शनिवार, दिसंबर 22, 2012

रमेशचंद शाह से रवीन्द्र स्वप्निल प्रजापति की बातचीत



आपके बचपन और आपकी स्मृतियों से साहित्य का रिश्ता कैसा है। मैं आपके बचपन और साहित्य के बीच के रिश्ते की बात करना चाहता था।


जहां तक बचपन और कलाकारों का संबंध है तो सबसे ज्यादा अचेतन रूप से यह प्रभाव कलाकारों लेखकों पर होता है, भले हम इसके लिए सचेत हों या न हों। कहा भी गया है कि मनोवैज्ञानिक रूप से सबसे ज्यादा बचपन के पहले पांच दस वर्षो में मन पर जो छापें पड़ती हैं वह बहुत महत्वपूर्ण होती हैं।  क्योंकि दुनिया की सिखी सिखाई बातों का इस अवस्था का कोई असर नहीं होता, कोई स्वीकार नहीं होता।
वे सबसे ज्यादा टिकाऊ होती हैं और सबसे ज्यादा गहरी भी  होती हैं। हमारे जीवन में हजारों लाखों बिंब बचपन के पड़े हैं, कान के ध्वनि बिंब, दृश्य के बिंब, हवाओं के, प्रकृति के, पेड़ पौधों के हिलने झरझराने के बादल के गरजने के तमाम बिंब इस उम्र में आते हैं और जीवन का हिस्सा बन जाते हैं।
लेकिन मैं भी चकित हूं कि क्या कारण है कि कोई दस पांच बिंब और स्मृतियां ही इस दौरान बची रह पाती हैं। इस वक्त तक आदमी समाज के द्वारा सबसे अधिक स्वतंत्र रहता है। रोना है तो रोना है किसी का कोई दबाब नहीं।
हमारे जमाने पर, उस वक्त पर आज हमें तो गर्व है कि हमें तो हमारा पूरा बचपन मिला। हमें बचपन का पूरा सुख मिला। पंाच वर्ष तक हम स्कूल गए ही नहीं। हम निरक्षर भट्टाचार्य रहे। पढ़ाई बढ़ाई स्कूल की रुटीन से बिलकुल मुक्त रहे। इससे प्रकृति के आसपास का सीधा संपर्क रहा। पूरा संवाद बना।
अब जैसे कुछ स्मृतियां हैं। वह कविता में आती हैं। ये यादें बुलाने से नहीं आतीं। ऐसी ही एक कविता लिखी है वो बहुत पुरानी, बहुत बचपन की यादें हैं। उस कविता में एक बच्चा सुबह-सुबह खिड़की में खड़ा है, सामने पहाड़ है। वह हिमपात को देखता है। वो कविता मुझे याद नहीं है। तुम ढ़ृूंढ सकते हो। इस कविता में साकार हुआ, यह मेरी चेतना पर पड़ा पहला बिंब है। मैं तब दो या ढाई वर्ष का रहा हूंगा। रात भर हिमपात हुआ है। कविता में है कि एक बच्चा है, खिड़की में खड़ा है। रातभर हिमपात हुआ है। सारा पहाड़ उस हिमपात से ढका है। आश्चर्य से पहाड़ भी मुझे देख रहा है। वह बच्चा खिड़की से वह दृश्य देख रहा है। अवाक है। वह भौंचक है। वह मेरी पहली स्मृति है। जैसे बादल भी उससे कुछ कहना चाहता है। ये स्मृतियां बुलाने से नहीं आती हैं। ये अपनी तरह से आती हैं। यह बहुत फोर्स से आईं। वर्षों बाद यह उभर कर सामने आई। सब कुछ अवाक है। मैं भी और पहाड़ भी। ये इतनी फोर्स के साथ वर्षों बाद में आईं तो मैं सोचने लगा कि ये स्मृति ये बिंब कैसे आए। स्मृतियां जैसे कुछ चाबियां हैं जिनसे ताला खुलता है। मैं सोच रहा कि ये बिंब आया कहां से? मैं बहुत देर तक ये सोचता रहा।
ये मेरी चेतना पर पड़ी हुई प्रकृति की पहली छाप है। ये बहुत गहरे से मेरी चेतना में पड़ी थीं। ऐसी स्मृति कुल जीवन में दस बारह होती हैं। जब ये आती हैं तो बहुत ताकत से आती हैं। यह याद इतनी फोर्स के साथ आई, एकदम कि मैं चुप हो गया। मुझे याद है अभी भी याद है कि वह कब याद आई। यह मुझे बरसों बरस बाद याद आई। मैंने बहुत देर तक विचार करने के बाद पहचाना। इस प्रकार के कई बिंब  जीवन में लौट लौट कर आते हैं और उनमें लगता है कि जीवन का कोई रहस्य सत्य छुपा है। वह कुछ हमसे कहना चाहते हैं। हमसे बातें करना चाहते हैं। कुछ कथाएं कहना चाहते हैं। जैसे कि ये बिंब चाबियां हैं, जिनसे ताला खुलता है। ऐसा मुझे लगता है। तो बचपन के जीवन का हिस्सा बहुत महत्वपूर्ण होता है और वह कई रूपों में आपकी तरफ आता है।


