सोमवार, जुलाई 30, 2012

बता मैं सड़क की तरफ क्यों देखती हूं

      वह कली और फूल के बीच में कहीं रहती थी। उसका चेहरा फूलों और कलियों के बीच की सुंदरता में कहीं महकता था। जैसे ईश्वर ने उसे बनाते हुए यथार्थ के साथ थोड़ी सी कल्पना डाल दी थी। आंखों ओठों और गालों पर वैसी ही सुख फैला रहता जैसा फूलों से भरी शाख के चारों तरफ होता। उसे मैं तो मित्रो कहता था। मगर मेरे दोस्त- ‘यार क्या कली है!’ जैसे शब्दों का इस्तेमाल करते थे। उनके संबोधन से मैं अंदर से ंिचंतित हो जाता था मगर शिकायत नहीं करता था। हमारी तिकड़ी चौकड़ी में मनोज भी था। उसका विचार अलग था। वह कहता था कि यह लड़की मेंटली रिटार्टिड है। क्योंकि यह छत पर गमलों के बीच बिना हिले खड़ी रहती है। मनोज ने उसके बारे में एक गप भी सुना दी कि एक दिन मैंने उसे गमले में उगी हुई लड़की की तरह देखा। उसके बालों से पानी के मोती टपक रहे थे, जैसे उस पर किसी ने देवी समझ कर जल चढ़ाया हो...
हम तीनों चारों दोस्त अक्सर सुबह उठते और नौ बजे तक गली के मोड़ पर खड़े हो जाते थे।
करने को कुछ था नहीं। पढ़ाई सरकारी कामकाज की तरह चलती थी। सबको पता था कि कालेज द्वारा एवेलेबल नोट्स होने की शर्त पर परीक्षा की जंग जीत जाएंगे। हम पैरोडी भी बनाते थे-
जीत जाएंगे हम... जीत जाएंगे हम, नोट्स अगर संग हैं...
     दीपेश ने बीच में टांग अड़ा दी। यार पहले उस लड़की के बारे में कुछ बात करो। यार वह एकदम सनफ्लावर है। उसने बताया कि पिछले मंथ उसने सनफ्लावर के खेत देखे थे। उसने बताया कि वह सनफ्लावर की तरह है। उसे छत पर सुबह की धूप में चेहरा झुकाए, बालों को लहराकर सुखाते हुए देखा था। मैंने अपना गुस्सा उतारते हुए कई सारी कल्पनाएं उन पर डाल दीं। वह गुस्सा होती तो मई की धूप का टुकड़ा लगती। सुबह छत पर जाती तब दोनों ओर गमलों की बीच महकती तुलसी की तरह लगती। उदास होती तो शाम के धुंधलके में घिरा हुआ फूल हो जाती।
यह बहुत पुरानी बात है। जब हम पढ़ रहे थे और दुनिया के बारे में कुछ नहीं जानते थे। जो जानते थे वह इतना था कि हमें एक अच्छी दोस्ती की जिंदगीभर जरूरत रहेगी। यह दोस्ती एक लड़की से भी हो सकती है और लड़के से भी।
    अब मित्रो इस दुनिया में नहीं है। उसकी कहानी आज भी दुनिया में बह रही है। जब कोई इस दुनिया से कहीं चला जाता है तो उसकी कहानी खत्म नहीं हो जाती। क्योंकि इंसान चला जाता है लेकिन उसके बारे में सोचने वाले लोगों में उस आदमी की कहानी जिंदा रहती है। मित्रों की कहानी भी हमारे बारे बीच में जिंदा थी। 
    हम दोस्त उसके बारे में ऐसे बातें करते थे जैसे उसके बारे में सब कुछ जानते हैं। मित्रो कस्बे की लड़की थी। जैसे छोटे शहर होते हैं। छोटे शहर में एक मेन सड़क होती है। शहर की गलियां मेन सड़क को सहेलियों की तरह घेरे रहती हैं। छोटी गली के बाशिंदे बड़ी गली की उपमा देकर अपने आप पर ताना कसते हैं कि वो गली कितनी अच्छी है। बड़ी गली के लोग मुख्य सड़क के लिए कहते हैं सबकुछ उसी सड़क के किनारे है। छोटे शहर के लोग बड़े शहरों की सड़क़ों व भवनों की साफ सफाई और अपने शहर की नेतागिरी को तुच्छ ठहराते हुए जीते हैं।
    मित्रो यह सब कुछ नहीं करती थी लेकिन वह किताबों कहानियों ओर टीवी सीरियलों को देख कर अपने घर की तुलना करती थी। वह माता पिता घर कुटुम्ब गली और अपने आपको कम या ज्यादा ठहराती। उसका कुल मकसद यह था कि उसे और उसकी सहेलियों को कोई बड़े शहरों की लड़कियों से कम करके क्यों आंकता है। मित्रो नाराज होकर अपनी मम्मी से कहती-‘हओ ! तुम्हारे जैसो कोई नहीं करै मम्मी। तुम जरा जरा सी बातें लै कै..... अन्वि की मम्मी बिलकुल टोका टाकी नहीं करें।’ मम्मी दहाड़ती-‘देख तू मेरी सरीगत किसी अन्वि की मम्मी से मत करू कर। तू हमें तो पागल समझती है। हम तेरे भले के लिए टोकते हैं।’
        ‘हमें ऐसो भलो नहीं चाहिए। ‘मित्रो के चेहरे पर कड़वाहट की परत चढ़ जाती थी। मां बेटी दो दिशाओं की तरह एक घर में घूमने लगती थीं। कुछ देर में विभाजन स्वत: मिट जाता जैसे दो कमरों की हवा दरवाजा खुलने के बाद एक हो जाती है। शाम होते ही मित्रो छत पर आ जाती । कमरे की तरह दिन की घुटन को हटाने के लिए खुली छत पर गहरी सांसों को सीने में भरती। उसकी सहेली सिमी ने एक दिन टोका था-‘ऐसी सांसें लेती है जैसे दूसरे दिन के लिए भर रही है।’ मित्रो कहती-‘ताजी हवा है न।’ सिमी कहती ‘कल बंद थोड़ी हो जाएगी।’ मित्रो कोई उत्तर नहीं देती बल्कि सूरज को एक टक देखने लगती। ‘क्या हो गया।’ सिमी टोकती। मित्रो पूछती -‘बता मैं सड़क के तरफ क्यों देखती हूं।’ सिमी चैंक जाती। वह सम्हल कर बोली-ह्यह्यकिसी का इंतजार है।’ मित्रो सुनते ही हंसने लगी-‘तुम भी यार क्या.... प्यार प्यार मुझे चिढ़ होने लगी है। अच्छे कपड़े पहनो तो हर कोई यही कहता है-प्यार करने लगी होगी। कुछ नया करो तो लोगों का अन्दाज प्यार से बाहर निकलता ही नहीं।’
    ‘प्यार से बाहर कोई निकले कैसे, घर से बाहर निकलें और निकलने दें तब न। ज्यादा से ज्यादा यहीं छत पर आ सकते हो। मैं अपने घर से तेरे घर पर ही तो आ सकती हंू। मैं और तू यहां से बाहर कहीं गए हैं क्या। चाहे वो एन.सी.सी का कैंप हो पिकनिक हो या कहीं भी... देश दुनिया देखने को मिले तो प्यार की बातें छूटे। ‘रहने दे अब ज्यादा मत झाड़ ।  तू समझदार हो गई है।   मित्रो हंसी थी।  ‘हां एक दिन मैं सोच रही थी- अपने यहां के लोग कहीं घूमने नहीं जाते ओैर न जाने देते। ज्यादा से ज्यादा आसपास की शादियों में खाना खाने जरूर चले जाते हैं।’ मित्रो सड़क को देख रही थी। मित्रो सड़क देख रही थी। सिमी ने मित्रो को बीच में खींचा। ठोड़ी पकड़ कर पूछा-ह्यह्ययार ये क्या है। ये मैं आज ही नहीं कई बार देख चुकी हूं। तू बोलते हुए बात करते हुए सड़क ही क्यों देखती है। थोड़ी देर पहले तूने पूछा था अब मैं तुझसे पूछ रही हूं कि तू सड़क क्यों देखती है। ‘तुझे नीचे चलना है।’ मित्रो ने स्थिर स्वर में कहा। ‘मुझे नीचे नहीं चलना है लेकिन ये है  कि तू किसका इंतजार करती है। बताती भी नहीं।’
    ‘मैं इंतजार तो करती हूं लेकिन किसी प्यार करने वाले का नहीं। मैं जिसका इंजार करती हूं वह इस सड़क से कभी नहीं गुजरा। ज्यादा नहीे कुछ दिनों से उसकी याद ज्यादा आ रही है। इस छत पर आकर मुझे चैन मिलता हैं। सड़क को देखने से भरोसा आता है। जानती है क्यों, इसलिए कि सड़क पर हर चीज चलती हुई दिखती है।’  सिमी आंखें फाड़ कर उसे देखने लगी थी। उसकी आंखें सिकुड़ गईं।-‘तू पागल हो गई। क्या हो गया तुझे.. क्या अनजानी बातें करने लगी।’ सिमी दोनों हाथ उसके कंधों पर रख कर देर तक मि़त्रों की आंखों में ताकती रही। जैसे वह उसके इंतजार करने वाले की  शक्ल उसकी आंखों में खोजना चाहती थी। ‘तू समझी नहीं।’ मित्रो ने सिमी के हाथों को अपने कंधों से हटाया-‘एक बार और तुझे समझाती हूं- जब मैं छोटी थी...’ ‘अब क्या बड़ी हो गई...’ सिमी दादी की तरह बीच में बोली।
    ‘...अरे यार ... मेरा मतलब अब से छोटी थी... नानी ने इसी छत पर एक कहानी सुनाई थी। वह थी तो कुछ भी नहीं पर तू सुन ले कि हम दोनों यहां थें। सब लोग टीवी देख रहे थे। चांद खिला हुआ था। आसमान में इक्का दुक्का तारे बच्चों की तरह चमक रहे थे। उधमी बच्चों की तरह वे चांद से बहुत दूर थे। चांद के चारों तरफ धुधला सा एक घेरा था। मैंनें पूछा कि नानी चांद ऐसा क्यों है तो उसने बताया कि वह तुझे देख कर हंस रहा है। नानी ने एक कहानी सुनाई उसमें कुछ भी नहीं था- बस एक लड़का था। वो लड़का बहुत दूर से यहां आ रहा था। उसे हर इंसान प्यार करता था। वो एक राजकुमार था। वह यहां आएगा। इसी सड़क से गुजरेगा। तुझे प्यार करेगा और आसमानों में तुझे ले जाएगा।  मैने नानी से पूछा वह कब आएगा? नानी ने कहा- आता होगा एक दो दिन में...
     दो दिन बाद मैंने पूछा तो नानी ने कहा-‘अपन ने कल जो फिल्म देखी थी । वह तो उसमें मर गया। ‘मैंने नानी से कहा-ह्यपर नानी मुझे तो उसकी याद आने लगी है।’ नानी ने कहा यह तो बहुत अच्छा है। अब तू उसका इंतजार कर वह जरूर आएगा। नानी यहां से चली गई। मैंने उससे फोन पर कहा ह्यह्यआप तो मुझे वह लड़का दो आपने मुझे ऐसी कहानी क्यो सुनाई। वह लड़का फिल्म में क्यों मर गया। क्या अच्छे लड़के इस तरह क्यों मर जाते है। तो वो बोलीं-‘एक लड़का और है वह बिलकुल साधारण है लेकिन उसे पहचानना मुश्किल है। अब ये मैं उसके बारे में नहीं जानती कि कब वह इस सड़क पर से निकलता है। तुझे चाहिए तो तू रोज देख... कुछ दिनों में तुझे उसकी पहचान आ जाएगी।
    नानी को मैंने फिर फोन लगाया तो उन्होंने कहा कि उनको बुखार आ रहा है. जल्दी ही भगवान उनके लिए आसमान से सीढ़ियां भेज रहा है। एक दिन मम्मी खूब जोर से रोने लगीं। किसी ने मुझे बताया कि तेरी नानी उपर चली गई। मुझे उनकी सीढ़ियों की बात याद आने लगी। मैंने सपने में बहुत लम्मी सीढ़ी देखी जिस पर नानी उपर जा रही हैं। मैं उनको आवाज दे रही हूं लेकिन वे नहीं सुन रही हैं।
        ‘अरे तो पगलाती क्यों है। परीक्षा की तैयारी कर।’
        ‘लेकिन मुझे उसकी बहुत याद आती है।.. नानी ने कहा था जिस दिन वह लड़का तुझे मिल जाएगा। उस दिन से मम्मी तुझे डांटना बंद कर देंगी। खूब घूमने जाने देगीं। पापा की पे बढ़ जाएगी। घर के कोने रोशनी से भर जाएंगे। सड़कें और गलियां साफ सुन्दर हो जाएंगी। झुग्गियों की जगह महल बन जाएंगे। लोगों की गरीबी दूर हो जाएगी। आसमान सात रंगों का दिखने लगेगा। तू ओर तेरी सहेलियां और खूबसूरत हो जाएंगी। लेकिन नानी ने कहा था तू उससे प्यार नहीं कर सकती। मैं सच में उससे प्यार नहीं करूंगी।’ सिमी आंखें फाड़ कर उसका मुंह देखे जा रही थी। इससे पहले तो उसने मित्रो के बारे में इतना तो नहीं सोचा था। यह कैसी हो गई है। मित्रो बोल रही थी-‘सिमी वह मुझे नहीं दिखा तो मैं जल्दी ही नीचे गलियों और सड़कों पर खोजने उतर जाउंगी.....’
एक दिन ऐसा हुआ। मित्रोे बिना बताए कहीं चली गई.... उसके दोस्त और उसकी सहेलियां उसे आज भी उस कस्बे में इंतजार कर रहे हैं। 

