भारत जैसे संस्कारिक देश के लिए यह बेहद दुर्भाग्य पूर्ण है। आज गली,
मोहल्लों, कॉलोनियो तथा स्कूल एवं कॉलेज केम्पस में नशा करते युवक युवतियां
सामान्य रूप से हैं। इतना ही नहीं 10 से 11 वर्ष की उम्र के बच्चे भी
विभिन्न प्रकार के मादक पदार्थों का सेवन करते देखे जाते हैं। नशा मुक्ति
के सरकार के सारे प्रयास नाकाफी साबित हो रहे हैं। इस बात का पता
अंतरराष्ट्रीय नारकोटिक्स नियंत्रण बोर्ड की वर्ष 2009 के अध्ययन की
रिपोर्ट से ही चल जाता है। अंतरराष्ट्रीय नारकोटिक्स नियंत्रण बोर्ड की
रिपोर्ट को गंभीरता से लेते हुए इस दिशा में ठोस कदम उठाये जाने की
आवश्यकता है। अन्यथा कल देश का भविष्य आज नशे की गिरफ्त में आ जाएगा।
भारत में कम उम्र में ही बच्चे नशे की गिरफ्त में जा रहे हैं। पहली बार नशा करने वालों की उम्र महज 10 से 11 वर्ष होती है और नशा करने वाले 37 फीसदी स्कूली विद्यार्थियों को यह पता होता है कि वे कौन सा मादक पदार्थ ले रहे हैं। यह चौकाने वाला खुलासा संयुक्त राष्ट्र के अंतरराष्ट्रीय नारकोटिक्स नियंत्रण बोर्ड की एक अध्ययन की रिपोर्ट से हुआ है। भारत के सन्दर्भ में मादक पदार्थ तथा अपराध नियंत्रण (यूएनओडीसी) के संयुक्त राष्ट्र के दक्षिण एशियाई क्षेत्रीय कार्यालय की प्रतिनिधि ने कहा कि दक्षिण एशिया के छह देशों में हेरोइन और अफीम का सबसे ज्यादा सेवन हो रहा है। और इंटरनेट के जरिए भी फार्मा कम्पनियों की आड़ में मादक पदार्थों की तस्करी की जा रही है। भारत के संदर्भ में कहा कि हमने हाल ही में भारत के 15 राज्यों में दो सर्वेक्षण किए। उनमें पाया गया कि देश में बच्चे सबसे पहले 10 से 11 वर्ष की उम्र में ही मादक पदार्थ का सेवन करने लगते हैं। मादक पदार्थों के आदी हो जाने वाले 37 फीसदी स्कूली विद्यार्थियों को यह भी पता होता है कि वे किस पदार्थ का सेवन कर रहे हैं।
साथ ही नहीं चौकाने वाला एक तय यह भी है कि भारत में महिलाओं में भी नशे करने की प्रवृत्ति बढ़ रही है। भारतीय महिलाओं में भी मादक पदार्थो के सेवन की प्रवृत्ति बढ़ रही है। यह प्रवृत्ती बेहद कम उम्र यानि औसतन 16 वर्ष की उम्र में ही किशोरियां नशे का शिकार हो रही हैं। भारत में औसतन 16 वर्ष की उम्र में ही किशोरियां घुलनशील मादक पदार्थ लेने लगती हैं, जबकि तंबाकू सेवन शुरू करने वाली किशोरियों की औसत उम्र करीब 18 वर्ष होती है। चिंताजनक यह है कि नशे की आदी भारतीय महिलाओं में से 80 फीसदी इलाज के लिए नहीं जातीं। भारत में जितने लोग मादक पदार्थो के आदी हैं, उनमें ‘ओपिएट्स’ अफीम मिली मादक दवा का इस्तेमाल करने वाले 73 फीसदी, ‘कैनेबिस’ भांग के पौधे से बने नशीला पदार्थ लेने वाले 19 फीसदी, ‘सेडेटिव्स’ दर्द निवारक या शामक दवाएं लेने वाले पांच फीसदी, एटीएस सिथेंटिक दवा लेने वाले दो फीसदी और ‘इनहेलेंट्स’ श्वांस के जरिए नशा करने वालों की संख्या एक फीसदी है। नारकोटिक्स नियंत्रण एक जटिल मुद्दा है और हम इससे जुड़े मुद्दों से अवगत हैं। वर्ष 1985 में सरकार ने नारकोटिक्स नियंत्रण के लिए विशिष्ट नीतियां बनाई थीं। इसके बाद वर्ष 2001-02 में हमने सर्वेक्षण कर पाया कि भारत में 7.32 करोड़ लोग अल्कोहल या अन्य तरह के नशे के आदी हैं।’
बहरहाल नशा मुक्ति के लिए बने तमाम कानून और सरकार के कई प्रयासों के बाद भी देश में नशे का प्रचलन तेजÞी से बढ़ रहा है। भारत जैसे संस्कारिक देश के लिए यह बेहद दुर्भाग्य पूर्ण है। आज गली, मोहल्लों, कॉलोनियो तथा स्कूल एवं कॉलेज केम्पस में नशा करते युवक युवतियां सामान्य रूप से हैं। इतना ही नहीं 10 से 11 वर्ष की उम्र के बच्चे भी विभिन्न प्रकार के मादक पदार्थों का सेवन करते देखे जाते हैं। नशा मुक्ति के सरकार के सारे प्रयास नाकाफी साबित हो रहे हैं। इस बात का पता अंतरराष्ट्रीय नारकोटिक्स नियंत्रण बोर्ड की वर्ष 2009 के अध्ययन की रिपोर्ट से ही चल जाता है। अंतरराष्ट्रीय नारकोटिक्स नियंत्रण बोर्ड की रिपोर्ट को गंभीरता से लेते हुए इस दिशा में ठोस कदम उठाये जाने की आवश्यकता है। अन्यथा कल देश का भविष्य आज नशे की गिरफ्त में आ जाएगा।
भारत का पड़ोसी चीन भी मादक पदार्थों की समस्या से ग्रस्त है।
चीन ने देश व क्षेत्र पारीय मादक पदार्थ तस्करी , नई किस्मों के मादक द्रव्य के उत्पादन व बिक्री तथा मादक पदार्थ से प्राप्त काले धन की धुलाई के खिलाफ सिलसिलेवार विशेष कार्यवाहियां की हैं, जिस से मादक पदार्थ से जुड़े अपराधियों के हौसले पर कारगर रूप से आघात पहुंचाया। एक वर्ष के अंदर चीन ने कुल 45 हजार अधिक मादक पदार्थ संबंधी मामलों का निपटारा किया और 58 हजार संदिग्ध अपराधियों को गिरफ्तार किया और विभिन्न किस्मों के साढे 17 टन मादक द्रव्य जब्त किया । इस तरह की त्वरित कार्यवाही से मादक पदार्थों के तस्करी और उपलब्धता प्रभावी तरीके से खंडित होती है।
वर्तमान में विश्व में मादक पदार्थाेंका बोलबाला हुआ, जिस से अनेक देश व क्षेत्र ग्रस्त हो गए और मादक पदार्थों की किस्में बढ़ीं और मादक सेवन वालों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है । इसलिए चीन में स्थिति भी गंभीर है । सूत्रों के अनुसार चीन की दक्षिण पश्चिम सीमा से सटा म्यांमार ,थाईलैंड व लाओस का गोल्डन ट्रिएंगल चीन को सब से ज्यादा नुकसान पहुंचाने वाला मादक पदार्थ स्रोत हैं। चीन ने म्यांमार , लाओस , थाईलैंड , भारत और पाकिस्तान आदि देशों के साथ मादक पदार्थ नियंत्रण के लिए द्विपक्षीय सहयोग सम्मेलन बुलाए और संयुक्त राष्ट्र मादक पदार्थ पाबंदी व अपराध मामला कार्यालय तथा संबंधित देशों के साथ न्यायिक काम व सूचनाओं के आदान प्रदान पर सहयोग बढ़ाया। इसके बाद भी वर्तमान चीन में मादक सेवन वाले लोगों की संख्या सात लाख 80 हजार है। नई किस्मों के मादक द्रव्य भी पाए गए हैं और मादक पदार्थ से संबंधित अपराधों की समस्या भी सामाजिक सुरक्षा को नुकसान पहुंचाती है ।
