एक साल पहले सुप्रीम कोर्ट में एक जनहित याचिका में दावा किया गया था कि मथुरा की विधवाओं को सात से आठ घंटे तक भजन गाने पर सिर्फ 18 रुपए ही मिलते हैं। इनमें से अनेक विधवाओं के बच्चे भी हैं लेकिन वे उनकी देखभाल नहीं करते हैं। इस जनहित याचिका पर सुप्रीम कोर्ट ने वृन्दावन की विधवाओं की स्थिति पर सरकार के रवैये से नाराजगी जताई थी। वृन्दावन की
विधवाओं की दयनीय स्थिति पर गौर करने के लिए राज्य महिला आयोग का गठन करने में विफल रहने पर यह सुझाव दिया था। न्यायमूर्ति डी के जैन और न्यायमूर्ति मदन बी लोकूर की खंडपीठ ने वृन्दावन की विधवाओं की दयनीय स्थिति को लेकर दायर जनहित याचिका पर सुनवाई के दौरान राज्य सरकार के रवैये पर अप्रसन्नता व्यक्त की।
न्यायालय ने राज्य सरकार से कहा था कि इन महिलाओं का रहने के लिए बेहतर वातावरण और पर्याप्त भोजन मुहैया कराने के अलावा उन्हें समुचित चिकित्सा सुविधा भी उपलब्ध कराई जाय। राष्ट्रीय महिला आयोग ने अपनी रिपोर्ट में कहा था कि मथुरा और वृन्दावन के आश्रमों में पांच से दस हजार विधवाएं भिखरियों जैसा जीवन गुजार रहीं हैं जहां उनका यौन शोषण भी होता है। आयोग ने अपनी रिपोर्ट में कहा था कि इनमें से 81 फीसदी महिलाएं निरक्षर हैं।
दूसरी तरफ संयुक्त राष्ट्र के महासचिव बान की मून ने विधवाओं के अधिकारों के सम्मान के लिए विश्व समुदाय का आह्वान किया है। गौरतलब है कि संयुक्त राष्ट्र महासभा द्वारा वर्ष 2010 में अंतरराष्ट्रीय विधवा दिवस मनाना तय किया था। ताकि पूरे विश्व में विधवाओं की दुर्दशा सामने आ सके। विश्व में लगभग 24.5 करोड़ विधवाएं हैं। इनमें 11.5 करोड़ अत्यंत गरीबी में जीने को विवश हैं।
पुरुषों की अपेक्षा विधवा महिलाओं की स्थिति बुढ़ापे में अधिक दयनीय हो जाती है। वे तीन तरह की उपेक्षा झेलती हैं- एक तो सामान्य नागरिक के रूप में, दूसरे, महिला के रूप में और तीसरे, बुजुर्ग के रूप में। आंकड़े बताते हैं कि भारत में बूढ़े पुरुषों की अपेक्षा वृद्ध विधवा महिलाओं की संख्या12 प्रतिशत अधिक है, अपाहिज वृद्ध महिलाओं की संख्या अधिक है और गांव-घर में निरुद्देश्य पड़ी महिलाएं अधिक हैं। बुजुर्गो में विधवाएं भी विधुर की अपेक्षा अधिक मिलती हैं। वृद्ध महिला को समाज और परिवार बोझ के रूप में देखने लगता है क्योंकि वे बीमारियों के चलते अनुत्पादक, खर्चीली, निर्भर और असंतुष्ट बन जाती हैं, मन दुखी औ र असुरक्षित होने के नाते बीमारियां बढ़ जाती हैं, बीमारी के बढ़ते खर्च और देखभाल की जरूरत के चलते परिवार के सदस्य झल्लाने लगते हैं और वृद्ध महिलाओं को और भी निराशा और हीनभावना से ग्रस्त बना देते हैं। यह दुष्चक्र बन जाता है।
ऐसी स्थिति में एस्ट्रोजे न नामक हार्मोन की कमी होती है, जो तमाम शारीरिक व मानसिक समस्याओं को जन्म देती है। तब वे या तो आत्म करुणा से ओत-प्रोत रहने लगती हैं या फिर चिड़चिड़ी और दूसरों को परेशान करने वाली बन जाती हैं। कई बार सास के रूप में औरत को देखें तो हमें ये प्रवृत्तियां गम्भीर रूप धारण करती नजर आती हैं, परंतु यह सब पति के मरने के बाद बेटे पर अत्यधिक और एकमात्र निर्भरता के चलते ही होता है, जहां बहू एक प्रतिद्वंद्वी और भविष्य की मालकिन के रूप में असुरक्षा-बोध बढ़ाने वाली लगती है।
