शुक्रवार, दिसंबर 31, 2010
शुक्रवार, दिसंबर 17, 2010
मंगलवार, नवंबर 30, 2010
meri khushi
दोस्तो कभी कभी कोई बहुत खुश होता है . आज मै भी हूँ . क्यों ? क्योंकि कल मुझे एक फोन आया था दोपहर में .... बस यही तो ख़ुशी है ...
सोमवार, नवंबर 22, 2010
तुमसे अलग होना और ट्रेन का गुजरना
रवीन्द्र स्वप्निल प्रजापति की कविताएं
१
तुमसे अलग होना और ट्रेन का गुजरना
तुमसे अलग होना है
दु:ख और सुख से आगे चले जाना
भाषा और चित्र से परे होना
है यूं तुमसे दूर होना
तुमसे दूर होना
है यादों की ट्रेन का धीरे धीरे जाना
पल पल दूर होना और पल पल बिखरना
खालीपन को यूं छोड़ जाना
पटरी पर दूर तक कुछ न होना
तुम्हारा जाना जैसे हवा का रुक जाना
तुम्हारी नजरों के रे’ाम पर लिखना बाय
फिर तुम्हारी याद आना- तुम्हारा जाना
’िाखर पर झंडी की तरह तार तार होना
बिखरना गिरना टूटना उड़ना तुम्हारा जाना
’ाहर से ट्रेन की तरह धीरे धीरे निकलना
अपने शहर को जाना
दिल के प्लेटफार्म की तरह खाली होना
है तुम्हारा जाना हवा को हवा से छीन लेना
२
कुछ समय तय करने के बाद
कुछ समय बीत जाने के बाद
बदल देना चाहिए गाड़ियों के टायर
व्यवस्थाएं और कानूनों के अक्षर
नाकारा हो जाने वाले आइने असफल हो जाएं
तोड़ देना जरूरी है ऐसे बहुत से
कुछ समय बीत जाने के बाद सब कुछ बदल देना चाहिए
रो’ानी के स्रोत और चौराहोंं की मूर्तियों के अर्थ
अपने पेन और कल्पनाओं को वहन करने वाले बिंब
एक समय तय करने के बाद
हमें अपने दोस्तों को देखना जरूरी है
अपने ही सच बोझ बनने के लिए मजबूर हो जाएं
मील के पत्थर की तरह छोड़कर आगे चलना चाहिए
जिंदगी उजास है मटमैला पसंद नहीं करती
सुबह की हवा है बासापन स्वीकार्य नहीं
पुराने शार्पनर और खाली रिफिल की तरह
कुछ भी बेमतलब पड़ा हो
जरूरी है हमारी टेबल पर बेमतलब कुछ न रहे
महानतम होने का अहसास भी फेंक देना जरूरी है
जब वह हमें कहने में असमर्थ हो जाए....
३
सौंदर्य से परे एक लड़की
मैंने कविता लिखने के लिए लड़की की कल्पना की
उसे सुबह-सुबह सोते से जगाया - एक फूल दिया
कहा सुबह देखो कितनी नई है
वह मुस्कुरा उठी और अलसाए चेहरे पर दोनों हाथ फेर लिए
उसके बाल सुनहरी आभा लिए नर्म धूप से गुथे थे
वि’व कवियों द्वारा सुबह की प्रंशसाओं में कहे
काव्य-वाक्यों के जाल की तरह चमक रहे थे
खिड़की के प्रका’ा में सोने की कलाकृति बनी
चादर पर हल्की सिल्की सलवटों में खूबसूरत
उसके भाव सुदूर निर्जन प्रदे’ा में अकेली बहती नदी के
कुनकुने पानी की तरह कोमल और नर्म हैं
उसकी चमकती मुस्कुराती आंखों में
पृथ्वी के तमाम कोनों में होने वाली सुबह की सरलता है
उसके मुड़े पैर सुर्योदय में नदी के मोड़ जैसे
लड़की मेरी सुंदरता की तमाम कल्पनाओं को
अपनी सुनहरी आभा में मिलाती जा रही है
मेरे बहुत से ’शब्द उसकी सुन्दरता की अभिव्यक्ति में गल गए
मैंने उसे पृथ्वी की बहुत सी सुबहों से बनी संुदरता कहा
मुझे संुदरता की अभिव्यक्ति के लिए
बहुत अधिक shब्द नहीं कहना पड़े
वह जल्दी ही एक सुबह के सौंदर्य से होती हुई
दुनिया के सारे ’ाब्दों में समा गई
......
४
पक्षी बिजली का तार और एक पेड़
कुछ चीजें बदलती हैं
कुछ चीजें कभी ’िाकायत नहीं करतीं
जब पेड़ था तो पक्षी उसके दोस्त थे
एक दिन पेड़ न जाने कहां चला गया
वहां बिजली के तार आ गए
मैं जब भी फोटो खींचता हूं
चाहता हूं पक्षी शाखों पर मिलें
न जाने क्यों मैं प्रकृति के दृ’य में
बिजली के तारों से बचता हूं
मेरे कैमरे में भी कुछ तार हैं
आखिर दुनिया के फ्रेम में बिजली के तार आ ही जाते है।
१
तुमसे अलग होना और ट्रेन का गुजरना
तुमसे अलग होना है
दु:ख और सुख से आगे चले जाना
भाषा और चित्र से परे होना
है यूं तुमसे दूर होना
तुमसे दूर होना
है यादों की ट्रेन का धीरे धीरे जाना
पल पल दूर होना और पल पल बिखरना
खालीपन को यूं छोड़ जाना
पटरी पर दूर तक कुछ न होना
तुम्हारा जाना जैसे हवा का रुक जाना
तुम्हारी नजरों के रे’ाम पर लिखना बाय
फिर तुम्हारी याद आना- तुम्हारा जाना
’िाखर पर झंडी की तरह तार तार होना
बिखरना गिरना टूटना उड़ना तुम्हारा जाना
’ाहर से ट्रेन की तरह धीरे धीरे निकलना
अपने शहर को जाना
दिल के प्लेटफार्म की तरह खाली होना
है तुम्हारा जाना हवा को हवा से छीन लेना
२
कुछ समय तय करने के बाद
कुछ समय बीत जाने के बाद
बदल देना चाहिए गाड़ियों के टायर
व्यवस्थाएं और कानूनों के अक्षर
नाकारा हो जाने वाले आइने असफल हो जाएं
तोड़ देना जरूरी है ऐसे बहुत से
कुछ समय बीत जाने के बाद सब कुछ बदल देना चाहिए
रो’ानी के स्रोत और चौराहोंं की मूर्तियों के अर्थ
अपने पेन और कल्पनाओं को वहन करने वाले बिंब
एक समय तय करने के बाद
हमें अपने दोस्तों को देखना जरूरी है
अपने ही सच बोझ बनने के लिए मजबूर हो जाएं
मील के पत्थर की तरह छोड़कर आगे चलना चाहिए
जिंदगी उजास है मटमैला पसंद नहीं करती
सुबह की हवा है बासापन स्वीकार्य नहीं
पुराने शार्पनर और खाली रिफिल की तरह
कुछ भी बेमतलब पड़ा हो
जरूरी है हमारी टेबल पर बेमतलब कुछ न रहे
महानतम होने का अहसास भी फेंक देना जरूरी है
जब वह हमें कहने में असमर्थ हो जाए....
३
सौंदर्य से परे एक लड़की
मैंने कविता लिखने के लिए लड़की की कल्पना की
उसे सुबह-सुबह सोते से जगाया - एक फूल दिया
कहा सुबह देखो कितनी नई है
वह मुस्कुरा उठी और अलसाए चेहरे पर दोनों हाथ फेर लिए
उसके बाल सुनहरी आभा लिए नर्म धूप से गुथे थे
वि’व कवियों द्वारा सुबह की प्रंशसाओं में कहे
काव्य-वाक्यों के जाल की तरह चमक रहे थे
खिड़की के प्रका’ा में सोने की कलाकृति बनी
चादर पर हल्की सिल्की सलवटों में खूबसूरत
उसके भाव सुदूर निर्जन प्रदे’ा में अकेली बहती नदी के
कुनकुने पानी की तरह कोमल और नर्म हैं
उसकी चमकती मुस्कुराती आंखों में
पृथ्वी के तमाम कोनों में होने वाली सुबह की सरलता है
उसके मुड़े पैर सुर्योदय में नदी के मोड़ जैसे
लड़की मेरी सुंदरता की तमाम कल्पनाओं को
अपनी सुनहरी आभा में मिलाती जा रही है
मेरे बहुत से ’शब्द उसकी सुन्दरता की अभिव्यक्ति में गल गए
मैंने उसे पृथ्वी की बहुत सी सुबहों से बनी संुदरता कहा
मुझे संुदरता की अभिव्यक्ति के लिए
बहुत अधिक shब्द नहीं कहना पड़े
वह जल्दी ही एक सुबह के सौंदर्य से होती हुई
दुनिया के सारे ’ाब्दों में समा गई
......
४
पक्षी बिजली का तार और एक पेड़
कुछ चीजें बदलती हैं
कुछ चीजें कभी ’िाकायत नहीं करतीं
जब पेड़ था तो पक्षी उसके दोस्त थे
एक दिन पेड़ न जाने कहां चला गया
वहां बिजली के तार आ गए
मैं जब भी फोटो खींचता हूं
चाहता हूं पक्षी शाखों पर मिलें
न जाने क्यों मैं प्रकृति के दृ’य में
बिजली के तारों से बचता हूं
मेरे कैमरे में भी कुछ तार हैं
आखिर दुनिया के फ्रेम में बिजली के तार आ ही जाते है।
गुरुवार, अक्टूबर 28, 2010
शुक्रवार, अक्टूबर 08, 2010
बुधवार, अक्टूबर 06, 2010
दिन और मैं
ये कविता कल रात में लिखी है...