वर्तमान समय में अफÞगÞानिस्तान में मादक पदार्थों की तैयारी के लिए पांच सौ कारख़ाने मौजूद हैं और वहां पर नाटो के नियंत्रण के बावजूद प्रतिवर्ष चार लाख टन हेरोइन का उत्पादन किया जाता है। इसको विश्व के लगभग एक करोड़ तीस लाख लोग प्रयोग करते हैं। उन्होंने कहा कि ईरान बहुत ही दूरदर्शिता के साथ मादक पदार्थों से संघर्ष कर रहा है और इस संबन्ध में वह विश्व में पहले नंबर पर है। मादक पदार्थों के विरुद्ध संघर्ष में ईरान ने अब तक अपने सात सौ से अधिक सुरक्षाबलों की कÞुर्बानी दी है और तस्करों से मुकÞाबले में एक हजÞार तीन सौ जवान घायल हुए हैं। इस्लामी गणतंत्र ईरान ने 2010 और 2011 के दौरान 500 टन मादक पदार्थ जÞब्त किये और मादक पदार्थों के तस्करों के विरुद्ध 1003 से अधिक कार्यवाहियां की हैं। इन कार्यवाहियों के दौरान ईरान के सुरक्षा बलों ने तस्करों के 400 गैंगों को नष्ट कर दिया। मादक पदार्थों को ख़रीदना-बेचना और इन्हें एक स्थान से दूसरे स्थान ले जाना यह दोनों ही कार्य अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर अपराध माने गए हैं। इस प्रकार के अपराध का मुकÞाबला करने के लिए वास्तव में स्थानीय एवं अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर भरपूर सहयोग एवं सहकारिता की आवश्यकता है साथ ही इस कार्य के लिए संयुक्त योजनाबंदी भी आवश्यक है। क्योंकि प्रत्येक देश अपनी विशेष नीतियों और सीमित संसाधनों के साथ मादक पदार्थों से संघर्ष के लिए योजनाएं बनाता है अत: हर देश की कार्यवाहियां उसकी सीमाओं के भीतर ही सीमित रहती हैं। यही कारण है कि मादक पदार्थों से संघर्ष के अंतरराष्ट्रीय संगठनों की उपस्थिति के बावजूद अंतरराष्ट्रीय सहयोग बहुत अधिक प्रभावी सिद्ध नहीं रहा है। मादक पदार्थ का सेवन करने वालों की संख्या में तेजÞी से वृद्धि, इस वास्तविकता को दर्शाती है कि यह बुराई विश्व के विकासशील एवं विकसित दोनों प्रकार के देशों के लिए जटिल समस्या बनी हुई है।
भारत में युवाओं की अधिक संख्या भी इसके लिए जिम्मेदार है। देश में बड़ी संख्या में बच्चे उत्तर पूर्व से मादक पदार्थ तस्करी कर उसे बिहार और उत्तर भारत के अन्य राज्यों में आपूर्ति करते हैं। दिल्ली में 50 हजार बच्चे सड़कों पर रहते हैं। इनमें से ज्यादातर नशीले पदार्थों का सेवन करते हैं। उसकी तस्करी भी करते हैं। बच्चों को बाल मजदूरी और तस्करी के धंधे में धकेलने वाले लोगों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई नहीं की जाती। इससे अपराधी बिना डर के इस तरह की गतिविधियों को अंजाम देते हैं। कुछ आंकड़े इसकी भयावहता को दर्शाता है- यूएनओडीसी की रिपोर्ट-विश्वभर के 21 करोड़ लोग या 15 से 64 साल उम्र की 4.9 प्रतिशत जनसंख्या नशीले पदार्थों का इस्तेमाल करती है, प्रति वर्ष दो लाख लोग मादक पदार्थों के इस्तेमाल के कारण मारे जाते हैं, मादक पदार्थो की तस्करी दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा व्यवसाय है, वर्ष 2010 में विश्वभर में अफीम की खेती 1,95,700 हेक्टेयर में हुई, अफगानिस्तान में विश्वभर के कुल अफीम उत्पादन का करीब 74 प्रतिशत हिस्सा या 3,600 टन पैदा होता है।
वैश्विक स्तर पर नशीले पदार्थो के बढ़ते इस्तेमाल के खिलाफ दिसम्बर, 1987 में संयुक्त राष्ट्र महासभा ने 26 जून के दिन को मादक पदार्थो की तस्करी एवं गैर कानूनी प्रयोग के खिलाफ अंतरराष्ट्रीय दिवस के रूप में घोषित किया, जिसे आज व्यापक जन समर्थन हासिल है। जब तक कि हम अवैध नशीले पदार्थों की मांग की कम नहीं करते हैं तब तक हम पूरी तरह से उनकी फसलों के उत्पादन या उनकी तस्करी को पूरी तरह से रोक नहीं सकते हैं। विभिन्न रिपोर्टों से स्पष्ट होता है कि यह समस्या वैश्विक है और उसी स्तर पर इससे मुकाबला किया जा सकता है।
बुधवार, जून 26, 2013
गुरुवार, जून 20, 2013
अपसंस्कृति का जहर
उपभोगवादी आधुनिक मानसिकता और निजी स्वतंत्रता मिल कर सामाज में अपसंस्कृति का जहर फैला रही हैं। यह कुत्सित मानसिकता ही है कि सात वचन लेने वाला पति, पत्नी के फोटो सार्वजनिक करता है।
आ ज देश उदारवाद और उपभोगवाद का आनंद ले रहा है। निजी आजादी जो हमको अपने काम करने की स्वतंत्रता और अवकाश देती है, लेकिन उसमें से संयम गायब हो गया है। इस आजादी को लोगों ने मानसिक कुत्साएं पूरा करने और पैसे कमाने की लालसा से भर लिया है। निजी आजादी के नाम पर कुंठित और प्रदूषित मानसिकता की अभिव्यिक्ति होने लगी है। हम जीवन को एक यज्ञ की तरह नहीं, उपभोग के वीभत्स उपकरण की तरह स्वीकार कर रहे हैं। जीवन के अनुशासनों को हमने दूर रख दिया है।
हाल ही में घटना घटी है जिसमें पति अपनी ही पत्नी के न्यूड फोटो अपने मित्रों को ईमेल करता था। इससे पहले सेना के कुछ अधिकारियों के बारे में खबर आई थी कि वे अपनी पत्नियों को अन्य के साथ संसर्ग करने के लिए दबाव डाल रहे थे। आखिर हमारे जीवन में इस तरह के विकारों को जगह कैसे मिली? क्या यह पैसे की अधिकता, उपभोगवादी मानसिकता और संस्कार रहित जीवन का प्रतीक है? आधुनिक जीवन शैली और काम के बोझ के कारण जीवन से रचनात्मकता खत्म हो रही है। एक ओर हम आधुनिकता की होड़ में अपनी संस्कृति से अलग होते जा रहे हैं। अपने संस्कार भूलते जा रहे हैं। दूसरी ओर, पश्चिमी संस्कृति को भी नहीं अपना पा रहे हैं, क्योंकि अपनी संस्कृति का मोह हम नहीं छोड़ पा रहे हैं। इस तरह जो सांस्कृतिक घालमेल हमारे जीवन में हो रहा है, उससे जो अपसंस्कृति तैयार हो रही है, उससे हमारा सामाजिक अनुशासन टूट रहा है। हम पश्चिम को अराजक मानते रहे हैं जबकि वहां जीवन पूरी तरह सामाजिक अनुशासनों में बंधा है। वहां कानून का शासन है, वहां सड़क पर पैदल चलते व्यक्ति को कार का हार्न बजा कर चौंकाया नहीं जाता। कार रोक ली जाती है। वहां रात को अकेली लड़की देख कर कोई छेड़ता नहीं है। लेकिन हम इस सबको लेकर कुंठित हो जाते हैं। अधकचरी जानकारी और अपनी जड़ों से कटने का नतीजा है कि हमारी नई पीढ़ी भी भटकाव का शिकार है। इसमें बच्चे भी भटक रहे हैं। उनमें नशाखोरी बढ़ रही है। उनको माता पिता का साया मिलना मुश्किल हो रहा है। विज्ञापन युग की बाजारवादी संस्कृति के बारे में ज्यां बोद्रिला कहते हैं कि इस विकराल उपभोग से जन्मी संस्कृति ही हमारे समय की संस्कृति है। इस संस्कृति ने सभी परंपरागत मूल्यों-अवधारणाओं को खत्म कर दिया है। हम ‘आर्थिक मनुष्य’ बनने की विवशता झेल रहे हैं, जिसमें कलाओं के लिए जगह ही नहीं बची है, पुस्तकों को क्यों पढ़ें? उनका संसार खिन्नता की मन:स्थिति रचता है। वाल्टर बेंजामिन ने टेक्नोलॉजी के उदय में मनुष्य की मुक्ति का जो सपना देखा था वह टूट चुका है। टेक्नोलॉजी ने भयानक दासता को जन्म देकर हमें कब्जे में कर लिया है। आज उपभोग की संस्कृति ने नैतिक मूल्यों को अपदस्थ कर दिया है। इस सदी के भारत में बेरोजगारी नहीं बल्कि लोगों में बढ़ रही अपसंस्कृति की समस्या प्रमुख होगी। यह समस्या समाज के लिए चुनौती बन कर उभर चुकी है।
आ ज देश उदारवाद और उपभोगवाद का आनंद ले रहा है। निजी आजादी जो हमको अपने काम करने की स्वतंत्रता और अवकाश देती है, लेकिन उसमें से संयम गायब हो गया है। इस आजादी को लोगों ने मानसिक कुत्साएं पूरा करने और पैसे कमाने की लालसा से भर लिया है। निजी आजादी के नाम पर कुंठित और प्रदूषित मानसिकता की अभिव्यिक्ति होने लगी है। हम जीवन को एक यज्ञ की तरह नहीं, उपभोग के वीभत्स उपकरण की तरह स्वीकार कर रहे हैं। जीवन के अनुशासनों को हमने दूर रख दिया है।