विधवाओं के दुख सामंती सोच वाली, बेरोजगार औरतों या ग्रामीण उच्च-जातीय परिवारों में अधिक परिलक्षित होता है। शहरी वर्ग में यह स्थिति अकेलेपन और अवसाद में ग्रस्त दिखाई देती है। यहां विधवा महिलाएं अकेलेपन का शिकार होते हुए ओल्डऐज होम पहुंच जाती हैं। बहुत कम महिलाओं को यह मालूम है कि बचपन के प्रोटीनयुक्त खानपान और जवानी में लोहा और कैल्शियम व फॉलिक एसिड से परिपूर्ण पौष्टिक आहार बुढ़ापे को सुखद और स्वस्थ बनाता है।
निम्न आर्थिक हैसियत वाली ग्रामीण और शहरी विधवा महिलाओं को 55 की उम्र के बाद से स्वास्थ्य की समस्याएं घेरने लगती हैं, वे इधर-उधर से नुस्खे पता करके काम चलाने की कोशिश करती हैं और अपने शरीर को घसीटती रहती हैं ताकि परिवार में उनकी उपयोगिता किसी तरह बनी रहे, वरना उन्हें परिवार के लिए बेकार समझने में देर नहीं लगती। यहां भी भेदभाव अपनाया जाता है। ऐसे परिवारों में पौष्टिक आहार पुरुषों को दे दिया जाता है। क्योंकि पुरुष-प्रधान समाज में औरत का अपने लिए सोचना भी बुरी नजर से देखा जाता है। इन स्थितियों के कारण महिलाओं का बुढ़ापा काफी कष्टप्रद हो जाता है, पर तब तक देर हो चुकी होती है और मामला हाथ से निकल चुका होता है।
शायद इन्हीं वजहों से जब संयुक्त राष्ट्र ने महिलाओं पर ध्यान केंद्रित किया, तो सबसे अधिक जोर बुजुर्ग महिलाओं की स्थिति को सुधारने पर दिया। 1982 में संयुक्त राष्ट्र ने वियना में बुढ़ापे पर पहली जनरल असेंबली आयोजित की थी। इसमें वृद्ध महिलाओं के लिए सामाजिक कार्यक्रम और सामाजिक सुरक्षा की चर्चा हुई। 1990 में जनरल असेंबली ने बुजुर्गों के लिए अंतरराष्ट्रीय दिवस घोषित किया। 1991 में 46 वें सत्र में विधवा महिलाओं के लिए कुछ विशेष सुविधाएं घोषित की गई। 2002 में संयुक्त राष्ट्र की बुढ़ापे पर द्वितीय विश्व असेंबली हुई और 2010 में 45वें अधिवेशन में भी विधवा एवं वृद्ध महिलाओं पर होने वाले अत्याचारों और उन पर उठाए जाने वाले कदमों की रूपरेखा तय की गई, मसलन डायन प्रथा, वृद्ध विधवाओं की हत्या, आरोप लगाकर प्रताड़ित करना इत्यादि।
भारत में वृद्ध महिलाओं की सम्पत्ति को हथियाने के लिए अकसर इस किस्म के कारनामों को दबंग लोगों द्वारा अंजाम दिया जाता रहा है। शहरों में ऐसी महिलाओं की हत्या का प्रतिशत भी अधिक है। गांवों में उनको जबरन बेदखली और काबिज होने की समस्या बेहद गंभीर है। भारत सरकार ने 1999 में बुजुर्गों के लिए राष्ट्रीय नीति बनाई पर महिलाओं की विशिष्ट स्थिति पर बहुत कम जोर रहा। ग्रामीण क्षेत्रों में महिलाओं को वृद्ध महिलाओं पर केंद्रित स्कीमों के बारे में पता रहते हुए भी उनका लाभ उठा पाना संभव नहीं हो पाता। किसी भी हालत में औरतों को परिवार के पुरुष सदस्यों पर निर्भर रहना पड़ता है। शहरी क्षेत्रों में तो महिलाओं को लाभकारी स्कीमों की जानकारी