मंगलवार, जनवरी 22, 2013
हिंदू आतंकवाद संबंधी बयान
केंद्रीय गृहमंत्री सुशील कुमार शिंदे के बयान में निहित देश के राजनीतिक रंग देखे जा सकते हैं। उनका बयान राजनीतिक होकर सरलीकृत कटु राजनीति का संकेत भी है।
कें द्रीय गृह मंत्री सुशील कुमार शिंदे के हिंदू आतंकवाद संबंधी बयान देने के बाद देश की राजनीति चूने की बाल्टी की तरह उबलने लगी। जयपुर के कांग्रेस चिंतन शिविर को संबोधित करते हुए शिंदे ने कहा था कि भाजपा और संघ देश में भगवा आतंकवाद फैलाने के लिए ‘आतंकी प्रशिक्षण शिविर’ चला रहे हैं। यह भी बताया कि, ‘जांच के दौरान यह रिपोर्ट आई है कि बीजेपी और संघ आतंकवाद फैलाने के लिए आतंकवादी प्रशिक्षण शिविर चला रहे हैं। समझौता एक्सप्रेस, मक्का मस्जिद में बम लगाए जाते हैं और मालेगांव में भी बम विस्फोट होता है।’ हालांकि बाद में अपने बयान से मुकर भी गए कि ‘यह भगवा आतंकवाद है जिसकी मैं बात करता हूं। यह कई बार मीडिया में आ चुका है। इसमें कुछ नया नहीं है।’
बयान देने और फिर मुकरने की इस राजनीति ने ‘राजनीतिक-स्तर’ की ओर भी इशारा किया है। राजनीति के गिरते हालातों से यह भी पता चलता है कि कांग्रेस के सिपहसालार कहीं न कहीं सकारात्मक और सृजनशीलता की जगह विखंडन की राजनीति को अपना हथियार आज भी बनाए हुए हैं। दिग्विजय सिंह भी इस तरह के बयानों के लिए जाने जाते हैं। ये बयान देश की गरिमा और लोकतंत्र को संबोधित न होकर, विखंडन की ओर इशारा करते हैं। आज देश का लोकतंत्र विकसित हो रहा है। उसमें प्रतिरोध के स्वर भी आ रहे हैं। ऐसे में जनता को सरलीकृत बयानों से नहीं भरमाया जा सकता। इस बयान में जो निहित था, वह राजनीतिक दल अपनी प्रतिक्रिया में बता रहे हैं। क्या गृहमंत्री की राजनीतिक सोच में ये विचार नहीं पैदा हुआ कि इस तरह के सरलीकृत बयानों से वे करोड़ों लोगों को कहीं न कहीं मानसिक आघात पहुंचा सकते हैं। यह बयान न कहते हुए भी वोट बैंक की राजनीति का हिस्सा है। आज देश को वोट बैंक की राजनीति से उबारने की आवश्यकता है। इस बयान के प्रतिप्रश्न पर संघ के अखिल भारतीय प्रचार प्रमुख मनमोहन वैद्य ने भी बयान दिया है कि गृहमंत्री को हिंदू आतंकवाद शब्द का प्रयोग करना अत्यंत अनुचित और आपत्तिजनक है। आतंकवाद आतंकवाद है, उसे हिंदू या अन्य किसी धर्म के साथ जोड़ना उचित नहीं है। उन्होंने हाल ही में दिए गए अकबरुद्दीन ओवैसी के देश विरोधी बयान का भी उल्लेख किया। ओवैसी के खिलाफ पुख्ता सबूत होने के बाद भी सरकार करवाई करने से कतरा रही थी। जनता के दबाव और न्यायालय के आदेश के बाद उन्हें करवाई करनी पड़ी। यहां यह उल्लेख करना जरूरी है कि इस बयान के कुछ आधार तंतु कुछ घटनाओं की जांच में आए हैं जिनका उल्लेख बयान में किया गया है। लेकिन यहां यह भी कहना जरूरी है कि आतंक से भगवा रंग, हिंदू या मुसलमान को जोड़कर एक ब्रांड बनाने का मतलब एक नए तरीके का खतरनाक राजनीतिक प्रयोग है। किसी भी तरह का आतंक देश में स्वीकार नहीं किया जा सकता। महत्वपूर्ण है कि हम अपनी राजनीति को सकारात्मक और सर्वसमावेशी बनाएं। आतंक को किसी रंग या जाति-धर्म से जोड़ने का काम नेता करते रहे हैं लेकिन आज इसे बंद karne ki आवश्यकता है।
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एमपी एक्सपोर्ट मीट
