प्रतीक-ब्यौरों आदि कला के बाद अंतिम दशक के कवियों का शिल्प कितना कुछ अलहदा दिखलाई पड़ता है ?
04. क्या हिन्दी कविता के भीतर अकविता की मनःस्थिति पुनः अंतिम दशक के कवियों की कविता में परिलक्षित की जा सकती है ? ऐसा मैं आर. चेतनक्रांति की ‘हम क्रांतिकारी नहीं थे’, या वसंत त्रिपाठी की ‘कालाहांडी’ जैसी कविताओं को पढ़कर भी कह रहा हूँ ?
05. वैसे आप अंतिम दशक के कवियों में किन किन कवियों के नामों का उल्लेख करना चाहेंगे और क्यों ?
06. इस दशक के ज्यादातर कवियों की कविताओं का काव्य शिल्प, काव्य-संप्रेषण पर हावी रहता है । यदि आप भी ऐसा मानते हैं, तो यह स्थिति हिन्दी कविता के विकास के लिए कितना उचित लगती है ?
मै एक दरवाजा हूँ
मै एक दरवाजा हूँ , मुझमे से अभी अभी एक सूरत गुजरी है
मै जहाँ जहाँ हूँ गुजरता है कोई मुझ में से
गुजरती है कोई खुशबू, गुजरती है कोई सूरत
गुजरने से पहले कोई मेरे इस तरफ था
गुजरने के बाद वह उस तरफ दिख रहा है
मेरे दोनों तरफ है दुनिया
वही इस तरफ दिखता है वही उस तरफ है
दोपहर १२ . ४४
रविन्द्र स्वप्निल
मै जहाँ जहाँ हूँ गुजरता है कोई मुझ में से
गुजरती है कोई खुशबू, गुजरती है कोई सूरत
गुजरने से पहले कोई मेरे इस तरफ था
गुजरने के बाद वह उस तरफ दिख रहा है
मेरे दोनों तरफ है दुनिया
वही इस तरफ दिखता है वही उस तरफ है
दोपहर १२ . ४४
रविन्द्र स्वप्निल
शुक्रवार, दिसंबर 31, 2010
शुक्रवार, दिसंबर 17, 2010
मंगलवार, नवंबर 30, 2010
meri khushi
दोस्तो कभी कभी कोई बहुत खुश होता है . आज मै भी हूँ . क्यों ? क्योंकि कल मुझे एक फोन आया था दोपहर में .... बस यही तो ख़ुशी है ...
सोमवार, नवंबर 22, 2010
तुमसे अलग होना और ट्रेन का गुजरना
रवीन्द्र स्वप्निल प्रजापति की कविताएं
१
तुमसे अलग होना और ट्रेन का गुजरना
तुमसे अलग होना है
दु:ख और सुख से आगे चले जाना
भाषा और चित्र से परे होना
है यूं तुमसे दूर होना
तुमसे दूर होना
है यादों की ट्रेन का धीरे धीरे जाना
पल पल दूर होना और पल पल बिखरना
खालीपन को यूं छोड़ जाना
पटरी पर दूर तक कुछ न होना
तुम्हारा जाना जैसे हवा का रुक जाना
तुम्हारी नजरों के रे’ाम पर लिखना बाय
फिर तुम्हारी याद आना- तुम्हारा जाना
’िाखर पर झंडी की तरह तार तार होना
बिखरना गिरना टूटना उड़ना तुम्हारा जाना
’ाहर से ट्रेन की तरह धीरे धीरे निकलना
अपने शहर को जाना
दिल के प्लेटफार्म की तरह खाली होना
है तुम्हारा जाना हवा को हवा से छीन लेना
२
कुछ समय तय करने के बाद
कुछ समय बीत जाने के बाद
बदल देना चाहिए गाड़ियों के टायर
व्यवस्थाएं और कानूनों के अक्षर
नाकारा हो जाने वाले आइने असफल हो जाएं
तोड़ देना जरूरी है ऐसे बहुत से
कुछ समय बीत जाने के बाद सब कुछ बदल देना चाहिए
रो’ानी के स्रोत और चौराहोंं की मूर्तियों के अर्थ
अपने पेन और कल्पनाओं को वहन करने वाले बिंब
एक समय तय करने के बाद
हमें अपने दोस्तों को देखना जरूरी है
अपने ही सच बोझ बनने के लिए मजबूर हो जाएं
मील के पत्थर की तरह छोड़कर आगे चलना चाहिए
जिंदगी उजास है मटमैला पसंद नहीं करती
सुबह की हवा है बासापन स्वीकार्य नहीं
पुराने शार्पनर और खाली रिफिल की तरह
कुछ भी बेमतलब पड़ा हो
जरूरी है हमारी टेबल पर बेमतलब कुछ न रहे
महानतम होने का अहसास भी फेंक देना जरूरी है
जब वह हमें कहने में असमर्थ हो जाए....