स्मृतियों का सौंदर्य क्या है? आज साहित्य और कला में क्या यह बचा है? अभी जो नए साहित्यकारों और उनके साहित्य में बदलाव आए हैं उनमें ऐसी स्मृतियां नहीं हैं, आप इस बदलाव को तुलनात्मक रूप से किस नजरिये से देखते हैं?
यहां पर दो बातें हैं। मेरे साथ क्या हो रहा है और मेरे आसपास क्या हो रहा है? जहां तक मेरी रचना प्रक्रिया का सवाल है, मेरी स्मृति का सवाल है तो वह मेरी चेतना की पूंजी हैं। मेरी स्मृति मेरी चेतना का अभिन्न हिस्सा हैं। प्रकृति ही मेरी स्मृति है। प्रकृति मेरे जीवन में अवाक है। मेरी रचनात्मक चेतना के निर्माण में प्रकृति का बहुत योगदान है। मैं पहले ही बता चुका हूं कि मेरी स्मृति पहाड़ से जुड़ी है। वह मेरी चेतन की पूंजी है। मेरे बचपन में मेरी स्मृति में प्रकृति ही है। लेकिन आज की छापें जो पड़ती हैं स्मृति पर चेतना पर, उनसे मेरा संघर्ष होता है। अब जो स्मृति मेरे पास है वह अवाक है। वह नई है, उसमें दोहराव नहीं है। सच तो ये है कि प्रकृति में दोहराव होता ही नहीं। आज भी मैंने प्रकृति की कविताएं लिखी हैं। यह इसलिए कि प्रकृति मेेरे बचपन का हिस्सा हैं। वे मुझसे जुड़ी हैं।
आज भी प्रकृति मेरा सहारा है। आपको बता दूं कि रानी खेत में मेरा भाई है। उसके यहां एक छोटा सा बगीचा है। भाई वहां रहता है।  मैं उस बगीचे में छटाई कर रहा हूं। निड़ाई-गुड़ाई कर रहा हूं। यहां पुराने पशुओं की तरह पुराने पौधे एकटक देख रहे हैं। मैं वही बैठ गया हूं। आज भी लगता है कि जैसे वे पौधे मुझे देखते हैं। मैं सोचता हूं कि ये क्या बात है कि आदमियों से तो ऊब हो जाती है लेकिन इनसे क्यों नहीं ऊब लगती है।
लेकिन पौधे से आप नहीं ऊबते हैं। प्रकृति से आप नहीं ऊबते हैं। अच्छे-अच्छे साथी से आप से ऊबने लगते हैं। आज ऐसा लगता है कि ये कोई वो प्रकृति नहीं है। अब इस पर वह सब नहीं लिखा जा सकता... यह विकास मानीवय सभ्यता ऊब देती है। लेकिन ऐसा भी नहीं कि मैंने दूसरी कविताएं नहीं लिखीं। मैंने उस प्रकृति को छोड़ कर यह दूसरी स्मृति की कविताएं भी हैं।
आज मुझे ऐसा लगता है, जो कविताएं में पढ़ता हूं। उससे मुझे लगा कि आज युवा कविता है ही नहीं है। बहुत दिनों तक मैंने पाया कि युवा कविता कह-कह के आप चालीस पचास वर्ष के हो गए और आज भी आप खुद को युवा कवि कहते हैं। आप इस तरह से बिहेव कर रहे हैं कि युवा कविता कभी वयस्क होती ही नहीं है। जबकि हम हर-हर बार नई कविता को पाते हैं। हर दस साल में पूरा दृश्य बदल जाता है। उसकी अलग चुनौतियां होती हैं। और डिवलप का मतलब क्या होता है? जब हम कहते हैं कि फलाने कवि का विकास क्रम क्या है? जिसे आप विकास क्रम कहते हैं।
कविता के लिए तीन चीजों की आवश्यकता होती। ये भाव तंत्र, बुद्धि तंत्र और शरीर तंत्र है। तीनों के मिलन से कविता  संभव होती है, तीनों एकसाथ सहयोग करते हैं।
कविता अपने आसपास की चीजों का सहयोग करती है। कविता ऐसी चीज है जिसमें आपके नाक कान भी एक्टव होते हैं। आपका भाव तंत्र और विचार तंत्र भी सक्रिय होता है कविता एक समन्वित और एकीकृत प्रक्रिया है। इसीलिए यही कारण है कि कविता से मिलने वाला सुख अन्य किसी चीज से मिलने वाले सुख अधिक होता है। कविता से जो अभिव्यक्ति मिलती है वह, अनोखी होती है। इसमें आपके समूचे व्यक्तित्व को अभिव्यक्त मिलती है। इसलिए कवि से हमारे यहां खास कर भारत में, कविता में खास तरह की विजडम की मांग की जाती है। हमारे यहां ऐसा नहीं कि ये रहा धर्म ये रही कविता। यहां कविता एक एकीक्रत सन्वित प्रयास है। कविता से एक विजडम की मांग की जाती है।
क्या कारण है कि कवियों ने इस समाज को एजुकेट किया है। दुनिया में ऐसा कोई उदाहरण ही नहीं मिलता है जहां कवि एजुकेट भी करता है। मुझे याद है गांव की कि दुकान पर लोग आते थे, जिनमें से निरक्षर ही अधिक होते थे, लेकिन देश में क्या हो रहा है। राजनीति में क्या हो रहा है। इस पर बातें होती थीं। उसमें से कोई पहली पास भी नहीं होते थे। लेकिन उनको कबीर और तुलसी के दोहे चौपाई याद रहती थीं। गिरधर की कुंडलनी याद आ रही है। लेकिन वहां कोई लिखने वाला ही नहीं था। आज जो शिक्षा है वह तकनीकी है, भाव के स्तर पर उसमें कुछ नहीं है।
कविता का कितना संबंध समाज से है, यह जरूरी है। कविता अन्न की तरह उपयोगी थी। कविता की जरूरत पान सुपाड़ी तरह लोगों को रहती थी, जब गांव में लोग कोई बात कहते हैं तो उसकी पुष्टि कविता से करते थे, लेकिन आज के परिवेश में ऐसा नहीं है। उस समय कविता उदाहरण के रूप में लोगों की जुबान से निकलती थी। उक्ति के रूप में आती थी। कविता का कितने तरह से उपयोग हो सकता है यह वहां जाना। उन गांव वालों के बीच रहते हुए।

दूसरी बात आज जो मुझे बात अखरती है कि इतना सामाजिकता का दावा आज है, वह पहले कभी नहीं था। कोई दावा नहीं होता था। जैसा आज कहते हैं-हम ये बदल देंगे, ये कर देंगे, वो कर देंगे। आज कविता के साथ वो संबंध न तो समाज में रहा है, न कवियों में है। जैसे ये जो मोहल्ला है। निराला नगर (भोपाल) यहां काफी लेखक हैं, लेखक ही लेखक हैं। बाकी समाज को छोड़ दें, उसकी कोई रुचि साहित्य में नहीं है। आज कई कवि यहां हैं लेकिन कोई भी अपनी प्रेरणा के साथ नहीं आता। आज कवि खुद ही आपस में कविता को जीते हैं। जब आप लिखते हैं तो खुद के लिए लिखते हैं। जैसे रेशम का कीड़ा आपके लिए रेशम नहीं बनाता है। वह अपनी पीड़ा से बचने के लिए रेशम रचता है। आप उससे वह छीन लेते हैं जो वह अपने लिए कर रहा होता है। जो कविता है, वह खुद उसके लिए होती है। जब आप लिखते हैं तो दूसरों के लिए नहीं लिखते। कविता का प्रमाण ये है कि वह दूसरों पर असर करती है या नहीं। इसकी चिंता नहीं है इसीलिए समाज से उसका कोई संबंध नहीं रहा है।
आज भी मैंने एक कविता लिखी है लेकिन उसको सुनने वाला कोई नहीं है। वह अनुभूति शेयर नहीं हो रही है। आप छोटी सी बिरादरी में सुनते-सुनाते हों तो सुनाते हो, लेकिन मुझे आज तक याद नहीं कि कि कोई कवि ऐसा नहीं है जो अपनी कविता के साथ आया हो। आज मैंने ये कविता लिखी है। लोग कहते हैं लेकिन कविता मे वैविध्य कहीं नजर नहीं आता। आज कविता को लोग हांक रहे हैं। अभिव्यक्ति हमारे समाज की जरूरत है। और अभिव्यक्ति है तो कविता संप्रेषण भी है।
जब आप कविता लिखते हैं तो आपका चित्त एकाग्र हो जाता है। लेकिन आज के कवि ये दावा अवश्य करते हैं कि उसने इस विचारधारा का प्रतिपादन किया है। ये गरीबी को बताया है लेकिन वे यह नहीं जानते कि इंसान एक जीता जागता आदमी है। कविता अभिव्यक्ति और संप्रेषण दोनों है। वह सामने वाले तक पहुंचनी है, यह भी महत्वपूर्ण है। जब आप कविता लिखते हैं तो आपका चित्त लगातार बोलता रहता है। उसमें एकाग्र हो जाता है। शांत हो जाता है। ये कैसे होता है, क्यों हो जाता है, यह प्रक्रिया चलती है।