दुनिया में आर्थिक गतिविधियां केंद्र में हैं। राजनीतिक सामाजिक क्षेत्र की गतिशीलता भी इन पर निर्भर करती है। मध्यप्रदेश सरकार की ओर से हाल ही के वर्षों में निवेश के लिए संगठित और व्यवस्थित प्रयास किए जा रहे हैं। पिछले दिनों इंदौर में इस तरह के प्रयासों को देखा गया है। ग्वालियर में शुरू हुई चौथी एमपी एक्सपोर्ट का रविवार को आशाओं से भरा समापन हो गया है। ये चौथी एमपी-एक्सपोर्ट मीट थी। ग्वालियर के एक्सपोर्ट फैसिलिटेशन सेंटर में आयोजित हुई इस रिवर्स बायर सेलर मीट में लगभग 629 करोड़ के 62 व्यवसायिक अनुबंध हुए। इसमें ग्वालियर-चंबल अंचल के उत्पादकों ने182 करोड़ रूपए से अधिक के अनुबंध हासिल किए हैं। इस आयोजन में 16 राष्ट्रों के राजदूत, उच्चायुक्त एवं अन्य राजनयिकों ने हिस्सा लिया। इस मीट में लगभग दो दर्जन देशों के करीबन 75 खरीददार आए थे। इसमें ग्वालियर चंबल अंचल सहित प्रदेशभर के 110 उद्यमियों ने अपने-अपने उत्पादों को प्रदर्शित किया था। ये अनुबंध तत्काल कोई लाभ को प्रदर्शित न करते हों लेकिन ये दूरगामी व्यावसायिक सफलताओं की आधारशिला बनते हैं। ऐसा भी होता है कि कुछ अनुबंध पूरे नहीं हो पाते। हमें इसके लिए तैयार रहना चाहिए और कोशिश करना चाहिए कि हम इन अनुबंधों को हासिल करें। करार पूरे नहीं होने पर राजनीतिक शोर करने की अपेक्षा हमें कारणों की तह में जाना जरूरी है।
मध्यप्रदेश के चंबल संभाग के कई विक्रताओं ने तो विदेशी कंपनी के साथ अपने अनुबंध को एक दूर का सितारा ही समझा था लेकिन इस मेले में कई कंपनिया ने ऐसे विदेशी अनुबंधों पर हस्ताक्षर किए हैं। साथ ही सुदूर देशों से आए राजनयिक, आयातक व खरीददारों को प्रदेश के उत्कृष्ट उत्पादों ने खूब रिझाया और वे करारनामों को अंजाम देकर अपने देश लौटे। यह मीट मध्यप्रदेश सरकार द्वारा भारत सरकार एवं सीआईआई आदि के सहयोग से आयोजित की गई थी। लगभग दो दर्जन देशों से आए आयातकों व खरीददारों ने एमपी एक्सपोर्टेक के आखिरी दिन भी प्रदेश के उत्पादों को पसंद किया। यह भी उल्लेखनीय है कि 18 जनवरी से पिछली मीट की तुलना में छ: गुने करारनामे हुए। प्रदेश सरकार ने 2008 में प्रदेश के सूक्ष्म, लघु एवं मध्यम उद्यमियों को विश्व बाजार मुहैया कराने के लिये एमपी-एक्सपोर्ट के रूप में की गई पहल आज नए करारों की ओर अग्रसर है। इंदौर में हुई पिछली एमपी एक्सपोर्टेक की तुलना में इस बार ग्वालियर में हुई मीट में लगभग छ: गुने अनुबंध हुए हैं। इससे जाहिर होता है कि मध्यप्रदेश के उत्कृष्ट उत्पादों ने दुनिया का ध्यान खींचा है। इसमें उल्लेखनीय बात ये है कि मध्यप्रदेश सरकार ने छोटे-छोटे उद्यमियों के लिए एमपी एक्सपोर्टेक के रूप में एक बेहतर प्लेटफॉर्म मुहैया कराया है। ये सारी चीजें ही मिलकर किसी व्यवसाय को राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय होने का मार्ग प्रशस्त करती हैं। प्रदेश की आर्थिक नीतियों की दशा और दिशा को नए तरीके से संयोजित किया जा रहा है। यह संयोजन ही भविष्य में निर्मित होने वाले आर्थिक महापथ का निर्माण करेगा।
रविवार, जनवरी 20, 2013
बाबाओं की दुनिया
स्वाध्याय की कमी से आस्था अंधविश्वास में बदल जाती है और उसे सामाजिक स्वीकृति मिलने लगती है। ऐसी आस्था की छांव में कई फर्जी बाबाओं का जन्म होता है।