समाप्त


रवीन्द्र स्वप्निल प्रजापति
टॉप 12, हाई लाइफ काम्पलेक्स, चर्चरोड, जहांगीराबाद भोपाल
२६ंस्रल्ल्र’.१ं५्र@ॅें्र’.ूङ्मे
9826782660

गुरुवार, जुलाई 26, 2012

टीम अन्ना अपनी गरिमा क्यों खो रही है?


टीम अन्ना अपनी गरिमा क्यों खो रही है? यह क्यों नहीं समझ पा रही कि भारतीय जनमानस अतिवाद अमर्यादा की जगह संयम और संतुलन का हिमायती रहा है।
 दिल्ली के जंतर-मंतर पर अनिश्चित समय के लिए अनशन पर बैठी टीम अन्ना ने भ्रष्टाचार के मुद्दों पर एक बार फिर यूपीए सरकार के मंत्रियों, नेताओं और यहां तक की सद्य-शपथ ग्रहण करने वाले राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी पर भी निशाना साधा दिया। अन्ना की टीम और केजरीवाल अब जनता में अपनी अजीबो गरीब और अमर्यादित बयानों के कारण हास्यास्पद हो चुके हैं। टीम अन्ना अब सिद्ध कर रही है कि वह सिर्फ एक कागजी तूफान का नाम था। अगर अन्ना की दूसरी क्रांति इस अमर्यादा के कारण असफल होगी तो इतिहास में इसे कुछ सनकी लोगों को आंदोलन ही कहा जाएगा।
टीम ने जब ये आंदोलन प्रारंभ किया था तब यह पार्टी निरपेक्ष था लेकिन अब यह आंदोलन कांग्रसे बनाम टीम अन्ना हो गया है। टीम अन्ना के कर्ताधर्ता जल्दबाजी में, अंडबंड काम करने लगे हैं। जनता का इस आंदोलन से मोह भंग होने का कारण ही यही है कि यह सिर्फ अरविंद केजरीवाल से शुरू होता है और टीवी अखबारों में जगह पाकर खत्म होने लगा है। अब वह भी खत्म हो रहा है। टीम यह भी नहीं समझ पा रही है कि देश की जनता क्षमा और मर्यादा की हिमायती है। भ्रष्टाचार के लिए किसी पार्टी या किसी सरकार के मंत्रियों की जगह उसे देश और जनता को संबोधित होना चाहिए। आज टीम अन्ना सरकार और पार्टीगत होकर देश की जनता को प्रभावित करने की कोशिश कर रही है। अब जंतर मंतर स्थित मंच पर गांधी जी की तस्वीर लगायी गई। इसके साथ ही टीम अन्ना ने जिन केन्द्रीय नेताओं के खिलाफ स्वतंत्र जांच कराने की मांग की है उनकी तस्वीरें भी टांग दी गई हैं जिसमें राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी और प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह, गृह मंत्री पी चिदंबरम भी शामिल हैं। बाद में बाद प्रणब के चित्र को कपड़े से ढक दिया गया। इस पर टीम अन्ना के सहयोगी अरविंद केजरीवाल ने सफाई दी कि प्रणब मुखर्जी अब राष्ट्रपति है जो शीर्ष संवैधानिक पद है। हम संविधान का सम्मान करते हैं, इस नाते प्रणब के   चित्र को कपड़े से ढक रहे हैं ताकि इस पद की गरिमा कम न हो। ये ड्रामा बेतुका है और इशारा करता है कि टीम अन्ना के पास बड़े आंदोलन के तत्व नहीं रहे। अब टीम अन्ना प्रतिदिन नेताओं के खिलाफ भ्रष्टाचार के आरोपों का खुलासा करेगी जबकिआंदोलन एतिहासिक होना चाहिए। टीम के सदस्यों को स्मरण करना चाहिए कि वह जन आंदोलन से जुड़े हैं जिस पर देश की जनता ने अटूट विश्वास के गीत गाए थे। और वह उनसे परिवर्तन की अपेक्षाएं भी रखती है लेकिन अगर वह अपनी अहंकारी जुबान को इस प्रकार इस्तेमाल करते रहेंगे तो उनकी विश्वसनीयता में दाग भी लग सकता है। आज टीम अन्ना संसद पर कीचड़ उछालने की जिद  छोड़ देश की जनता को भ्रष्टाचारके खिलाफ खड़ा करे वरना भ्रष्टाचार के खिलाफ आंदोलन का यह सूरज अस्त होने में जरा भी देर नहीं लगेगी और उसके अलावा राजनीतिक दलों को भी चाहिए किवह संसद में फैली गंदगी को  दूर करें जिसमें कि देश की भलाई होगी और सदनकी गरिमा भी बरकरार रहेगी।
  क्षेत्रीय दलों की मानसिकता अपने आप को मजबूत करने की रही है। इनके बाजू में राजनीतिक अवसरवाद भी खूब पनपता है। नैतिकता का परिचय तो भूले से नहीं मिलता।