ऐसा क्यों हुआ? ऐसी कौन सी ऐतिहासिक गलतियां हुईं जो हमें यह भुगतना पड़ा है। कविता जनता से क्यों दूर हुई और क्यों कवियों को दावे करना पड़े कि वह जनता के लिए ये कर रहा है, वो कर रहा है? संवादहीनता की स्थिति क्यों बनी ऐसा कर रहा है? क्या वैचारिक रूप से कोई भूल हुई इन सौ सालों में। ऐसा क्या हुआ कि हिंदी कविता को अपनी ही जनता से दूर होना पड़ा? क्या हमारे समाज में लोकतंत्र खास कर अभिव्यिक्त के स्तर पर था?

इसमें कविता का आंतरिक साक्ष्य है, उसको देखिए। स्वतंत्रता के  पहले की कविता स्वतंत्रता के बाद की कविता। स्वतंत्रता के बाद की कविता मोहभंग की कविता कही जाती है। स्वतंत्रता से जिस तरह की उम्मीदें लोगों ने लगाई थीं, उससे मोह टूटा। उसकी आधुनिकता की बात भी सामने आई। सच तो ये भी है कि पहले कविता सुनने के लिए होती थी। समाज में जब कविता पढ़ते थे तब तत्काल उसका पता चलता था। आज कविता वाचिक हो गई। कवि उसे कान से सुनता था लेकिन आज मुझे लगता है कि कविताएं कान को संबोधित ही नहीं होती हैं। तो ये जो कहीं न कहीं स्वतंत्रता के बाद कविता मोहभंग की कविता है। यही समझ में आता है कि देश की जनता का प्रतिनिधित्व करने वाले गांधी जी आए थे। लोहिया आए लेकिन कोई कारण नहीं है कि उस जमाने में लोहिया के समर्थकों ने अच्छी कविता लिखी हैं। ये दो बड़ी चीजें हैं।
देश की जनता का प्रतिनिधित्व करने वाले, उनके बोलने वाले गांधी जी आए। गांधी जी अंधे-गूंगे-बहरे लोगों के प्रतिनिधि
बन कर आए थे। आजादी के बाद की कविताएं सबसे अच्छी लोहिया के विचारों से प्रभावित लोगों ने लिखी हैं। क्या कारण है कि श्रीकांत बहुत अच्छे कवि थे। सहाय थे। वे लोहिया के अनुयायी थे लेकिन उनके पास कविता में जब भी बड़ा चेंज आता है तो वह पॉज का चेंज होता है। मामूली सा चेंज होता है लेकिन बहुत बड़ा चेंज होता है।
ऐसा नहीं है कि राजनीति नहीं होगी। राजनीति नहीं होगी तब भी कविता में राजनीति होगी, लेकिन वह कविता की शर्तों पर होगी। क्या कारण है कि नई कविता अचानक छपने की कविता हो गई। ये विचार करने की बात है। जैसे रघुवीर सहाय की कविता है- बस में चढ़ती स्त्री दूर तक मैं घिसटता हूं। इस कविता में राजनीति भी है। यह व्यवस्था पर सवाल करती है। राजनीति के लिए और भी कई कवि हैं। धूमिल हैं लेकिन क्या कारण हैं कि जो स्वभाव कविता का है वह वहां नहीं है। क्या कारण है कि कविता जो सुगबुगाहट पैदा करती थी वह अब नहीं है। इसके कारण हैं। हमने कविता से देश की परंपरा और संस्कृति से भरा-पूरा जीवन निकाल दिया है। कविता एक आयामी हो गई है और अपने में सिकुड़ गई है।
कोई भी अन्याय हो रहा है, वह कर्म में प्रकट हो रहा है। आप उस अन्याय कर्म का काम कविता से ले रहे हैं। हाल की जो कविताएं हैं, वे जीवन से नहीं हैं, ये विचार से आई हैं। कविता कर्म का विकल्प नहीं हो सकती। मुझे मालूम है विजयदेव नारायण साही जी इलाहबाद के भदोही में बुनकरों के साथ काम करते थे। कविता के साथ वे काम करते थे। लोहिया जी जो कविता में चाहते थे, वे उसे जीवन में लड़ते थे। कवि जो होता है वह सामाजिक होता है। उसका रिश्ता ब्रह्मांड से होता है। चारों दिशाओं से होता है वह कविता में बजना चाहिए, वह कविता में आना चाहिए। तब वह सब तक पहुंचती है। आज वह एक आयामी हो गई, इसलिए लोगों ने आपकी कविता पढऩा छोड़ दिया है।
आप लाख खुद को समझा लीजिए, छपा लीजिए लेकिन कविता जनता के पास नहीं जा रही है। आज इतनी संख्या में कविताएं लिखी जा रही हैं, उतनी कभी नहीं लिखी गईं। लेकिन यह भी देखिए कि लोग पढ़ते भी हैं या नहीं।
मुझे लगता है कि हिंदी साहित्य में विचारधारा नाम की चीज ने बहुत गड़बड़ किया है। इसने समाज से लोगों को काट दिया। आप लोगों से नहीं मिलेंगे और एक खास गुट के बीच रहेंगे, उससे एक खास तरह की छुआछूत फैली। हमारा परंपरागत जातिवादी व्यस्था जैसा हाल हो गया। जो हमारे गुट का नहीं वह हमारा कवि नहीं। विचारधारा में हो रहा है कि आपको तय किया जाता है कि आप क्या लिखेंगे। आज भी आप अच्छी कविता लिखते हैं तो लोगों को पता चल जाता है।
गुट ने समूह ने अच्छी बुरी कविता और कवि के अच्छे-बुरे का भेद मिटा दिया है। यह विचारधारा है, विचार नहीं है। आप हमारी विचारधारा के हैं तो आपको उठाया जाता है जबकि आप कवि कमजोर हैं। ये काम हमारी जातिवादी धारणा से भी अधिक घातक हुई। जो हमारे साथ नहीं, वह एक प्रकार से कवि नहीं। यहक्या है?
विचारधारा में ये बताया जाता है कि आप क्या लिखेंगे? आपने विचारधारा के अनुरूप लिख दिया तो आप छप गए। एक खास वर्ग में आप कवि हो गए। इस प्रक्रिया में जनता की स्वीकार्यता का कोई अर्थ नहीं रहा। एक कवि को छपने के लिए जो सहज संघर्ष करना होता था, वह छीन लिया गया।
किसी कवि ने लिखा तो आपने विचारधारा में दीक्षित कर लिया। आपने उसको सहायता दे दी और उसके स्वभाविक संघर्ष को छीन लिया। उड़ान की क्षमता छीन ली।
हां ऐसे में एक कवि अपनी स्वतंत्रता की घोषणा नहीं करता। उसके विचार की सामथ्र्य ही खत्म हो जाती है। विचारधारा कविता के रंग छीन लेती है। अलग-अलग रंग नहीं रहने दिया। विचारधारा के कवि दस साल बाद भी वही लिखते हैं जो प्रारंभ में लिखते थे। कोई पड़ाव नहीं मिलते उसको। वही रुटीन मिलता है।