जब मैं दिन का टुकड़ा था
माथे पे पसीना था
कतरा कतरा जमा कर देखा
ये धूप का खजाना था
मेरी राह में वक्त के टुकड़े बिखरे थे
ये मेरी जिंदगी का जीना था
मैंने उन्हें ठुकरा कर देखा
वो टूट कर मेरी षक्ल में नजर आते थे
मेरे दिन आज भी हाथों मेें रोषनी रखते हैं
जाने से पहले समुंदर में किनारों पर षाम रखते हैं
ये दिन भी क्या चीज हैं दुनिया की
हर जगह हवा में लहराते फिरते हैं
ये दिन नौकरियां छोड़ कर चले आए हैं
हद है कि हवाओं की वफाओं पे इतराते हैं
दोस्तो कल पढ़िएगा एक नई कविता
हवा बादल और रेस्टोरेंट
रविवार, अक्टूबर 03, 2010
यकीन का कांच
खिड़कियों में किरणों के जाले दिखते हैं
सूरज का पता मिलता नहीं
ये वक्त कैसी षक्ल लेके आया है
मेरी जिंदगी में अपनी शक्ल देखता है
मुझे बार बार तोड़ने पड़ते हैं किरणों के जाले
हाथ में थोडी सी रोशनी रह जाती हैं
रोशनी से देख रहा हूं जामने के हरफ
धूप से लिख रहा हूं
यकीन के कांच पर-बहुत याद आती है
हम वर्षो से नहीं मिले ऐसा लगता है
और यकीन का कांच टूटता नहीं
शनिवार, अक्टूबर 02, 2010
मंगलवार, सितंबर 28, 2010
इफ यू लव समवन
(ये कविता किसी की कहानी का हिस्सा है , आज मेने इसे लगा लिया है .......)
इफ यू लव समवन, सैट इट फ्री
इफ इट इज योर, इट विल बैक
इफ इट बिल नॉट
इट वाज नेवर योर्स
इनको इस तरह कहा भी जा सकता है -
अगर तुम्हे किसी से प्यार है
छोड़ दो उसे इस संसार में विचरण के लिए
अगर वह तुम्हारा है तो वापस आएगा
तुम्हें प्यार करेगा
अगर वह वापस नहीं लौटता है
वह तुम्हारा था ही नहीं
वह कभी तुम्हारा हुआ ही नहीं था
इन पंक्तियों में कितना दर्द रखा है। इनको जो जीना जानता है वही इस्तेमाल कर सकता है।
बाय
दोस्तो एक पुरानी पोस्ट का साक्षात्कार फिर दे रहा हूँ....
हमारी परिकल्पना देश की लोक सर्जना को गणतंत्र दिवस में समाहित करने की थी
कपिल तिवारी से रवीन्द्र स्वप्निल प्रजापति की बातचीतआपने पहला लोकरंग आयोजित किया था। उस समय इसका स्वरूप क्या था और कैसी परिस्थिति थीं? आपके उद्देश्य क्या थे?
देश के गणतंत्र दिवस पर देश की लोक सर्जना में कोई काम नहीं होता था। हमारी परिकल्पना देश की लोक सर्जना को गणतंत्र दिवस में समाहित करने की थी। हम जन सामान्य के लिए काम करना चाहते थे। संस्कृति सिर्फ कुछ सौ लोगों के लिए ही हो यह मैं नहीं चाहता था। इसलिए ऐसा कुछ प्लान करना जरूरी था जिसमें लोग चेतना का समावेश हो। आम लोगों को उसमें आत्मीय आमंत्रण हो। जहां प्रवेश के लिए कोई सुरक्षा जांच न करे, कोई प्रवेश पत्र नहीं हो। सब आएं सबकी संस्कृति में, ये सब चीजें काम कर रही थीं उस समय।
मध्यप्रदेश के बारे में क्या कहेंगे?
मध्यप्रदेश संस्कृति के प्रति दोहरी भूमिका में है। संस्कृति को भूगोल से अलग नहीं किया जा सकता है। मध्यप्रदेश संस्कृति के प्रति नई भूमिका में है। उसके चारों ओर विभिन्न संस्कृतियों का भूगोल है। प्रांत हैं। अब जरूरी था कि संस्कृति के मामले में सबसे पहले मध्यप्रदेश को संवेदित किया। इसके बाद हम राष्ट्र और अपने पड़ोसी देशों की ओर गए। आज देश ही नहीं हम एशिया का सबसे बड़ा मेला इसे बनाने की कल्पना संजोए हैं। क्योंकि पड़ोसी के बिना सिर्फ आपकी संस्कृति नहीं हो सकती।
लोगों को उनकी अपनी ही संस्कृति से जोड़ने के लिए आपने परंपरा से क्या लिया?
इसके लिए मैं अपनी परंपराओं की तरफ गया और मेरा ध्यान शताब्दियों से चल रहे लोक आयोजन ‘मेलों’ की तरफ गया। सोचा क्यों न गणतंत्र पर संस्कृतियों का मेला आयोजित किया जाए। इसमें उस बात का प्रतिकार भी शामिल था कि कला संस्कृति को एसी हाल और पांच सौ लोगों तक सीमित कर दिया था, वह दूर हो। समाज और कला का एक समवेत मैं बनाना चाहता था। जिसमें एक गणतंत्र की एकता की भावना की सामुदायिकता की भावना का संचार हो। लोक की सृजनात्मकता का समावेश हो। इन सारी चीजों के लिए मेला ही मुझे भारतीय लोक परंपरा में सबसे जीवंत उपाय लगा। आप देख रहे हैं, लोक संस्कृतियों का मेला।
यह मेला वैसा तो नहीं है जो हमारे कस्बों में होते रहे हैं?
हां नहीं है, लेकिन इसकी कल्पना कस्बों से अलग कला का मेला था। मैं समझ रहा था कि भारतीय समाज में मेलों की चाहत कभी कम नहीं होगी। आरंभ से ही मेले के रूप में अपने देश की साधारण जनता के असाधारण अनुभवों को समवेत करना चाहता था। हमारी जनता को प्रारंभ से ही पहचाना नहीं था। गणतंत्र में लोक को आजादी से ही बाहर रखा गया। अब मुझे काम करना था और लोक आयोजन को जनता में समारोहित करना चाहता था।
सोमवार, सितंबर 27, 2010
ये दिन
दोस्तो
कुछ दिन ऐसे होते है जो दर्द देते हैं और आप एक शब्द भी नहीं कह सकते ....
आजकल इसी दौर से गुजर रहा हूँ ....
एक ही चारा है कि कुछ अच्छा बुरा लिखा जाए
मुशिकिल ये हैं कि दर्द अभी हद से नहीं गुजरा है और दबा भी नहीं बना है ....
दोस्तो एक हरे रंग कि शर्ट है
मेरे पास.....वो मुझे सबसे अधिक परेशां करती है
चलिए ये कुछ अपनी से बातें थी कभी फिर मिलेंगे
कुछ दिन ऐसे होते है जो दर्द देते हैं और आप एक शब्द भी नहीं कह सकते ....
आजकल इसी दौर से गुजर रहा हूँ ....
एक ही चारा है कि कुछ अच्छा बुरा लिखा जाए
मुशिकिल ये हैं कि दर्द अभी हद से नहीं गुजरा है और दबा भी नहीं बना है ....
दोस्तो एक हरे रंग कि शर्ट है
मेरे पास.....वो मुझे सबसे अधिक परेशां करती है
चलिए ये कुछ अपनी से बातें थी कभी फिर मिलेंगे
रविवार, सितंबर 26, 2010
अपने फ्रेंड्स के लिए कविता
मैं उसको प्यार करता हूं.... आय लव हर
वो अनफिनिस्ड बुक की तरह लगती है
बट आई डोंट टच द ग्रेट बुक्स लेकिन महसूस करता हूं
और मेरे दोस्त मैं अपने प्यार के लिए बहुत कुछ कहूंगा
जैसे कुछ भी बुक की तरह नहीं और न लवर की तरह
इस तरह उसे पढ़ा नहीं जा सकता है
जिसे मैं गाता हूं और प्यार करता हूं
मुश्किल है किताबों को पेड़ों और फूलों की तरह देखना
रामायण को कोयल की तरह गाना मेरे दोस्त
कुरान और बाइबिल को गिटार पर बजाना
वो अनफिनिस्ड बुक की तरह लगती है
बट आई डोंट टच द ग्रेट बुक्स लेकिन महसूस करता हूं
और मेरे दोस्त मैं अपने प्यार के लिए बहुत कुछ कहूंगा
जैसे कुछ भी बुक की तरह नहीं और न लवर की तरह
इस तरह उसे पढ़ा नहीं जा सकता है
जिसे मैं गाता हूं और प्यार करता हूं
मुश्किल है किताबों को पेड़ों और फूलों की तरह देखना
रामायण को कोयल की तरह गाना मेरे दोस्त
कुरान और बाइबिल को गिटार पर बजाना
बट आई थिंक इसे हमारी कल्चर होना जरूरी है
मैं उस लड़की से प्यार करता हूं
धूप में पेड़ के खड़े रहने जैसा
क्या तुमने ऐसा प्यार किया है
जो फूलों की तरह लहराता और मिट्टी जैसा ठोस
तुम मुझ से बातें करो
यह कालीदास की बड़ी कल्पनाओं का प्यार है
ये वही काले बादल विदिशा पर उड़ रहे हैं
मेरे दोस्त प्यार दुनिया को देखने का एंगल है
जहां हार और जीत नहीं होती
यह कविता तुम्हारे लिए है तुम जो प्यार करते हो
ओनली फार यू
रवीन्द्र स्वप्निल प्रजापति
मैं उस लड़की से प्यार करता हूं
धूप में पेड़ के खड़े रहने जैसा
क्या तुमने ऐसा प्यार किया है
जो फूलों की तरह लहराता और मिट्टी जैसा ठोस
तुम मुझ से बातें करो
यह कालीदास की बड़ी कल्पनाओं का प्यार है
ये वही काले बादल विदिशा पर उड़ रहे हैं
मेरे दोस्त प्यार दुनिया को देखने का एंगल है
जहां हार और जीत नहीं होती
यह कविता तुम्हारे लिए है तुम जो प्यार करते हो
ओनली फार यू
रवीन्द्र स्वप्निल प्रजापति
तीन पत्र तीन कविताओं पर
प्रिय मित्रो
आपकी कविताएं पढ़ीं । बहुत ही व्यस्त जीव हूं। सो अफसोस हुआ कि इस व्यस्तता के चलते कितनी ही काम लायक चीजें पढ़ने से रह जाती हैं।
वार्गथ में कविताएं स्तरीय छपती हैं। पहले भी इसकी दो कविताओं की चर्चा मंचों पर कर चुका हूं। ये कविताएं भी मेरी इसी धारणा को पुष्ट करती हैं। पहली बात यह कि आपकी तीनों कविताओं में कविता है - कमरा जंगल और कूलर में गुणात्मक रूप से ज्यादा , विकासशील देशों के बच्चे में उससे कम , मगर जिन कविताओं की हमें जरूरत है वह पहली कविता है - हमें अपने कदमों पर भरोसा है । इस भरोसे को नजर न लगे कहीं । समाज व जीवन की तमाम प्रतिकूलताओं के विरूद्ध इस कविता का जोश, जिजीविषा , शौर्य और शक्ति का स्वर कुछ अनछुए रागों को छेड़ता हैै।
दूसरी कविता तनिक भिन्न स्वर की है । मगर वही खुद्दारी यहां भी ,कविता के श्रेष्ठतर मानकों पर तरंगायित है - हम कुछ तिनकों के बच्चे हैं
हम कुछ सपनों के बच्चे हैं
हम कुछ तिनकों के बच्चे हैं
कविता यहां जिंदा है ।
तीसरी कविता मूर्तन और अर्मूतन के बीच कमरे के अंदर के यथार्थ को बाहरी दुनिया के यथार्थाें के भावना की लहरियों पर मचलते सेतू का और एक दूसरे की बीच आवागमन , संपूर्ति को बुनती हुई बेहतरीन कविता को नायाब नमूना है । ऐसा काव्यात्मक प्रयोग मेरी नजर में नहीं आया ।
शुभ कामनाओं सहित , आपका
प्रसिद्ध कथाकार संजीव , कुल्टी, प.ब. संजीव
दि. 1.5.2001 को लिखे पत्रोत्तर का अंश
....................................................................................................................................................................................................