तमाम मतभेदों के बाद भी राजनीतिक नैतिकता को त्यागना क्षेत्रीय दलों की मूल प्रवृति में शामिल हो चुका है। जब भी और जैसे भी अवसर आए, हथियाने के लिए सदैव तत्पर। हाल ही में कांग्रेसनीत संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार (यूपीए)में पिछले आठ साल से सहयोगी रही राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी ने प्रणव मुखर्जी के रायसीना हिल में जाना पक्का होने के बाद अपनी मानसिकता का खुल कर प्रदर्शन किया। शरद पवार सरकार में शामिल  हैं लेकिन उन्होंने स्पष्ट किया कि कुछ मुद्दों पर उसके कांग्रेस के साथ मतभेद हैं। तुरत फुरत शरद पवार की मांगों पर कई तरह से विचार किया गया। नौ विधायकों के मालिक शरद पवार की नाराजगी के चलते यूपीए सरकार पर खतरा मंडराने लगा था। फिलहाल सोनिया से मुलाकात के बाद संकट कमजोर पड़ गया है।
राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार बनाए जाने के बाद प्रणब मुखर्जी के सरकार से अलग हो जाने के बाद इस बात को लेकर बहस तेज हो गई कि सरकार में नंबर दो कौन होगा। ये बहस प्रणब मुखर्जी के इस्तीफे के बाद पहली बार हुई मंत्रिमंडल की बैठक में शरद पवार को प्रणब वाली सीट मिली लेकिन हफ्ते भार बाद मंत्रिमंडल की दूसरी बैठक में प्रणब वाली सीट पर रक्षा मंत्री और कांग्रेस नेता एके एंटनी को बिठा दिया गया। शरद पवार मानते हैं कि यूपीए में प्रणब मुखर्जी के बाद वो सबसे वरिष्ठ नेता हैं, इसलिए जो हैसियत मनमोहन सरकार में प्रणब को मिली थी, उसके पहले हकदार वह हैं। उनके सहयोगी प्रफुल्ल पटेल द्वारा इस्तीफे का तुरुप चलने से हालात बिगड़े और विवाद गरमा गया। आपसी विवाद यूपीए पर तूफान बन कर मंडराने लगा तब सोनिया गांधी और शरद पवार ने मुलाकात की और खतरे के इस तूफान को संयमित किया।
एनसीपी की मांगे सदैव कांगे्रस को कमजोर नहीं तो कदम ठिठका देने वाली रही हैं। महाराष्ट्र में भ्रष्टाचार के गर्त से बाहर निकलने की कोशिश हो या फिर अपनी बेटी सुप्रिया सुले के राजनीतिक भविष्य को सुनिश्चित करने की बात। पिछले एक हफ्ते के दौरान कांग्रेस से नाराज एनसीपी सुप्रीमो शरद पवार की मांग सूची बेहद लंबी है। माना जा रहा है कि वह कांग्रेस से अपनी बेटी के लिए कैबिनेट मंत्री की कुर्सी मांग रहे हैं। इसके लिए वह ग्रामीण विकास राज्य मंत्री अगाथा का इस्तीफा भी करवाने के लिए तैयार हैं। मगर दूसरी ओर सिर्फ नौ सांसदों वाली पार्टी को तीन कैबिनेट मंत्री देने की बात कांग्रेस को पच नहीं रही है और यह किसी को भी नहीं पचेगी। कांग्रेस-एनसीपी के बीच इस दूरी का यूपीए पर असर होगा ही।
वैसे यूपीए के लिए शरद पवार भरोसेमंद साथी रहे हैं और उनकी पार्टी ने प्रत्यक्ष विदेश निवेश के मुद्दे पर सरकार का खुलकर साथ दिया है। वो आर्थिक सुधारों के पक्ष में रहे हैं और उन्होंने राष्ट्रपति तथा उपराष्ट्रपति चुनाव में कांग्रेस का खुलकर साथ दिया। लेकिन इस तरह की सौदेबाजी लोकतंत्रिक मूल्यों को छिन्न भिन्न करने का ड्रोन हमला बन कर सामने आती हैं। ऐसे हालात बनने से पहले ही देश के राजनीतिक नेतृत्व को सजगता बरतना सीख लेना चाहिए।


पर्यटन पर तत्काल रोक

  न्यायालय ने माना है कि मानव ने वन्य जीवों के प्राकृतिक आवास को बरबाद किया है। यह समझने की आवश्यकता है कि इंसान का पर्यटन वन्यजीवों के आवास में क्यों हो?

इं सान ने वनों को काटा। वन्य जीवों से उनका आवास और पर्यटन छीना। अपनी शहरी आपाधापी की बोरियत का भार भी  पर्यटन करने के नाम पर जंगल  में छोड़ने लगा। अब जब न्यायालय ने न्याय दिया है तो देश भर में हड़कंप मच गया है। यह हड़कंप इसलिए मच गया कि अब कथित सभ्य समाज जंगल की सफारी नहीं कर पाएगा। यह हड़कंप इसलिए है कि होटल बंद हो जाएंगे। यह हड़कंप इसलिए नहीं है कि जंगल सुरक्षित होंगे। बाघ को कोर एरिया के रूप में उसका राज्य वापस मिलेगा? इंसान की चिंता आज भी अपने तक ही सीमित है। न्यायालय के फैसले को व्यापकता मेें देखने समझने की जरूरत है।
अब बाघ संरक्षित क्षेत्र में पर्यटन पर तत्काल रोक लगाने संबंधी उच्चतम न्यायालय के आदेश के तुरंत बाद राज्यों में बाघ संरक्षित कोर प्रक्षेत्र प्रतिबंधित कर दिए गए हैं। कोर्ट के आदेश के मद्देनजर सैलानी अब इन क्षेत्रों का लुत्फ नहीं उठा पाएंगे। उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश स्वतंत्र कुमार एवं न्यायाधीश एफएम खलीफउल्ला ने अपने अंतरिम आदेश में देशभर के टाइगर रिजर्वों के कोर एरिया में संचालित पर्यटन पर तत्काल पूर्ण प्रतिबंध लगा दिया है। यह अपीलीय याचिका सुप्रीम कोर्ट में मध्यप्रदेश हाईकोर्ट के अंतरिम आदेश के विरुद्ध जुलाई 2011 में दायर की गई थी। याचिकाकर्ता अजय दुबे ने प्रदेश के टाइगर रिजर्वों के कोर एरिया में संचालित पर्यटन पर रोक की मांग की थी, जिसे हाईकोर्ट की युगलपीठ ने खारिज कर दिया था। लेकिन मंगलवार को सुप्रीम कोर्ट ने प्रकरण की अगली सुनवाई तक देश के सभी टाइगर रिजर्व के कोर एरिया में पर्यटन पूर्णत: प्रतिबंधित करने को फैसला दिया है।
 स्थानीय अतिक्रमण ने वन एवं पर्यावरण का जो बंटाढार किया है उसमें जंगल का कुछ भी सुरक्षित नहीं बचा है। वन में, वन्य जीवन तो सुरक्षित होना ही चाहिए। यह प्राकृतिक अधिकार है। इंसान अपने लिए जिस  प्रकार के सुरक्षा चक्र निर्मित करता है क्या वैसे वन्य प्राणियों  के लिए नहीं होना चाहिए? सवाल एक दो दिन के पर्याटन का नहीं है, न इस बात है कि मनुष्य जंगल नहीं घूम पाएगा? सवाल है कि प्राकृतिक जीवों के आवास में मनुष्य का दखल क्यों? सुप्रीम कोर्ट ने टाइगर रिजर्व के कोर एरिया में संचालित पर्यटन पर प्रतिबंध लगाया है। विभिन्न राज्यों के वन विभाग भी देश के बाघ संरक्षण वाले सभी राज्यों में टाइगर रिजर्व के कोर एरिया में पर्यटन पर रोक लगाने के आदेश जारी कर रहा है। पर्यटकों के प्रवेश पर प्रतिबंध लगा दिया गया है। टाइगर रिजर्व प्रबंधन के इस फैसले ने होटल और रिसार्ट संचालकों की नींद उड़ा दी है।
बाघों को बचाने के उपाय तेज करने के लिए सुप्रीम कोर्ट ने निर्देश दिया है कि बाघों के जंगल में सैरसपाटे की गतिविधियां नहीं होंगी। यह फैसला पूरे देश के लिए है। न्यायाधीशों की बेंच ने यह चेतावनी भी दी कि अदालत की कार्यवाही की अवमानना करने वाले उन राज्यों को भारी कीमत चुकानी होगी जो बाघों के जंगल को अलग नहीं करेंगे। अब हमें सबक तो सीख ही लेना चाहिए।

प्रणव मुखर्जी का मार्गदर्शन देश को निश्चय ही नई ऊंचाई देगा।

 

प्रणव मुखर्जी का राष्ट्रपति पद के लिए जीतना एक राजनीतिक रूप से सक्रिय व्यक्तित्व की जीत है। आने वाले वक्त में उनसे उम्मीदें होंगी कि वे राष्ट्रपति पद को भी एक गरिमपूर्ण सक्रियता देंगे।