आ साराम बापू ने रतलाम में 700 करोड़ रुपए की जमीन पर कब्जा करने की बात खबरों में है। जमीन के इस मामले में गंभीर धोखाधड़ी जांच कार्यालय (एसएफआईओ) ने भारतीय दंड संहिता और कंपनी एक्ट 1956 के तहत मामला चलाने की मांग की है। इसकी अनुशंसा कॉरपोरेट मामलों के मंत्रालय को भी भेजी गई है। बाबाओं से संबंधित इसी तरह के कुछ और मामले भी इससे पहले सामने आते रहे हैं। बाबाओं पर आरोप एक नहीं कई तरह के हैं। स्वामी चिन्मयानंद पर आरोप लगे। इन पर साध्वी चिदर्पिता ने चिन्मयानंद रिपोर्ट लिखाई कि मेरे साथ बलात्कार किया और गर्भपात तक कराया। निर्मल बाबा पर हजारों लाखों लोगों से कई करोड़ रुपए एकत्रित करने का आरोप लगा और अब वे अदालत में केस का सामना कर रहे हैं। रामदेव बाबा की कंपनी पर कर अपवंचन का मामला दर्ज है। यह गिनती एक दो नहीं दर्जनों बाबाओं के साथ बन रही है। आखिर क्यों? सवाल ये है कि आध्यात्म और जीवन को मोक्ष की ओर ले जाने के जिन सूत्रों की चर्चा इन बाबाओं के सत्संग में होती है, उसके उलट इन पर कई तरह की अनैतिकताओं के आरोप लग रहे हैं। क्या ये समय राजनीतिक और धार्मिक आस्था के शोषण का युग बन चुका है? क्या ये युग मानसिक कमजोरी और अंधविश्वास से जनमी अंधआस्था का शिकार हो चुका है? बाबा मानसिक शोषण कर रहे हैं तो जनता भी उनके पास दौड़ कर जा रही है। जबकि भारतीय मनीषा में कर्म को प्रधानता दी गई है। ईश्वर कण-कण में विद्यमान है तो उसकी आराधना भी कण कण में की जा सकती है। ईश्वर की कृपा किसी बाबा के माध्यम से नहीं आ सकती, यह हमें अपने कर्म, चिंतन और मनन से हासिल करना होती है। लेकिन अंधविश्वास फैशन हो जाता है तो उसकी छांव में इसी तरह की घटनाओं का जन्म होता है। हर युग के अपने अंधविश्वास होते हैं। अंधविश्वास का भी फैशन होता है। हर युग में अंधविश्वास नए तरह के होते हैं। पुराने से आदमी छूटता है और नए अपना लेता है। लेकिन अंधविश्वास से मुक्त नहीं होता। अंधविश्वास की जो नींव मध्यकालीन भारत में रखी थी, वो कंप्यूटर और विज्ञान के युग में भी उतनी ही मजबूत बनी हुई है। अंधविश्वास का जो खेल 17वीं व 18वीं शताब्दी में चलता था, वो अब भी बदस्तूर जारी है। अंधविश्वास कारण स्वाध्याय की कमी है। जनता धर्म और ईश्वर पर लिखे मौलिक ग्रंथ न पढ़ कर कथित स्वार्थी बाबाओं की गिरफ्त में हैं। अगर ‘टीमलीज’ सर्विसेज की ‘सुपरस्टिशन्स एट द रेट आॅफ वर्कप्लेस’ नामक रिपोर्ट का निष्कर्ष में पाया गया है कि भारत में निजी कंपनियों में काम करने वाले प्रंबधन पेशेवरों में 62 प्रतिशत लोग अंधविश्वासी हैं। सर्वेक्षण में यह भी उल्लेख है कि विकास और आधुनिकता के प्रतीक शहर-दिल्ली और बंगलूरू अंधविश्वास के सबसे बड़े गढ़ हैं। इससे पता चलता है कि देश का पढ़ा लिखा वर्ग अंधआस्था की गिरफ्त में हैं। आज आवश्यकता है कि हम ईश्वर की व्यापकता को आत्मसात करें और अंध आस्था के आश्रमों से मुक्त एक विवेकवान विचारशील जीवन यापन करें।
डीजल के दाम बाजार के हवाले
महंगाई के प्रति सरकार का अपना आर्थिक उदारवादी नजरिया है। वह मान कर चल रही है कि यह उदारीकरण जनता के भले के लिए हो रहा है। जबकि जनता में एक सुप्त आक्रोश पैदा हो रहा है। इस समय महंगाई के प्रश्न को सामाजिक नजरिये से देखा जाना भी जरूरी है।