हाल ही में घटना घटी है जिसमें पति अपनी ही पत्नी के न्यूड फोटो अपने मित्रों को ईमेल करता था। इससे पहले सेना के कुछ अधिकारियों के बारे में खबर आई थी कि वे अपनी पत्नियों को अन्य के साथ संसर्ग करने के लिए दबाव डाल रहे थे। आखिर हमारे जीवन में इस तरह के विकारों को जगह कैसे मिली? क्या यह पैसे की अधिकता, उपभोगवादी मानसिकता और संस्कार रहित जीवन का प्रतीक है? आधुनिक जीवन शैली और काम के बोझ के कारण जीवन से रचनात्मकता खत्म हो रही है। एक ओर हम आधुनिकता की होड़ में अपनी संस्कृति से अलग होते जा रहे हैं। अपने संस्कार भूलते जा रहे हैं। दूसरी ओर, पश्चिमी संस्कृति को भी नहीं अपना पा रहे हैं, क्योंकि अपनी संस्कृति का मोह हम नहीं छोड़ पा रहे हैं। इस तरह जो सांस्कृतिक घालमेल हमारे जीवन में हो रहा है, उससे जो अपसंस्कृति तैयार हो रही है, उससे हमारा सामाजिक अनुशासन टूट रहा है। हम पश्चिम को अराजक मानते रहे हैं जबकि वहां जीवन पूरी तरह सामाजिक अनुशासनों में बंधा है। वहां कानून का शासन है, वहां सड़क पर पैदल चलते व्यक्ति को कार का हार्न बजा कर चौंकाया नहीं जाता। कार रोक ली जाती है। वहां रात को अकेली लड़की देख कर कोई छेड़ता नहीं है। लेकिन हम इस सबको लेकर कुंठित हो जाते हैं। अधकचरी जानकारी और अपनी जड़ों से कटने का नतीजा है कि हमारी नई पीढ़ी भी भटकाव का शिकार है। इसमें बच्चे भी भटक रहे हैं। उनमें नशाखोरी बढ़ रही है। उनको माता पिता का साया मिलना मुश्किल हो रहा है। विज्ञापन युग की बाजारवादी संस्कृति के बारे में ज्यां बोद्रिला कहते हैं कि इस विकराल उपभोग से जन्मी संस्कृति ही हमारे समय की संस्कृति है। इस संस्कृति ने सभी परंपरागत मूल्यों-अवधारणाओं को खत्म कर दिया है। हम ‘आर्थिक मनुष्य’ बनने की विवशता झेल रहे हैं, जिसमें कलाओं के लिए जगह ही नहीं बची है, पुस्तकों को क्यों पढ़ें? उनका संसार खिन्नता की मन:स्थिति रचता है। वाल्टर बेंजामिन ने टेक्नोलॉजी के उदय में मनुष्य की मुक्ति का जो सपना देखा था वह टूट चुका है। टेक्नोलॉजी ने भयानक दासता को जन्म देकर हमें कब्जे में कर लिया है। आज उपभोग की संस्कृति ने नैतिक मूल्यों को अपदस्थ कर दिया है। इस सदी के भारत में बेरोजगारी नहीं बल्कि लोगों में बढ़ रही अपसंस्कृति की समस्या प्रमुख होगी। यह समस्या समाज के लिए चुनौती बन कर उभर चुकी है।
मंगलवार, जून 11, 2013
रिपोर्ट न लिखने पर पुलिसकर्मी को जेल हो सकती है
परंतु पुलिस के आचरण में आज भी कोई खास बदलाव नहीं दिखता है। गांवों से
लेकर महानगरों तक में पुलिस सुधार की तमाम बातें अभी तक हवा-हवाई ही साबित
हुई हैं। अहम सवाल यह है कि लोगों की रक्षा करने वाली पुलिस लोगों को
परेशान करने वाली भूमिका में आखिर क्यों नजर आती है?
रिपोर्ट न लिखने पर पुलिसकर्मी को जेल हो सकती है। यह अच्छी शुरुआत है जो पुलिस के रवैये को बदल सकती है। यानी एफआईआर को दर्ज करने से इंकार करने वाले पुलिसकर्मियों को जेल भेजा जाएगा। सामान्यत: कई पुलिस कर्मियों की आदत में शुमार हो चुका है कि वे प्रथम सूचना रिपोर्ट लिखाने गए व्यक्ति को ही थाने में बिठा लेते हैं। रिपोर्ट लिखने में आनाकानी करते हैं। यह कहना कि यह हमारे थाना क्षेत्र का मामला नहीं है। कई बार प्रभावशाली व्यक्ति को पहले सूचित करना कि आपके खिलाफ हमारे यहां रिपोर्ट करवाने के लिए फलां व्यक्ति आया है। कानून और व्यवस्था के लिए जिम्मेदार पुलिस महकमे पर यह सबसे गैर जिम्मेदार होने वाले आरोप लगते रहे हैं। ये आरोप सिर्फ आरोप नहीं हैं। इन आरोपों के पीछे तथ्य भी हैं। यहां हम पूरे देश की पुलिस की बात कर रहे हैं लेकिन मध्यप्रदेश के संदर्भ में बात करें तो पुलिस के खिलाफ शिकायत दर्ज कराने के मामले में मध्य प्रदेश देश में दूसरे पायदान पर है। उत्तर प्रदेश तीसरे, जबकि दिल्ली पहले स्थान पर है। देश में 2011 के दौरान पुलिसकर्मियों के खिलाफ शिकायतें मिलने के मामले में केंद्र शासित प्रदेशों की फेहरिस्त में दिल्ली अव्वल रहा। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) की सालाना रिपोर्ट ‘भारत में अपराध 2011’ के मुताबिक, दिल्ली में पुलिस कर्मियों के खिलाफ सर्वाधिक 12,805 शिकायतें मिलीं। उत्तर प्रदेश में पुलिस के खिलाफ मिली शिकायतों की संख्या 11,971 है, जबकि मध्यप्रदेश में पुलिस वालों के खिलाफ 10,683 शिकायतें मिलीं। इसमें एक तथ्य और है। देश में पुलिस के खिलाफ की गई शिकायतों में 47 प्रतिशत शिकायतें झूठी साबित हुई हैं या आरोप प्रमाणित नहीं हो सके। और 53 प्रतिशत में सत्यता पाई गई।शिकायत और अन्य अरोपों के अलावा जन सामान्य में पुलिस की छवि का महत्वपूर्ण स्थान है। सामान्य सत्य लंबे अनुभव और बार बार दोहराव से जन्म लेते हैं। इस प्रयास का प्रतिफल क्या मिलेगा यह बाद में पता चलेगा परंतु पुलिस के आचरण में आज भी कोई खास बदलाव नहीं दिखता है। गांवों से लेकर महानगरों तक में पुलिस सुधार की तमाम बातें अभी तक हवा-हवाई ही साबित हुई हैं। अहम सवाल यह है कि लोगों की रक्षा करने वाली पुलिस लोगों को परेशान करने वाली भूमिका में आखिर क्यों नजर आती है? इसके पीछे अंग्रेजों के जमाने में बना पुलिस अधिनियम है। जब 1857 का विद्रोह को अंग्रजों ने दबा दिया तो यह बात उठी की भविष्य में ऐसे विद्रोह नहीं हो पाएं। इसी के परिणामस्वरूप 1861 का पुलिस अधिनियम बना। इसके जरिए अंग्रेजों की यह कोशिश थी कि कोई भी नागरिक सरकार के खिलाफ कहीं से भी कोई विरोध का स्वर नहीं उठ पाए। पुलिस अग्रेजों की इच्छा के अनुरुप परिणाम भी देती रही।1947 में कहने के लिए अपना संविधान बन गया। लेकिन नियम-कानून अंग्रेजों के जमाने वाले ही रहे। आज इसे बदलने के इस प्रयास को पुलिस की संवेदनशीलता और जिम्मेदारी से जोड़कर देखा जाना चाहिए।
रिपोर्ट न लिखने पर पुलिसकर्मी को जेल हो सकती है। यह अच्छी शुरुआत है जो पुलिस के रवैये को बदल सकती है। यानी एफआईआर को दर्ज करने से इंकार करने वाले पुलिसकर्मियों को जेल भेजा जाएगा। सामान्यत: कई पुलिस कर्मियों की आदत में शुमार हो चुका है कि वे प्रथम सूचना रिपोर्ट लिखाने गए व्यक्ति को ही थाने में बिठा लेते हैं। रिपोर्ट लिखने में आनाकानी करते हैं। यह कहना कि यह हमारे थाना क्षेत्र का मामला नहीं है। कई बार प्रभावशाली व्यक्ति को पहले सूचित करना कि आपके खिलाफ हमारे यहां रिपोर्ट करवाने के लिए फलां व्यक्ति आया है। कानून और व्यवस्था के लिए जिम्मेदार पुलिस महकमे पर यह सबसे गैर जिम्मेदार होने वाले आरोप लगते रहे हैं। ये आरोप सिर्फ आरोप नहीं हैं। इन आरोपों के पीछे तथ्य भी हैं। यहां हम पूरे देश की पुलिस की बात कर रहे हैं लेकिन मध्यप्रदेश के संदर्भ में बात करें तो पुलिस के खिलाफ शिकायत दर्ज कराने के मामले में मध्य प्रदेश देश में दूसरे पायदान पर है। उत्तर प्रदेश तीसरे, जबकि दिल्ली पहले स्थान पर है। देश में 2011 के दौरान पुलिसकर्मियों के खिलाफ शिकायतें मिलने के मामले में केंद्र शासित प्रदेशों की फेहरिस्त में दिल्ली अव्वल रहा। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) की सालाना रिपोर्ट ‘भारत में अपराध 2011’ के मुताबिक, दिल्ली में पुलिस कर्मियों के खिलाफ सर्वाधिक 12,805 शिकायतें मिलीं। उत्तर प्रदेश में पुलिस के खिलाफ मिली शिकायतों की संख्या 11,971 है, जबकि मध्यप्रदेश में पुलिस वालों के खिलाफ 10,683 शिकायतें मिलीं। इसमें एक तथ्य और है। देश में पुलिस के खिलाफ की गई शिकायतों में 47 प्रतिशत शिकायतें झूठी साबित हुई हैं या आरोप प्रमाणित नहीं हो सके। और 53 प्रतिशत में सत्यता पाई गई।शिकायत और अन्य अरोपों के अलावा जन सामान्य में पुलिस की छवि का महत्वपूर्ण स्थान है। सामान्य सत्य लंबे अनुभव और बार बार दोहराव से जन्म लेते हैं। इस प्रयास का प्रतिफल क्या मिलेगा यह बाद में पता चलेगा परंतु पुलिस के आचरण में आज भी कोई खास बदलाव नहीं दिखता है। गांवों से लेकर महानगरों तक में पुलिस सुधार की तमाम बातें अभी तक हवा-हवाई ही साबित हुई हैं। अहम सवाल यह है कि लोगों की रक्षा करने वाली पुलिस लोगों को परेशान करने वाली भूमिका में आखिर क्यों नजर आती है? इसके पीछे अंग्रेजों के जमाने में बना पुलिस अधिनियम है। जब 1857 का विद्रोह को अंग्रजों ने दबा दिया तो यह बात उठी की भविष्य में ऐसे विद्रोह नहीं हो पाएं। इसी के परिणामस्वरूप 1861 का पुलिस अधिनियम बना। इसके जरिए अंग्रेजों की यह कोशिश थी कि कोई भी नागरिक सरकार के खिलाफ कहीं से भी कोई विरोध का स्वर नहीं उठ पाए। पुलिस अग्रेजों की इच्छा के अनुरुप परिणाम भी देती रही।1947 में कहने के लिए अपना संविधान बन गया। लेकिन नियम-कानून अंग्रेजों के जमाने वाले ही रहे। आज इसे बदलने के इस प्रयास को पुलिस की संवेदनशीलता और जिम्मेदारी से जोड़कर देखा जाना चाहिए।
बुधवार, मई 29, 2013
मोबाइल की रिंगटोन खतरे की घंटी हो सकती
एक छोटे से कस्बे की खबर है कि बैरसिया में लोग मोबाइल टॉव के रेडिएशन से परेशान हैं। आबादी के बीचों बीच नियमों की अनदेखी करने का परिणाम आम जनता को उठाना पड़ रहा है। अत्यधिक आवृत्ति के मोबाइल टॉवर शहर के बीच स्थापित होना एक बड़ी उपेक्षा का परिणाम है। आने वाले समय में मोबाइल की रिंगटोन खतरे की घंटी हो सकती है। मोबाइल फोन और टावर से निकलने वाला रेडिएशन सेहत के लिए खतरा साबित हो सकता है। टॉवरों की संख्या बढ़ने के साथ रेडिएशन का खतरा भी बढ़ता जा रहा है। देश में लागू इंटरनेशनल कमिशन आॅन नॉन आयोनाइजिंग रेडिएशन के दिशा निर्देश के अनुसार, जीएसएम टावरों के लिए रेडिएशन लिमिट 4500 मिलीवॉट/मी. स्क्वेयर तय की गई थी। ये सीताएं शॉर्ट-टर्म एक्सपोजर के लिए थीं, जबकि मोबाइल टॉवर से लगातार रेडिएशन होता है। अब इस लिमिट को कम कर 450 मिलीवॉट/मी. स्क्वेयर करने की बात होने लगी है। जानकारों के अनुसार यह लिमिट भी बहुत ज्यादा है और सिर्फ 1 मिलीवॉट/मी. स्क्वेयर रेडिशन भी मनुष्य और पशुपक्षियों को नुकसान देता है। भारत की बात छोड़ें तो यही वजह है कि आॅस्ट्रिया में 1 मिलीवॉट/मी. स्क्वेयर और साउथ वेल्स, आॅस्ट्रेलिया में 0.01 मिलीवॉट/मी. स्क्वेयरकी सीमा तय की गई है। मोबाइल रेडिएशन पर कई रिसर्च पेपर तैयार कर चुके आईआईटी बॉम्बे में इलेक्ट्रिकल इंजिनियरों का कहना है कि मोबाइल रेडिएशन से तमाम दिक्कतें हो सकती हैं, जिनमें प्रमुख हैं सिरदर्द, सिर में झनझनाहट, लगातार थकान, चक्कर, डिप्रेशन, नींद न आना, आंखों में ड्राइनेस, काम में ध्यान न लगना, कानों का बजना, सुनने में कमी, याददाश्त में कमी, पाचन में गड़बड़ी, अनियमित धड़कन, जोड़ों में दर्द आदि। एक अन्य अध्ययन के अनुसार मोबाइल रेडिएशन से लंबे समय के बाद प्रजनन क्षमता में कमी, कैंसर, ब्रेन ट्यूमर और मिस-कैरेज की आशंका भी हो सकती है। इसका कारण है कि हमारे शरीर में 70 फीसदी पानी है। दिमाग में भी 90 फीसदी तक पानी होता है। यह पानी धीरे-धीरे बॉडी रेडिएशन को अब्जॉर्ब करता है और आगे जाकर सेहत के लिए काफी नुकसानदेह होता है। यहां तक कि बीते साल आई डब्ल्यूएचओ की रिपोर्ट के अनुसार मोबाइल रेडिएशन से कैंसर तक होने की आशंका हो सकती है। इंटरफोन स्टडी में कहा गया कि हर दिन आधे घंटे या उससे ज्यादा मोबाइल का इस्तेमाल करने पर 8-10 साल में ब्रेन ट्यूमर की आशंका 200-400 फीसदी बढ़ जाती है। ये माइक्रोवेव रेडिएशन उन इलेक्ट्रोमैग्नेटिक वेव्स के कारण होता है, जिनकी आवृत्ति 1000 से 3000 मेगाहर्ट्ज होती है। माइक्रोेवेव अवन, एसी, वायरलेस कंप्यूटर, कॉर्डलेस और दूसरे वायरलेस डिवाइस भी रेडिएशन पैदा करते हैं। इस मामले में देश की सरकारें और नीति बनाने वाले लोग कंपनियों के दबाव में काम करते हैं। आज अवश्यकता है कि इस मामले को सार्वजनिक स्वास्थ्य से जोड़ कर व्यापक हित में देखा जाना चाहिए।
सोमवार, अप्रैल 15, 2013
जल संकट
जल संकट गांव पूरी धरती की समस्या बन चुकी है। पानी बचाने के लिए कहीं कुछ किया जाता है तो वह दुनिया के लिए किया गया काम है।
होशंगाबाद जिला पंचायत की बैठक में पेयजल की कमी पर की जा रही तैयारियों ने सबका ध्यान खींचा है। यह समस्या पूरे मध्यप्रदेश की होने जा रही है। प्रदेश में पेयजल की संघर्ष गाथा अप्रैल के आगमन के साथ कई समस्याओं के साथ सामने आ चुकी है। एक सरकारी रिपोर्ट के अनुसार प्रदेश के अधिसंख्य संभाग शहरी और ग्रामीण स्तर पर जल संकट में घिरते नजर आ रहे हैं। आज हालत ये है कि प्रदेश के 365 शहरी निकायों में से 24 प्रतिशत निकायों में पेयजल आपूर्ति गड़बड़ाने लगी है। पानी की गंभीर स्थिति के चलते कुछ ही हफ्तों में भोपाल जिला भी भूजल दोहन के आधार पर खतरनाक जÞोन में पहुंचने के करीब है। भोपाल जिले को ग्रे जोन में रखा गया है। इंदौर के कई निकायों में बहुत कम पानी की आपूर्ति हो पा रही है। प्रदेश के 90 प्रतिशत गांव पेयजल संकट की ओर जा रहे हैं। गंभीर भूजल स्तर के चलते हैंडपंप भी अपना दम तोड़ते नजर आ रहे हैं।
