शुक्रवार, दिसंबर 13, 2013

समलैंगिकता क्यों?

 
 
 समलैंगिकता क्यों?
समाज में समलैंगिक संबंधों को मानसिक बीमारी या प्राकृतिक विकृति से जोड़ कर देखा जाता रहा है। सुप्रीम कोर्ट के ताजा फैसले से भारतीय समाज में ये संबंध फिर विवाद और बहस में हैं।
स  मलैंगिक संबंधों पर विवाद उतना ही पुराना है जितना कि ये संबंध हैं। प्रकृति या मानवीय विकृति अथवा किसी ज्ञात-अज्ञात कारण से इन संबंधों के लिए प्रेरित होने वाले लोग अपने अधिकारों की मांग करते रहे हैं। समलैंगिकता के पक्ष में  दिल्ली हाईकोर्ट द्वारा 2009 में सुनाए गए फैसले को देश के कुछ संगठनों ने सांस्कृतिक और धार्मिक मूल्यों के खिलाफ बताया था। ये संगठन ही हाईकोर्ट के फैसले के विरोध में वे सुप्रीम कोर्ट गए थे। हाल ही के फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने देश में समलैंगिक संबंधों को अपराध करार दे दिया है। मामले में सुनवाई करते हुए न्यायमूर्ति जीएस सिंघवी ने कहा, ‘समलैंगिक संबंधों को उम्रकैद की सजा वाला अपराध बताने वाली आईपीसी की धारा 377 में कोई संवैधानिक खामी नहीं है।’ उन्होंने इस विवादित मुद्दे पर आगे का निर्णय लेने के लिए पूरी प्रक्रिया और जिम्मेदारी को संसद की ओर धकेल दिया है। कोर्ट ने कहा कि संविधान से यह धारा हटाई जाए या नहीं यह देखना संसद का काम है।
अब इस मामले में एक बार फिर बहस, विवाद और निराशा का माहौल बन गया है। अदालत के ताजा फैसले को लेसबियन, गे, बाइ-सेक्शुअल और ट्रांसजेंडर समुदाय के लोगों ने इसे अधिकार वापस लेने जैसा बताया है। कुछ लोग कह रहे हैं कि जब दो पुरुष या दो महिलाएं सहमति से शारीरिक संबंध बनाते हैं तो यह अपराध क्यों है? लेकिन यह मामला सिर्फ इतना नहीं है, यह एक निजी भावनात्मक-शारीरिक क्षमता अक्षमताओं से भी जुड़ा है। इन संबंधों को इस अवधारणा से मुक्त होकर देखाना चाहिए कि ऐसे मामले समाज में गंदगी फैला रहे हैं।  इस मामले में ऐसे लोगों की बात भी सुनी जाना आवश्यक है। केवल विलासिता या यौन कुंठा के रूप में इस तरह के संबंधों को बनाना या अपनाना उचित नहीं कहा जा सकता। इसके समाधान के लिए ऐसे लोगों की शादी के लिए या संबंधों के लिए चिकित्सीय सेवाओं और   सुविधाओं का उपयोग कर सकते हैं। डॉक्टरों की टीम बता सकती है कि ऐसे लोगों के लिए उचित लैंगिक समाधान क्या हो सकता है। इस तरह के संबंधों  के मामले में यह दलील भी दी जा रही है कि जब इन लोगों को समाज ही गले नहीं लगा पाता है तो उन्हें उनका ही समाज बना बनाने को अधिकार तो हो सकता है। ये संबंध दोनों की जिंदगियों को सुखी और सुरक्षित बना सकता है, कम से कम किसी को शादी के मंडप में या किसी को बच्चे न होने की स्थिति में अथवा किसी को शादी के कई साल बीत जाने के बाद ये झटका तो नहीं लगेगा। उनका साथी असल में शारीरिक रूप से प्रजनन के लिए दुरुस्त नहीं था या नहीं है।  दूसरी तरफ समलैंगिकता कुछ लोगों के यौन अधिकारों पर बहस मात्र नहीं है। यह बहस भारतीय समाज के बुनियादी आदर्शों से जुड़ती हुई, परंपरा, समाज और ज्ञान-विज्ञान की मान्यताओं को खंगालती है तथा इस प्रक्रिया में वह सभ्यता और संस्कृति  में खोजबीन करने दूर तक जाती है। बहरहाल, इस बहस में पूर्वाग्रह छोड़कर संवेदनशीलता के साथ चलने पर ही किसी मानवीय तार्किक निष्कर्ष पर पहुंचा जा सकता है।

लोकतंत्र में लाल बत्ती क्यों? 