प्रणव मुखर्जी देश के राष्ट्रपति बनने के लिए विजयी मत हासिल कर लिए हैं।  चुनाव आयोग द्वारा जीत की औपचारिक घोषणा के बाद वे भारतीय राष्ट्रपति के पद के लिए शपथ लेंगे।
प्रणव का जीतना इस मायने में भी महत्वपूर्ण है कि वे बंगाल पृष्ठभूमि से आने वाले पहले पहले राष्ट्रपति होंगे। दूसरी बड़ी बात ये है कि प्रणव दा राजनीतिक रूप से बहुत परिपक्व और कूटनीतिक रूप से एक अनुभवी राष्ट्रपति होंगे। उनकी राजनीतिक कौशल के बारे में कहा जाता रहा है कि पाकिस्तानी राजनेता उनसे मुलाकात करने से कतराते थे। क्योंकि प्रणव की तार्किकता से उनके लिए उबरना मुश्किल होता था। खैर अब यही राजनीतिक  तार्किकता से वे राष्ट्रपति पद को नए आयाम देंगे।
ममता बनर्जी के नेतृत्व वाली तृणमूल कांग्रेस का समर्थन मिलने के बाद मुखर्जी की जीत और पुख्ता हो गई थी। मुखर्जी को कांग्रेस नेतृत्व वाले यूपीए के अलावा समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी, राष्ट्रीय जनता दल और जनता दल (सेक्युलर) का भी समर्थन मिला। इसके अलावा एनडीए के घटक- जनता दल (यूनाइटेड) और शिव सेना तथा मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीएम) व फॉरवर्ड ब्लॉक ने भी मुखर्जी का समर्थन किया।  ममता के समर्थन के बाद  उनके लिए हार-जीत के सभी विकल्प उनकी जीत पर ही आकर ठहर गए थे। प्रणव मुखर्जी ने एनडीए उम्मीदवार पी ए संगमा को हराया है। प्रणव की जीत को कोई चमत्कार रोक नहीं सका। क्यों चमत्कार कहीं होते नहीं हैं।  संगमा चमत्कार का भ्रम था, जो अंतत: एक भ्रम ही रहा। अब राजनीतिक दलों और देश के लोगों में यह चर्चा जोरों पर है कि मुखर्जी किस तरह के राष्ट्रपति होंगे? दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित ने कह भी दिया है कि सालों के अपने अनुभव के कारण प्रणव मुखर्जी देश के सबसे बुद्धिमान राष्ट्रपति होंगे।
प्रणव मुखर्जी को राष्ट्रपति पद कई मायनों में नई ऊंचाइयां देना होंगी। पैंडिंग कामों को निबटाना होगा। अरसे से दया याचिकाएं लंबित पड़ी हैं। ये याचिकाएं प्रथम नागरिक के रूप में उनको चुनौती हैं। दूसरी चुनौती हैं राष्ट्रपति पद को राजनीतिक दलों का रबर स्टैंप न बनने दिया जाए। देश के राष्ट्रपति अराजनीतिक रूप से रह रहे लोगों के लिए एक प्रेरणास्रोत होता है। भारतीय राजनीतिक संसदीय व्यवस्था में राष्ट्रपति कई सांवैधानिक  मर्यादाओं से आविष्ट होता है। उसकी गरिमा होती है, राजनीतिक मार्यादाएं होती हैं उनको भी बचाए बनाए रखना प्रणव की जिम्मेदारी होगी। प्रणव अब बंगाल के नहीं पूरे देश के हैं। वे प्रथम नागरिक हैं। उनका मार्गदर्शन देश को निश्चय ही नई ऊंचाई देगा।

मंगलवार, जुलाई 24, 2012

ओ बादल ओ पानी!




मौसम पर आधारित किसानी और जीवन के लिए मौसम ही लाख तकलीफों को पैदा कर देता है। खास कर जब फसलें कम या अधिक बरसात के कारण खराब होने लगती हैं।

भारतीय किसान आज भी किसी भविष्यवाणी पर यकीन नहीं करता। उसका अनुमान और उसकी समझ ही उसके लिए महत्वपूर्ण रही है। आज कभी कभी किसान की बात सच साबित हो जाती है। तब मौसम कैसे बदलता है और कैसे उसके जीवन में पहले कहा गया कि जुलाई के पहले हफ्ते में मानसून उत्तर भारत में पहुंच जाएगा, बाद में बताया गया कि थोड़ी देर होगी और अब तो काफी देर हो गई है। मौसम विभाग वाले बताते रहे हैं कि पूरे देश में मानसून सक्रिय हो गया है और आने वाले दिनों में जमकर बारिश होगी। यानी एक और भविष्यवाणी। पता नहीं, इन पूर्वानुमानों से किसका भला होगा? इतना तो तय है कि खेती-किसानी का भला नहीं ही हो रहा है। जुलाई के तीन हफ्ते गुजर चुके हैं और किसान खरीफ की बोवनी में बहुत पिछड़ चुके हैं।
खाद्य मंत्रालय के आंकड़ों के अनुसार10 जुलाई तक धान की रोपाई 55.4 करोड़ हेक्टेयर में हुई है जो पिछले साल की इसी अवधि की तुलना में 16.3 फीसद कम है। मोटे अनाजों की बोवनी 21.95 लाख हेक्टेयर में हुई है जो पिछले साल से 34.6 फीसद कम है। इसी अवधि में दालों की रोपाई 14 फीसद और तिलहन की बोवनी लगभग 8 फीसद कम हुई है।
इस खतरे को कोई कैसे नजरअंदाज कर सकता है कि जब बीज डाले ही नहीं गए हैं तो वे उगेंगे कैसे? और जब बारिश है ही नहीं तो डाले गए बीज भी कैसे उगेंगे!मौसम विभाग के आकलन के मुताबिक देश भर में कोई तीस फीसद बारिश कम हुई है। बादल खाली आते हैं और लौट जाते हैं, खेत प्यासे पड़े हैं। जब बारिश दस फीसद कम हो और उसका असर देश की बीस से चालीस फीसद खेती पर पड़े तो सूखे का खतरा घोषित करना चाहिए। आज की स्थिति इससे आगे है और जुलाई की बारिश के अनुमानों ने किसानों का भरोसा छीन लिया है। मुश्किल यह है कि हम किसकी मानें- कृषिमंत्री शरद पवार की या मानसून से आते संदेशे की? पवार वर्षों से यही कह रहे हैं कि देश में खेती-किसानी अच्छी चल रही है, पैदावार बढ़ी है और हमारे गोदामों में भरे हैं। इस बार बरसात का मौसम बारिश लेकर नहीं, चिंता लेकर आया है। लेकिन शरद पवार कहते हैं कि वर्षा के लिए चिंतित होने की जरूरत नहीं है। ये जुलाई का उत्तरार्ध है। अब पानी जैसे क्षति पूर्ति करने बरस रहा है।
जुलाई मध्य तक उत्तर-पश्चिम भारत में वर्षा 40 प्रतिशत, दक्षिण में 28 प्रतिशत, मध्य भारत में 22 और पूर्वोत्तर में 13 प्रतिशत वर्षा कम हुई है। हमें ध्यान में रखना चाहिए कि देश के पूर्वोत्तर में ही खरीफ की फसल सबसे ज्यादा होती है। पंजाब में 71 और हरियाणा में 73 प्रतिशत कम बारिश हुई है, झारखंड में 31 प्रतिशत की कमी है। पूरे देश के 62 प्रतिशत इलाकों में औसत से कम बारिश हुई है। ताजा स्थिति यह है कि बारिश में कुछ सुधार हुआ है। लेकिन  किसान के शब्दों में कहें तो यह बारिश वैसी ही है जो जीने भी नहीं देगी और मरने भी नहीं देगी। हमारी खेती-किसानी की हालत की व्याख्या गांव का सीमांत किसान ही अच्छी तरह से कर सकता है।

सोमवार, जुलाई 23, 2012

भोपाल में मेहनत करती कांग्रेस


कांग्रेस ने जिस घेराव को अंजाम दिया, वह इस बात का संकेत भी है  कि कांग्रेस-कार्यकर्ताओं ने राजनीति के मैदान में मुकाबले की कुछ तो तैयारी कर ली है।