३
सौंदर्य से परे एक लड़की
मैंने कविता लिखने के लिए लड़की की कल्पना की
उसे सुबह-सुबह सोते से जगाया - एक फूल दिया
कहा सुबह देखो कितनी नई है
वह मुस्कुरा उठी और अलसाए चेहरे पर दोनों हाथ फेर लिए
उसके बाल सुनहरी आभा लिए नर्म धूप से गुथे थे
वि’व कवियों द्वारा सुबह की प्रंशसाओं में कहे
काव्य-वाक्यों के जाल की तरह चमक रहे थे
खिड़की के प्रका’ा में सोने की कलाकृति बनी
चादर पर हल्की सिल्की सलवटों में खूबसूरत
उसके भाव सुदूर निर्जन प्रदे’ा में अकेली बहती नदी के
कुनकुने पानी की तरह कोमल और नर्म हैं
उसकी चमकती मुस्कुराती आंखों में
पृथ्वी के तमाम कोनों में होने वाली सुबह की सरलता है
उसके मुड़े पैर सुर्योदय में नदी के मोड़ जैसे
लड़की मेरी सुंदरता की तमाम कल्पनाओं को
अपनी सुनहरी आभा में मिलाती जा रही है
मेरे बहुत से ’शब्द उसकी सुन्दरता की अभिव्यक्ति में गल गए
मैंने उसे पृथ्वी की बहुत सी सुबहों से बनी संुदरता कहा
मुझे संुदरता की अभिव्यक्ति के लिए
बहुत अधिक shब्द नहीं कहना पड़े
वह जल्दी ही एक सुबह के सौंदर्य से होती हुई
दुनिया के सारे ’ाब्दों में समा गई
......
४
पक्षी बिजली का तार और एक पेड़
कुछ चीजें बदलती हैं
कुछ चीजें कभी ’िाकायत नहीं करतीं
जब पेड़ था तो पक्षी उसके दोस्त थे
एक दिन पेड़ न जाने कहां चला गया
वहां बिजली के तार आ गए
मैं जब भी फोटो खींचता हूं
चाहता हूं पक्षी शाखों पर मिलें
न जाने क्यों मैं प्रकृति के दृ’य में
बिजली के तारों से बचता हूं
मेरे कैमरे में भी कुछ तार हैं
आखिर दुनिया के फ्रेम में बिजली के तार आ ही जाते है।
१
तुमसे अलग होना और ट्रेन का गुजरना
तुमसे अलग होना है
दु:ख और सुख से आगे चले जाना
भाषा और चित्र से परे होना
है यूं तुमसे दूर होना
तुमसे दूर होना
है यादों की ट्रेन का धीरे धीरे जाना
पल पल दूर होना और पल पल बिखरना
खालीपन को यूं छोड़ जाना
पटरी पर दूर तक कुछ न होना
तुम्हारा जाना जैसे हवा का रुक जाना
तुम्हारी नजरों के रे’ाम पर लिखना बाय
फिर तुम्हारी याद आना- तुम्हारा जाना
’िाखर पर झंडी की तरह तार तार होना
बिखरना गिरना टूटना उड़ना तुम्हारा जाना
’ाहर से ट्रेन की तरह धीरे धीरे निकलना
अपने शहर को जाना
दिल के प्लेटफार्म की तरह खाली होना
है तुम्हारा जाना हवा को हवा से छीन लेना
२
कुछ समय तय करने के बाद
कुछ समय बीत जाने के बाद
बदल देना चाहिए गाड़ियों के टायर
व्यवस्थाएं और कानूनों के अक्षर
नाकारा हो जाने वाले आइने असफल हो जाएं
तोड़ देना जरूरी है ऐसे बहुत से
कुछ समय बीत जाने के बाद सब कुछ बदल देना चाहिए
रो’ानी के स्रोत और चौराहोंं की मूर्तियों के अर्थ
अपने पेन और कल्पनाओं को वहन करने वाले बिंब
एक समय तय करने के बाद
हमें अपने दोस्तों को देखना जरूरी है
अपने ही सच बोझ बनने के लिए मजबूर हो जाएं
मील के पत्थर की तरह छोड़कर आगे चलना चाहिए
जिंदगी उजास है मटमैला पसंद नहीं करती
सुबह की हवा है बासापन स्वीकार्य नहीं
पुराने शार्पनर और खाली रिफिल की तरह
कुछ भी बेमतलब पड़ा हो
जरूरी है हमारी टेबल पर बेमतलब कुछ न रहे
महानतम होने का अहसास भी फेंक देना जरूरी है
जब वह हमें कहने में असमर्थ हो जाए....