इससे आप मानते हैं कि समाज और कविता का रिश्ता टूटा? या उसमें असहजता आ गई?
हां समाज और कविता में सहज रिश्ता नहीं रहा। आप समाज में जाए बिना समाज की बात करते हैं। इससे आप अपने समाज को जान ही नहीं सकते। जीवन में जो आंदोलन करना चाहिए, वह आप नहीं करते। आप सिर्फ कविता में आंदोलन करते हैं। इससे आप भी जीवन से वंचित होते हैं और कविता से भी जीवन छीन लेते हैं। इससे कविता का और समाज का रिश्ता कमजोर हुआ।

मैंने ऐसे अनुभव किए हैं। जब मेरी कविता को सुधारा गया बताया गया कि ऐसे प्रस्तुत करें। इस तरह लोगों को बताएं कि आपके दुश्मन कौन हैं? तो मुझे लगा कि कविता को मोल्ड किया जा रहा है। कविता नहीं सुधारी जा रही, विचार बताया जा रहा है। मेरे मन में आया कि यह तो झूठी बात हुई। कविता तो अपने व्यक्ति के मानस के मिले जुले परिवेश से पैदा होती है जबकि मुझे पूर्व निर्धारित स्थिति के तहत लिखना बताया जा रहा है। ऐसे कई और लोगों के अनुभव भी रहे हैं, आप इस पर क्या कहना चाहेंगे?

कमजोर कवि कविता के रूप, बिम्ब और शब्द के अर्थ की बात नहीं करता है। इस शब्द के अर्थ को इस तरह बरतना है इस पर बात नहीं करता। वह इस पर बात नहीं करता क्योंकि उसे वह जानकारी ही नहीं है। वह केवल विचार की नहीं अपनी विचारधारा की बात करेगा? इससे कविता में काव्य गुणवत्ता कमजोर हुई। आप गुट बनाकर काम करते हैं तो वह सीमित स्वीकार्यता पाती है। इससे पूरे युवाओं की कविता की विविधता खत्म हुई और कविता में एकरूपता आई।
आप गुट बना कर कहते हैं कि फलां इकाई ने या गुना इकाई ने ये किया, वो किया। इससे आप लोगों को भुलावे में डाल रहे हैं। विचारधारा की बात कर कवि समझता है कि वह विश्व मानवता की सेवा कर रहा है जबकि आप कुछ नहीं कर रहे हैं।
भाषा पर आजकल कोई काम नहीं हो रहा है क्यों? क्योंकि उसने भाषा से रिश्ता जानबूझ कर खत्म किया है। विचारधाराई माहौल में, नारेबाजी के माहौल में जिस कवि को भाषा के आयाम पता नहीं है, वह कविता को कमजोर करता है।