आपकी एक कविता , तीन गुंबदों के ध्वंश की धूल बहुत अच्छी कविता है । मुझे पसंद है । परन्तु इसमें एक स्थापना इतिहास विरोधी प्रतीत होती है । एक तो कविता की तीसरी लाइन , और छटी लाइन में यह मान लिया गया है कि मंदिर को बाबर ने गिराया था , कविता के अंत में भी इसी का जिक्र है ।
क्या इन लाइनों में कुछ सुधार किया जा सकता है । कृपया पत्र दें।
उदभावना को भेजी कविताओं के
उत्तर में दि. 2.3.2001 को लिखे पत्र से आपका
अजेय कुमार , उदभावना ,
शाहदरा दिल्ली 95
.....................................................................................................................................................................................................
कथादेश का नवलेखन अंक जब आया में वाराणसी में था. ज्ञानेद्रपति ने भी आपकी कविता पढ़ी और उसके शिल्प की प्रशंसा की । लड़का औैेर विज्ञापन तो मैंने पहले भी कहीं पढ़ ली थी - शायद साक्षात्कार में । लेकिन मैं बताऊं कि मुझे औेर ज्ञानेद्रपति को भी घास वाली कविता ज्यादा अच्छी लगी ।
कोलाज व सूखा वाली कविता का शिल्प एक जैसा है । कोलाज लीक से हट कर एक नया शिल्प लेकर आती है , यही कारण है कि मंगलेश डबराल ने उसकी काफी प्रशंसा की है ।
वैेसेे वह हल्की फुल्की कविता है । किसी बड़े सरोकार को व्यक्त नहीं करती । घास व सूखा करती है । बहरहाल समीक्षकों में मतभेद हो सकते हैं ।
आपका
संजय कुमार गुप्त
युवा आलोचक ,संजय कुमार गुप्त ,बालाघाट
द्वारा दि. 9 .7.2001 को लिखे पत्रोत्तर से
ये तीन पत्र अपनी कविताओं पर लिखे थे। मेरी कोशिश है की हर पत्र के साथ कविता भी दूँ... लेकिन कविता आपको कल पोस्ट करूंगा । कर्ण ये है की आज ही मुझे सीडी मिली है । खोज और कन्वर्ट के बाद आपसे अपनी कविता की दुनिया शेयर करता हूँ । वेसे ये पत्र कोलाज संग्रह में भी छपे हैं.
-स्वप्निल
-स्वप्निल
आपकी कविताएं पढ़ीं । बहुत ही व्यस्त जीव हूं। सो अफसोस हुआ कि इस व्यस्तता के चलते कितनी ही काम लायक चीजें पढ़ने से रह जाती हैं।
वार्गथ में कविताएं स्तरीय छपती हैं। पहले भी इसकी दो कविताओं की चर्चा मंचों पर कर चुका हूं। ये कविताएं भी मेरी इसी धारणा को पुष्ट करती हैं। पहली बात यह कि आपकी तीनों कविताओं में कविता है - कमरा जंगल और कूलर में गुणात्मक रूप से ज्यादा , विकासशील देशों के बच्चे में उससे कम , मगर जिन कविताओं की हमें जरूरत है वह पहली कविता है - हमें अपने कदमों पर भरोसा है । इस भरोसे को नजर न लगे कहीं । समाज व जीवन की तमाम प्रतिकूलताओं के विरूद्ध इस कविता का जोश, जिजीविषा , शौर्य और शक्ति का स्वर कुछ अनछुए रागों को छेड़ता हैै।
दूसरी कविता तनिक भिन्न स्वर की है । मगर वही खुद्दारी यहां भी ,कविता के श्रेष्ठतर मानकों पर तरंगायित है - हम कुछ तिनकों के बच्चे हैं
हम कुछ सपनों के बच्चे हैं
हम कुछ तिनकों के बच्चे हैं
कविता यहां जिंदा है ।
तीसरी कविता मूर्तन और अर्मूतन के बीच कमरे के अंदर के यथार्थ को बाहरी दुनिया के यथार्थाें के भावना की लहरियों पर मचलते सेतू का और एक दूसरे की बीच आवागमन , संपूर्ति को बुनती हुई बेहतरीन कविता को नायाब नमूना है । ऐसा काव्यात्मक प्रयोग मेरी नजर में नहीं आया ।
शुभ कामनाओं सहित , आपका
प्रसिद्ध कथाकार संजीव , कुल्टी, प.ब. संजीव
दि. 1.5.2001 को लिखे पत्रोत्तर का अंश
....................................................................................................................................................................................................
आपकी एक कविता , तीन गुंबदों के ध्वंश की धूल बहुत अच्छी कविता है । मुझे पसंद है । परन्तु इसमें एक स्थापना इतिहास विरोधी प्रतीत होती है । एक तो कविता की तीसरी लाइन , और छटी लाइन में यह मान लिया गया है कि मंदिर को बाबर ने गिराया था , कविता के अंत में भी इसी का जिक्र है ।
क्या इन लाइनों में कुछ सुधार किया जा सकता है । कृपया पत्र दें।
उदभावना को भेजी कविताओं के
उत्तर में दि. 2.3.2001 को लिखे पत्र से आपका
अजेय कुमार , उदभावना ,
शाहदरा दिल्ली 95
.....................................................................................................................................................................................................