रा जनीति के धुरंधरों के हिसाब से चुनाव करीब ही आ चुके हैं। मैदानी कार्यकर्ताओं की हलचलों के साथ राजनीति से जुड़ी सत्ता की खीर में जबर्दस्त महक आने लगी है। पार्टियां तैयारी कर रही हैं। कार्यकर्ताओं का गुणा-भाग और शक्ति प्रदर्शन शुरू हो चुका है। मानसून सत्र के बाद इसमें और अधिक गर्माहट और महक बढ़ गई है। कांग्रेस ने अपने सोए हुए मैदानी सिपाहियों को जगा कर शुक्रवार को विधानसभा के घेराव के नाम पर शक्ति प्रदर्शन किया। यह शक्ति प्रदर्शन इस बात को लेकर था कि कांग्रेस के दो विधायकों की सदस्यता भारतीय जनता पार्टी ने छीन ली है। सच तो यह था कि विधायकों की बर्खास्तगी कांग्रेस के लिए मुद्दा नहीं बनता यदि कांग्रेस विधायकों की बर्खास्तगी के उत्तरार्ध पर विचार किया जाता। लेकिन भारतीय जनता पार्टी के विधायकों ने ताबड़तोड़ अंदाज में विधानसभा के गलियारे में बैठे, आसंदी पर कब्जा करने वाले विधायकों को प्रस्ताव लाकर इतनी सख्त राजनीतिक सजा दी कि वह जमीनी आंदोलन की प्रतिक्रिया में असर पैदा करने वाली घटना बन गई। 
विज्ञान का एक प्राकृतिक नियम है क्रिया के अनुरूप प्रतिक्रिया होती है। जितनी सख्त क्रिया (यहां विधायकों की सजा) तो उसकी उतनी ही सख्त प्रतिक्रिया (कांग्रेस का घेराव) होना ही था। इस कांग्रेसी क्रिया प्रतिक्रिया में चुनाव आयोग भी आ गया। उसने विधानसभा अध्यक्ष के आदेश के बाद दोनों विधायकों की सीटों को रिक्त घोषित कर दिया। मामला कांग्रेस के विधानसभा घेराव के शक्ति प्रदर्शन से अधिक अब वैधानिक फिसलन में समा गया है। सत्ता पक्ष ने विधायकों की बहाली के संकेत दिए लेकिन चुनाव आयोग के कारण यह मामला पतंग की उलझी डोर की तरह हो गया है। अब इसे सुलझाने और समाधान के लिए सिरे खोजने के प्रयास जारी हैं।
कांग्रेस ने जिस प्रकार शार्ट नोटिस पर घेराव को अंजाम दिया, वह इस बात का संकेत भी है  कि कांग्रेस के कार्यकर्ताओं ने राजनीति की रणनीति के मैदान में मुकाबले की कुछ तो तैयारी कर ली है। कांग्रेस के राजधानी भोपाल में दाखिले के दौरान विधानसभा का घेराव प्रमुख रहा। जनता से जुड़े मुद्दों पर कार्यकर्ता में कोई बहुत व्यापक प्रतिक्रिया नहीं थी। इसके राजनीतिक असर क्या होंगे? यह आने वाले वक्त में विश्लेषण का हिस्सा है। फिलहाल विश्राम करती हुई कांग्रेस को झंझोड़ने वाला काम भारतीय जनता पार्टी ने विधानसभा में अंजाम दे दिया है।
क्रिया की प्रतिक्रिया में एकत्रित कांग्रेसी कार्यकर्ता जनता में अपनी जगह बनाने की कोशिश कर रहे हैं। इस प्रदर्शन को भाजपा के किसान महापंचायत से भी जोड़ा जा सकता है। लेकिन राजनीतिक रूप से दोनों की कोई तुलना नहीं की जा सकती। कांग्रेस को घेराव से अधिक एक सुव्यवस्थित राजनीतिक कार्यक्रम को जनता के सामने रखना चाहिए। जब तक ऐसा नहीं होता भाजपा एकमात्र विकल्प बनी रहेगी। ा

बुधवार, जुलाई 18, 2012

 
काका का चले जाना


राजेश खन्ना को असली कामयाबी 1969 में आराधना से मिली। इसके बाद लगातार 14 सुपरहिट फिल्में देकर उन्होंने हिन्दी फिल्मों के पहले सुपरस्टार का तमगा अपने नाम किया।

ए  क दिन पहले ही काका अस्पताल से घर आए थे। दो दिन घर में बिताए और फिर अमृत यात्रा पर दूर चले गए। यह सफर ऐसा है जो अपनी तरह से ही रास्ता तय करता है। दुनिया के हर सफर से ऊपर और अलहदा। राजेश खन्ना इस धरती पर 29 दिसम्बर 1942 को आए थे। अमृतसर में जन्मे राजेश को बचपन में जतिन खन्ना के नाम से जाना गया था। उनकी जिंदगी में फिल्मी सपने जल्दी ही समाहित हो गए थे। राजेश खन्ना एक टेलेंट हंट प्रतियोगिता के विजेता बन कर फिल्मों में आए थे और फिर हिंदी सिनेमा के आकाश पर चमकते ऐसे स्टार बन गए जिसकी चमक सदियों तक कायम रहने वाली है। यह टेलेंट हंट प्रतियोगिता यूनाइटेड प्रोड्यूसर्स और फिल्मफेयर ने 1965 में कराई थी, जिसमें लगभग दस हजार लोगों ने हिस्सा लिया और आखिर में इसके विजेता बने राजेश खन्ना।
जिंदगी को जिस तरह उन्होंने अपनी फिल्मों में गाया था वैसी जिंदगी को जिया भी। उनकी जिंदगी एक इंसान की जिंदगी थी जहां स्टारडम का जलवा था तो गम भी थे, शराब और टूट जाने की हद तक बेदारी भी थी। राजेश खन्ना ने 1966 में पहली बार 24 साल की उम्र में आखिरी खत नामक फिल्म में काम किया था। इसके बाद राज, बहारों के सपने, औरत के रूप जैसी कई फिल्में उन्होंने कीं। ये फिल्में उन्हें बंबई की फिल्मी दुनिया के पाठ पढ़ा रही थीं और वे लगातार सीख रहे थे। लेकिन उन्हें असली कामयाबी 1969 में आराधना से मिली। इसके बाद14 सुपरहिट फिल्में देकर उन्होंने हिन्दी फिल्मों के पहले सुपरस्टार का तमगा अपने नाम किया।
फिल्मों की इस रुपहली दुनिया ने जितना सुख और आनंद राजेश खन्ना को सुपरस्टार के रूप में दिया तो जिंदगी के उत्तरार्ध में उतना दुख भी उन्होंने भोगा। अकेलापन और शराब ही उनके जीवन पथ के साथी बन चुके थे। अक्षय ने उनके जीवन को संजोने की कोशिश की थी जिसमें वे एक दामाद की तरह सफल भी रहे थे। राजेश ने फिल्मों में जो संवाद अपनाए थे वे उनकी जिंदगी में भी रहे। ...मौत तो एक कविता है और जिंदगी लंबी नहीं, बड़ी होनी चाहिए...जैसे संवादों के जरिए दर्शकों के दिलो-दिमाग पर छा जाने वाले राजेश खन्ना ने सचमुच बड़ी जिंदगी जी। जिस दौर में उनकी लोकप्रियता चरम पर थी उस समय कहा जाता था-ऊपर आका, नीचे काका। लड़कियों के बीच तो उनकी दीवानगी का आलम यह था कि कई लड़कियों ने उनकी तस्वीर से शादी कर ली थी। ये रुपहले परदे से पैदा स्टारडम का कमाल था। राजेश खन्ना को लोग प्यार से काका कह कर पुकारते थे।
1980 के बाद राजेश खन्ना का दौर खत्म होने लगा। बाद में वह  राजनीति में आए और 1991 में वह नई दिल्ली से कांग्रेस के टिकट पर लोकसभा के लिए चुने गए। लेकिन वक्त की रील नहीं रुकती। 18 जुलाई 2012 को जीवन की रील का अंतिम शिरा काका से ही नहीं हम सबके हाथों से दूर जा चुका है। काका की स्मृतियां सदियों के माथे पर सदैव लिखी रहेंगी।


क्रिकेट की बिसात पर
भारत और पाकिस्तान दुनिया के लिए दो देश हैं लेकिन उनके राजनीतिक रिश्ते घृणा और आतंक के साये में पलते रहे हैं।आज तक का इतिहास है  कि वे सदैव इसी तरह अपने रिश्तो ंको बनाए रखने के आदी हो चुके हैं।