आज इसीलिए समाज का कविता से वो रिश्ता नहीं रहा है। विचारधाराई मानसिकता ने यह तोड़ा ही बचा हुआ दूसरी चीजों ने खत्म कर दिया।
लेकिन यह होना ही था। तकनीक का विकास हुआ। नई चीजें आईं। हमारे गांव में ही रेडिया पहली बार आया तो लोगों का आकर्षण देखने लायक था। फिर टीवी आई और आज तो कई चीजें हैं। अब कई विकल्प आ गए हैं। कविता अब एकमात्र विकल्प नहीं रहा शिक्षा और मनोरंजन का। आज कविता से वैसा कोई रिश्ता नहीं रहा है। मनोरंजन के साधन बढ़ गए हैं। अब कविता से कोई मनोरंजन नहीं करता। तो समाज का कविता से वह रिश्ता पुराना रिश्ता तो बनना ही नहीं था। आज कवि गोष्ठी से जनता का कोई सबंध नहीं है, तो क्या गड़बढ़ है?
मैं एक उदाहरण देता हूं। मुक्त छंद को सबसे पहले किसने लिखा? निराला ने लेकिन उनसे बड़ा छंद किसी ने नहीं लिखा। एक और पश्चिम का बहुत बड़ा कवि है कहता है -भला हो छंद नियमों को/ हमारी हरकतों पर अंकुश लगाते हैं, मनमाने भावों को चुनने के बजाए उत्कृष्ट भावों को तलाशने के लिए मजबूर करते हैं।
यह कवि आडेन था। वो ऐसा कह रहा है- छंद हमें मनमानी से रोकते हैं, अधिक स्वतंत्रता देते हैं। मैंने छंद नहीं छोड़ा है। मुझे नहीं लगता कि उसे छोडऩे की आवश्यकता है। प्रकृति में लय है चारों तरफ। पक्षी उड़ते हैं लय में, हवाएं चलती हैं लय में, आज कवियों की लयात्मकता बहुत कमजोर है।
आडेन ने एक जगह डायरी में लिखा है कि मेरे पास कई युवा आते हैं और कहते हैं कि मेरे पास ये शब्द हैं, मैंने ये कविता लिखी है तो वह कहता है कि ये अच्छी कविता नहीं लिख सकता। जब कोई शब्दों को तलाशने आता है तो लगता है कि कविता लिखेगा। यह उसके अनुभव से उपजी बात है।
आजकल विचारधारा वालों ने एक घटिया गाली निकाली है। जो कवि अच्छा लिख रहा है, उसे रूपवादी कह दो, कलावादी कह दो। इससे ज्यादा घटिया कुछ हो नहीं सकता।
रूप को शरीर से अलग नहीं किया जा सकता। आप शरीर से आत्मा को अलग नहीं कर सकते। लेकिन ये कहते हैं। कविता होगी तो रूप भी होगा, कला भी होगी। प्रकृति में कुछ भी एक सा नहीं हो सकता, मशीन में हो सकता है। आप रूपवादी भी होंगे और कलावादी भी। विचार भी कविता में होगा। लेकिन आप कहने वाले निर्देशित करने वाले कौन होते हैं। इन्हें कौन समझाए।
लेखक स्वतंत्र है। जहां सबसे अधिक स्वतंत्रता होना चाहिए वहीं आप कुठाराघात करते हो कि नहीं ऐसा होना चाहिए। जो जितना मामूली कवि होगा, आप उसे सबसे अधिक उठाते हैं। कवि की जरूरत होगी तो वह उसके हिसाब से बनेगा। वो बात पैदा नहीं हो रही है। जब रघुवीर सहाय ने अखबार की भाषा में कविता लिखी थी तो एक अलग बात हुई थी। कविता में वैरायटी होना ही चाहिए।
अब जैसे आप हैं या कोई अन्य सात कवि हैं। सातों की अपनी आवाज होगी। कोई लंबी रेस का घोड़ा होता है बल्कि सर्वेश्वर दयाल सक्सेना, धर्मवीर भारती सब अलग रहे। तो आपकी पहचान होनी चाहिए। कविता बेहतरी के लिए होना चाहिए लेकिन चौंकाने से कविता कविता नहीं होती। आज आप चौंकाने की कोशिश करते हैं तो यह कविता तो नहीं होती आपकी विचारधारा हो सकती है। आपका निजी प्रयास हो सकता है। चौंका देना कविता का आसान रास्ता होता है। कविता बहुत कठिन होती है।

कविता में भारतीय चेतना का साक्षी भाव क्या है? आक्रोश की जो कविता है वह झूठी है? या फिर वह कविता नहीं है?

आपकी समझ में न दुख की गहराई है, न सुख की गहराई है। और आप आक्रोश की बात कर रहे हैं लेकिन साक्षी भाव नहीं है तो उसमें कमजोरी रहेगी। अपने अनुभव से संवेदनशील आदमी, विचारशील आदमी अपने आपको भोगता
है। आदमी की यही तो कीमत है कि वह अपने को देख सकता है। अपने आप को देख सके। यह साक्षी भाव केवल कविता का मामला नहीं है, यह जीवन की बात भी है। विचार शक्ति बिना आप काम करेंगे तो आपको जानवर कहा जाएगा लेकिन आपको जानवर कहना जानवर का अपमान ही है क्योंकि वह अपनी प्रकृति से दूर नहीं होता।
न आप सामाजिक दृष्टि से पूरे हैं और न पारिवारिक रिश्तों में पूरे हैं।

जीवन बहुआयामी है लेकिन हमने जो कविता के साथ  एतिहासक अपराध किया है वह कैसे दूर होगा? हम जब पढ़ते थे तो हमारा जो हिंदी का अध्यापक है वह एक गलती नहीं होने देता था। पिछले तीस चालीस वर्षों में भाषा की शिक्षा भाषा की पढ़ाई बहुत क्षतविक्षत हुई है। कवि जब भाषा की गलती करता है तो तो वह बहुत गलत है। कविता के लिए भाषा शिखर है। पूरी संवेदना और समुदाय की भाषा की अभिव्यक्ति कवि अपनी कविता में करता है। इसमें अमीर भी बोल रहा है गरीब भी बोल रहा है। भाषा संवेदना का फिल्टर है।
आज कवि को अपनी भाषा पर ही अपने शब्दों पर ही भरोसा नहीं है। वह घटिया वाक्य नहीं लिख सकता था। आज तुम अपनी हरकतों से और बरबाद कर रहे हो। अच्छी कविता पढ़ कर आप शिक्षित होते हैं। लेकिन एक अच्छी कविता आपकी अपनी अभिव्यक्ति होती है। वह इतनी विविध होती है कि पूरा समाज उसमें आ जाता है।
अपनी भाषा के प्रति कवि
अभी मैंने पढ़ी नहीं है, एक कहानी में मैंने पढ़ी है वागर्थ में तुम देखना उसे। वैलकम मोहम्मद... शायद कोई मलयाली कहानी है। वो कहानी पढ़ कर मैं अभीभूत हो गया। वह कहानी मैंने दो बार पढ़ी। उस कहानी में लेखक मनुष्य को चारों तरफ से समझाता है। कहानी में एक भिखारी है। सड़क  किनारे पर उसकी मौत होने वाली होती है। अब उससे मिलने के क्रम में पूरा संसार होता है। आदमी ही नहीं, कीडा मकोड़ा भी शामिल हैं। लोग निकल रहे हैं, सड़क पर एक आदमी मरा पड़ा है, कोई ध्यान नहीं देता है लेकिन उस लेखक ने पूरे सांसार से बुलवा दिया। कहानी में देखिए, पूरे संसार से ही नहीं आदमियों का समाज ही नहीं कीड़ों को भी, पेड़ पैधों को भी आमंत्रित करता है। आसमान को भी कहता है। तो इस कहानी में चारो तरह से रिश्तों को ध्वनित किया है। यहां साक्षी भाव की बात है। कीड़ों को भी, आसमान को भी कि आओ भैया थोड़ा रुक जाओ अब ये कब्र में जाएगा तो तुम्हारा भी स्वागत है। पारिवारिक, सामाजिक, राजनीतिक और ब्रह्मांडीय चारों चीजों को लेखक उठाता है, जिनसे कोई रचना बहुआयामी बनती है।
आज का कवि अपने पहले के कवि पढ़ता नहीं है। चालीस सालों में मैंने किसी को पुराने कवियों को नाम लेते नहीं सुना। कई लोगों ने एक ही विषय पर लिखा है लेकिन आप बार बार नागाजुर्न नागाजुर्न कहे जा रहे हैं एक आदमी को आप बार बार रगोड़ोगे तो आप अच्छा नहीं कर रहे हैं। आप एक ही संदर्भ में एक व्यक्ति को हजार जगह नहीं लगा सकते। हर संदर्भ में आपको कविता और कवि भी बदलना पड़ेगा। कवि की कविता में देखना चाहिए कि कितना बड़ा आसमान कितना बड़ा फलक है। वैरायटी होना चाहिए।