कथादेश का नवलेखन अंक जब आया में वाराणसी में था. ज्ञानेद्रपति ने भी आपकी कविता पढ़ी और उसके शिल्प की प्रशंसा की । लड़का औैेर विज्ञापन तो मैंने पहले भी कहीं पढ़ ली थी - शायद साक्षात्कार में । लेकिन मैं बताऊं कि मुझे औेर ज्ञानेद्रपति को भी घास वाली कविता ज्यादा अच्छी लगी ।
कोलाज व सूखा वाली कविता का शिल्प एक जैसा है । कोलाज लीक से हट कर एक नया शिल्प लेकर आती है , यही कारण है कि मंगलेश डबराल ने उसकी काफी प्रशंसा की है ।
वैेसेे वह हल्की फुल्की कविता है । किसी बड़े सरोकार को व्यक्त नहीं करती । घास व सूखा करती है । बहरहाल समीक्षकों में मतभेद हो सकते हैं ।
आपका
संजय कुमार गुप्त
युवा आलोचक ,संजय कुमार गुप्त ,बालाघाट
द्वारा दि. 9 .7.2001 को लिखे पत्रोत्तर से
कीमत है कम
बाजार है बड़ा-मगर कीमत नहीं है
खूबसूरत मॉल है सुन्दर सी शॉपी है
मगर कीमत है कम
छोटी-छोटी कीमत पे बिकता है सब
कला भी है यहां मगर कीमत है कम
कीमत के टैग पे जैसे टंगा है सब
धीरे-धीरे ही सही, बिकता है सब
मैंने भी देखी दुनिया, मैं भी हूं यहीं का
मैंने भी खोला मॉल, मेरे अपने दिल का
लोग आए बहुत-दुनिया के दिलेर बनकर
कोई चैक लाया-हाथों से ख्याति लिखकर
कोई आया मॉल में, रुपयों का रूमाल रखकर
कोई आया यूं ही, जेबों में जिज्ञासा लेकर
मेरे मॉल में है सबका स्वागत
मेरे मॉल में है सबकी आगत
लोग हंसते हैं अपने स्वगत
कुछ लोग यहां हैं बड़े बेगत
मेरे सीने की जागीर मेरे दिल का मॉल है
द्वार पर शहरियों का अजीब हाल है
मॉल में हर तरफ मुहब्बत का जाल है
मॉल में एक से बढ़कर एक सामान है
प्यार की मूरत है, लौंडी खूबसूरत है
कर ले कोई मैरिज, खुली सूरत है
सोच में बैठे हैं सब सर माथे को लिए
मैंनेजमैंट की डिग्री में कहीं ये व्यापार नहीं
व्यापार की दुनिया में ये कैसा व्यापार है
माल है और सजा है सब
बिकने की शर्त पे रख है सब
मगर लोगों का कैश है रखा है सब
न चलता है न फु दकता है
कुछ तो मायूस हो लौट गए
कुछ जिद्दी हैं अहंकारी डटे हैं
इस दुनिया से बाहर रखा क्या है
कहते हैं माल कुछ लेके जाएंगे यहां से
ये कौन समझाए उनको
इस माल में चलता नहीं डालर
इस माल में चलते हैं वे सिक्के
जिनपे कीमत भी खुद खोदना है
न सरकार है न टैक्स है यहां
बस कीमत थोड़ी देना है यहां
मेरे सीने की जागीर पर खुला दिल का माल है
यहां चलता है सिक्का मगर किसी और का नहीं
रवीन्द्र स्वप्निल प्रजापति
आपके सुझावों और कविता में प्रयोग, बिम्ब, शीर्षक आदि के सुधार के लिए विचार और सलाह आमंत्रित है।
खूबसूरत मॉल है सुन्दर सी शॉपी है
मगर कीमत है कम
छोटी-छोटी कीमत पे बिकता है सब
कला भी है यहां मगर कीमत है कम
कीमत के टैग पे जैसे टंगा है सब
धीरे-धीरे ही सही, बिकता है सब
मैंने भी देखी दुनिया, मैं भी हूं यहीं का
मैंने भी खोला मॉल, मेरे अपने दिल का
लोग आए बहुत-दुनिया के दिलेर बनकर
कोई चैक लाया-हाथों से ख्याति लिखकर
कोई आया मॉल में, रुपयों का रूमाल रखकर
कोई आया यूं ही, जेबों में जिज्ञासा लेकर
मेरे मॉल में है सबका स्वागत
मेरे मॉल में है सबकी आगत
लोग हंसते हैं अपने स्वगत
कुछ लोग यहां हैं बड़े बेगत
मेरे सीने की जागीर मेरे दिल का मॉल है
द्वार पर शहरियों का अजीब हाल है
मॉल में हर तरफ मुहब्बत का जाल है
मॉल में एक से बढ़कर एक सामान है
प्यार की मूरत है, लौंडी खूबसूरत है
कर ले कोई मैरिज, खुली सूरत है
सोच में बैठे हैं सब सर माथे को लिए
मैंनेजमैंट की डिग्री में कहीं ये व्यापार नहीं
व्यापार की दुनिया में ये कैसा व्यापार है
माल है और सजा है सब
बिकने की शर्त पे रख है सब
मगर लोगों का कैश है रखा है सब
न चलता है न फु दकता है
कुछ तो मायूस हो लौट गए
कुछ जिद्दी हैं अहंकारी डटे हैं
इस दुनिया से बाहर रखा क्या है
कहते हैं माल कुछ लेके जाएंगे यहां से
ये कौन समझाए उनको
इस माल में चलता नहीं डालर
इस माल में चलते हैं वे सिक्के
जिनपे कीमत भी खुद खोदना है
न सरकार है न टैक्स है यहां
बस कीमत थोड़ी देना है यहां
मेरे सीने की जागीर पर खुला दिल का माल है
यहां चलता है सिक्का मगर किसी और का नहीं
रवीन्द्र स्वप्निल प्रजापति
आपके सुझावों और कविता में प्रयोग, बिम्ब, शीर्षक आदि के सुधार के लिए विचार और सलाह आमंत्रित है।
अगरिया अब गांव क्यों नहीं जाते
एक जनजाति के गांव से टूटते हुए रिश्तों की कहानी
- रवीन्द्र स्वप्निल प्रजापति
सन् ’82 के ठंड के दिन थे। बच्चों को सुबह की ठिठुरन से बचाने के लिए गांव से बाहर खेड़ों में भेज दिया जाता था। खेड़ों और तलैयों में धूप जल्दी फैल जाती थी। मैं भी तलैया में आ जाता था। एक सुबह बच्चों में खलबली मची। बहुत-से बच्चे दौड़कर कुछ देखने जा रहे थे। उनके पीछे कुछ और लोग भी जा रहे थे। हमारा झुंड भी दौड़ने लगा। वहां लोगों का हुजूम जुट गया। मैदान में पांच बैलगाड़ियां हैं। पास में ही बैल बंधे हैं। मेरे से अधिक जानकार बच्चे मलखान ने कहा- दूर रेइये, अगरिया हैंगे। पकरई लंग्गे। हम आपस में सावधान हो गए। उनके बहुत-से बच्चे हमसे अलग खेल रहे थे। उनसे थोड़े बड़े बच्चे जरेंटे और पुआंर का झुरकस लेकर आ रहे थे। मैं पूछने लगा- काये इने ठंड नई लगै, उगरे तो घूम रअे हैं।
मलखान ने कहा- अगरिया हैंगे। उने कछु नई लगै, हमारी बाई कै रई थी, अगरियों केना ऐसी कुलारी होथै के। हां रे हां, मतलब उस कुल्हाड़ी के कारण उन्हें न अंधेरे से डर लगता है, न भूत-प्रेतों से। लड़के अपनी बांहों में भरकर झुरकस ला रहे थे और एक जगह ढेर लगा रहे थे। महिलाएं छोटे पायों की खूबसूरत खटियों पर बैठी थीं। कुछ अपने चौड़े घाघरे को फैलाकर चमेली पर बैठी थीं। वे कुछ बोलतीं तो समझ में नहीं आता। उनके बच्चे आपस में जाने क्या-क्या बोलते रहते, लेकिन हम सिर्फ उनका मुंह देखते रहते। सबसे हटकर काला अगरिया बैठा है। उसकी मूंछें चढ़ी हुईं। साफ लट्ठे की राजस्थानी काट की बनियान पहने है। बाकी सब अगरिया कसे हुए लोहे जैसे काला रंग और कसे हुए बदन के थे। उनका मुखिया मस्त लगता था। हम उसके पास आकर खड़े हो गए। वह अपनी आवाज में बल रहा था- आरे का आर भैया। आब तो धंधो पिटतो जा रहो है। भीतर के गांवों में तो कछु हैगो। मनो ठाकुर और बनिया के गांवां में कुछ न बचा है। वे शहर कू जाने लागे हैं। अब तो हमारा भी मन भरा गियो। जा धंधे में तो अब बाल-बच्चे भी न पलें। जरदार खां बोला- काए को कै रिया है रे, खूब तो सिट्टी बना के धल्ली है।
इन सब बातों से बेखबर अगरिया खानदान के लड़के-लड़कियां यूं ही घूम रहे हैं। लड़कियां ऊंचा घाघरा और पैरों में चांदी के मोटे कड़े पहने, बालों से कसी हुई चोटी लिए अपने मुर्गे-मुर्गियों को घेर रही थीं।
जसमन पूछ रहा था- काए जे कब आए, इने रात में डर नई लगो।
बोत तागतबर होऐं भैया। -मलखान ने कहा।
देखिए जो का हैगो, चक्की हैगी रे। हम उनकी चीजों को देखने लगे।
जा देख रे, जो का है। मैंने कहा। वह एक लोहे का फ्रेम था, जिसे अंगारों पर रककर चाय बनाई जाती थी। बाद में हमने देखा भी था कि वे उस पर काली चाय बनाते थे। हमारी नजरें एक के बाद एक उनके सामानों पर फिसल रही थी। कभी लकड़ी का कोई सामान दिख जाता, तो कभी उनके बर्तनों को देखने लगते। मलखान को फिर कुछ नया दिखा। वह उनकी गोल पेटी को बता रहा था। हमारी नजर उनके उन सामानों की ओर ही उठती थी, जो हमारे गांव में नहीं होते थे। हमें उनकी ऐसी सभी चीजें आकर्षित करती थीं। गांव के लोगों के लिए- हंसिया की धार तूने और सालों से अच्छी नहीं बनाई। वो तेरा बड़ा भाई अच्छा धार बनाता था... लोगों को उनके नाम भी याद थे। मगर हमें यह सब अच्छा नहीं लगता था।