लोकतंत्र में हर आदमी व्यवस्था का हिस्सा है फिर कुछ लोगों को खास होने विशेषाधिकार क्यों हो? लालबत्ती की अनाधिकृत चाहत सामंतवादी मानसिकता है।

सु प्रीम कोर्ट ने मंगलवार को अपने फैसले में कहा कि वाहन की छत पर लाल बत्ती का उपयोग केवल उच्च संवैधानिक पदों पर आसीन लोगों के वाहनों पर ही किया जाएगा, और नीली या अन्य रंगीन बत्ती का उपयोग आपात सेवाओं जैसे एम्बुलेंस, फायर ब्रिगेड और पुलिस के लिए होना चाहिए। यह आवश्यक सेवाओं के लिए है न कि रुतबे के प्रदर्शन के लिए। लाल बत्तीपर आया फैसला भारतीय लोकतंत्र में जनता के सम्मान का फैसला है। लोकतंत्र में सड़क पर सभी समान हैं और सभी का समय कीमती है। इस फैसले से यही अवधारणा पुष्ट होती है। सड़कों पर अव्यवस्था या ट्रैफिक जाम से बचने के लिए लाल बत्ती या पीली बत्ती का प्रयोग किया जाता है। वास्तव में इसके विराध में तर्क देने वाले कहते हैं कि प्रशासन के जिम्मेदारों का फर्ज बनता है कि वे पूरी व्यवस्था को सुधारें ताकि उनके साथ जनता को भी व्यवस्था ठीक मिले। लोकतंत्र में जनता से अलग होने का विशेषाधिकार किसी को नहीं है। लाल बत्ती का विरोध, जनहित याचिकाएं और सुप्रीमकोर्ट के हस्तक्षेप की वजह यही रही है कि ये बत्तियां अहंकार का प्रदर्शन होती जा रही थीं। इनसे जनता की स्वतंत्रता का हनन हो रहा था एवं अनाधिकृत लोग इनका दुरुपयोग कर रहे थे।
लाल बत्ती की परंपरा भारतीय लोकतंत्र में एक कुरीति है। अंग्रेज जब भारत के शासक थे, तब भी कलेक्टर या लाटसाहब लाल बत्ती व सायरन के साथ नहीं घूमते थे। न ही सुरक्षा के नाम पर इतना तामझाम होता था। आज लालबत्ती वाली गाड़ियों को देखते ही आम आदमी की आंखें फटी और सायरन की आवाज पर कान खड़े हो जाते हैं। इसका मतलब यह है कि कोई विशिष्ट व्यक्ति उस वाहन में है जिसके मार्ग में बाधा डालना खतरे से खाली नहीं है। आधुनिक लोकतंत्र में यह राजशाही का नया रूप है। नई कुरीति है। लाल बत्ती विशिष्टता का प्रतीक बन गई है। असल में लाल बत्ती और सुरक्षा तामझाम की मौजूदा प्रवृत्ति अधिकारियों की वजह से बढ़ी है। राजनेताओं में पहले इसका रोग नहीं था। आजादी से ठीक पहले भारत में जो अंतरिम सरकार बनी थी, उसके मंत्री ट्रेनों में तीसरे दर्जे में सफर करते थे क्योंकि यह महात्मा गांधी का निर्देश था, वे खुद तीसरे दर्जे में चलते थे। उस समय भी मंत्रियों के सचिव के रूप में तैनात होने वाले आईसीएस अधिकारी पहले दर्ज में चलते थे। स्टेशन पर जब ट्रेन पहुंचती थी, तो अधिकारी पहले दर्जे से उतरकर तीसरे दर्जे तक पहुंचते थे। नियमानुसार तो होना यह चाहिए था कि अधिकारी भी मंत्रियों के साथ के दर्जे आते और जनता के साथ तीसरे दर्जे में सफर करते। लेकिन उलटा हुआ। आजादी के बाद देश के नेता भी अधिकारियों के साथ पहले दर्जे के सवार हो गए और धीरे-धीरे अपने लिए सुविधाएं बढ़ाते गए। अगर सड़कों पर व्यवस्था खराब है, जाम है तो इसे सुधारा जाना चाहिए, ना कि लालबत्ती लगाना चाहिए। असल में लाल बत्ती लगा कर अपने को आम लोगों से अलग दिखाना एक सामंती प्रवृत्ति है, जिसके लिए लोकतंत्र में कोई जगह नहीं होनी चाहिए।


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