किसी भी देश के साथ रिश्तों की सहजता उसके आपसी हित, व्यापार, राजनीतिक एवं सामाजिक-सांस्कृतिक संबंधों पर बहुत कुछ निर्भर होती है। भारत पाकिस्तान के रिश्ते एक देश के दो टुकड़ों की त्रासदी के साये में पलते हैं। दोनों देशों घृणा के बीज बोने वाले लोग हैं तो खेल और सांस्कृतिक आधारों पर रिश्तों को सहज बनाने वाले लोग भी हैं। दोनों देशों के बीच राजनीतिक प्रभाव और मतों की खींचतान से भी रिश्ते प्रभावित होते रहे हैं। सेना और आतंक के सहारे अपने हित साधने वाले तत्व भी भारत पाक के रिश्तों को सहज नहीं होने देते।  सहज और सरल पक्ष खेल और सांस्कृति का बचता है, इसे भी राजनीति के भंवर में डाल कर जहरीला बनाया जाता रहा है।
पाकिस्तान भारत के बीच बचे खुचे रिश्तों के सूत्र 26 नवंबर 2008 के मुंबई आतंकी हमले के बाद खत्म हो गए थे, अब इस रिश्ते को फिर से कायम करने शुरुआत पर कुछ लोग खुश दिख रहे हैं, तो कुछ लोग संभलकर चलने की हिदायत दे रहे हैं। चार दिन के आंतकी हमले के बाद बनी खाई में सभी रिश्तेऔंधे मुंह पड़े हुए थे। अब इस सिलसिले को फिर से शुरू करने की बात उठने पर विरोध और समर्थन के स्वर मुखर हुए हैं। भारत-पाक के विदेश सचिवों ने बातचीत में कहा था कि दोनों देशों के बीच मीडिया और स्पोर्ट्स को बढ़ावा देना चाहिए। इस मामले में मुंबई प्रेस क्लब के अध्यक्ष गुरबीर सिंह का मानना है कि मुंबई और कराची प्रेस क्लबों की पहल पर दोनों देशों के मीडिया कर्मियों एक-दूसरे के देशों में आवागमन शुरू होने से काफी भ्रम दूर हुए हैं। तो दूसरी तरफ  सुनील गावस्कर ने क्रिकेट सीरीज  का विरोध करते हुए कहा है कि पाकिस्तान ने मुंबई हमले की जांच में कोई प्रगति नहीं की है। पाकिस्तान जांच में सहयोग नहीं कर रहा है तो क्रिकेट संबंध बहाल करने की जरूरत ही क्या है?
इस मुद्दे पर शिवसेना ने आसमान सिर पर उठा लिया है। कांग्रेस में भी विभ्रम की स्थिति पैदा हो चुकी है। कांग्रेस में इस पहल का सीधा   स्वागत नहीं हुआ है। कुछ लोगों ने क्रिकेट पर प्रतिक्रिया में कहा है कि आतंकवादियों को और बुला लेते। ऐसे कथनों को अंतरराष्ट्रीय राजनीतिक नजरिये से नहीं पार्टीगत फैसले से प्रेरित ही अधिक कहा जाएगा। इस मामले में देश की पार्टियों में गहरे विरोधाभास देखने मिल रहे हैं। शिवसेना का विरोध करने वाली महाराष्ट्र समाजवादी पार्टी की ओर से अबू आसिम आजमी भी इस पहल का विरोध करते हुए सवाल करते हैं कि मुंबई पर हमले के दोषी किसी देश के साथ हमें क्रिकेट क्यों खेलना चाहिए? इस तरह का सवाल वाजिब है? 
लेकिन हमें अपने हितों के साथ संघर्ष भी जारी रखने होंगे। हमें आतंकवाद के मुद्दे पर सकारात्मक तरीके से निबटना चाहिए। दोनों मुद्दों को देर तक बनाए रखने से देश के हितों को साधने की प्रक्रिया को ठेस भी पहुंच सकती है। हम अमेरिका का उदाहरण देख सकते हैं। वह आतंक और अपने हितों पर पाकिस्तान से अपना काम ले रहा है।



अमेरिका की ठगी

अमेरिका के हित ही उसका सर्वोपरि व्यापार है। अपने हर बयान में वह अपने हितों को प्राथमिकता देता है। उसके भारत से कैसे भी संबंध हों , उसका नजरिया शायद ही बदलने वाला हो। ओबामा का बयान इसकी नजीर है।

यह अच्छी बात है कि आर्थिक सुधारों पर अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा के उपदेश भारत सरकार को नहीं भाए हैं। अमेरिकी राष्ट्रपति को भारत की तीखी प्रतिक्रिया का सामना करना पड़ रहा है। ओबामा के बयान पर सरकार के ओर से कॉरपोरेट मामलों के मंत्री वीरप्पा मोइली ने भी एतराज दर्ज कराया है। उन्होंने वोडाफोन का नाम लेते हुए कहा कि एक खास अंतरराष्ट्रीय लॉबी भारत के बारे में गलत बातों को हवा देने में लगी है। वहीं, इस ममाले में बीजेपी के वरिष्ठ नेता यशवंत सिन्हा ने कहा कि अगर ओबामा का इशारा रीटेल में एफडीआई पर है, तो जरूरी नहीं कि हम भी अमेरिकियों की तरह सोचें। अमेरिकी राष्ट्रपति ने भारत के बारे में आर्थिक माहौल खराब होने वाली जो बातें कहीं हैं, उनसे कोई भी भारतीय संगठन सहमत नहीं है। ओबामा ने भारत में निवेश का माहौल पहले से खराब होने, नियमों की सख्ती बनी रहने, रिटेल और कई सेक्टरों में बहुत-सी पाबंदियों का जिक्र पीटीआई को दिए साक्षात्कार में किया है। ओबामा ने भारत के बारे में चिंता भी जता दी है। लेकिन यह चिंता कम अमेरिका को अपनी व्यापारिक कंपनियों की हालत सुधारने के प्रयास अधिक लगते हैं। ओबामा अपनी चिंता में कहते हैं कि भारत को अपने लिए रास्ता खुद तय करना है। यहां यह स्पष्ट करना जरूरी है कि भारत तो अपना रास्ता तय कर रहा है लेकिन इससे अमेरिकी राष्ट्रपति को क्या तकलीफ हो रही है। इस साक्षात्कार में व्यक्त कथित चिंताओं का भारत द्वारा प्रतिरोध किया गया है। भारतीय नीति नियंताओं का मानना है कि अमेरिका में राष्ट्रपति चुनाव होने वाला है इसलिए वहां चुनाव से पहले एफडीआई, रीटेल और कई दूसरे सेक्टर की लॉबी का ओबामा पर भारी दबाव है।  इन्हीं प्रयासों के तहत विदेश मंत्री हिलेरी क्लिंटन कोलकाता में मुख्यमंत्री ममता बनर्जी से मुलाकात करने आ धमकती हैं। हिलेरी और ममता की बातचीत बेनतीजा रही। उसके बाद  खुद अमेरिकी राष्ट्रपति मैदान में अपने बयानों के हथियार लेकर आते हैं।
ओबामा के बयान पर सीआईआई, एसोचैम और अन्य व्यापारिक संगठनों की राय भी आई है। इन संगठनों ने कहा है कि देश  में इन्वेस्टमेंट का माहौल ठीक है। ग्लोबल मंदी के नए दौर में भारतीय अर्थव्यवस्था कई विकसित देशों के मुकाबले 6 प्रतिशत की दर से बढ़ रही है।वामपंथी पार्टियों और समाजवादी पार्टी ने भी कहा है कि अमेरिका के कहने से भारतीय अर्थव्यवस्था को खोला नहीं जा सकता है।
भारत के अपने हित हैं और उसकी जनता ही उसकी प्राथमिकता है। यह शुक्र करने वाली बात है कि उदारीकरण के नाम पर सब सौपने की अपेक्षा अभी पार्टियों में लाज बची हुई है। भारत की जनता को अमेरिकी व्यापारियों के लिए चरने के लिए नहीं छोड़ा जा सकता। भारत को वैश्विक अर्थ व्यवस्था में अपनी तरह की आर्थिक दुनिया का निर्माण करने की आवश्यकता है। यही भारतीय अर्थ व्यवस्था की प्राथमिकता में शामिल होना चाहिए।

सोमवार, जुलाई 09, 2012

TIME on MANMOHAN

  ‘टाइम’ की परिभाषा

टाइम पत्रिका जिस प्रकार अपनी रेटिंग्स को दर्शाती है उसका आधार क्या है? दो साल पहले प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह देश को महाशक्ति बना रहे थे और आज वह अंडरअचीवर होकर रह गए हैं? सच क्या है?

टा इम या उस जैसी कई पत्रिकाएं पश्चिमी अमेरिकी समाज के पास हैं। वे जब तब खास तरह की रेटिंग्स की जबरिया घोषणाएं करती रहती हैं। कभी किसी को महा सांप्रदायिक घोषित करती हैं तो कभी फिर उसे उस देश का प्रधानमंत्री भी बनवाती हैं। सालों से यह खेल जारी है। विश्व मीडिया को प्रभावित करने और अपने अनुसार बनाए सच को महिमामंडित करने के इस अनोखे खेल में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को लपेटे में लिया है।
भारतीय अर्थव्यवस्था के उदारीकरण में अग्रणी भूमिका निभाने के लिए प्रशंसा के पात्र रह चुके प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को अमेरिका की एक प्रतिष्ठित पत्रिका ने उम्मीद से कम सफल प्रधानमंत्री बताते हुए कहा कि सिंह सुधारों पर सख्ती से आगे बढ़ने के अनिच्छुक लगते हैं। टाइम पत्रिका के एशिया अंक के कवर पेज पर प्रकाशित प्रधानमंत्री की तस्वीर के साथ शीर्षक दिया गया है- उम्मीद से कम सफल भारत को चाहिये नई शुरुआत। पत्रिका ने सवाल किया है कि क्या प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह अपने काम में खरे उतरे हैं? पश्चिम आज भी बताता है कि कौन अपने काम में खरा उतरा है या नहीं। वे हर उस व्यक्ति को कमजोर बताते  हैं जो उनके एजेंडे को लागू नहीं करता। टाइम की रिपोर्ट में कहा गया है कि आर्थिक वृद्धि में सुस्ती, भारी वित्तीय घाटा और लगातार गिरते रुपये की चुनौतियों का सामना करने के साथ ही कांग्रेस के नेतृत्व वाले संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (संप्रग) की सरकार भ्रष्टाचार और घोटालों से घिरी हुई है और सुधारों को आगे बढ़ाने में कमजोरी दिखाने की दोषी है। अब यहां देखा जा सकता है टाइम का रुख। वह कहना चाहती है कि अमेरिकी आर्थिक नीतियों को जो प्रधानमंत्री नहीं अपनाता तो वह प्रधानमंत्री अपेक्षाओं पर खरा नहीं उतरता। पत्रिका आरोप लगा रही है कि देश के भीतर और बाहर के निवेशक कदम बढ़ाने से हिचकने लगे हैं। बढ़ती महंगाई और घोटाला दर घोटाला सामने आने से सरकार की साख से मतदाताओं का विश्वास उठने लगा है। अमेरिकी परिभाषा को देखें तो उसके लिए एफडीआई ही विकास का और जल्दी फैसले लेने का प्रतीक है। यह जरूरी नहीं कि वह भारत के लिए उपयुक्त हो, लेकिन टाइम का ब्रांड है जिसे अमेरिका दुनिया को बेचता है।
 पत्रिका ने बताया पिछले तीन साल के दौरान उनमें जो विश्वास था वह अब नहीं दिखाई देता। ऐसा लगता है कि अपने मंत्रियों पर उनका नियंत्रण नहीं रह गया। वित्त मंत्रालय के उन्हें मिले अस्थाई कार्यभार के बावजूद लगता है कि उदारीकरण की जिस प्रक्रिया की उन्होंने शुरुआत की थी वह उस पर आगे मजबूती के साथ नहीं बढ़ पा रहे हैं। अब उदारीकरण किसका? अमेरिकी कारपोरेट  का? प्रणब मुखर्जी जब तक ये समझे तब उन्हें वित्तमंत्री पद से हटना पड़ा।  यह दबाव की नीति है जिसमें सच के जीरे का अमेरिकी स्टाइल का बघार लगा है। टाइम हमारे देश के लिए या किसी के लिए भी कोई मानक तय नहीं कर सकती। भारतीयों को अपनी समझ पर भरोसा है और विश्वास है।