उनकी बैलगाड़ियां गांव की ढांचा बैलगाड़ियों से अच्छी थीं। उनमें बहुत बारीक नक्काशी थी। फूल बने थे। उनकी नक्की घोड़ी, जिस पर गाड़ी का अगला हिस्सा रखा रहता था, मजबूत और आकर्षक थी। दोपहर में हम फिर उनके आस-पास थे। किल्लू यानी कैलाश ने सबको बताया- देखिये रे का बड़ी जुवार की रोटी बन रही है। मैंने देखा- अगरनी, जिसकी चुनरी में चांदी के घुंघरू जड़े हैं, मगन होकर रोटी बना रही है। उसके हाथों में पूरे सफेद पाटले भरे हुए हैं। किसी बच्चे ने पूछा तो बताया गया कि ये हाथी के दांत के बनते हैं, तो किसी ने बताया कि ये हड्डियों के बनते हैं। उसके सामने बैठे दो बच्चे हाथ में रोटी लिए खा रहे थे। उसकी रोटी काफी बड़ी और गोल बन रही थी, जबकि हमारे गांव में छोटी और मोटी रोटी बनती थी, वह हमें खाने में भी नहीं रुचती थी। वह ठक-ठक करते हुए रोटियां बना रही थी। उसका लय में ज्वार का आटा गूंथना देखकर हम भी लय से भर जाते थे। अगरनी के बनाने के अंदाज के कारण हमें वे रोटियां अच्छी लग रही थीं। हम स्कूल जाते हुए और आते हुए भी उनको देखते रहते। ऐसी ही लय हमें अगरनियों के घन चलाते हुए जान पड़ती थी। वे गरम लाल लोहे के चौकोर टुकड़े पर ऐसे घन बरसाती थीं कि थोड़ी ही देर में लोहा उनके मनचाहे आकार में बदल जाता था। घनों को डेरे की लड़कियां ज्यादा चलाती रहती थीं। उनका हर काम लय में होता था। घन चलाते हुए उनका शरीर, मालाएं, चोटी, चुनरी, उनका रंगीन घाघरा और क्रम से टपकती पसीने की बूंदें जैसे सब लाल लोहे पर वार कर रहे हों। घन चलाते हुए अगरिया तेज सांसों के साथ कुछ कहता हुआ शायद वह घनों की चोट थोड़ा धीमा, दाएं-बाएं या तेज करने के लिए हूं-हूं की आवाज निकालता था और अपने छोटे हथौड़े से उनका साथ देता। दोनों घन चलाने वाले अपनी एक लय के साथ रुक जाते। उनकी इस रिद्म पर हमारा मन चहक उठता था।
एक दिन स्कूल जाते समय देखा कि उस मैदान में कोई नहीं है। करीब सात-आठ दिन तक रुकने के बाद वहां कोई नहीं दिख रहा है। मैदान में एक के बाद एक लय से गिरने वाले घनों की आवाजें जाने कहां चली गई हैं। मैं समझ ही नहीं पा रहा था कि ये क्यों चले गए हैं। मुझे लगता, मैं जाते हुए इन्हें क्यों नहीं देख पाया। हम चारों दोस्त मैदान में गए। भट्ठियों की राख में पिघले हुए लोहे के कणों को उठाकर अपने बस्तों में रखने लगे। जसमन, जो हम सबमें बड़ा था, बोला- वे तो औरई आंगे। वे हर साल आथैं। मैंने उन्हें फिर तीन-चार सालों बाद देखा। गांव के लोग उसी अंदाज में बात कर रहे थे। वे कह रहे थे कि लोहे को सोना बना देते हो। लूट लो गांव वालों को। लेकिन, आज वह मोटा अगरिया नहीं आया था। मेरे दोस्त मलखान, जसमन, केलसुआ, अनवरुया, रामचरनिया भी नहीं थे। वे अपने काम-धंधे यानी मजदूरी करने लगे थे। जसमन टैÑक्टर चलाने लगा था। अब वहां अगरिया भी नए थे और देखने वाले गांव के लोग भी नए थे। मैं सिर्फ पढ़ने कारण फालतू था और खड़ा था। मैं भीड़ की चिल्लपों में अगरनी लड़की को देख रहा था। उसके माथे पर, गालों पर, ठोड़ी और बांहों पर गोदने थे। वह दूसरी अगरनियों जैसी ही थी, लेकिन उसका चेहरा गोल और आकर्षक था। मैं उसे काम करते हुए देखता, तो कभी वह दूर जाती हुई लगती, तो कभी एकदम पास। वह बहुत कम ही अपनी आंखें उठाकर इधर-उधर देखती थी। मैं उसके पास खेलना चाहता था। मैं सोचता था, इनको खुले आकाश और इतने अंधेरे में डर क्यों नहीं लगता। मैं उनके बारे में बहुत-सी बातें जानना चाहता था, क्योंकि गांव में प्रचलित था कि अगरिया एक साल में एक बार नहाते हैं। वह भी मकर संक्रांति पर। लड़की अपनी बड़ी बहन के साथ गांव में खुरपी, कुदाली, हंसुलिए, खुरचा और चिमटा बेचने आती थी। हमसे बड़े लड़के कहते- खुदा कसम, क्या रूप है। निसार, राजामिया, शिब्बू, परमोली जैसे दूसरे लड़के दालान में बैठकर आहें भरते। मैं अकेला ही दोनों की बातें सुनता रहता। मैं दोनों को गौर से देखता और तय नहीं कर पाता था कि दोनों में ज्यादा सुंदर कौन है। मैं सोचता, इनसे ज्यादा अच्छी चिड़िएं लगती हैं। मैं छोटी बाली को देखकर एक जंगली छोटी-सी फुदकने वाली चिड़िया से ज्यादा सुंदर समझता और बड़ी वाली को देखकर सोचता, इससे ज्यादा अच्छी तो गलगल लगती है। बाद में मुझे उनकी बातों से मालूम हुआ कि एक लड़के को चिड़िया से ज्यादा लड़की क्यों अच्छी लगती है।
कुछ दिनों बाद उनका डेरा चला गया और मैं शहर पढ़ने चला गया। करीब पांच सालों बाद फिर अगरियों को देखने का मौका मिला। मैं अपनी पढ़ाई से वापस आया था। दीपावली के आस-पास का समय था। उनका काफिला आया था, लेकिन अब उनका डेरा केवल दो बैलगाड़ियों का था। मैं करीब गया तो देखा, बैल मरियल हो चुके हैं। चमेलियां गंदी थीं। अगरनिएं पस्त और कमजोर थीं। उनके बच्चे कुपोषित थे। बच्चों के कपड़ों में रंग उड़े हुए थे। एक छोटी-सी गुड़िया सलवार-कुर्ती पहने थी। शहर में पढ़ते हुए मैं सूती और सिंथेटिक कपड़ों का अंतर समझ गया था। वह लड़की सिंथेटिक कपड़े पहने थी। ये उनके परिश्रम का पसीना नहीं सोखते थे। अगरिया भी दुबला था और सिंथेटिक धोती पहने था। वह शरीर पर लट्ठे की बंडी की जगह नीले रंग की कमीज पहन कर हथौड़ा चला रहा था। बैलगाड़ी के नीचे अल्यूमीनियम की देगची पड़ी थी। कांसे और पीतल की जगह स्टील की कटोरियां और थालियां पड़ी थीं। उसकी बीबी लोहे के तवे पर गेहूं की मोटी रोटियां बना रही थी। लोगों ने ज्वार की जगह सोयाबीन बोना शुरू कर दिया था। बहुत-से लोगों के पास टैÑक्टर हो गए थे। कुल्हाड़ियां, कुशियों, बखर की पांसों, झाड़ उठाने की जेरियों और हंसियों का उपयोग बंद-सा हो गया था। हंसिया अब केवल गांव में सब्जी काटने के काम का रह गया था। फसलों की कटाई के लिए हार्वेस्टर और रीपर गांव में आना शुरू हो गए थे। तुम्हारा काफिला इतना छोटा-सा कैसे रह गया। मैं अगरिया से पूछने चला गया, उसने अपनी बड़ी-बड़ी बीमार-सी आंखें उठाकर मुझे देखा। बोला- कैइसे हो गयो... काम-धंधो है नाहीं तारे गांव में... म्हारा भी थी एकाद फेरा और लागेगा। बास... करीब तीन सालों के बाद मैंने गांव लौटकर देखा। जहां अगरिया ठहरते थे, उस जगह पर पंचायत ने ट्यूबवेल लगा दिया गया है। पानी की टंकी खड़ी हो गई है। आस-पास के खुले पेड़ों की स्थाई तार फेंसिंग और बागड़ हो चुकी है। मैंने अपनी मां से पूछा- अब अगरिया नहीं दिखते। वे अब कां आथैं। मोय तो तीनक साल से अंदाज है आवों बंद है। बिचारे आके करेंगे का। सबई चीजें तो बदल गईं। उनके धंधे तो मशीनों ने जादै पीट दए। अब पुरानी चीजोंए कोई काममेंई नईं लेय।
’94 में मैं जब गांव से लौटा तो बस पास के शहर के नाके पर रुकी। यह संयोग नहीं था कि मेरा ध्यान काली पन्नी से बनी झुग्गियों जैसी बनावट पर गया। गौर से देखा तो ये अगरिए थे। झोंपड़ी के अंदर लकड़ी की काले रंग से पुती गाड़ी रखी थी। बाहर खटिया के साथ प्लास्टिक की कुर्सियां रखी थीं। उन पर अगरिया जींस पहन कर बैठा था। उनके बच्चे टी शर्ट पहन कर खेल रहे थे। एक लकड़ी जींस पहने हुई अगरनी स्टाइल का ब्लाऊज पहने थी। लगता था, वह किसी फैशन डिजाइनर के कपड़े पहने है। भट्टी में हाथ के पंखे की जगह बिजली से चलने वाली पंखी लगी है। पास ही टैÑक्टर के कल्टीवेटर की पांसे जपने रखी हैं। दृश्य पूरा बदला हुआ था। मुझे यह सब देखकर बिल्कुल दु:ख नहीं हुआ। हां, मैं थोड़ा सोच में पड़ गया। जीवन, परिवर्तन और अस्तित्व तीनों एक पहिए में तीन धारियों की तरह लगे। यह चक्र घूम रहा है। मैं सोचने लगा, आखिर मैंने भी अपना गांव छोड़ा, खान-पान छोड़ा, बोली को बदला और नए की तलाश में यहां तक आया। शायद जब पत्तों को त्यागकर हम वस्त्रों को धारण करना सीख रहे थे- वह भी यही प्रक्रिया थी। मैं सहजता से सब कुछ देखता रहा, बस झोपड़ियों को छोड़कर आगे बढ़ गई थी।