यहां हम आरोप-पत्र दाखिल नहीं कर रहे हैं। यह पीड़ा की बात है कि आप कुछ कवियों को जानबूझ कर उपेक्षा करते हैं। ये किताबें रखी हैं, कितनों को आप बार-बार निकालते हैं। क्यों निकलते हैं। भाषा की उम्र सैंकड़ों साल होती है। हिंदी की उम्र हजारों साल है। पुरानी हिंदी से लेकर आज तक हजार साल की हिस्ट्री है।
निराला को आप पढ़ो तो उनकी कविता में सभी काल बोलते हैं। किसी ने कह दिया महाप्राण तो महाप्राण प्रचलित हो गया। जनता ने कह दिया बापू तो बापू चल गया। आप जनता को भी जनता नहीं समझते तो जनवाद का जन से कोई रिश्ता नहीं है। आप जन का भी अपमान कर रहे हैं। इसमें सभी लोग आते हैं। यह एक पारिभाषिक समूह ही है। जनसमाज में सभी आते हैं।
जन आपका मोहताज थोड़ी है। उसका भी अपना आत्म सम्मान है। वह कहां से अपनी खुराख खींच रहा है। उसकी भी खोज करो। जनता आपकी मोहताज थोड़ी है, उसकी अपनी पहचान है।

वेदों की ऋचाएं प्रकृति के प्रति आभार का प्रदर्शन हैं। उनमें पवन के प्रति आभार है। पानी की आराधना है। आग के प्रति हार्दिकता है। हम उस आभार से आज तक नहीं बच पाए हैं, यह सच है तो आप क्या कहना चाहते हैं?

यह भारतीय कविता की शुरुआत है। आदमी जब से पैदा हुआ है उसमें ये प्रवृति है कि वह अपने से बड़े की आराधना करता रहा है। जहां हवा की आराधना है। आग की आराधना है। वहां प्रथ्वी और सूरज को धन्यवाद है। उनमें देवता को देखा। यह बड़ी घटना है कि हम बहूदेव को स्वीकार करते हैं। आभार द्वारा पावनता महसूस करते हैं तो वह एक कवि के लिए महत्वपूर्ण चीज है। आज के विश्व के सामने सबसे बड़ी समस्या है कि वह पावनता के भाव को महसूस नहीं कर पा रहा है। आभार का भाव है जो कवि के, उसकी कविता में पावनता जनित बोध में बदलता है। पावनता का अनुभव बड़ी बात है। आज संबंधों में, रिश्तों में मित्रता में पावनता का बोध नहीं है। आपका किसी पर विश्वास नहीं रह गया है। किसी पर कोई विश्वास नहीं करता है। पवित्रता का बोध नहीं है। पवित्रता आती है हार्दिकता से, देवताओं की आराधना इसी से की जा सकी है।
आप पावनता के बिना कविता में मजाक भी नहीं उड़ा पाते। इसके बिना व्यंग्य का प्रभाव भी नहीं होता। आपको एक जनवादी के रूप में हर कहीं शोषण ही दिखाई दे रहा है अपना मनमाना अर्थ पढ़ रहा है। पाठक की भी ऐसी-तैसी कर रहा है। अपने ज्ञान बुद्धि की भी ऐसी तैसी कर रहा है।
अब वह बदले की भावना से काम कर रहा है। आज दुनिया एक हो रही है वहां भी इंसान रहते हैं। यहां महात्मा जैसे लोग रहते हैं, लोहिया रहते हैं। आपको दो कौड़ी का खाता चलाने की क्या आवश्यकता है।
जनता की बाता सब सुनते हैं आपकी बात कौन सुनता है। आप एक प्रकार का माफिया राज कायम कर रहे हैं।
इनके सामने सबसे बड़ी समस्या है कि ये दुनिया को अपने ऊपर करना  को बदलना है। जीवन में पावनता जनित बोध जब चला जाता है तो जीवन का जादू ही चला गया। आप बाजार से चीजें खरीद कार ला जरे हैं तो डर है कि कहीं नकली न हो, जहरीली सब्जिी न हो। पावनता बोध का खत्म होना त्रासदी है। बड
विश् ्रव के बड़ े बड़े कवि हैं ओडेन हैँ रिल्के हैं सबने देवताओं की आराधना की

ऐसी कोई्र व्यवस्था है जिससे कवि कविता के बारे में कोई हुनर या उसकी कला के पक्ष का हिस्सा सीख सकें समझ सकें। विचार के साथ शब्द और अर्थ की कलाकारी पर कुछ काम कर सकें?

जो हुनरमंद होगा वही आपको सिखा पाएगा। जो हुनरमंद नहीं होगा वह नहीं सिखाएगा। वह आपको दूसरी बातें बताएगा कला नहीं बताएगा। शब्दों के गहरे अर्थ से परिचय नहीं कराएगा। आज जो पुरस्कार हैं जो धंधे दुकानें हैँ उनसे अच्छा है कि आप निराला की कविता को सस्ते दामो में छापें। गांव की लायब्रेरियों में भेजें युवा कवितयों को दें।


जब मैं कक्षा आठ में पढ़ता था तो वह अनुभूति है। आज किसी को पता भी नहीं होगा िक यह कविता शमशेर बहादुर की है।
सुबह सुबह का बालक सुरज नई जगह का
पक्षी का कोलाहल बजता पग पैजन सा