मध्यप्रदेश में ही नहीं पूरे देश में 1980 के दशक के शुरूआती वर्षों में पानी के संकट के संकेत नजर आने लगे थे। तब न तो सरकार ने कोई ठोस पहल की और न समाज ने इस तरफ ध्यान दिया था। कई अन्तर्राष्ट्रीय वित्तीय संस्थाएं इस संकट को इतना गंभीर बना देना चाहती थीं कि लोग पानी के निजीकरण और बाजारीकरण का समर्थन करने लगें। आज यह स्थिति बनने भी लगी है। मध्यप्रदेश में जनगणना 2011 के आंकड़ों के अनुसार प्रदेश के 36 प्रतिशत लोग पेयजल के लिए दूर-दूर तक भटकने के लिए मजबूर हैं। विडम्बना यह है कि तेज विकास के इस दौर में लोगों से पानी दूर होने लगा है। इस स्थिति में गंभीर प्रयास आवश्यक हैं। प्राकृतिक संसाधनों का प्रबंधन स्तरहीन दृष्टिकोण और दूरदशिर्ता के बिना संभव नहीं हो सकता। प्राकृतिक जल को संरक्षित करने के लिए एक उच्च स्तरीय पहल होना आवश्यक है। अदूरदर्शित वाली नीतियों से यह संभव नहीं हो सकता है। मध्यप्रदेश में वर्षा जल का 90 प्रतिशत पानी संरक्षित नहीं किया जा रहा है। पानी संरक्षण में सबसे अधिक भ्रष्टाचार है। अधिकांश स्टाप डेम संरचनागत खामियों और घटिया निर्माण के चलते अनुपयोगी पड़े हैं। सरकार भूजल प्रबंधन के नाम पर भूजल दोहन की प्रवृत्ति को बढ़ावा दे रही है। हर बार पंचवर्षीय योजनाओं में पुराने नलकूप बंद करके और गहरे नए नलकूप का निर्माण करने के लिए किया जाते रहे हैं लेकिन इससे समस्या सिर्फ तात्कालिक ढंग से दूर होती है। प्रदेश के 5400 गांवों में पानी मुश्किल से मिल पा रहा है। जल संकट से मुक्ति के लिए बारिश के पानी को व्यर्थ बहने से बचाना एक महत्वपूर्ण उपाय है किन्तु यह भी स्थानीय समाज, स्थानीय भौगोलिक स्थिति, घनत्व और बारिश की मात्रा के आधार पर निर्भर होता है। लेकिन सरकार पानी संबंर्धन को एक ही योजना के तहत लागू करती है जिसमे जल संरक्षण में स्थानीय कारकों को उपेक्षित किया जाता है। इससे योजनाएं असफल साबित होती हैं। वतर्मान जल संकट से निबटने के लिए एक दूरदशिर्ता से परिपूर्ण जल नीति की आवश्यकता है।
होशंगाबाद जिला पंचायत की बैठक में पेयजल की कमी पर की जा रही तैयारियों ने सबका ध्यान खींचा है। यह समस्या पूरे मध्यप्रदेश की होने जा रही है। प्रदेश में पेयजल की संघर्ष गाथा अप्रैल के आगमन के साथ कई समस्याओं के साथ सामने आ चुकी है। एक सरकारी रिपोर्ट के अनुसार प्रदेश के अधिसंख्य संभाग शहरी और ग्रामीण स्तर पर जल संकट में घिरते नजर आ रहे हैं। आज हालत ये है कि प्रदेश के 365 शहरी निकायों में से 24 प्रतिशत निकायों में पेयजल आपूर्ति गड़बड़ाने लगी है। पानी की गंभीर स्थिति के चलते कुछ ही हफ्तों में भोपाल जिला भी भूजल दोहन के आधार पर खतरनाक जÞोन में पहुंचने के करीब है। भोपाल जिले को ग्रे जोन में रखा गया है। इंदौर के कई निकायों में बहुत कम पानी की आपूर्ति हो पा रही है। प्रदेश के 90 प्रतिशत गांव पेयजल संकट की ओर जा रहे हैं। गंभीर भूजल स्तर के चलते हैंडपंप भी अपना दम तोड़ते नजर आ रहे हैं।
मध्यप्रदेश में ही नहीं पूरे देश में 1980 के दशक के शुरूआती वर्षों में पानी के संकट के संकेत नजर आने लगे थे। तब न तो सरकार ने कोई ठोस पहल की और न समाज ने इस तरफ ध्यान दिया था। कई अन्तर्राष्ट्रीय वित्तीय संस्थाएं इस संकट को इतना गंभीर बना देना चाहती थीं कि लोग पानी के निजीकरण और बाजारीकरण का समर्थन करने लगें। आज यह स्थिति बनने भी लगी है। मध्यप्रदेश में जनगणना 2011 के आंकड़ों के अनुसार प्रदेश के 36 प्रतिशत लोग पेयजल के लिए दूर-दूर तक भटकने के लिए मजबूर हैं। विडम्बना यह है कि तेज विकास के इस दौर में लोगों से पानी दूर होने लगा है। इस स्थिति में गंभीर प्रयास आवश्यक हैं। प्राकृतिक संसाधनों का प्रबंधन स्तरहीन दृष्टिकोण और दूरदशिर्ता के बिना संभव नहीं हो सकता। प्राकृतिक जल को संरक्षित करने के लिए एक उच्च स्तरीय पहल होना आवश्यक है। अदूरदर्शित वाली नीतियों से यह संभव नहीं हो सकता है। मध्यप्रदेश में वर्षा जल का 90 प्रतिशत पानी संरक्षित नहीं किया जा रहा है। पानी संरक्षण में सबसे अधिक भ्रष्टाचार है। अधिकांश स्टाप डेम संरचनागत खामियों और घटिया निर्माण के चलते अनुपयोगी पड़े हैं। सरकार भूजल प्रबंधन के नाम पर भूजल दोहन की प्रवृत्ति को बढ़ावा दे रही है। हर बार पंचवर्षीय योजनाओं में पुराने नलकूप बंद करके और गहरे नए नलकूप का निर्माण करने के लिए किया जाते रहे हैं लेकिन इससे समस्या सिर्फ तात्कालिक ढंग से दूर होती है। प्रदेश के 5400 गांवों में पानी मुश्किल से मिल पा रहा है। जल संकट से मुक्ति के लिए बारिश के पानी को व्यर्थ बहने से बचाना एक महत्वपूर्ण उपाय है किन्तु यह भी स्थानीय समाज, स्थानीय भौगोलिक स्थिति, घनत्व और बारिश की मात्रा के आधार पर निर्भर होता है। लेकिन सरकार पानी संबंर्धन को एक ही योजना के तहत लागू करती है जिसमे जल संरक्षण में स्थानीय कारकों को उपेक्षित किया जाता है। इससे योजनाएं असफल साबित होती हैं। वतर्मान जल संकट से निबटने के लिए एक दूरदशिर्ता से परिपूर्ण जल नीति की आवश्यकता है।
बुधवार, अप्रैल 03, 2013
अपनी पसंद का लोकपाल बिल
ऐसा लगता है कि नरेंद्र मोदी मर्यादा से शक्ति ग्रहण करने की जगह, अपने अति आग्रहों से शक्ति ग्रहण करने की कोशिश कर रहे हैं। इस कोशिश ने उन्हें कमतर साबित किया है।
सु प्रीम कोर्ट में केस हारने के बाद गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपनी पसंद का लोकपाल बिल अपनी विधानसभा में पास करवा लिया है और शायद वे अब खुश हैं। लेकिन क्या यह काम एक नीतिज्ञ राजनेता के लिए उचित की श्रेणी में होगा? भारत का सर्वोच्च न्यायालय अब तक के अपने बेखौफ और शानदार न्यायिक फैसलों के लिए जाना जाता रहा है। उस सर्वोच्च न्यायालय में हारने के बाद नरेंद्र मोदी ने जो कदम उठाया वह गरिमा से युक्त नहीं कहा जा सकता। गुजरात में लोकायुक्त विवाद पुराना है। वहां 2003 से लेकर 2011 तक लोकायुक्त का पद खाली रहा। आठ साल बाद जब राज्यपाल कमला बेनीवाल ने सेवानिवृत्त जस्टिस आरए मेहता को गुजरात का लोकायुक्त बनाया तो मोदी को यह कदम पसंद नहीं आया। गुजरात सरकार ने हाईकोर्ट से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक राज्यपाल के फैसले को चुनौती दी। लेकिन नरेंद्र मोदी सुप्रीम कोर्ट से भी लौटना ही पड़ा। आज मोदी ने विधेयक पारित करवा कर जो कदम उठाया है, वे यह कदम सुप्रीम कोर्ट में जाने से पहले उठाते तो बात कुछ और हो सकती थी। सुप्रीम कोर्ट से लौटने के बाद यह कदम देश की संवैधानिक संस्थाओं के प्रति उनके दृष्टिकोण में कितना सम्मान है, इसका परिचायक भी है। गुजरात राज्य विधानसभा द्वारा पारित इस विधेयक के आने के बाद लोकायुक्त की नियुक्ति में राज्यपाल की कोई भूमिका नहीं रह जाएगी। गुजरात में लोकायुक्त की नियुक्ति का अंतिम दारोमदार नरेंद्र मोदी या जो भी मुख्यमंत्री होगा उसका होगा। इस विधेयक ने मोदी के दृष्टिकोण को भी जनता के सामने रख दिया है। इससे पहले राज्यपाल द्वारा नियुक्त जस्टिस आरए मेहता की नियुक्ति को गुजरात सरकार दो बार हाई कोर्ट में और सुप्रीम कोर्ट में तीन बार चुनौती दे चुके हैं। एक बार फिर वे क्यूरेटिव बेंच में अपील करने जा रहे हैं। एक सवाल ये भी है कि एक चाकचौबंद ईमानदार सरकार के लिए लोकायुक्त कोई भी हो क्या फर्क पड़ने वाला है? अपनी पसंद के प्रमुख को संवैधानिक संस्था में नियुक्ति का अति आग्रह किसी कमजोरी की ओर भी इशारा करता है। ऐसे में क्या यह माना जाए कि नरेंद्र मोदी अपनी बादशाहत में आड़े आ रहे सभी कांटे दूर करने की तैयारी में जुट गए हैं? क्या लोकायुक्त की नियुक्त पर सुप्रीम कोर्ट से पटखनी खा चुके मोदी अब हिसाब बराबर करने कर रहे हैं। मोदी सरकार के नए विधेयक से लोकायुक्त की नियुक्ति प्रक्रिया में आमूलचूल बदलाव हो चुका है। नए विधेयक में राज्यपाल की विवेकाधीन शक्तियों को खत्म कर दिया गया है। अब लोकायुक्त की नियुक्ति एक खास चयन समिति की सिफारिशों के आधार पर होगी। इस समिति में राज्य के मुख्यमंत्री अध्यक्ष की भूमिका में होंगे। अब लोकपाल की नियुक्ति में राज्यपाल की भूमिका नहीं रह जाएगी। लेकिन यह एक दूरगामी प्रभाव पैदा करने वाला कदम है। इस तरह के प्रयास देश को संवैधानिक रुक्षता की ओर ले जा सकते हैं। राजनीतिक पक्ष विपक्ष एक मुद्दा हो सकता है लेकिन देश की संवैधानिक व्यवस्था में सरकार हो या फिर व्यक्ति अति आग्रही होकर उठाए गए कदम उसके ढांचे को आहत करते हैं।