- रवीन्द्र स्वप्निल प्रजापति
सन् ’82 के ठंड के दिन थे। बच्चों को सुबह की ठिठुरन से बचाने के लिए गांव से बाहर खेड़ों में भेज दिया जाता था। खेड़ों और तलैयों में धूप जल्दी फैल जाती थी। मैं भी तलैया में आ जाता था। एक सुबह बच्चों में खलबली मची। बहुत-से बच्चे दौड़कर कुछ देखने जा रहे थे। उनके पीछे कुछ और लोग भी जा रहे थे। हमारा झुंड भी दौड़ने लगा। वहां लोगों का हुजूम जुट गया। मैदान में पांच बैलगाड़ियां हैं। पास में ही बैल बंधे हैं। मेरे से अधिक जानकार बच्चे मलखान ने कहा- दूर रेइये, अगरिया हैंगे। पकरई लंग्गे। हम आपस में सावधान हो गए। उनके बहुत-से बच्चे हमसे अलग खेल रहे थे। उनसे थोड़े बड़े बच्चे जरेंटे और पुआंर का झुरकस लेकर आ रहे थे। मैं पूछने लगा- काये इने ठंड नई लगै, उगरे तो घूम रअे हैं।
मलखान ने कहा- अगरिया हैंगे। उने कछु नई लगै, हमारी बाई कै रई थी, अगरियों केना ऐसी कुलारी होथै के। हां रे हां, मतलब उस कुल्हाड़ी के कारण उन्हें न अंधेरे से डर लगता है, न भूत-प्रेतों से। लड़के अपनी बांहों में भरकर झुरकस ला रहे थे और एक जगह ढेर लगा रहे थे। महिलाएं छोटे पायों की खूबसूरत खटियों पर बैठी थीं। कुछ अपने चौड़े घाघरे को फैलाकर चमेली पर बैठी थीं। वे कुछ बोलतीं तो समझ में नहीं आता। उनके बच्चे आपस में जाने क्या-क्या बोलते रहते, लेकिन हम सिर्फ उनका मुंह देखते रहते। सबसे हटकर काला अगरिया बैठा है। उसकी मूंछें चढ़ी हुईं। साफ लट्ठे की राजस्थानी काट की बनियान पहने है। बाकी सब अगरिया कसे हुए लोहे जैसे काला रंग और कसे हुए बदन के थे। उनका मुखिया मस्त लगता था। हम उसके पास आकर खड़े हो गए। वह अपनी आवाज में बल रहा था- आरे का आर भैया। आब तो धंधो पिटतो जा रहो है। भीतर के गांवों में तो कछु हैगो। मनो ठाकुर और बनिया के गांवां में कुछ न बचा है। वे शहर कू जाने लागे हैं। अब तो हमारा भी मन भरा गियो। जा धंधे में तो अब बाल-बच्चे भी न पलें। जरदार खां बोला- काए को कै रिया है रे, खूब तो सिट्टी बना के धल्ली है।
इन सब बातों से बेखबर अगरिया खानदान के लड़के-लड़कियां यूं ही घूम रहे हैं। लड़कियां ऊंचा घाघरा और पैरों में चांदी के मोटे कड़े पहने, बालों से कसी हुई चोटी लिए अपने मुर्गे-मुर्गियों को घेर रही थीं।
जसमन पूछ रहा था- काए जे कब आए, इने रात में डर नई लगो।
बोत तागतबर होऐं भैया। -मलखान ने कहा।
देखिए जो का हैगो, चक्की हैगी रे। हम उनकी चीजों को देखने लगे।
जा देख रे, जो का है। मैंने कहा। वह एक लोहे का फ्रेम था, जिसे अंगारों पर रककर चाय बनाई जाती थी। बाद में हमने देखा भी था कि वे उस पर काली चाय बनाते थे। हमारी नजरें एक के बाद एक उनके सामानों पर फिसल रही थी। कभी लकड़ी का कोई सामान दिख जाता, तो कभी उनके बर्तनों को देखने लगते। मलखान को फिर कुछ नया दिखा। वह उनकी गोल पेटी को बता रहा था। हमारी नजर उनके उन सामानों की ओर ही उठती थी, जो हमारे गांव में नहीं होते थे। हमें उनकी ऐसी सभी चीजें आकर्षित करती थीं। गांव के लोगों के लिए- हंसिया की धार तूने और सालों से अच्छी नहीं बनाई। वो तेरा बड़ा भाई अच्छा धार बनाता था... लोगों को उनके नाम भी याद थे। मगर हमें यह सब अच्छा नहीं लगता था।
उनकी बैलगाड़ियां गांव की ढांचा बैलगाड़ियों से अच्छी थीं। उनमें बहुत बारीक नक्काशी थी। फूल बने थे। उनकी नक्की घोड़ी, जिस पर गाड़ी का अगला हिस्सा रखा रहता था, मजबूत और आकर्षक थी। दोपहर में हम फिर उनके आस-पास थे। किल्लू यानी कैलाश ने सबको बताया- देखिये रे का बड़ी जुवार की रोटी बन रही है। मैंने देखा- अगरनी, जिसकी चुनरी में चांदी के घुंघरू जड़े हैं, मगन होकर रोटी बना रही है। उसके हाथों में पूरे सफेद पाटले भरे हुए हैं। किसी बच्चे ने पूछा तो बताया गया कि ये हाथी के दांत के बनते हैं, तो किसी ने बताया कि ये हड्डियों के बनते हैं। उसके सामने बैठे दो बच्चे हाथ में रोटी लिए खा रहे थे। उसकी रोटी काफी बड़ी और गोल बन रही थी, जबकि हमारे गांव में छोटी और मोटी रोटी बनती थी, वह हमें खाने में भी नहीं रुचती थी। वह ठक-ठक करते हुए रोटियां बना रही थी। उसका लय में ज्वार का आटा गूंथना देखकर हम भी लय से भर जाते थे। अगरनी के बनाने के अंदाज के कारण हमें वे रोटियां अच्छी लग रही थीं। हम स्कूल जाते हुए और आते हुए भी उनको देखते रहते। ऐसी ही लय हमें अगरनियों के घन चलाते हुए जान पड़ती थी। वे गरम लाल लोहे के चौकोर टुकड़े पर ऐसे घन बरसाती थीं कि थोड़ी ही देर में लोहा उनके मनचाहे आकार में बदल जाता था। घनों को डेरे की लड़कियां ज्यादा चलाती रहती थीं। उनका हर काम लय में होता था। घन चलाते हुए उनका शरीर, मालाएं, चोटी, चुनरी, उनका रंगीन घाघरा और क्रम से टपकती पसीने की बूंदें जैसे सब लाल लोहे पर वार कर रहे हों। घन चलाते हुए अगरिया तेज सांसों के साथ कुछ कहता हुआ शायद वह घनों की चोट थोड़ा धीमा, दाएं-बाएं या तेज करने के लिए हूं-हूं की आवाज निकालता था और अपने छोटे हथौड़े से उनका साथ देता। दोनों घन चलाने वाले अपनी एक लय के साथ रुक जाते। उनकी इस रिद्म पर हमारा मन चहक उठता था।
एक दिन स्कूल जाते समय देखा कि उस मैदान में कोई नहीं है। करीब सात-आठ दिन तक रुकने के बाद वहां कोई नहीं दिख रहा है। मैदान में एक के बाद एक लय से गिरने वाले घनों की आवाजें जाने कहां चली गई हैं। मैं समझ ही नहीं पा रहा था कि ये क्यों चले गए हैं। मुझे लगता, मैं जाते हुए इन्हें क्यों नहीं देख पाया। हम चारों दोस्त मैदान में गए। भट्ठियों की राख में पिघले हुए लोहे के कणों को उठाकर अपने बस्तों में रखने लगे। जसमन, जो हम सबमें बड़ा था, बोला- वे तो औरई आंगे। वे हर साल आथैं। मैंने उन्हें फिर तीन-चार सालों बाद देखा। गांव के लोग उसी अंदाज में बात कर रहे थे। वे कह रहे थे कि लोहे को सोना बना देते हो। लूट लो गांव वालों को। लेकिन, आज वह मोटा अगरिया नहीं आया था। मेरे दोस्त मलखान, जसमन, केलसुआ, अनवरुया, रामचरनिया भी नहीं थे। वे अपने काम-धंधे यानी मजदूरी करने लगे थे। जसमन टैÑक्टर चलाने लगा था। अब वहां अगरिया भी नए थे और देखने वाले गांव के लोग भी नए थे। मैं सिर्फ पढ़ने कारण फालतू था और खड़ा था। मैं भीड़ की चिल्लपों में अगरनी लड़की को देख रहा था। उसके माथे पर, गालों पर, ठोड़ी और बांहों पर गोदने थे। वह दूसरी अगरनियों जैसी ही थी, लेकिन उसका चेहरा गोल और आकर्षक था। मैं उसे काम करते हुए देखता, तो कभी वह दूर जाती हुई लगती, तो कभी एकदम पास। वह बहुत कम ही अपनी आंखें उठाकर इधर-उधर देखती थी। मैं उसके पास खेलना चाहता था। मैं सोचता था, इनको खुले आकाश और इतने अंधेरे में डर क्यों नहीं लगता। मैं उनके बारे में बहुत-सी बातें जानना चाहता था, क्योंकि गांव में प्रचलित था कि अगरिया एक साल में एक बार नहाते हैं। वह भी मकर संक्रांति पर। लड़की अपनी बड़ी बहन के साथ गांव में खुरपी, कुदाली, हंसुलिए, खुरचा और चिमटा बेचने आती थी। हमसे बड़े लड़के कहते- खुदा कसम, क्या रूप है। निसार, राजामिया, शिब्बू, परमोली जैसे दूसरे लड़के दालान में बैठकर आहें भरते। मैं अकेला ही दोनों की बातें सुनता रहता। मैं दोनों को गौर से देखता और तय नहीं कर पाता था कि दोनों में ज्यादा सुंदर कौन है। मैं सोचता, इनसे ज्यादा अच्छी चिड़िएं लगती हैं। मैं छोटी बाली को देखकर एक जंगली छोटी-सी फुदकने वाली चिड़िया से ज्यादा सुंदर समझता और बड़ी वाली को देखकर सोचता, इससे ज्यादा अच्छी तो गलगल लगती है। बाद में मुझे उनकी बातों से मालूम हुआ कि एक लड़के को चिड़िया से ज्यादा लड़की क्यों अच्छी लगती है।