डी जल के दाम बाजार के हवाले करने का फैसला होते ही राजनीतिक गुस्से का स्यापा जाहिर होने लगा है। विरोध की पहली आवाज सरकार में शामिल दलों की तरफ से आई है। लेकिन सवाल ये है कि इतने राजनीतिक शोर के बाद महंगाई की मा र को न तो रोका जा सका है और न ही कोई असर इसका दिखाई देता है। कहने को सभी पार्टियां एक स्वर में महंगाई का विरोध करती हैं लेकिन इस विरोध की परिणति कहीं नहीं पहुंचती। राजनीतिक पार्टियां आरोप लगा रही हैं कि सरकार जनता की उपेक्षा कर तेल कंपनियों के फायदे में लगी है। दूसरी तरफ सरकार के सब्सिडी वाले गैस सिलेंडरों की तादाद 6 से बढ़ाकर 9 करने के फैसले को राजनीतिक सेफ्टी वॉल्ब समझा जा रहा है। ऐसा लग रहा है कि अब डीजÞल की कामतें भी पेट्रोल की तर्ज पर आसमान छुएंगीं। इसके बिलकुल करीब महंगाई की सीमारेखा है। लेकिन इस महंगाई के प्रति सरकार का अपना आर्थिक उदारवादी नजरिया है। वह मान कर चल रही है कि यह उदारीकरण जनता के भले के लिए हो रहा है। जबकि जनता में एक सुप्त आक्रोश पैदा हो रहा है। इस समय महंगाई के प्रश्न को सामाजिक नजरिये से देखा जाना भी जरूरी है। क्योंकि अंतत: महंगाई सामाजिक मुद्दा भी तो है। दूसरा प्रश्न ये है कि महंगाई का प्रभाव समस्त समाज पर समान रूप से नहीं पड़ता है। समाज में दो तरह के लोग होते हैं। एक वे जिनकी आय का स्रोत उनकी मजÞदूरी है चाहे वह शारीरिक हो या मानसिक। दूसरी तरफ, वे जिनकी आय का स्रोत संपत्ति होती है। अर्थात् ये लोग ब्याज, किराया तथा लाभ के रूप में अधिशेष अर्जित करते हैं। समाज के प्रथम वर्ग में आने वाले लोगों में भी दो वर्ग होते हैं। एक वर्ग असंगठित क्षेत्र में काम करने वालों का है जिसकी आय स्थिर और न्यूनतम होती है। दूसरी तरफ, सरकारी बाबू-कर्मचारी हैं जिनकी आय महंगाई के अनुपात से बढ़ती रहती है। एक अर्थशास्त्री के नजरिये से महंगाई हमेशा संपत्तिधारी वर्ग के पक्ष में होती है, क्योंकि महंगाई के दौर में उसकी संपत्ति की कीमतें बढ़ती हैं। इससे उसका लाभ भी तेजी से बढ़ता है। यदि महंगाई की दर पांच प्रतिशत से कम हो जाए तो ये लोग उसे मंदी कह कर हाय-तौबा मचाते हैं। सीमित कमाने वाले लोग चाहे वे असंगठित क्षेत्र के मजÞदूर हों या दुकानों में काम करने वाले कर्मचारी। उनकी आय में होने वाले परिवर्तन की अपेक्षा महंगाई में होने वाला परिवर्तन कहीं अधिक होता है। इस वर्ग के लोग अपनी आय का अधिकतम हिस्सा लगभग 40 प्रतिशत खाने पर खर्च कर देते हैं। होना तो ये चाहिए कि डीजल से चलने वाली लक्जरी गाड़ियों पर सरकार टैक्स लगाए और उससे मिलने वाले धन से किसानों को डीजल पर सब्सिडी मिले। सरकार को इसकी कोशिश करनी चाहिए। महंगाई के लिए केंद्र सरकार पूरी तरह से दोषी है। डीजल और रसोई गैस की कीमतें आम आदमी के बजट की धड़कनें तय करती हैं। जनता से जुड़ा होने के कारण तमाम पार्टियों को विरोध करना ही है। लेकिन सवाल ये है कि क्या ये विरोध लोगों को राहत दिलवा पाएगा। सरकार को समझना होगा कि सामाजिक नजरिये को किसी भी तरह ओझल नहीं किया जा सकता।
बुधवार, जनवरी 16, 2013
नाबालिग साबित होने के बाद
दि ल्ली गैंगरेप मामले में छठे आरोपी के नाबालिग साबित होने के बाद अब बहस छिड़ गई है कि मौजूदा कानून के मुताबिक वह कुछ ही महीनों में छूट जाएगा। एक रिपोर्ट ये भी है कि अगले पांच महीनों में बालिग हो जाएगा, लेकिन मौजूदा बाल सुधार कानून में किसी भी नाबालिग को उसके अपराध के लिए अधिकतम 3 साल की सजा हो सकती है। इस बहस के दौरान लोग क्रिमिनल जस्टिस लॉ 2012 की ओर देख रहे हैं जोकि संसद में पास होने के लिए लंबित है। लोगों की मांग है कि इसी संशोधन विधेयक में जुवेनाइल की उम्र 18 से घटाकर 16 कर दी जाए। जुवेनाइल एक्ट में बालिग उम्र की परिभाषा भी बदली जाएगी। इस संदर्भ में कई विशेषज्ञों का मानना है कि 100 साल में बहुत कुछ बदल गया है। आनुवांशिक परिवर्तन, भौगोलिक परिस्थितियां और जीवन स्तर। ऐसे में नाबालिग की उम्र कम करने में किसी तरह की संवैधानिक अड़चन नहीं है। इसके साथ ही एजूकेशन सिस्टम, इंटरनेट और अन्य सूचना माध्यमों के जरिये बच्चों को बहुत सी जानकारियां प्राप्त हो रही हैं। जो उनकी परिपक्वता को बढ़ाती हैं, इसलिए नाबालिग की उम्र कम होनी चाहिए। कुछ वर्षों से बच्चों में हारमोनल चेंज भी तेजी से होने लगे हैं। उनकी सोचने और समझने की शक्ति बढ़ी है। 