सु प्रीम कोर्ट में केस हारने के बाद गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपनी पसंद का लोकपाल बिल अपनी विधानसभा में पास करवा लिया है और शायद वे अब खुश हैं। लेकिन क्या यह काम एक नीतिज्ञ राजनेता के लिए उचित की श्रेणी में होगा? भारत का सर्वोच्च न्यायालय अब तक के अपने बेखौफ और शानदार न्यायिक फैसलों के लिए जाना जाता रहा है। उस सर्वोच्च न्यायालय में हारने के बाद नरेंद्र मोदी ने जो कदम उठाया वह गरिमा से युक्त नहीं कहा जा सकता। गुजरात में लोकायुक्त विवाद पुराना है। वहां 2003 से लेकर 2011 तक लोकायुक्त का पद खाली रहा। आठ साल बाद जब राज्यपाल कमला बेनीवाल ने सेवानिवृत्त जस्टिस आरए मेहता को गुजरात का लोकायुक्त बनाया तो मोदी को यह कदम पसंद नहीं आया। गुजरात सरकार ने हाईकोर्ट से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक राज्यपाल के फैसले को चुनौती दी। लेकिन नरेंद्र मोदी सुप्रीम कोर्ट से भी लौटना ही पड़ा। आज मोदी ने विधेयक पारित करवा कर जो कदम उठाया है, वे यह कदम सुप्रीम कोर्ट में जाने से पहले उठाते तो बात कुछ और हो सकती थी। सुप्रीम कोर्ट से लौटने के बाद यह कदम देश की संवैधानिक संस्थाओं के प्रति उनके दृष्टिकोण में कितना सम्मान है, इसका परिचायक भी है। गुजरात राज्य विधानसभा द्वारा पारित इस विधेयक के आने के बाद लोकायुक्त की नियुक्ति में राज्यपाल की कोई भूमिका नहीं रह जाएगी। गुजरात में लोकायुक्त की नियुक्ति का अंतिम दारोमदार नरेंद्र मोदी या जो भी मुख्यमंत्री होगा उसका होगा। इस विधेयक ने मोदी के दृष्टिकोण को भी जनता के सामने रख दिया है। इससे पहले राज्यपाल द्वारा नियुक्त जस्टिस आरए मेहता की नियुक्ति को गुजरात सरकार दो बार हाई कोर्ट में और सुप्रीम कोर्ट में तीन बार चुनौती दे चुके हैं। एक बार फिर वे क्यूरेटिव बेंच में अपील करने जा रहे हैं। एक सवाल ये भी है कि एक चाकचौबंद ईमानदार सरकार के लिए लोकायुक्त कोई भी हो क्या फर्क पड़ने वाला है? अपनी पसंद के प्रमुख को संवैधानिक संस्था में नियुक्ति का अति आग्रह किसी कमजोरी की ओर भी इशारा करता है। ऐसे में क्या यह माना जाए कि नरेंद्र मोदी अपनी बादशाहत में आड़े आ रहे सभी कांटे दूर करने की तैयारी में जुट गए हैं? क्या लोकायुक्त की नियुक्त पर सुप्रीम कोर्ट से पटखनी खा चुके मोदी अब हिसाब बराबर करने कर रहे हैं। मोदी सरकार के नए विधेयक से लोकायुक्त की नियुक्ति प्रक्रिया में आमूलचूल बदलाव हो चुका है। नए विधेयक में राज्यपाल की विवेकाधीन शक्तियों को खत्म कर दिया गया है। अब लोकायुक्त की नियुक्ति एक खास चयन समिति की सिफारिशों के आधार पर होगी। इस समिति में राज्य के मुख्यमंत्री अध्यक्ष की भूमिका में होंगे। अब लोकपाल की नियुक्ति में राज्यपाल की भूमिका नहीं रह जाएगी। लेकिन यह एक दूरगामी प्रभाव पैदा करने वाला कदम है। इस तरह के प्रयास देश को संवैधानिक रुक्षता की ओर ले जा सकते हैं। राजनीतिक पक्ष विपक्ष एक मुद्दा हो सकता है लेकिन देश की संवैधानिक व्यवस्था में सरकार हो या फिर व्यक्ति अति आग्रही होकर उठाए गए कदम उसके ढांचे को आहत करते हैं।
शुक्रवार, मार्च 29, 2013
रिचर्ड मेरीमैन : यह साक्षात्कार पूरी तरह से आपके कार्य
और आपकी
कला पर आधारित है, इसके
अतिरिक्त और कुछ नहीं। मैं आपके कार्य के बारे में एक झलक पाठकों को देना चाहता हूं।
चार्ली चैप्लिन : अपने कार्य के प्रति पूरी ईमानदारी ही मेरा मूल चरित्र है। अपने किए गए प्रत्येक कार्य के लिए मैं बहुत संजीदा रहता हूं। यदि मैं कोई अन्य कार्य इससे बेहतर तरीके से कर पाता, तो वही करता, लेकिन मैं अपने कार्य के अतिरिक्त और कुछ नहीं जानता।
मेरीमैन : आपने
ट्रैम्प की रूपरेखा कब निर्मित
की थी ?
चैप्लिन : वह एक आपात स्थिति की पैदाइश था। एक कैमरामैन ने मुझसे कहा कि कुछ मजाकिया किस्म का मेकअप करो, और मुझे बिल्कुल भी आइडिया नहीं था कि मैं क्या करता। मैं ड्रेस डिपार्टमेंट में गया और रास्ते में सोचता रहा कि मुझे कुछ विरोधाभासी दिखाना होगा - बैगी पतलून, टाइट कोट, बड़ा सिर और छोटी टोपी - बेतरतीब लेकिन जेंटलमैननुमा।
मुझे अंदाजा नहीं था कि चेहरे-मोहरे पर क्या होगा, लेकिन वह एक उदास और संजीदा चेहरा होना चाहिए। मैं उसका मजाकियापन छुपाना चाहता था, इसलिए छोटी मूंछें इस्तेमाल की थीं। मूंछें हालांकि उस चरित्र का अंश नहीं थीं - बल्कि कहें कि बचकाना थीं। वह कोई मनोभाव छुपा भी नहीं पाती थीं।
मेरीमैन : जब आपने अपनी
तरह देखा
तो आपकी
पहली प्रतिक्रिया क्या थी ?
चैप्लिन : यही कि यह चलेगा। इसके अतिरिक्त और कुछ नहीं। जब तक कि मुझे इसे पहनकर कैमरे के आगे हरकतें न करनी पड़ें तब तक तो कुछ भी नहीं।एंट्रेंस
लेने पर अहसास हुआ कि कपड़ों से लदा हूं और हाव-भाव भी खास हैं। मुझे अच्छा महसूस हुआ और चरित्र स्पष्ट होने लगा था। एक दृश्य (मेबल्स प्रिडिकामेंट का) होटल की लाॅबी मे था जहां ट्रैम्प एक बिन-बुलाया मेहमान है और एक आरामदेह कुर्सी पर बैठकर कुछ देर आराम करने का नाटक करता है। बाकी सब उसकी तरफ शंका भरी नजरों से देख रहे हैं, और मैं वह सब काम करता हूं जो अन्य मेहमान करते हैं, जैसे होटल के रजिस्टर को देखना, सिगरेट निकालकर जलाना, चल रही पैरेड को देखना आदि। और फिर मैं एक दोमुंहे दरवाजे के पास जा गिरता हूं। यह पहला करतब था जो मैंने फिल्मों में किया था। इसके साथ ही उस चरित्र का आगमन हुआ था। मुझे अहसास हुआ कि यह बहुत मजेदार चरित्र है। लेकिन उसके बाद जितने भी किरदार मैंने किए उनमें एक ही फाॅर्मेट इस्तेमाल नहीं हुआ था।
लेकिन एक चीज थी जो समान रही - वह ट्रैम्प की पोशाक नहीं, बल्कि उसका चोट खाया पैर था। वह जितना भी उत्साही दिखता हो, लेकिन उसके पैर थकान भरे दिखते थे। मैंने वार्डरोब वालों से कहा कि मुझे दो बड़े और पुराने जूतों के जोड़े चाहिए थे, क्योंकि मेरे पैर असाधारण रूप से छोटे थे, और मुझे अहसास था कि वह जूते मजाकिया तत्व में वृद्धि कर सकते थे। मैं आमतौर पर शांतिप्रिय हूं, लेकिन बड़े पैरों के साथ ऐसा दिखना बहुत हास्य पैदा करता।
मेरीमैन : आपकी
राय में क्या ट्रैम्प आधुनिक
समय में सफल रहेगा ?