नहीं रहती क्योंकि यदि वे घरेलू महिला हैं, उनका समाज से और भी कम सरोकार रहता है और संघर्ष करने की प्रवृत्ति भी कम रहती है। इसलिए इस बाबत महिलाओं को जानकारी और प्रशिक्षण दिया जाना चाहिए। प्रशासनिक अधिकारियों, चुनाव आयोग, बैंकों, अस्पतालों और स्वास्थ्यकर्मियों, रेलवे, हवाई जहाज और बस सेवाओं को वृद्ध विधवा महिलाओं के लिए विशेष सुविधाओं की व्यवस्था करनी चाहिए, पर इसके लिए महिला एवं बाल विकास मंत्रालय को एक विशेष प्रकोष्ठ वृद्ध विधवा महिलाओं की स्थिति का अध्ययन करने के लिए भी निर्मित करना चाहिए। साथ ही महिला संगठनों को भी वृद्ध विधवा महिलाओं, खासकर दलित-आदिवासी, गरीब, अल्पसंख्यक, अकेली और उत्पीड़ित राष्ट्रीयताओं की बुजुर्ग महिलाओं की आर्थिक, सामाजिक, मानसिक और शारीरिक स्थिति, उनके पोषण और उनकी निरक्षरता तथा उनके अपाहिज होने की स्थिति आदि पर अध्ययन करना चाहिए। उनके मुद्दे उठाए जाएंगे और उन्हें अपने निष्क्रिय जीवन से उबारकर उनके लिए सहकारी प्रयासों से उत्पादकता बढ़ाई जाएगी तो उनका आत्मसम्मान कायम रह सकता है। नियमित स्वास्थ्य चेकअप, राशन व्यवस्था में वृद्ध विधवा महिलाओं के लिए कैल्शियम युक्त आटा, उनके इलाज के लिए सस्ते सब्सिडाइज्ड फूड कार्ड की व्यवस्था जरूरी है क्योंकि ऐसी विधवाओं के लिए किसी प्रकार की स्वास्थ्य बीमा उपलब्ध नहीं है। शिक्षा और उत्पादन से जुड़ा रहना अल्जाइमर डिजीज से बचाने में मदद करता है क्योंकि दिमाग सक्रिय रहता है और अपने जीवन की उपयोगिता भी महसूस होती है। जिन महिलाओं की मेहनत के चलते हमारा जीवन बेहतर और आत्मनिर्भर बना, क्या हम उनकी देखरेख के बारे में इतनी चिंता भी नहीं कर सकते?
विधवाओं की दयनीय स्थिति पर गौर करने के लिए राज्य महिला आयोग का गठन करने में विफल रहने पर यह सुझाव दिया था। न्यायमूर्ति डी के जैन और न्यायमूर्ति मदन बी लोकूर की खंडपीठ ने वृन्दावन की विधवाओं की दयनीय स्थिति को लेकर दायर जनहित याचिका पर सुनवाई के दौरान राज्य सरकार के रवैये पर अप्रसन्नता व्यक्त की।
न्यायालय ने राज्य सरकार से कहा था कि इन महिलाओं का रहने के लिए बेहतर वातावरण और पर्याप्त भोजन मुहैया कराने के अलावा उन्हें समुचित चिकित्सा सुविधा भी उपलब्ध कराई जाय। राष्ट्रीय महिला आयोग ने अपनी रिपोर्ट में कहा था कि मथुरा और वृन्दावन के आश्रमों में पांच से दस हजार विधवाएं भिखरियों जैसा जीवन गुजार रहीं हैं जहां उनका यौन शोषण भी होता है। आयोग ने अपनी रिपोर्ट में कहा था कि इनमें से 81 फीसदी महिलाएं निरक्षर हैं।
दूसरी तरफ संयुक्त राष्ट्र के महासचिव बान की मून ने विधवाओं के अधिकारों के सम्मान के लिए विश्व समुदाय का आह्वान किया है। गौरतलब है कि संयुक्त राष्ट्र महासभा द्वारा वर्ष 2010 में अंतरराष्ट्रीय विधवा दिवस मनाना तय किया था। ताकि पूरे विश्व में विधवाओं की दुर्दशा सामने आ सके। विश्व में लगभग 24.5 करोड़ विधवाएं हैं। इनमें 11.5 करोड़ अत्यंत गरीबी में जीने को विवश हैं।