16 वर्ष के बच्चे में इस तरह के मनोवैज्ञानिक परिवर्तन साफ देखे जा सकते हैं। ये चीजें नाबालिग की उम्र को लेकर नए सिरे से विचार के लिए प्रेरित करती हैं।
नेशनल क्राइम रिकार्ड ब्यूरो के आंकड़े बताते हैं कि वर्ष 2011 में हत्या व दुष्कर्म के अतिरिक्त दिल्ली जैसी जगह में लूटपाट में 64 तथा सेंधमारी-वाहन चोरी में 290 नाबालिग अपराधी पकड़े गए। आने वाले समय में यह समस्या और भी गंभीर हो जाएगी। अपराध की तरफ उनका झुकाव अभिभावकों और समाज दोनों के लिए खतरनाक संकेत है। यही कारण है कि अब बालिग होने की उम्र कम करने को लेकर बहस तेज हो गई है। चिकित्सा विशेषज्ञ, मनोवैज्ञानिक, समाजशास्त्री सभी एक जैसा सोचने लगे हैं। न्यायविदों की राय भी है कि बालिग उम्र घटकर 16 वर्ष होना चाहिए। करीब 138 साल पहले इंडियन मेजॉरिटी एक्ट मार्च 1875 में बनाया गया था। जिसके तहत बालिग होने की उम्र 18 साल निर्धारित की गई थी। लेकिन इतने सालों बाद इंडियन मेजॉरिटी एक्ट में बदलाव न होना लोगों को अखरने लगा है। यहां यह देखना जरूरी है और जैसी कि बाल संरक्षण आयोग ने चिंता जाहिर की है कि इससे बालश्रम को समाप्त करने के प्रयासों को आघात पहुंचेगा क्योंकि देश में18 साल तक के बच्चों की संख्या 44 करोड़ है। उम्र कम होने से कई दूसरी सामाजिक समस्याएं जन्म ले सकती हैं। इस मामले में गहन विचार की जरूरत है। यहां यह विकल्प भी मौजूद है कि 16 वर्ष की उम्र का बदलाव भारतीय दंड संहिता के तहत हो। इसे विवाह, रोजगार, फैक्ट्री एक्ट, बालश्रम और अन्य सामाजिक-राजनीतिक निकायों में लागू नहीं किया जा सकता। अत: इस विषय में और विचार करते हुए विवेकपूर्ण रास्ता निकालना होगा। इसके लिए देश के विशेषज्ञों की टीम को भी अधिकृत किया जा सकता है।
ravindra swapnil prajapati
नेशनल क्राइम रिकार्ड ब्यूरो के आंकड़े बताते हैं कि वर्ष 2011 में हत्या व दुष्कर्म के अतिरिक्त दिल्ली जैसी जगह में लूटपाट में 64 तथा सेंधमारी-वाहन चोरी में 290 नाबालिग अपराधी पकड़े गए। आने वाले समय में यह समस्या और भी गंभीर हो जाएगी। अपराध की तरफ उनका झुकाव अभिभावकों और समाज दोनों के लिए खतरनाक संकेत है। यही कारण है कि अब बालिग होने की उम्र कम करने को लेकर बहस तेज हो गई है। चिकित्सा विशेषज्ञ, मनोवैज्ञानिक, समाजशास्त्री सभी एक जैसा सोचने लगे हैं। न्यायविदों की राय भी है कि बालिग उम्र घटकर 16 वर्ष होना चाहिए। करीब 138 साल पहले इंडियन मेजॉरिटी एक्ट मार्च 1875 में बनाया गया था। जिसके तहत बालिग होने की उम्र 18 साल निर्धारित की गई थी। लेकिन इतने सालों बाद इंडियन मेजॉरिटी एक्ट में बदलाव न होना लोगों को अखरने लगा है। यहां यह देखना जरूरी है और जैसी कि बाल संरक्षण आयोग ने चिंता जाहिर की है कि इससे बालश्रम को समाप्त करने के प्रयासों को आघात पहुंचेगा क्योंकि देश में18 साल तक के बच्चों की संख्या 44 करोड़ है। उम्र कम होने से कई दूसरी सामाजिक समस्याएं जन्म ले सकती हैं। इस मामले में गहन विचार की जरूरत है। यहां यह विकल्प भी मौजूद है कि 16 वर्ष की उम्र का बदलाव भारतीय दंड संहिता के तहत हो। इसे विवाह, रोजगार, फैक्ट्री एक्ट, बालश्रम और अन्य सामाजिक-राजनीतिक निकायों में लागू नहीं किया जा सकता। अत: इस विषय में और विचार करते हुए विवेकपूर्ण रास्ता निकालना होगा। इसके लिए देश के विशेषज्ञों की टीम को भी अधिकृत किया जा सकता है।