चैप्लिन : मुझे नहीं लगता कि आज ऐसे किसी व्यक्ति के लिए कोई स्थान है। आज दुनिया कुछ ज्यादा ही व्यवस्थित है। और मुझे नहीं लगता कि आज की दुनिया किसी भी तरह से प्रसन्न है। मुझे तंग कपड़े और लंबे बालों वाले बच्चे दिखते हैं, तो मुझे लगता है कि उनमें से कुछ ट्रैम्प बनना चाहते हैं। लेकिन पहले जैसी आत्मीयता आज नहीं है। उन्हें यह भी नहीं पता कि आत्मीयता क्या होती है, जिससे यह एक दुर्लभ वस्तु बन चुकी है। वह एक अन्य समय में अस्तित्व रखती थी। इसलिए मैं अब पहले जैसा काम नहीं कर सकता। और हां, ध्वनि - यह एक अन्य कारण है। जब सवाक फिल्में आईं तो उस जैसा चरित्र नहीं रहा था। मुझे अंदाजा नहीं था कि उसकी आवाज कैसी होती। इसलिए उसे खत्म होना पड़ा था।
मेरीमैन : आपकी राय में ट्रैम्प की आसाधारण
तत्व क्या
था ?
चैप्लिन : एक आत्मीय और शांत भाव वाली निर्धनता। दरअसल, हर दूसरा कमबख्त चमकदार कपड़े पहनकर नवाब दिखना चाहता है। चरित्र की कमियां ही मुझे प्यारी थीं - बहुत चुनिंदा और हर मायने में बहुत कमजोर। लेकिन ट्रैम्प की अपील के बारे में मैंने कभी नहीं सोचा था। ट्रैम्प मेरे अंदर का अंश था जो मुझे ही संप्रेषित करना था। मुझे आॅडियंस की प्रतिक्रिया से प्रेरणा मिली, लेकिन किसी आॅडियंस से जुड़ा मैंने खुद को नहीं पाया था। दर्शकों की जरूरत उसके फिल्मांकन के बाद शुरू होती थी, उसके बनते हुए नहीं। अपने अंदर मैंने हमेशा एक मजाकिया तत्व को महसूस करता था, जो मुझे कहता था कि मुझे यह संप्रेषित करना ही होगा। यह हास्य से परिपूर्ण था।
मेरीमैन : करतब वाला दृश्य
आपने कैसे
किया ? क्या
यह शून्य
से उपजा
था या उसकी कोई प्रक्रिया
थी ?
चैप्लिन : उसकी कोई प्रक्रिया नहीं थी। श्रेष्ठतम विचार जरूरत के अनुसार जन्म लेते थे। यदि एक अच्छी हास्य परिस्थिति आपके पास होती है तो वह अनेक क्रियाओं के साथ-साथ बनती जाती है। जैसे स्केटिंग रिंक दृश्य - द रिंक में। मैंने स्केट्स पहने और शुरू हो गया था, जबकि दर्शक समझ रहे थे कि मैं गिर पड़ूंगा, वहीं मैं एक पैर पर स्केटिंग करता गया। दर्शकों को ट्रैम्प से इसकी उम्मीद नहीं थी। इसी तरह ‘ईजी स्टीट’ में लैम्पपोस्ट वाले करतब में भी हुआ था। उसमें मैं एक पुलिसवाला बनकर एक बदमाश से निपट रहा था। मैं उसके सिर पर एक डंडे से मारता हूं और मारता चला जाता हूं। यह एक बुरे सपने जैसा था। वह अपनी बाजुएं ऊपर चढ़ाता जाता जैसे कि उस पर मारे जाने का कोई असर न हो रहा हो। फिर वह मुझे उठाकर ऊपर-नीचे करता है। वहां मुझे अहसास हूं, कि इसमें असाधारण शक्ति है, तो वह लैम्पपोस्ट को भी मोड़ सकता है, और ज बवह ऐसा कर रहा होगा, मैं उसकी पीठ पर चढ़ जाउंगा और उसका सिर लाइट-गैस में दे दूंगा। मैंने ऐसी कुछ मजाकिया काम किए जो बिना किसी तैयारी के किए गए थे और उन पर खूब तालियां पिटी थीं।
लेकिन इस सब में बहुत करुणा भी थी। कई बार सारे प्रयास असफल जाते थे। दर्शकों को हंसाने के लिए कुछ नया सोचना जरूरी था। और बिना एक मजाकिया परिस्थिति के आप हंसा नहीं सकते थे। आपको जोकर की तरह कुछ करना होता है, गिरना-पड़ना कुछ भी, लेकिन परिस्थिति मजाकिया होनी चाहिए।
मेरीमैन : क्या आपको ऐसा करते लोग यहां-वहां दिखते थे, या वह सब आपकी कल्पना से ही उपजते थे ?
चैप्लिन : नहीं, हमने अपनी दुनिया खुद बनाई थी। मेरा स्टूडियो कैलिफाॅर्निया
में था। सबसे खुशी के पल वह होते थे जब मैं सेट पर होता था एक आइडिया या किसी कहानी के विचार के साथ, और मुझे अच्छा महसूस होता था, जिसके बाद चीजें खुद रूप लेना शुरू कर देती थीं। कैलीफाॅर्निया और विशेषकर हाॅलीवुड में संध्याकाल अकेलापन लेकर आता है, लेकिन हमारे यहां ऐसा नहीं था, क्योंकि हम हास्य की दुनिया रच रहे थे। वह एक दूसरी दुनिया की तरह का अनुभव था, रोज की भागदौड़ से अलग। वहां बहुत मजा रहता था। वहां बैठकर आधा दिन रिहर्सल करते, फिर शूटिंग करते थे।
मेरीमैन : क्या यथार्थवाद काॅमेडी
का अभिन्न
अंग होता
है ?
चैप्लिन : ओह हां, बिल्कुल। मेरी राय में सिने-निर्माण की दुनिया में एक ऊट-पटांग परिस्थिति को पूर्ण यथार्थ के साथ निभाते हैं। आॅडियंस को यह पता होता है और वह भी उसी मनोभाव में रहती है। यह उनके लिए बेहद यथार्थपूर्ण होता है और साथ ही बेतरतीब भी, और इसी से उन्हें आनंद मिलता है।
मेरीमैन : उसका एक अंश नृशंसता भी होता
है।
चैप्लिन : वह नृशंसता काॅमेडी का बुनियादी तत्व है। शांत और ठहरा हुआ दिखने वाला बेहद अव्यवस्थित होता है, और यदि आप उसमें करुणा भरते हैं तो दर्शक उसे पसंद करते हैं। दर्शक उसमें छिपे जीवन के दंश को पहचानते हैं और उस पर इसलिए हंसते हैं कि वह उस पर रो न पडें़ या उसके दुख से मर ही न जाएं। यदि एक बूढ़ा व्यक्ति एक केले के पत्ते से फिसल कर धीरे से गिरता है, तो हम उस पर नहीं हंसते। परंतु यही व्यक्ति अगर एक चमचमाते कपड़े पहने अकड़ कर चलने वाला जवान हो तो हम हंसते हैं। सभी दुर्भाग्यपूर्ण परिस्थितियां मजाकिया होती हैं, यदि उन्हें हास्य के नजरिए से देखा जाए। जोकरों को देखते समय आप प्रत्येक बेतरतीबी के लिए तैयार रहते हैं। परंतु यदि कोई व्यक्ति किसी रेस्तरां में जाता है और सोचता है कि वह स्मार्ट है, लेकिन उसकी पैंट में एक छेद दिखता है - इस स्थिति को यदि हास्य की दृष्टि से देखा जाए तो वह खासी मजाकिया हो जाती है। विशेषकर तब यदि उसे एक विशेष गरिमामय तरीके से किया जाए।
मेरीमैन : आपकी काॅमेडी कुछ मायनों में घटनाप्रधान भी होती
है। यह एक बौद्धिक क्रियाकलाप नहीं होता,
यह एक घटनाक्रम है जो हास्यप्रधान है।
चैप्लिन : मेरा हमेशा से मानना रहा है कि घटनाओं को जोड़कर ही एक कथा निर्मित होती है, जैसे एक बिलियर्ड टेबल पर पूल गेम। वहां प्रत्येक गेंद अपने आप में एक घटना है। एक दूसरी से टकराती है और आपको असर दिखता है। मैं इस सोच को अपने कार्य में बहुत हद तक इस्तेमाल करता हूं।
मेरीमैन : आपके कार्य
में तेज रफ्तार होती है और घटनाएं एक दूसरे को लांघती
दिखती हैं।
क्या इसमें
आपके निजी
लक्षणा की झलक मिलती है ?