कुछ दिनों बाद उनका डेरा चला गया और मैं शहर पढ़ने चला गया। करीब पांच सालों बाद फिर अगरियों को देखने का मौका मिला। मैं अपनी पढ़ाई से वापस आया था। दीपावली के आस-पास का समय था। उनका काफिला आया था, लेकिन अब उनका डेरा केवल दो बैलगाड़ियों का था। मैं करीब गया तो देखा, बैल मरियल हो चुके हैं। चमेलियां गंदी थीं। अगरनिएं पस्त और कमजोर थीं। उनके बच्चे कुपोषित थे। बच्चों के कपड़ों में रंग उड़े हुए थे। एक छोटी-सी गुड़िया सलवार-कुर्ती पहने थी। शहर में पढ़ते हुए मैं सूती और सिंथेटिक कपड़ों का अंतर समझ गया था। वह लड़की सिंथेटिक कपड़े पहने थी। ये उनके परिश्रम का पसीना नहीं सोखते थे। अगरिया भी दुबला था और सिंथेटिक धोती पहने था। वह शरीर पर लट्ठे की बंडी की जगह नीले रंग की कमीज पहन कर हथौड़ा चला रहा था। बैलगाड़ी के नीचे अल्यूमीनियम की देगची पड़ी थी। कांसे और पीतल की जगह स्टील की कटोरियां और थालियां पड़ी थीं। उसकी बीबी लोहे के तवे पर गेहूं की मोटी रोटियां बना रही थी। लोगों ने ज्वार की जगह सोयाबीन बोना शुरू कर दिया था। बहुत-से लोगों के पास टैÑक्टर हो गए थे। कुल्हाड़ियां, कुशियों, बखर की पांसों, झाड़ उठाने की जेरियों और हंसियों का उपयोग बंद-सा हो गया था। हंसिया अब केवल गांव में सब्जी काटने के काम का रह गया था। फसलों की कटाई के लिए हार्वेस्टर और रीपर गांव में आना शुरू हो गए थे। तुम्हारा काफिला इतना छोटा-सा कैसे रह गया। मैं अगरिया से पूछने चला गया, उसने अपनी बड़ी-बड़ी बीमार-सी आंखें उठाकर मुझे देखा। बोला- कैइसे हो गयो... काम-धंधो है नाहीं तारे गांव में... म्हारा भी थी एकाद फेरा और लागेगा। बास... करीब तीन सालों के बाद मैंने गांव लौटकर देखा। जहां अगरिया ठहरते थे, उस जगह पर पंचायत ने ट्यूबवेल लगा दिया गया है। पानी की टंकी खड़ी हो गई है। आस-पास के खुले पेड़ों की स्थाई तार फेंसिंग और बागड़ हो चुकी है। मैंने अपनी मां से पूछा- अब अगरिया नहीं दिखते। वे अब कां आथैं। मोय तो तीनक साल से अंदाज है आवों बंद है। बिचारे आके करेंगे का। सबई चीजें तो बदल गईं। उनके धंधे तो मशीनों ने जादै पीट दए। अब पुरानी चीजोंए कोई काममेंई नईं लेय।
’94 में मैं जब गांव से लौटा तो बस पास के शहर के नाके पर रुकी। यह संयोग नहीं था कि मेरा ध्यान काली पन्नी से बनी झुग्गियों जैसी बनावट पर गया। गौर से देखा तो ये अगरिए थे। झोंपड़ी के अंदर लकड़ी की काले रंग से पुती गाड़ी रखी थी। बाहर खटिया के साथ प्लास्टिक की कुर्सियां रखी थीं। उन पर अगरिया जींस पहन कर बैठा था। उनके बच्चे टी शर्ट पहन कर खेल रहे थे। एक लकड़ी जींस पहने हुई अगरनी स्टाइल का ब्लाऊज पहने थी। लगता था, वह किसी फैशन डिजाइनर के कपड़े पहने है। भट्टी में हाथ के पंखे की जगह बिजली से चलने वाली पंखी लगी है। पास ही टैÑक्टर के कल्टीवेटर की पांसे जपने रखी हैं। दृश्य पूरा बदला हुआ था। मुझे यह सब देखकर बिल्कुल दु:ख नहीं हुआ। हां, मैं थोड़ा सोच में पड़ गया। जीवन, परिवर्तन और अस्तित्व तीनों एक पहिए में तीन धारियों की तरह लगे। यह चक्र घूम रहा है। मैं सोचने लगा, आखिर मैंने भी अपना गांव छोड़ा, खान-पान छोड़ा, बोली को बदला और नए की तलाश में यहां तक आया। शायद जब पत्तों को त्यागकर हम वस्त्रों को धारण करना सीख रहे थे- वह भी यही प्रक्रिया थी। मैं सहजता से सब कुछ देखता रहा, बस झोपड़ियों को छोड़कर आगे बढ़ गई थी।
मेरी भाषा का गुलदस्ता लड़की भूल जाती है
मेरी भाषा का गुलदस्ता
मेरी भाषा का क्या गुलदस्ता बनाओगे
मेरी भाषा के दुरूह लफ्ज कहां ले जाओगे
हरफों के बिना भाषा का मुगल गार्डन
गमलों में रोप रोप के कितना सजाओगे
रोज-रोज जो रख दिए जाते हैं बाहर
उन लफ्जों को और कितना सताओगे
माना कि कबीर ने कहा था कभी नीर
इस नीर को नदी से और कितना दूर हटाओगे
इस वक्त हर स्कूल हरा है टेम्स के पानी से
अर्थ नहीं समझते बच्चों से, आशा लगाओगे
जरा सोच के देखो-मजबूरी के नाम पर जानी
गंगा जमुना का पानी कब तक सुखाओगे
लड़की कागज रख कर भूल जाती है
जैसे शाम दिन को भूल जाती है
उसके हाथों का कागज धूप का टुकड़ा है
लड़की धरती पर धूप का टुकड़ा भूल जाती है
मेरी दुनियायी समझाइशों पे हंस कर
लड़की अपना गम भूल जाती है
डांटता हूं कि सीख जाए दुुनिया जमाने के फसाने
लेकिन अपनी आंखों में रख कर सब भूल जाती है
रवीन्द्र स्वप्निल प्रजापति
शनिवार, जुलाई 03, 2010
दोस्तों पर्यावरण पर कुछ विज्ञापन कॉपी
दोस्तों पर्यावरण पर कुछ विज्ञापन कॉपी
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तुमने हमारा पानी छीना
हमारे जंगल जमीन छीनी
ओ मनुष्य तुम सोचते हो
बोलो हम तुमसे क्या कहें
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वक्त पानी की तरह बरसता है
वक्त आग की तरह धूप भी बनता है
ठंडी हवाओं में कहता है
आपको क्या पसंद है?
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सोचो एक पेड़ सूखता है
सिर्फ उसकी पत्तियां नहीं सूखतीं
चिड़िया की आशाएं भी सूखती हैं
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क्या कहेंगे हम, जब बच्चे पूछेंगे पेड़ का मतलब
चित्र दिखाएंगे, फिर समझाएंगे देखो ये पेड़ है
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किसी घर में जाना
देखना कितनी लकड़ी है
देखना कितना लोहा है
तब देना धन्यवाद
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हवाओं से कुछ मत कहना
फूल से कुछ मत कहना
फूल खिलता रहेगा स्वागत में
हवएं आकर बिखरती रहेंगी
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किसी चिड़िया से पूछना पेड़
किसी गाय से कहना घास
बाघ से पूछना जंगल
वे जानते हैं इनके सही अर्थ
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लहरों पर कौन लिखता है कचरा
नदी की धार में कौन डालता है गंदगी
कोई बाघ नहीं कोई जंगल नहीं
शायद कोई शहर है यहीं कहीं
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रविद्र स्वप्निल प्रजापति
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हमारे जंगल जमीन छीनी
ओ मनुष्य तुम सोचते हो
बोलो हम तुमसे क्या कहें
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वक्त आग की तरह धूप भी बनता है
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सोचो एक पेड़ सूखता है
सिर्फ उसकी पत्तियां नहीं सूखतीं
चिड़िया की आशाएं भी सूखती हैं
...
क्या कहेंगे हम, जब बच्चे पूछेंगे पेड़ का मतलब
चित्र दिखाएंगे, फिर समझाएंगे देखो ये पेड़ है
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किसी घर में जाना
देखना कितनी लकड़ी है
देखना कितना लोहा है
तब देना धन्यवाद
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हवाओं से कुछ मत कहना
फूल से कुछ मत कहना
फूल खिलता रहेगा स्वागत में
हवएं आकर बिखरती रहेंगी
...
किसी चिड़िया से पूछना पेड़
किसी गाय से कहना घास
बाघ से पूछना जंगल
वे जानते हैं इनके सही अर्थ
...
लहरों पर कौन लिखता है कचरा
नदी की धार में कौन डालता है गंदगी
कोई बाघ नहीं कोई जंगल नहीं
शायद कोई शहर है यहीं कहीं
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रविद्र स्वप्निल प्रजापति
सोमवार, जून 28, 2010
विकास का मतलब महंगाई क्यों हुआ
आज सरकार जिन फैसलों पर अमल कर रही है, क्या उसमें जनता के हितों का ध्यान रखा गया है...