यह मुझे याद रही कि इसमें लय थी। आप देखिए लय का कितना योगदान है।

गांव की मस्ती और उत्साह किसी ने मुझे किसी संघ में नहीं डाला। कभी हमको मेंबर नहीं बनाया हमें घास तक नहीं डाली। कवि सम्मेलन होते थे हम जाते थे लेकिन किसी संघ में होने से क्या फर्क नहीं पड़ता । आज हमें इन सबको देख कर शिकायत नहीं मजा आता है। आनंद आता है। हमें यह सब याद करते हुए एक कृत्ज्ञता उमड़ती है।
जब प्रारंभ में वाही-वाही या प्रसंशा मिल जाती है तो अक्सर विकास रुक जाता है। विकास के लिए जरुरी है कि आप संघर्ष करें। साहित्यकार लंबी रेस का घोड़ा होता है। वह अल्पप्राण नहीं होता।
हिंदी का कवि होना अन्य किसी भी भारतीय भाषा में कठिन है। क्योंकि हिंदी नई भाषा है। हिंदी वह नहीं है जो आज है। वह बहुत बदली है। रवीन्द्र नाथ टैगोर को या गुजाराती के किसी कवि को उतनी दिक्कत नहीं हुई जितनी कि हिंदी के साथ हुई। हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने की बात हिंदी
हिंदी में म्युजिक पैदा करना बंगाली और गुजराती से अधिक कठिन है। हिंदी समग्र भारतीय कविता का संवाहक बनना है हिंदी को, इसलिए वह इतनी समावेशी हो गई है। वह पूरे देश की आवाज है इसलिए उसमें सारे देश के शब्द हैं। अब हिंदी का महत्व कम करने के लिए अलग अलग भाषााओं को महत्व दिया जा रहा है। छत्तीसगढ़ी को राजकीय भाषा बना दो। भारतीय संविधान में और कई भाषाओं की अनुसूची में बता दो।
मैं इंग्लैंड गया था जब निराला सृजन पीठ में था। जब मैंने टैक्सी की। मैं अंगे्रजी साहित्य का नाम चाल्र्स डिकेंस का घर आगे बढ़ा तो एक घर आया अरे ये डॉ. जानसन का घर मेर ेमुंह से जोर से निकला। वह टैक्सी वाला चौंक गया। उसने पूछा आपने डॉ. जानसन की दुकान देखी हैं? मैंने कहा नहीं तो उसने कहा कि चलो में आपको ले चलता हूं। वह करीब दो किलोमीटर का चक्कर लगा कर दो सौ साल पुरानी उस किताबों की दुकान में ले गया। जबकि जानसन कोई बहुत लोकप्रिय कवि या व्यक्ति नहीं था, वह आलोचक था।

वह मुझे ड्रायडन की कुर्सी पर ले गया है। वहां लिखा है ड्रायडन चेयर। ऐसा समाज जो अपने साहित्यकारों पर इतना गर्व करता है। जब मैं घर पहुंच गया तो उसने लगभग एक पौंड कम लिया। मैंने पूछा कि क्यों तो उसेने बताया कि वह जो मैंने आपको घुमाया था वह मेरा था। मैं आश्चर्य चकित हो गया। एक टैक्सी ड्रायवर में इतना सांस्कृतिक बोध है। मैँ बहुत घबराया था। वहां मेरा क्लासफैलो था प्रजापति। उसने कहा कि अंग्रेज इन चीजों पर ध्यान नहीं देता है कि आपने उच्चारण सही किया है या नहीं वह इस बात को देखता है कि आपने क्या कहा है? वह महत्वपूर्ण को देखता है। नई बात क्या है आपके पास वे यह जानना चाहते हैं। बेफ्रिक होकर बोलना। वे यह देखेंगे कि आपके पास देने के लिए क्या है।
और ऐसा ही हुआ। हम बचपन में हम मंदिर मे देखते थे। चार छह लोग रोज आ जाते थे। लेकिन वहां ऐसा नहीं था सुनने के लिए भी वहंा पांच पौंड का टिक ट लेकर आए। चालीस पचास लोगों के बैठने की जगह में कोई भी सीट खाली नहीं थी।  वे निबंध अंग्रेजी में हैं और उनको हिंदी में भी लिया था। यात्रा वृत्तांत की किताब - एक लंबी छांव में उन लेक्चरर्स का वर्णन है।

गुरुवार, दिसंबर 20, 2012

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बच्चों में बढ़ती हिंसा

   बच्चों में बढ़ती हिंसा एक वैश्विक समस्या के रूप में सामने आ रही है। आने वाले वक्त में इसके और बढ़ने की आशंका है। हमें अभी से इसे सुधारने के प्रयास करना ही होंगे।


  रायसेन जिले के बरेली कस्बे में दसवीं कक्षा में पढ़ने वाली एक  छात्रा ने पड़ोस में रहने वाली आठवीं की छात्रा पर केरोसिन डालकर आग लगा दी। दो दिन पहले ही अमेरिका में एक छात्र को गोली बारी करने की योजना में गिरफ्तार किया गया है। किशोर उम्र के बच्चों द्वारा हिंसा की घटनाएं बढ़ रही हैं और इनसे कुछ बड़े सवाल जन्म ले रहे हैं। रायसेन जिले की घटना में आरोपी छात्रा का कहना है कि लड़की का परिवार उसके परिजनों पर चोरी का आरोप लगा कर बदनाम कर रहे थे। लेकिन इस आरोप के बाद भी कुछ ऐसे सवाल उठते हैं जो इसे एक गंभीर सामाजिक समस्या की तरफ इशारा करते हैं। किशोर उम्र लड़की के लिए  इस आरोप पर इतना बड़ा अपराध करना संभव कैसे हुआ। किशारी को किरोसिन की कैन कैसे हासिल हुई। वह हाथ में जलता हुआ डंडा लेकर किस दुष्साहस के साथ घर में आग लगाने के लिए दाखिल हुई। इससे भी बड़ी बात ये है कि आखिर उसमें इतनी हिंसा की भावना कैसे जनमी? इस हिंसा का स्रोत क्या है। निश्चय ही यह सिर्फ लड़की के अकेली चेनता की उपज नहीं हो सकती। कहीं न कहीं समाज में उपस्थित दूसरे कारण भी इसमें सहायक रहे होंगे। अपराध करने के लिए अपराध करने वाले के लिए कहीं न कहीं कल्पना की आवश्यकता अवश्य होती है। यह कल्पना कहां से मिल रही है। यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगा कि यह घटना किसी न किसी टीवी और फिल्म मीडिया के दृश्यों का कोलाज लगती है। क्योंकि इसके समर्थन में एक पुराना शोध सामने आया है। ए एच स्टेन और एल के फ्रेडरिक ने यह शोध 1972 में ‘टेलीविजन कंटेंट एण्ड यंग चिल्ड्रेन’नाम से किया है। इसमें अमेरिका में असामाजिक तत्वों और उनके समर्थकों पर किए गए 48 शोध कार्यों का विश्लेषण करते हुए लिखा कि 3से 18 वर्ष तक की आयु के बच्चों में टेलीविजन के हिंसक कार्यक्रमों ने आक्रामकता में वृद्धि की है। विगत 30 वर्षों में जितने भी शोधकार्य हुए हैं वे इसकी पुष्टि करते हैं। टेलीविजन हिंसा के प्रभाव को लेकर किए गए अध्ययन इस बात की पुष्टि करते हैं कि टेलीविजन हिंसा से आक्रामकता के अलावा असामाजिक व्यवहार में इजाफा होता है। हिंसक रूपों का प्रभाव तात्कालिक तौर पर कई सप्ताह रहता है। कई लोग टेलीविजन हिंसा को अस्थायी तौर पर ग्रहण करते हैं या केजुअल रूप में ग्रहण करते हैं। केजुअल रूप में हिंसा बच्चों के व्यवहार में आक्रामकता में इजाफा करती है। मीडिया विशेषज्ञों ने तात्कालिक प्रभाव का अध्ययन करके बताया है कि दर्शक की रिहाइश, उम्र, लिंग, सामाजिक, आर्थिक अवस्था आदि की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। मीडिया द्वारा बच्चे पर हिंसा का प्रभाव न पड़े इसके लिए जरूरी है कि बच्चे को परिवार के जीवंत संपर्क में रखा जाए। उन बच्चों में कम प्रभाव देखा गया है जिनके परिवारों में सौहार्द का माहौल है अथवा जिन परिवारों में कभी मारपीट तक नहीं हुई। अथवा जिन परिवारों में सामाजिक विश्वासों की जड़ें गहरी हैं। किन्तु जिन परिवारों में बच्चों के साथ दुर्व्यवहार होता है, उत्पीड़न होता है। वहां बच्चे हिंसा के कार्यक्रम ज्यादा देखते हैं। जो बच्चे भावनात्मक तौर पर परेशान रहते हैं उन पर आक्रामक चरित्र सबसे जल्दी असर पैदा करते हैं। इस तरह के बच्चे हिंसा के कार्टून ज्यादा चाव के साथ देखते हैं।आक्रामक या हिंसक चरित्रों को देखने के बाद बच्चों में समर्पणकारी एवं रचनात्मकबोध तेजी से पैदा होता है। टेलीविजन कार्यक्रमों के बारे में किए गए सभी अध्ययन इस बात पर एकमत हैं कि इसके नकारात्मक प्रभाव से मानसिक उत्तेजना,गुस्सा और कुंठा पैदा होती है।