ravindra swapnil prajapati
गुरुवार, जनवरी 10, 2013
रे ल किराए में वृद्धि
रे ल किराए में वृद्धि के साथ ही चारों तरफ हाहाकार शुरू हो गया है। महंगाई और बढ़ेगी। सरकार ने किराया बढ़ा दिया लेकिन यह भी विचार करना जरूरी है कि आखिर रेलवे के लिए यह वृद्धि कितनी वाजिब या कितनी जरूरी थी? भारतीय रेलवे एशिया का बड़ा संस्थान है जिसमें16 लाख से अधिक लोग रोजगार से जुड़े हैं। यह प्रतिदिन 2.5 करोड़ से अधिक लोगों को अपने गंतव्य पर पहुंचाता है। करीब 8 हजार रेलवे स्टेशनों को संभालता है। यह सब जानते हैं कि इतने बड़े नेटवर्क के संचालन के लिए विशाल पूंजी की आवश्यकता होती है। लेकिन वहीं दूसरा सवाल है कि लालू यादव ने रेलवे को जिस फायदे में पहुंचाया था, उसके बाद रेलवे की अर्थ व्यवस्था कैसे चरमराती चली गई? एक दौर में लालू ने पूरी दुनिया को इसी रेलवे के माध्यम से चौंकाया था लेकिन आज कौन सी परिस्थितियां बदल गर्इं कि रेलवे को बीच बजट में ये कदम उठाना पड़े। कैसे रेलवे को कहना पड़ा कि कर्मचारियों को पगार देने के लिए पैसे नहीं बचे।
जनता कई तरह की महंगाई से परेशान है लेकिन सरकार सुरक्षा और सुविधाओं की बात बार-बार करती है। प्रेस कॉफ्रेंस करते हुए रेल मंत्री पवन कुमार बंसल ने किराया बढ़ाने के पीछे तर्क दिया कि रेलवे का खर्चा बढ़ा, लेकिन किराया अब तक नहीं बढ़ाया गया था। रेल मंत्री ने यह भी साफ किया कि अब इसके बाद रेल बजट में किराया नहीं बढ़ाया जाएगा। यह तर्क क्यों? समझ से परे है कि यूपीए सरकार हर चीज महंगी करते हुए तर्क दे रही है कि यह जनता के हित में है या यह सब जनता की सुविधाओं के लिए किया जा रहा है। पर जनता निरंतर दुखी होती चली जा रही है। रेलमंत्री कहते हैं कि लोग बेहतर और आधुनिक सुविधाओं के लिए ज्यादा पैसे देने के लिए तैयार हैं। इस तर्क पर कई प्रतिप्रश्न किए जा सकते हैं? रेलवे को आधुनिक बनाने के लिए और भी कई तरीके हैं। इन्हें अपना कर सरकार इस बजट सत्र को तो पूरा कर सकती थी। अगर हाल ही की कीमतों की बढोतरी में सिर्फ किराया ही होता तो जनता में इतनाआक्रोश नहीं फैलता। इससे पहले गैस की कीमतों ने पूरी तरह से उलझा दिया। लोग इसके लिए आज भी परेशान हो रहे हैं। हालांकि रेलवे के पक्ष से भी चीजों को देखना जरूरी है। किराया वृद्धि के इस तर्क से असहमत नहीं हुआ जा सकता कि रेलवे का किराया पिछले आठ सालों में नहीं बढ़ा। देखा जाए तो रेलवे का यात्री किराया खर्च बढ़ने के अनुपात में कम ही बढ़ा है। राजनीतिक कारणों से रेलवे पर जनता को कई तरह की छूट देने का दबाव होता है। कम भाड़ा और सीमित सरकारी मदद के बाद रेलवे से पर्याप्त सुरक्षा और सुविधा देने की अपेक्षा रखी जाती है। सुरक्षा की बात करें तो रेलवे के आधुनिकरण के लिए बड़ी पूंजी चाहिए और जब तक कोई सुरक्षा प्रणाली का प्रयोग होना शुरू होता है तब तक वो तकनीक पुरानी हो जाती है, इसलिए सुरक्षा में कोई उल्लेखनीय सुधार नहीं हो पाता है। सच तो ये है कि हमारी सरकार से लेकर जनता तक काम-काज का तरीका व्यावसायिक नहीं है। रेलवे को भी इस पर विचार करना चाहिए।