पुरुषों की अपेक्षा विधवा महिलाओं की स्थिति बुढ़ापे में अधिक दयनीय हो जाती है। वे तीन तरह की उपेक्षा झेलती हैं- एक तो सामान्य नागरिक के रूप में, दूसरे, महिला के रूप में और तीसरे, बुजुर्ग के रूप में। आंकड़े बताते हैं कि भारत में बूढ़े पुरुषों की अपेक्षा वृद्ध विधवा महिलाओं की संख्या12 प्रतिशत अधिक है, अपाहिज वृद्ध महिलाओं की संख्या अधिक है और गांव-घर में निरुद्देश्य पड़ी महिलाएं अधिक हैं। बुजुर्गो में विधवाएं भी विधुर की अपेक्षा अधिक मिलती हैं। वृद्ध महिला को समाज और परिवार बोझ के रूप में देखने लगता है क्योंकि वे बीमारियों के चलते अनुत्पादक, खर्चीली, निर्भर और असंतुष्ट बन जाती हैं, मन दुखी औ र असुरक्षित होने के नाते बीमारियां बढ़ जाती हैं, बीमारी के बढ़ते खर्च और देखभाल की जरूरत के चलते परिवार के सदस्य झल्लाने लगते हैं और वृद्ध महिलाओं को और भी निराशा और हीनभावना से ग्रस्त बना देते हैं। यह दुष्चक्र बन जाता है।
ऐसी स्थिति में एस्ट्रोजे न नामक हार्मोन की कमी होती है, जो तमाम शारीरिक व मानसिक समस्याओं को जन्म देती है। तब वे या तो आत्म करुणा से ओत-प्रोत रहने लगती हैं या फिर चिड़चिड़ी और दूसरों को परेशान करने वाली बन जाती हैं। कई बार सास के रूप में औरत को देखें तो हमें ये प्रवृत्तियां गम्भीर रूप धारण करती नजर आती हैं, परंतु यह सब पति के मरने के बाद बेटे पर अत्यधिक और एकमात्र निर्भरता के चलते ही होता है, जहां बहू एक प्रतिद्वंद्वी और भविष्य की मालकिन के रूप में असुरक्षा-बोध बढ़ाने वाली लगती है।
विधवाओं के दुख सामंती सोच वाली, बेरोजगार औरतों या ग्रामीण उच्च-जातीय परिवारों में अधिक परिलक्षित होता है। शहरी वर्ग में यह स्थिति अकेलेपन और अवसाद में ग्रस्त दिखाई देती है। यहां विधवा महिलाएं अकेलेपन का शिकार होते हुए ओल्डऐज होम पहुंच जाती हैं। बहुत कम महिलाओं को यह मालूम है कि बचपन के प्रोटीनयुक्त खानपान और जवानी में लोहा और कैल्शियम व फॉलिक एसिड से परिपूर्ण पौष्टिक आहार बुढ़ापे को सुखद और स्वस्थ बनाता है।
निम्न आर्थिक हैसियत वाली ग्रामीण और शहरी विधवा महिलाओं को 55 की उम्र के बाद से स्वास्थ्य की समस्याएं घेरने लगती हैं, वे इधर-उधर से नुस्खे पता करके काम चलाने की कोशिश करती हैं और अपने शरीर को घसीटती रहती हैं ताकि परिवार में उनकी उपयोगिता किसी तरह बनी रहे, वरना उन्हें परिवार के लिए बेकार समझने में देर नहीं लगती। यहां भी भेदभाव अपनाया जाता है। ऐसे परिवारों में पौष्टिक आहार पुरुषों को दे दिया जाता है। क्योंकि पुरुष-प्रधान समाज में औरत का अपने लिए सोचना भी बुरी नजर से देखा जाता है। इन स्थितियों के कारण महिलाओं का बुढ़ापा काफी कष्टप्रद हो जाता है, पर तब तक देर हो चुकी होती है और मामला हाथ से निकल चुका होता है।