३
सौंदर्य से परे एक लड़की
मैंने कविता लिखने के लिए लड़की की कल्पना की
उसे सुबह-सुबह सोते से जगाया - एक फूल दिया
कहा सुबह देखो कितनी नई है
वह मुस्कुरा उठी और अलसाए चेहरे पर दोनों हाथ फेर लिए
उसके बाल सुनहरी आभा लिए नर्म धूप से गुथे थे
वि’व कवियों द्वारा सुबह की प्रंशसाओं में कहे
काव्य-वाक्यों के जाल की तरह चमक रहे थे
खिड़की के प्रका’ा में सोने की कलाकृति बनी
चादर पर हल्की सिल्की सलवटों में खूबसूरत
उसके भाव सुदूर निर्जन प्रदे’ा में अकेली बहती नदी के
कुनकुने पानी की तरह कोमल और नर्म हैं
उसकी चमकती मुस्कुराती आंखों में
पृथ्वी के तमाम कोनों में होने वाली सुबह की सरलता है
उसके मुड़े पैर सुर्योदय में नदी के मोड़ जैसे
लड़की मेरी सुंदरता की तमाम कल्पनाओं को
अपनी सुनहरी आभा में मिलाती जा रही है
मेरे बहुत से ’शब्द उसकी सुन्दरता की अभिव्यक्ति में गल गए
मैंने उसे पृथ्वी की बहुत सी सुबहों से बनी संुदरता कहा
मुझे संुदरता की अभिव्यक्ति के लिए
बहुत अधिक shब्द नहीं कहना पड़े
वह जल्दी ही एक सुबह के सौंदर्य से होती हुई
दुनिया के सारे ’ाब्दों में समा गई
......
४
पक्षी बिजली का तार और एक पेड़
कुछ चीजें बदलती हैं
कुछ चीजें कभी ’िाकायत नहीं करतीं
जब पेड़ था तो पक्षी उसके दोस्त थे
एक दिन पेड़ न जाने कहां चला गया
वहां बिजली के तार आ गए
मैं जब भी फोटो खींचता हूं
चाहता हूं पक्षी शाखों पर मिलें
न जाने क्यों मैं प्रकृति के दृ’य में
बिजली के तारों से बचता हूं
मेरे कैमरे में भी कुछ तार हैं
आखिर दुनिया के फ्रेम में बिजली के तार आ ही जाते है।
गुरुवार, अक्टूबर 28, 2010
शुक्रवार, अक्टूबर 08, 2010
बुधवार, अक्टूबर 06, 2010
दिन और मैं
ये कविता कल रात में लिखी है...
जब मैं दिन का टुकड़ा था
माथे पे पसीना था
कतरा कतरा जमा कर देखा
ये धूप का खजाना था
मेरी राह में वक्त के टुकड़े बिखरे थे
ये मेरी जिंदगी का जीना था
मैंने उन्हें ठुकरा कर देखा
वो टूट कर मेरी षक्ल में नजर आते थे
मेरे दिन आज भी हाथों मेें रोषनी रखते हैं
जाने से पहले समुंदर में किनारों पर षाम रखते हैं
ये दिन भी क्या चीज हैं दुनिया की
हर जगह हवा में लहराते फिरते हैं
ये दिन नौकरियां छोड़ कर चले आए हैं
हद है कि हवाओं की वफाओं पे इतराते हैं
दोस्तो कल पढ़िएगा एक नई कविता
हवा बादल और रेस्टोरेंट
रविवार, अक्टूबर 03, 2010
यकीन का कांच
खिड़कियों में किरणों के जाले दिखते हैं
सूरज का पता मिलता नहीं
ये वक्त कैसी षक्ल लेके आया है
मेरी जिंदगी में अपनी शक्ल देखता है
मुझे बार बार तोड़ने पड़ते हैं किरणों के जाले
हाथ में थोडी सी रोशनी रह जाती हैं
रोशनी से देख रहा हूं जामने के हरफ
धूप से लिख रहा हूं
यकीन के कांच पर-बहुत याद आती है
हम वर्षो से नहीं मिले ऐसा लगता है
और यकीन का कांच टूटता नहीं
शनिवार, अक्टूबर 02, 2010
सदस्यता लें
संदेश (Atom)