पेट्रोल, डीजल के साथ रसोई गैस के दाम बढ़ने से किसी तरह जीवन गुजारने वाले गरीब और दैनिक वेतन भोगी ही नहीं बल्कि सामान्य सी हैसियत वाले परिवारों वाला एक तबका स्तब्ध है। इस समय महंगाई अपने चरम पर है। ऐसे में तेल कंपनियों का घाटा खत्म करने की सरकारी चिंता अचंभे में डालती है। कुछ दिन से समाचार पत्रों के माध्यम से सरकार संभावित मूल्य वृद्धि की खबरें हवा में तैर रही थीं। जो कि शनिवार को सामने आ गर्इं और जनता को पता चल गया कि क्या-क्या कितना महंगा हुआ है।
भारत के लोकतांत्रिक ढांचे में विश्व व्यापार पर आधारित आर्थिक तंत्र का प्रवेश हो चुका है। सरकार भी इस व्यवस्था का जमकर समर्थन कर रही है। यह पूरी व्यवस्था निजीकरण और विश्व अर्थव्यवस्था पर केंद्रित रही है। विश्व व्यापार पर आधारित अर्थ व्यवस्था में सबसे अधिक हनन लोक कल्याणकारी राज्य की अवधारणा का हो रहा है। निजीकरण को सरकार संरक्षण और प्रोत्साहन तो पिछले कुछ सालों से लगातार मिल रहा था। यह मंदी के आने पर और अधिक मुखर हो गया है। अरबों रुपए के राहत पैकेज जारी किए गए। इन सबका लाभ देश के व्यापक जन समूह तक पहुंचाने की सरकार की कोई इच्छा शक्ति दिखाई नहीं देती। इस जनसमूह में देश की लगभग 60 प्रतिशत जनता है जो मामूली से रोजगार, छोटे उद्योगों, कुटीर उद्योगोें, कृषि मजदूर और रोज काम करके पेट भरने वालों से बना है। ये जन समूह देश के गांवों और कस्बों में रहता है। मंदी में दिया गया सारा पैसा कंपनियों के अपने लाभ के खाते में गया, लेकिन जिन फैसलों से सामान्य जनता राहत मिले उन पर विचार करने के लिए सरकार और उसके मंत्रियों के पास समय ही नहीं है। आज सरकार जिन फैसलों पर अमल कर रही है, क्या उनकी रजामंदी इन लोकतांत्रिक सरकारों ने अपनी जनता से ली है। क्या उसे अपने फै सलों में शामिल किया है। लगता है देश कंपनियां ही चलाने लगी हैं। और जिन जनप्रतिनिधियों से मिलकर सरकार बनी है, उसमें सार्वजनिक जीवन की मजबूरियां समझने की क्षमता जैसे खो गई है। जबकि सरकार को सबसे ज्यादा चिंता आम जनता की ही होनी चाहिए।
ravindra swapnil prajapati
पेट्रोल, डीजल के साथ रसोई गैस के दाम बढ़ने से किसी तरह जीवन गुजारने वाले गरीब और दैनिक वेतन भोगी ही नहीं बल्कि सामान्य सी हैसियत वाले परिवारों वाला एक तबका स्तब्ध है। इस समय महंगाई अपने चरम पर है। ऐसे में तेल कंपनियों का घाटा खत्म करने की सरकारी चिंता अचंभे में डालती है। कुछ दिन से समाचार पत्रों के माध्यम से सरकार संभावित मूल्य वृद्धि की खबरें हवा में तैर रही थीं। जो कि शनिवार को सामने आ गर्इं और जनता को पता चल गया कि क्या-क्या कितना महंगा हुआ है।
भारत के लोकतांत्रिक ढांचे में विश्व व्यापार पर आधारित आर्थिक तंत्र का प्रवेश हो चुका है। सरकार भी इस व्यवस्था का जमकर समर्थन कर रही है। यह पूरी व्यवस्था निजीकरण और विश्व अर्थव्यवस्था पर केंद्रित रही है। विश्व व्यापार पर आधारित अर्थ व्यवस्था में सबसे अधिक हनन लोक कल्याणकारी राज्य की अवधारणा का हो रहा है। निजीकरण को सरकार संरक्षण और प्रोत्साहन तो पिछले कुछ सालों से लगातार मिल रहा था। यह मंदी के आने पर और अधिक मुखर हो गया है। अरबों रुपए के राहत पैकेज जारी किए गए। इन सबका लाभ देश के व्यापक जन समूह तक पहुंचाने की सरकार की कोई इच्छा शक्ति दिखाई नहीं देती। इस जनसमूह में देश की लगभग 60 प्रतिशत जनता है जो मामूली से रोजगार, छोटे उद्योगों, कुटीर उद्योगोें, कृषि मजदूर और रोज काम करके पेट भरने वालों से बना है। ये जन समूह देश के गांवों और कस्बों में रहता है। मंदी में दिया गया सारा पैसा कंपनियों के अपने लाभ के खाते में गया, लेकिन जिन फैसलों से सामान्य जनता राहत मिले उन पर विचार करने के लिए सरकार और उसके मंत्रियों के पास समय ही नहीं है। आज सरकार जिन फैसलों पर अमल कर रही है, क्या उनकी रजामंदी इन लोकतांत्रिक सरकारों ने अपनी जनता से ली है। क्या उसे अपने फै सलों में शामिल किया है। लगता है देश कंपनियां ही चलाने लगी हैं। और जिन जनप्रतिनिधियों से मिलकर सरकार बनी है, उसमें सार्वजनिक जीवन की मजबूरियां समझने की क्षमता जैसे खो गई है। जबकि सरकार को सबसे ज्यादा चिंता आम जनता की ही होनी चाहिए।
ravindra swapnil prajapati
बुधवार, जून 23, 2010
पर्यावरण पर कुछ काव्य भाव
-रविन्द्र स्वप्निल प्रजापति मैं एक पेड़ हूं मुझे डराओ मत
उगने दो मैं तुम्हें छांव और फल दूंगा
...
हवाएं मेरी प्रेमिकाएं हैं
वे मुझमें सरसराती हैं
तुम भी सरसराओ मनुज
मेरी छांव में आओ
...
मैं नदी हूँ और वक्त की हथेली पर बहती हूं
मुझे मिटाया तो जिंदगी की रेखा भी मिटेगी
...
ओ बादल तुम धरती के प्यार हो
अपना प्यार बरसाओ मैं पुकारता हूं
...
बादल बरसो तुम धरती के प्यार हो
मैं तुम्हें पुकारता हूं ...
...
धरती को मुस्कुराना आता है
वो मुस्कुराती है
दुनिया में कोई फूल खिलता है
देखो एक फूल खिला है
...
हम तुम्हारे सहचर हैं ओ धरती के मालिक
तुम ये मत सोचो कि जंगल सर्फ तुम्हारे हैं
...
हरियाली धरती का आंचल है
आओ फूलों के सितारे टांकें
...
हवाएं सांसों में ही नहीं बसतीं
तूफान भी उन्हीं से जन्म लेते हैं
...
वक्त अपनी पहचान पेड़ों में रख गया है
लौट के आएगा अपनी पहचान पूछेगा
....
ओ मनुष्य तुम्हारी हर निर्माण
हवा-पानी के बिना अधूरा है
...
मत भूलो कि सभ्यताएं पानी ने नष्ट की हैं
हवाओं के बेटे तूफान ही मिट्टी में मिलाते हैं
...
मैं हरियाली हूं ,सभ्यताओं की प्रेमिका
जब रूठती हूं तो रेगिस्तान आते हैं
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डर लगता है ये पेड़ कल रहे न रहे
उर्मिला शिरीष से बातचीत पर आधारित
मेरी चिंता डर में बदल गई है। मैं अक्सर आते जाते किसी पेड़ को देखती हूं और सोचती हूं कि कहीं यह कल न दिखा तो। कहीं यह कट गया तो... कब यह दिखना बंद हो जाएगा पता नहीं...। लेकिन मुझे आशा है कि जल्दी ही हम अपने परिवेश और पर्यावरण के बीच पौधों
को इस डर से मुक्त कर लेंगे।
.......
पर्यावरण का मतलब हरियाली नहीं है जो कि कभी होता था। अब पर्यावरण का मतलब है कि आसपास उजाड़ जंगल, सूखी, गंदी नदियां। प्रदूषित वायु, गंदा पानी ये सब पर्यावरण के अर्थ की तरह हो गए हैं। आज पर्यावरण को कानून की आवश्यकता है। पर्यावरण का मतलब है कि पेड़ काटे जाना बंद होना चाहिए। पर्यावरण की रक्षा के लिए विकास के नाम पर प्रकृति की बरबादी कानूनन बंद हो जाना चाहिए। सबसे अधिक विकास के नाम पर पेड़ों की कटाई हो रही है। कई तरीके से लोग प्रकृति को बरबाद करने पर तुले हुए हैं। हम सब इसके लिए जिम्मेदार हैं। हमें प्रकृति के साथ रहना ही नहीं आया। हम जो कुछ कर रहे हैं वह प्रकृति पर अत्याचार की तरह है।
चारों तरफ विकास के नाम पर पेड़ काटे जा रहे हैं। चाहे सड़क चौड़ी करना हो या फिर कोई नई कालोनी बसाना हो। पेड़ और प्रकृति का परिवेश ही उजड़ता है। यही कारण है कि वन्य जीवों के प्राकृतिक रहवास नष्ट हो रहे हैं। उन्हें नदियों और जंगलों से उजाड़ कर हम अपनी कालोनियां, कारखाने, उद्योग लगाए जा रहे हैं। अब वे इंसानी बस्तियों की ओर पानी और भोजन की तलाश में मरने चले आते हैं। गांव और शहरों के लोग समान रूप से निरीह और खतरों से अनजान जानवरों को निर्दयता से मारने दौड़ते हैं या मार डालते हैं। बस्ती में आना जानवर की मजबूरी है, जिसे मनुष्य ने ही पैदा किया है। क्या कारण है कि जानवरों के लिए बहने वाली नदियां सूख गर्इं। उनके रहने के स्थान को नष्ट कर खेतों में बदल दिया गया। इस सबका क्या अर्थ होगा, जब मौसम ही आपका साथ नहीं देगा, तब क्या जीवन होगा मनुष्य का? हवाओं के बीच भी रहना मुश्किल हो जाए और पीने का पानी भी नसीब न हो।
पेड़ों को काटना गैर जमानती आपराधिक कृत्य में शामिल किया जाना जरूरी है। एक पेड़ के साथ कई चीजें अपने आप ही सामने आती हैं। जहां पेड़ न हों वहां मकान बनाने की अनुमति नहीं देना चाहिए। किसी समय भोपाल सघनता से हरा-भरा था लेकिन आज उसकी हरियाली पर संकट है। चीखते सब हैं पर वास्तविक धरातल पर कोई सामने नहीं आता। हर मकान के साथ कुछ पेड़ लगाने का नियम अनिवार्य होना चाहिए। जिस किसी खेत में पेड़ हों उस किसान को बैंक ऋणों के मिलने में आसानी होना चाहिए। इस तरह के प्रयासों के अलावा हमें जंगलों की सुरक्षा के उपाय भी करने होंगे। जंगल बचेगा तभी तो हमारे लिए ऐसा मौसम बचेगा जो मनुष्य को पर्यावरणीय संकटों से बचाएगा।
हमारी सरकारों का रवैया घोषणाओं का अधिक होता है। वे सिर्फ घोषणाएं करती हैं और धरातल पर क्या हो रहा है कितना अमल हो रहा है उसे देखने की किसी को फुरसत नहीं है। बीते वर्षों में लाखों वृक्ष रोपे गए, लेकिन वे कहां हैं? उनका रख रखाव नहीं होता। उनकी देखभाल नहीं होती। उनको समय पर पानी नहीं मिलता। अप्रशिक्षित लोगों के हाथों में पौधरोपण सौंप कर हम जिम्मेदारी पूरी समझ लेते हैं। अब पर्यावरण एक व्यापक समस्या बन चुकी है तो समाज के अन्य लोगों की जिम्मेदारी बढ़ जाती है। हमें अपने परिवेश में पेड़ों, जंगलों, नदियों की वैसी ही देखभाल करना होगी जैसी हम अपने बच्चों की करते हैं।
पर्यावरण के लिए मेरी चिंता एक डर में बदल गई है। मैं अक्सर आते जाते पेड़ों को देखती हूं और सोचती हूं कि कहीं यह पेड़ कल न दिखा तो। कहीं यह कट गया तो... कब यह दिखना बंद हो जाएगा, पता नहीं...। मुझे आशा है कि जल्दी ही हम अपने परिवेश और पर्यावरण के बीच जंगलों को इस डर से मुक्त कर लेंगे और धरती फिर हरियाली से भर जाएगी।
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