चैप्लिन : मुझे नहीं मालूम कि यह मेरी लक्षणा है या नहीं। मैंने अन्य काॅमेडियंस को देखा है जो अपनी रफ्तार धीमी करते हैं। मुझे लगता है कि रफ्तार में अपनी झलक मैं धीमेपन से अधिक पाता हूं। धीमेपन से चलने लायक आत्मविश्वास मुझमें नहीं है।
लेकिन एक्शन ही सबकुछ नहीं होता। प्रत्येक वस्तु का विकास होना चाहिए, नही ंतो वह सत्य से दूर हो जाती है। आपको एक समस्या है और समय के साथ आप उसे बढ़ता हुआ दिखते हैं। आप उसे बिना मतलब बढ़ता नहीं दिखाते। आप कहते हैं उसका प्राकृतिक निष्कर्ष क्या होगा ? इसके बाद वह समस्या विश्वसनीय तरीके से अधिक गहराती जाती है। यह तार्किक होना चाहिए अन्यथा आप काॅमेडी तो करेंगे, परंतु वह एक उत्साहजनक काॅमेडी नहीं होगी।
मेरीमैन : क्या
संवेदनात्मकता या दोहराव से आप तंग होते हैं ?
चैप्लिन : नहीं, पेंटोमाइम में नहीं। आप तंग नहीं होते, बल्कि उसे दूर रखते हैं। और मैं दोहराव से नहीं डरता - पूरा जीवन ही दोहराव है। हम किसी किस्म की मौलिकता से रूबरू नहीं होते। हम सब तीनों समय का खाना खाकर जीते हैं, मर जाते हैं, प्यार करते हैं। एक प्रेम कहानी से अधिक दोहराव और कुछ नहीं होता, लेकिन वह होती रहनी चाहिए, जब तक कि उसे रोचक तरीके से दिखाया जाता रहे।
मेरीमैन : क्या आपको जूता
खाने वाला
दृश्य (गोल्ड
रश में) कई बार करना
पड़ा था ?
चैप्लिन : उस दृश्य पर दो दिन तक रीटेक हुए थे। वह अभिनेता मैक स्वेन दो दिन से बीमार थे। जूते मुलैठी के बने हुए थे और वह कई सारे खा चुके थे। उन्होंने मुझसे कहा, ‘मैं और अधिक ये जूते नहीं खा सकता!’ दरअसल मुझे यह विचार एक डाॅनर पार्टी से आया था (81 खोजकर्ताओं की एक वैगन रेल, जो 1846 में कैलिफाॅर्निया जा रही थी और सियेरा नेवाडा में बर्फ में फंस गई थी)। वह एक दूसरे का मांस खाने लगे थे और जूते भी। मुझे विचार आया गर्म पानी में उबला जूता ? यह हास्य से भरपूर था।
लेकिन कहानी को आगे बढ़ाना मेरे लिए तब तक बहुत कष्टकारी था जब तक एक सरल निष्कर्ष नहीं निकलता: भूख। जब आप एक परिस्थिति के तर्क को सुलझाते हैं, तब उसकी व्यावहारिकता,
यथार्थ और उसके पूर्ण होने से जुड़े विचार आप तक जल्दी आ पहुंचते हैं। यह पिक्चर के सबसे कुशल पहलुओं में से एक है।
मेरीमैन : क्या सवाक फिल्मों
में उतरने
से जुड़ी
कुछ शंकाएं
आपके मन में थीं ?
चैप्लिन : हां, बिल्कुल। सबसे पहले तो यह कि मेरे पास अनुभव था, लेकिन अकादमिक प्रशिक्षण नहीं, और यह बहुत बड़ा फर्क था। मुझे महसूस हुआ कि मेरे पास प्रतिभा है और मैं एक प्राकृतिक अभिनेता भी हूं। यह भी कि पेंटोमाइम से मैं खुद को अधिक जुड़ा पाता बजाय बोलने के। मैं एक कलाकार हूं और बोलने में बहुत कुछ समाप्त हो जाएगा। मैं अन्य उन अभिनेताओं से अलग नहीं दिखूंगा जिनके पास अच्छी संवाद अदायगी और बेहतरीन आवाज है, और यह केवल आधी जंग जीतने जैसा ही हुआ।
मेरीमैन : क्या यह प्रश्न यथार्थ के एक अन्य सिरे
से भी जुड़ा था जो मूक फिल्मों की फंतासी को भंग कर देता ?
चैप्लिन : हां। मैं हमेशा से यह कहता आया था कि पैंटोमाइम कहीं अधिक काव्यात्मक है और उसमें एक यूनिवर्सल अपील भी है, और यदि उसे बेहतर तरीके से किया जाए तो सब उसका मतलब समझ सकते हैं। बोले गए शब्द एक खास किस्म के धाराप्रवाह तक सबको सीमित कर देते हैं। आवाज एक खूबसूरत चीज है, बहुत कुछ बताती है, और मैं अपनी कला के बारे में सबकुछ नहीं बता देना चाहता क्योंकि वह भी एक सीमा दर्शाएगा। ऐसे बहुत कम लोग हैं जो आवाज के साथ अनंत गहराई के मायालोक को दिखाते हैं या उस तक पहुंचते हैं, जबकि शारीरिक भंगिमाएं उतनी ही प्राकृतिक हैं जितनी कि एक पक्षी का उड़ना। आंखों के भाव - उनके लिए कोई शब्द नहीं हैं। चेहरे के शुद्ध भाव जो लोग छुपा नहीं पाते - यदि वह निराशा से जुड़े हैं तो वह सतही नहीं होंगे। सवाक फिल्मों में आने से पूर्व मुझे यह सब याद रखना पड़ा था। मुझे पता था कि भावों के निरूपण में मुझे बहुत कुछ खोना पड़ेगा। वह सब पहले जितना अच्छा नहीं होगा।
मेरीमैन : कोई एक फिल्म जो आपकी पसंदीदा हो ?
चैप्लिन : मेरे विचार से सिटी लाइट्स। वह बहुत मजबूत और अच्छी बन पड़ी है। सिटी लाइट्स एक सच्ची काॅमेडी है।
मेरीमैन : वह एक मजबूत
फिल्म है। मुझे जो अंश पसंद आया वह यह कि काॅमेडी
और टेजिडी
कितने नजदीक
हो सकते
हैं।
चैप्लिन : उसमें मेरी रुचि नहीं थी। मैं समझता हूं कि वह एक अहसास है, व्यक्तिपरकता से जुड़ा। मुझे हमेशा से लगा है कि कमोबेश वह मेरी दूसरी प्रकृति की तरह है। ऐसा आसपास के वातावरण के कारण भी हो सकता है। मुझे नहीं लगता कि मानव जाति के बारे में संवेदना या अहसास की अनुपस्थिति में हास्य रचा जा सकता है।
मेरीमैन : क्या त्रासदियों से हम मुक्ति चाहते
हैं ?
चैप्लिन : नहीं, मेरी राय में जीवन और बहुत कुछ है। यदि ऐसा होता तो आत्महत्याओं की तादाद कहीं अधिक होती। लोग जीवन से मुक्ति चाहते। मैं सोचता हूं कि जीवन खूबसूरत है और उसे हर हालात में जीना चाहिए, विपत्ति में भी। मैं जीवन जीना चाहूंगा। उसका अनुभव लेना चाहूंगा। मेरी राय में हास्य व्यक्ति के होश-हवास को दुरुस्त करता है। अधिक त्रासदी झेलने से हम बहक सकते हैं। हालांकि, त्रासदियां जीवन का हिस्सा होती हैं, लेकिन हमारे अंदर उससे बचने के लिए एक उपकरण भी मौजूद है, उससे बचाने वाला एक डिफेंस। मैं सोचता हूं कि जीवन में त्रासदी बहुत जरूरी है। और हास्य हमें उससे बचने का रक्षाकवच प्रदान करता है। हास्य वैश्विक है जो मेरी राय में करुणा से प्राप्त किया जा सकता है।
मेरीमैन : क्या आपको लगता
है जीनियस
जैसा कुछ होता है ?
चैप्लिन : मुझे नहीं पता कि जीनियस क्या होता है। शायद ऐसा कोई व्यक्ति जिसमें एक प्रतिभा है, उसके बारे में वह बहुत संवेदनशील भी है और एक तकनीक पर वह पूर्ण सिद्धहस्त हो जाता है। प्रत्येक व्यक्ति किसी प्रतिभा से संपन्न होता है। औसत व्यक्ति को एक रोज के घिसे हुए कल्पनाशीलता रहित कार्य के बीच अंतर बनाना होता है और जीनियस को ऐसा नहीं करना पड़ता। वह कुछ अलग क
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