राष्ट्रपति की गरिमा
पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम जैसे किसी भी व्यक्त्वि के लिए गरिमा सबसे महत्वपूर्ण होती है। यह सच है कि कलाम ने कभी भी मर्यादाहीन बयान या राजनीतिक विवादों में खुद को नहीं सौंपा। वैज्ञानिक के साथ साथ राष्ट्रपति के रूप में कलाम की लोकप्रियता में उनका निर्विवाद रहना भी शामिल है। वे विवादों से दूर रहे हैं। उनकी छवि सकारात्मकता से परिपूर्ण और देश के युवाओं को प्रोत्साहन वाली रही है। आज उनकी स्वारोक्ति पर विवाद होना आश्चर्यजनक है। कलाम की किताब पर सबसे ज्यादा विवाद उस हिस्से पर है, जिसमें उन्होंने लिखा है कि ‘यदि 2004 में सोनिया गांधी अगर प्रधानमंत्री पद का दावा पेश करतीं, तो उनके पास उन्हें प्रधानमंत्री की शपथ दिलवाने के अलावा कोई विकल्प नहीं होता।’
कलाम की इस स्वीकारोक्ति पर विवाद की बेल हरी हो रही है। सबसे पहली आलोचना जनता दल (यू) के अध्यक्ष शरद यादव ने की है-‘अगर कलाम को कुछ कहना ही था, तो उसी समय कहना चाहिए था। आठ साल बाद बयान देना ठीक नहीं है। बाल ठाकरे कहा कि कलाम सोनिया गांधी को प्रधानमंत्री क्यों बनाना चाहते थे? जनता पार्टी नेता सुब्रहण्यम स्वामी का कहना है कि कलाम गलत बयानी कर रहे हैं और उन्हें उस वक्त सोनिया गांधी के प्रधानमंत्री बनने पर आपत्ति थी। स्वामी का दावा है कि कलाम ने उस वक्त सोनिया गांधी को इस आशय का पत्र भी लिखा था। बाल ठाकरे की आलोचना से सहमत या असहमत हुआ जा सकता है, स्वामी के दावों में कोई सबूत नहीं हैै। इसलिए कलाम की बात पर ही भरोसा करना होगा। हालांकि शरद यादव की बात में एक तथ्य अवश्य  है कि कलाम को उसी समय यह सब बताना चाहिए था। कलाम का स्वभाव राजनीतिक नहीं है। वे इस समय सकारात्मक राजनीति के सबसे बड़े आईकान हैं। युवा और हमारे वर्तमान राजनीतिक माहौल से चिड़े मध्यवर्गीय युवाओं की पहली पसंद हैं। गांव का पढ़ा लिखा तबका भी कलाम को पसंद करता है। कलाम भारतीय राजनीति को नए मोड़ और लोगों को नई समझ देने वाले व्यक्तित्व के रूप में भी स्थापित हैं।
कुछ और मुद्दे भी कलाम की किताब में ऐसे हैं, जिन पर शोर मचा है।   एक मुद्दा यह है कि तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी नहीं चाहते थे कि कलाम दंगों के बाद गुजरात के दौरे पर जाएं, लेकिन कलाम ने उनकी नहीं मानी। लेकिन कलाम ने गुजरात के दौरे के बाद कोई बयान नहीं दिया, जिस पर विवाद होता।  बिहार में  राष्ट्रपति शासन लगाने से अपनी असहमति की भी उन्होंने चर्चा की है, जिस पर विवाद हो रहा है। विवाद हो रहे हैं, तो यह कोई बुरी बात नहीं है, बल्कि अपने देश में ऐसे राजनेताओं और महत्वपूर्ण लोगों की कमी है, जो गुजरे हुए वक्त की घटनाओं पर रोशनी डालना जरूरी समझते हों। भारत में जनता से वास्तविक मुद्दों दूर रखने की गोपनीयता का बुखार चढ़ा रहता है, ऐसे में अगर तथ्य सामने लाए जा रहे हैं तो अफवाहों और अटकलों को विराम लगेगा और सच को सार्वजनिक रूप से जानने में मदद मिलेगी।


पाक सरकार की पलटी

 


पाकिस्तान और भारत दो ऐसे देश हैं जिनके पास आपसी समझ की
कमी है। पाकिस्तान के पास ये कुछ ज्यादा ही है। लगभग सभी मामलों में दोनों देशों के शासकों का रवैया जनता से मजाक का रहा है।


पा किस्तान की जेल में बंद भारतीय कैदी सरबजीत सिंह को रिहा किए जाने की खबरों के कुछ ही मिनिट बाद भारत में सरबजीत के परिजन जश्न मनाने लगे। विदेश मंत्री एस एम कृष्णा ने भी पाकिस्तान को बधाई प्रेषित कर दी। खास बात ये है कि विदेश मंत्री ने यह बधाई बिना आधिकारिक  सूचना या आदेश प्राप्त किए दी थी। होना ये चाहिए था कि जब तक सरबजीत भारतीय सीमा में न आ जाता तब तक जश्न से दूर ही रहना था। मीडिया भी उतावला होकर मौखिक सूचना पर सरबजीत की रिहाई का महिमामंडन करने लगा। सरबजीत रिहा होता तो यह खुशी का अवसर था लेकिन यह भारतीयों की भावुकतापूर्ण नासमझी थी जो देर रात गए दुख में बदल गई। पाकिस्तान सरकार का आदेश भारत सरकार या विदेश मंत्रालय तक नहीं आता तब तक इसे रिहाई नहीं कहा जाना था। इससे साबित होता है कि हम आज भी पड़ोसी को नहीं समझ सके हैं और उससे कोई सबक नहीं सीख रहे हैं। यह खबर हजार बार सच होती तब भी देश को, मीडिया को आधिकारिक आदेश का इंतजार तो करना ही चाहिए था।
 इस घटनाक्रम के कुछ ही घंटे बाद पाकिस्तान ने सफाई दी कि उसने सरबजीत सिंह नहीं बल्कि एक अन्य भारतीय कैदी सुरजीत सिंह को रिहा करने के लिए कदम उठाए हैं। ‘जियो न्यूज’ पर आकर राष्ट्रपति के प्रवक्ता फरहतुल्लाह बाबर ने कहा कि मुझे लगता है कि इस सम्बंध में कुछ गलतफहमी हुई है। यह क्षमादान का मामला नहीं है और सरबजीत का भी नहीं है। खबर तत्काल भारतीय मीडिया पर भी आ गई। कहा जाने लगा कि पाकिस्तान पलट गया। बेशक पाकिस्तान पलटा होगा लेकिन हमें तो अपना विवेक नहीं खोना था। हम अच्छी तरह जानते हैं कि पाकिस्तान को मुल्ला, फौज और अमेरिका संचालित करते हैं। सरबजीत की रिहाई सेना को या मुल्ला लॉबी को पसंद नहीं आने की बात भी उठी थी। अतंत: छह घंटे बाद पाकिस्तान को पलटना पड़ा।
दूसरा पक्ष ये है कि अगर पाकिस्तान नहीं पलटा है तो यह भी आश्चर्य है कि विदेशी मामले में पाकिस्तान सरकार से इतनी लापरवाही कैसे हुई? सरकार को सुरजीत और सरबजीत के नाम को लेकर संदेह कैसे हुआ? दोनों की सजा अलग-अलग थी, फिर नाम को लेकर भ्रम कैसे हो गया? 6 घंटे के अंदर ऐसा क्या हुआ कि सरबजीत की जगह सुरजीत का नाम आ गया? अनुमान है कि सरकार दबाव में है लेकिन सरकार पर दबाव किसका है? पाकिस्तान में एक बड़ा तबका ऐसा है जो सरबजीत सिंह की रिहाई की खबर के बाद विरोध में सक्रिय हो गया था। पाकिस्तान की विपक्षी पार्टी मुस्लिम लीग नवाजÞ भी रिहाई के फैसले का विरोध कर रही थी। आखिर में वही हुआ जो नहीं होना था। सरकार को पलटना पड़ा। पाकिस्तान सरकार के दो बयानों से दोनों देशों में असमंजस की स्थिति बनी। इससे यह भी साबित होता है कि सरकारें दबाव समूहों के सामने कितनी लाचार हो सकती हैं।