बुधवार, जनवरी 09, 2013
आईआईटी की सालाना फीस में 80 फीसदी तक की वृद्धि
आईआईटी इंजीनियरिंग कालेजों की फीस में सालाना चौगुना से भी अधिक फीस बढ़ाने का प्रस्ताव दिया है। क्यों? इसके पीछे विदेशी विश्वविद्यालयों को घुमाफिरा कर मदद पहुंचाने की एक बड़ी साजिश देखी जा रही है।
आईआईटी जैसे संस्थान में पढ़ने की इच्छा रखने वाले छात्रों के लिए यह एक चौकाने वाली खबर है। सरकार ने आईआईटी की सालाना फीस में 80 फीसदी तक की वृद्धि की है। मानव संसाधन विकास मंत्री एम एम पल्लमराजू की अध्यक्षता में आयोजित आईआईटी काउंसिल की बैठक में बी.टेक कोर्स की फीस बढ़ाने के फैसले को हरी झंडी दे दी गई। हालांकि फीस की बढ़ोत्तरी केवल सामान्य वर्ग के छात्रों के लिए की गई है। लेकिन इससे शिक्षा जगत में कुछ नए सवाल भी उठ रहे हैं। सरकार ने कुछ हफ्तों पहले ही केंद्रीय विद्यालय की फीस बढ़ाई गई है। इससे लग रहा है कि महंगी शिक्षा अब अनिवार्यता हो रही है। सरकार शुल्क पर अपना नियंत्रण क्यों खोती जा रही है। यह समझ से परे है? शिक्षा के प्रमुख स्रोत बनते जा रहे निजी विद्यालयों की बात ही निराली है। उनको अब सरकार नियंत्रित नहीं कर पा रही है। हर साल फीस, स्टेशनरी, यूनिफार्म के नाम पर 20 से 25 फीसदी अघोषित वृद्धि होती है। जिन स्कूलों में जहां प्रवेश शुल्क बीते साल 22 से 25 हजार थी वहीं इस साल 30 हजार रुपए तक सिर्फ प्रवेश का लिया गया। शिक्षा की यह महंगाई बच्चों को दो हिस्सों में बांट रही है। महंगी शिक्षा के कारण औसत आमदनी वाले परिवारों पर अतिरिक्त बोझ आएगा। हर साल भारत के 15 आईआईटी में 3.5 लाख छात्र इनकी प्रवेश परीक्षा में बैठते है। जिसमें से लगभग 8 हजार छात्र चुने जाते हैं। इस कठिन परीक्षा के लिए देशभर में छात्र वर्षों कड़ी मेहनत करते हैं। महंगे कोचिंग संस्थानों में पढ़ाई करते हैं। खुद सरकार भी देश की परेशान हाल जनता को तरह-तरह से महंगाई के नागफाश में जकड़ रही है। रही-सही कसर पूरी करने का जिम्मा कपिल सिब्बल ने ले लिया है। उन्होंने आईआईटी इंजीनियरिंग कालेजों की फीस में सालाना चौगुना से भी अधिक फीस बढ़ाने का प्रस्ताव दिया है। क्यों? इसके पीछे विदेशी विश्वविद्यालयों को घुमाफिरा कर मदद पहुंचाने की एक बड़ी साजिश देखी जा रही है। इसे बढ़ोतरी में यह भी देखा जाना चाहिए कि दो साल पहले कपिल सिब्बल अमेरिका घूमकर लौटे तो दावा किया कि अनगिनत विदेशी विश्वविद्यालयों ने भारत में अपनी शाखाएं खोलने का इरादा जताया है। लेकिन जल्द ही पता चला कि अधिकांश विश्वविद्यालयों ने शाखा खोलने से इनकार कर दिया है। इसका एक बड़ा कारण प्रमुख सरकारी शैक्षणिक संस्थाओं की फीस कम होना। जैसे आईआईटी जैसी इंजीनियरिंग की विश्वस्तरीय संस्था में इंजीनियरिंग के छात्र-छात्राओं से लगभग पचास हजार रुपए फीस ली जाती है। मध्यवर्गीय लोगों को यह रकम काफी भारी पड़ती है। लेकिन शिक्षा के नाम पर लूट की मानसिकता रखने वाले राजनेताओं-अधिकारियों और शिक्षा माफिया की नजर में यह फीस मामूली है। विदेशी विश्वविद्यालयों के लिए तो और भी ज्यादा जरूरी है कि फीस की रकम में भारी बढ़ोत्तरी हो ताकि दोनों में बहुत अंतर न रहे। यही कारण है कि सरकार बैंक ऋण का दुष्चक्र भी चाहती है। दुनिया में कितना भी व्यवसाय हो लेकिन वह मानवीयता से जुड़े होने पर ही शिक्षा अपनी उत्कृष्टता साबित करेगी।