शायद इन्हीं वजहों से जब संयुक्त राष्ट्र ने महिलाओं पर ध्यान केंद्रित किया, तो सबसे अधिक जोर बुजुर्ग महिलाओं की स्थिति को सुधारने पर दिया। 1982 में संयुक्त राष्ट्र ने वियना में बुढ़ापे पर पहली जनरल असेंबली आयोजित की थी। इसमें वृद्ध महिलाओं के लिए सामाजिक कार्यक्रम और सामाजिक सुरक्षा की चर्चा हुई। 1990 में जनरल असेंबली ने बुजुर्गों के लिए अंतरराष्ट्रीय दिवस घोषित किया। 1991 में 46 वें सत्र में विधवा महिलाओं के लिए कुछ विशेष सुविधाएं घोषित की गई। 2002 में संयुक्त राष्ट्र की बुढ़ापे पर द्वितीय विश्व असेंबली हुई और 2010 में 45वें अधिवेशन में भी विधवा एवं वृद्ध महिलाओं पर होने वाले अत्याचारों और उन पर उठाए जाने वाले कदमों की रूपरेखा तय की गई, मसलन डायन प्रथा, वृद्ध विधवाओं की हत्या, आरोप लगाकर प्रताड़ित करना इत्यादि।
भारत में वृद्ध महिलाओं की सम्पत्ति को हथियाने के लिए अकसर इस किस्म के कारनामों को दबंग लोगों द्वारा अंजाम दिया जाता रहा है। शहरों में ऐसी महिलाओं की हत्या का प्रतिशत भी अधिक है। गांवों में उनको जबरन बेदखली और काबिज होने की समस्या बेहद गंभीर है। भारत सरकार ने 1999 में बुजुर्गों के लिए राष्ट्रीय नीति बनाई पर महिलाओं की विशिष्ट स्थिति पर बहुत कम जोर रहा। ग्रामीण क्षेत्रों में महिलाओं को वृद्ध महिलाओं पर केंद्रित स्कीमों के बारे में पता रहते हुए भी उनका लाभ उठा पाना संभव नहीं हो पाता। किसी भी हालत में औरतों को परिवार के पुरुष सदस्यों पर निर्भर रहना पड़ता है। शहरी क्षेत्रों में तो महिलाओं को लाभकारी स्कीमों की जानकारी नहीं रहती क्योंकि यदि वे घरेलू महिला हैं, उनका समाज से और भी कम सरोकार रहता है और संघर्ष करने की प्रवृत्ति भी कम रहती है। इसलिए इस बाबत महिलाओं को जानकारी और प्रशिक्षण दिया जाना चाहिए। प्रशासनिक अधिकारियों, चुनाव आयोग, बैंकों, अस्पतालों और स्वास्थ्यकर्मियों, रेलवे, हवाई जहाज और बस सेवाओं को वृद्ध विधवा महिलाओं के लिए विशेष सुविधाओं की व्यवस्था करनी चाहिए, पर इसके लिए महिला एवं बाल विकास मंत्रालय को एक विशेष प्रकोष्ठ वृद्ध विधवा महिलाओं की स्थिति का अध्ययन करने के लिए भी निर्मित करना चाहिए। साथ ही महिला संगठनों को भी वृद्ध विधवा महिलाओं, खासकर दलित-आदिवासी, गरीब, अल्पसंख्यक, अकेली और उत्पीड़ित राष्ट्रीयताओं की बुजुर्ग महिलाओं की आर्थिक, सामाजिक, मानसिक और शारीरिक स्थिति, उनके पोषण और उनकी निरक्षरता तथा उनके अपाहिज होने की स्थिति आदि पर अध्ययन करना चाहिए। उनके मुद्दे उठाए जाएंगे और उन्हें अपने निष्क्रिय जीवन से उबारकर उनके लिए सहकारी प्रयासों से उत्पादकता बढ़ाई जाएगी तो उनका आत्मसम्मान कायम रह सकता है। नियमित स्वास्थ्य चेकअप, राशन व्यवस्था में वृद्ध विधवा महिलाओं के लिए कैल्शियम युक्त आटा, उनके इलाज के लिए सस्ते सब्सिडाइज्ड फूड कार्ड की व्यवस्था जरूरी है क्योंकि ऐसी विधवाओं के लिए किसी प्रकार की स्वास्थ्य बीमा उपलब्ध नहीं है। शिक्षा और उत्पादन से जुड़ा रहना अल्जाइमर डिजीज से बचाने में मदद करता है क्योंकि दिमाग सक्रिय रहता है और अपने जीवन की उपयोगिता भी महसूस होती है। जिन महिलाओं की मेहनत के चलते हमारा जीवन बेहतर और आत्मनिर्भर बना, क्या हम उनकी देखरेख के बारे में इतनी चिंता भी नहीं कर सकते?
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