ये कविता कल रात में लिखी है...
जब मैं दिन का टुकड़ा था
माथे पे पसीना था
कतरा कतरा जमा कर देखा
ये धूप का खजाना था
मेरी राह में वक्त के टुकड़े बिखरे थे
ये मेरी जिंदगी का जीना था
मैंने उन्हें ठुकरा कर देखा
वो टूट कर मेरी षक्ल में नजर आते थे
मेरे दिन आज भी हाथों मेें रोषनी रखते हैं
जाने से पहले समुंदर में किनारों पर षाम रखते हैं
ये दिन भी क्या चीज हैं दुनिया की
हर जगह हवा में लहराते फिरते हैं
ये दिन नौकरियां छोड़ कर चले आए हैं
हद है कि हवाओं की वफाओं पे इतराते हैं
दोस्तो कल पढ़िएगा एक नई कविता
हवा बादल और रेस्टोरेंट
4 टिप्पणियां:
बढ़िया...षाम को शाम कर लिजिये...ष को श...
आप श को ष क्यों लिखते है??
उड़न तश्तरी जी ने आपको इंगित कर दिया है कि आप सुधर कर ले..
ye convertar se ho gaya
sorry
swapnil
बहुत ही सुन्दर रचना ! बस वर्तनी में कहीं-कहीं शायद टंकण के कारण कमी लगी..पर वो गौण सी है..! साधुवाद ! प्रणाम !
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