शुक्रवार, जनवरी 04, 2013
अमेरिका में घृणा
एक तरफ विश्व ग्राम की बात की जाती है तो दूसरी तरफ मानव सभ्यता को घृणा जैसे मनोविकार से मुक्त नहीं किया जा सका है। दुनिया में नस्लीय घृणा की मानसिकता बढ़ रही है।
अ मेरिका के न्युयॉर्क में इस महीने सब-वे रेल स्टेशन पर ट्रेन के सामने धक्का देकर हत्या का यह दूसरा मामला है। इससे पहले टाइम्स स्क्वेयर पर रेलवे स्टेशन पर भी एक व्यक्ति को पटरियों पर आती हुई ट्रेन के सामने धक्का देकर मार डाला गया था। यह मामला भी घृणा से जुड़ा था। दुनिया के लिए मानवता का संदेश देने वाले अमेरिकी अब इस नस्लीय हिंसा का क्या उत्तर देंगे? जिस महिला एरिका मेनेंडेज ने इस हत्या को अंजाम दिया उसने स्वीकार किया है कि हां उसने धक्का मारा था। उसने पुलिस को बताया कि मैंने समझा कि वह एक मुस्लिम है। नस्लीय घृणा की यह मानसिकता एक उच्च सभ्यता के प्रतीक अमेरिकी समाज में फैलना कई तरह की चिंताओं का कारण बन सकता है।
हालांकि त्वरित कार्यवाही करते हुए पुलिस ने धक्का देने वाली 31वर्षीय एरिका को गिरफ्Þतार कर लिया है। पूछताछ में महिला ने पुलिस को बताया है कि 9/11 के बाद से उसे हिंदुओं और मुसलमानों से घृणा हो गई। इसके बाद पुलिस ने उस पर घृणा अपराध के लिए सेकंड डिग्री हत्या का आरोप तय किया है। पुलिस के मुताबिक उसने सेन को मुसलमान समझकर मारने के लिए ही चलती हुई ट्रेन के सामने धक्का दिया था। सुनंदो सेन क्वींस इलाके के 40 स्ट्रीट स्टेशन के प्लेटफॉर्म पर खड़े थे। उस समय वह काम से घर लौट रहे थे। सतर्कता के लिए इन दो हादसों के बाद सब-वे ट्रेन प्राधिकरण के निदेशक जोसफÞ लोटा ने अपील की है कि प्लेटफÞार्म पर जÞरूरी एहतियात बरतें। जोसफÞ लोटा ने कहा, मैं सभी यात्रियों से अनुरोध करता हूं कि वह पटरी के बिल्कुल पास न खड़े हों औरÞ अगर कोई संदिग्ध व्यक्ति दिखाई दे तो फÞौरन 911 पर पुलिस को फÞोन करें। यह चेतावनी तो भारतीय नेताओं के स्तर की है। इसमें कोई सरकारी प्र्रयासों की झलक नहीं मिलती है। न्यूयॉर्क में सबवे और लाईट रेल सेवा का 85 लाख लोग रोजÞाना प्रयोग करते हैं। इतने बड़े नेटवर्क के लिए यह समस्या ही है। मूल तत्व है घृणा को तिरोहित करना। यह मनोवैज्ञानिक सत्य है कि जब गुस्से को उपचार नहीं होता तो वह बैर और घृणा में बदल जाता है। इससे लोग इस तरह के कामों को अंजाम देते हैं। इस पर पूरी दुनिया को गंभीरता से विचार करने की आवश्यकता है। यह घृणा अगर संगठित रूप में सामने आ जाए तो यह आतंक का दूसरा रूप है। अमेरिकी समाज में यह तात्कालिक प्रतीकात्मक विरोध है जो धीरे धीरे हिंसक घृणा का रूप लेता जा रहा है। यह नस्लीय हिंसा सुप्त और निष्क्रि य क्रोध से पैदा होती है। यह विकृत रूप है, जो नहीं देखता है कि उसके कारण से कौन मारा जा रहा है। यह अमेरिका में फैली हताशा का परिणाम भी हो सकता है। अक्सर इस तरह की हिंसा हताश मानसिकता का प्रतीक भी है। और अंत में अमेरिका अपने लोगों के व्यवहार को कैसे बदले? हिंसा की ये घटनाएं अमेरिकी ही नहीं पूरी दुनिया को भी सोचने पर मजबूर कर रही हैं। अमेरिका में प्रवासी हिंदू और मुस्लिमों के प्रति घृणा स्वस्थ्य समाज का लक्षण नहीं है। अमेरिका को इस घृणा और क्रोध को खत्म करने के लिए दूरगामी उपायों को अपनाना चाहिए। वरना ये शुरुआत है जो घृणा और हिंसा को और अधिक फैला सकती है।
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