एकरूप होगी न्यायिक सेवा


भारतीय न्याय व्यवस्था में यूपीएससी से जजों के चयन से प्रोफेशनजिज्म का विकास होगा और इससे कानूनी प्रक्रिया को अधिक तर्कसंगत और आम आदमी के प्रति जिम्मेदार बनाया जा सकेगा।



भो पाल में आयोजित नेशनल लॉ यूनिवर्सिटी के कार्यक्रम में कानून और न्याय के विभिन्न पक्षों पर नई अवधारणाएं प्रस्तुत की गर्इं। इसमें जो महत्वपूर्ण विचार सामने आया वह था जजों को भी यूपीएससी के माध्यम से चयनित किया जाएगा। संघ लोक सेवा आयोग के चेयरमैन प्रो. डीपी अग्रवाल ने इस विचार से संबंधित अवधारणा के बारे में बताया है। इससे न्याय व्यवस्था में एकरूपता आएगी और इसमें फैले भ्रष्टाचार से भी मुक्ति मिलेगी। फिलहाल यह विचार अभी प्रक्रिया का हिस्सा है लेकिन आने वाले समय में इस विचार को मूर्त रूप दिया जाना है। नेशनल लॉ इंस्टीट्यूट यूनिवर्सिटी (एनएलआईयू) में आयोजित ओरिएंटेशन प्रोग्राम में इस नई अवधारणा और अन्य कानूनी व्यवस्थाओं पर विचार विमर्श किया गया था। इस अवधारणा से संविधान के अनुरुप न्याय को सब तक पहुंचाने के विचार को बल मिलेगा। वैसे भी भारत की न्याय प्रणाली सबसे पुरानी प्रणालियों में से एक है। संविधान की प्रस्तावना भारत को ‘संप्रभुता संपन्न प्रजातांत्रिक गणराज्य’ के रूप में पारिभाषित करती है, इसमें केंद्र और राज्यों में संसदीय स्वरूप वाली संघीय शासन प्रणाली, स्वतंत्र न्यायपालिका, संरक्षित मौलिक अधिकार और राज्य के नीति निर्देशक तत्व, जिन्हें लागू करने के लिए सरकारें कानूनन बाध्य नहीं, लेकिन प्रक्रिया में शामिल हैं और यह सब राष्ट्र के प्रशासन के आधारभूत तत्व हैं। यही वह पक्ष है जिससे सदैव कानून और न्याय की अवधारणा को बल मिलता रहेगा?
किसी भी न्याय प्रक्रिया को सार्वजनिक हितों के लिए उपयुक्त बनाने के लिए आवश्यक है कि उसकी एकरुपता और व्यापकता पर विचार किया जाता रहे। कानून के क्षेत्र में विद्यार्थियों को खुद पर विश्वास तथा विषय की गहरी समझ रखना जरूरी है।  युवा वकीलों और जजों के रूप में आम लोगों को उनके कानूनी लाभ दिलाने और उनके अधिकार से अवगत कराने में सफल होंगे।
यह सच है कि न्याय की सार्थकता तभी सिद्ध होगी जब वह देश के अंतिम नागरिक को भी   उतनी ही सहजता से उपलब्ध हो जितनी कि संसाधनों से संपन्न व्यक्ति के लिए हो सकता है। इस मार्फत अगर आज की विधायी प्रक्रिया की बात करें तो हमें बहुत ही निराशाजनक उत्तर मिलेगा? चाहे वह कानूनी व्याख्यायओं का मामला हो या फिर वर्तमान में जारी न्याय व्यवस्था की प्रतीक अदालतें। इसमें सबसे अधिक दिक्कत है प्रोफेशनल तरीके और नजरिए की कमी की। आज की पेचीदा कानूनी प्रक्रिया में मानवीय पक्ष को शामिल किया जाना भी जरूरी है। मशीनी और तर्क आधारित न्याय व्यवस्था में मनुष्य को न्याय का वास्तविक लाभ मिलना संभव नहीं हो सकता। कानून की जिम्मेदारी संभालने वाले और कानून के द्वारा न्याय प्रस्तुत करने वाले युवा ही हैं जो परिवर्तन को शीघ्रता से अपना सकते हैं। न्यायाधीशों के एकरूप चयन से न्यायिक सजगता आएगी। युवा जजों और वकीलों में कानून के गहरे अध्ययन के प्रवृत्ति को बल भी मिलेगा।



बोसोन बदलेगा तकनीक

बोसोन के जो गुणधर्म हैं अगर वे वैज्ञानिकों ने नियंत्रत करना सीख
लिया तो धरती पर मानव सभ्यता तकनीक के ऐसे दौर में चली जाएगी जिसकी हम आजतक कल्पना भी नहीं कर सके हैं।



हि ग्स बोसान मिल ही गया जिनेवा में भौतिक वैज्ञानिकों ने बुधवार 4 जुलाई 2012 को एक प्रेस कांफ्रेंस में दावा किया कि उन्हें प्रयोग के दौरान ये कण मिला है, जिसके गुणधर्म हिग्स बोसोन से मिलते हैं। अब असली सवाल है कि बोसोन को उसके अस्थिर गुणधर्म के कारण नियंत्रित करना मुश्किल है। बोसोन ऐसा आधारभूत कण है जो अपनी प्रकृति और रूप पल-पल बदलता है। अब वैज्ञानिक इस नए कण से संबंधित आंकड़ों के विश्लेषण में जुटे हैं। हालांकि इसके कई गुण हिग्स बोसोन सिद्धांत से मेल नहीं खाते हैं। फिर भी इसे ब्रह्मांड के जन्म के  रहस्य खोलने की दिशा में एक महत्वपूर्ण  कदम  माना जा रहा है।
बोसोन को 6000 वैज्ञानिकों की टीम ने 10 अरब डॉलर से ज्यादा खर्च करके जिस कण की खोज की है, वह संसार के बनने और चलने का आधार है। इस एक कण ने ब्रह्मांड के हजारों कण और पदार्थों को बांध रखा है, मगर आज तक ईश्वर की तरह किसी ने इसे देखा नहीं है। इसी कारण इस कण को गॉड पार्टिकल कहा जा रहा है।  इस कण के दिखते ही सृष्टि के बनने और चलने की कहानी की ओर वैज्ञानिक कदम बढ़ा सकेंगे और  जीवन और ब्रह्मांड की कई अनसुलझी गुत्थियां भी सुलझ जाएंगी।
गॉड पार्टिकल सामने आने तक वैज्ञानिक उपलब्धियों के हिसाब से 2011 बहुत महत्वपूर्ण साबित हुआ। पार्टिकल फिजिक्स, एस्ट्रोनॉमी और जीव-विज्ञान के क्षेत्र में नई खोजों ने हमें सबसे ज्यादा चौंकाया। वैज्ञानिकों द्वारा एक अन्य प्रयोग में यह भी साबित करने की कोशिश की कि न्यूट्रिनो कणों की रफ्तार प्रकाश से भी ज्यादा है। यह  खोज अल्बर्ट आइंस्टीन के सापेक्षता के सिद्धांत के एकदम विपरीत है, जो यह कहता है कि प्रकाश से ज्यादा तेज कुछ नहीं। अगर यह खोज पूरी तरह से स्थापित हो जाती है, तो हमें फिजिक्स की किताबें फिर से लिखनी पड़ेंगी।
कण का ‘बोसोन’ नाम भारतीय वैज्ञानिक सत्येंद्रनाथ बोस के नाम से ही लिया गया है। यह भारत के लिए गौरव की बात है। भारतीय वैज्ञानिक सत्येंद्रनाथ बोस का जन्म 1 जनवरी, 1894 को कलकत्ता में हुआ था। उन्होंने आंइस्टीन के साथ मिलकर एक फार्मूला पेश किया था, जिससे खास तरह के कणों का गुण पता चलता है। ऐसे कण बोसोन कहलाते हैं। ब्रह्मांड की हर वस्तु तारा, ग्रह, उपग्रह व जीव जगत पदार्थ या मैटर से बना है। मैटर का निर्माण अणु-परमाणु से हुआ है। जबकि मास या द्रव्यमान वह भौतिक गुण है, जिनसे इन कणों को ठोस रूप मिलता है। अगर द्रव्यमान नहीं है तो कण रोशनी की रफ्तार से भगेगा, दूसरे कणों के साथ मिलकर संघनित होने की संभावना भी नहीं बनती। यही द्रव्यमान जब ग्रेविटी से गुजरता है तो भार कहा जाता है। लेकिन भार द्रव्यमान नहीं होता, क्योंकि ग्रेविटी कम या ज्यादा होने पर भार बदल जाता है। वहीं द्रव्यमान एक जैसा रहता है। बोसोन इसी गुण का प्रतिनिधित्व करता है। यही गुण मानव सभ्यता के वैज्ञानिक विकास के नए आयाम प्रस्तुत करेगा।
by
Ravindra Swapnil Prajapati