गुरुवार, दिसंबर 13, 2012

  शिकार क्यों कर्मचारी


विधानसभा में उठाए गए एक प्रश्न के उत्तर में जो जबाव मिला वह चौंकाने वाला है। सरकारी महकमों के आठ हजार से अधिक कर्मचारियों पर हमले किए गए।म ध्यप्रदेश में पिछले चार सालों में सरकारी अधिकारियों कर्मचारियों के साथ मारपीट के करीब आठ हजार मामले सामने आए। मप्र सरकार ने यह बात विधानसभा में अपने एक लिखित उत्तर में स्वीकार की है। इस हिसाब से देखें तो प्रतिवर्ष दो हजार सरकारी कर्मचारियों अधिकारियों से मारपीट की गई। धक्कामुक्की की गई, एक तरह से उन्हें अपमानित किया गया। ये मामले 2008 से फरवरी 2012 तक के हैं। अगर हालिया महीनों केआंकड़ों पर नजर डालें तो मार्च 2012 से नवंबर 2012 तक 1405 शासकीय सेवकों के साथ मारपीट की गई। ये आंकड़े क्या कहते हैं? सवाल यह उठता है कि आखिर ये हिंसा क्यों की गई? कर्मचारियों अधिकारियों से मारपीट करने वाले कौन लोग हैं? इस स्थिति का निर्माण कैसे हुआ। किसकी हिम्मत है कि वह सरकारी कारिंदे पर हाथ उठाए। शासकीय कर्मचारियों के इन आंकड़ों में और भी कई सवाल छुपे हैं। इस मारपीट पर करीब एक हजार से अधिक घटनाओं पर पुलिस केस दर्ज किए गए हैं। सरकार मानती है कि इस तरह की घटनाओं को अंजाम देने वाले असामाजिक तत्व और आपराधिक प्रवृत्ति के लोग शामिल रहे हैं। सवाल उठता है कि आखिर ये लोग जनसामान्य नहीं थे। इनका वर्ग असामाजिक और आपराधिक रहा है। अपराधी भी सरकारी कर्मचारियों से मारपीट तब करता है, जब उसे किसी  प्रकार का संरक्षण हासिल होता है। यह तो नहीं कहा जा सकता कि सभी घटनाओं के पीछे कोई न कोई राजनीतिक ताकत रहती है लेकिन अधिकांश घटनाओं में राजनीतिक प्राश्रय प्राप्त लोग ही अधिक होते हैं।
सरकारी कर्मचारी किसी भी सरकार के प्रशासनिक स्तर पर एक स्थाई संरचना का हिस्सा होते हैं। उनका मनोबल और उनकी सामूहिक भावना सरकार के कामकाज पर दूरगामी प्रभाव डालती है। अक्सर सरकार के लिए अपने कर्मचारी और अपनी जनता एक तरह से दो आंखों की तरह की स्थिति का निर्माण करते हैं। दोनों ही महत्वपूर्ण और दोनों ही जरूरी हैं। अगर जनता के बीच कोई असामाजिक तत्व ऐसा करता है तो यह भी एक प्रकार की प्रशासनिक असफलता का हिस्सा है। प्रदेश में होने वाली कोई भी घटना प्रशासनिक जिम्मेदारी से मुक्त नहीं की जा सकती। सरकार को यह देखना होगा कि जनता के बीच सरकारी कारिंदों की कार्यप्रणाली और व्यवहार का स्तर क्या है? अगर सिर्फ ये आठ हजार के लगभग घटनाएं आपराधिक लोगों ने की हैं तो भी यह जाहिर होता है कि आखिर ऐसा सरकार कैसे होने देती रही? इनकी रोकथाम के पीछे हमें यह भी देखना होगा कि सरकारी कर्मचारियों से मारपीट करने वाले लोग सिर्फ मारपीट करने नहीं गए होंगे। वे किसी न किसी काम से इन कर्मचारियों अधिकारियों से मिले होंगे। ये मामले थाने में केस दर्ज करने के नहीं, जनता और सरकार के बीच उचित सामंजस्य के अधिक हैं। कहीं न कहीं सरकार और जनता के बीच उचित सामान्जस्य की कमी है। सरकार को कर्मचारियों अधिकारियों की सुरक्षा सुनिश्चित करने के साथ माहौल में सौहार्द और परिवेश को बदलने का है। यह मामला सरकार की कार्यप्रणाली के प्रदर्शन का हिस्सा भी है।

सोमवार, दिसंबर 03, 2012

यूनियन कार्बाइड के कचरे

  आज के हालात देख कर लगता है कि यह त्रासदी वोट हासिल करने की राजनीति बन चुकी है। राजनीतिक नेतृत्व को  इस मसले पर जितनी गंभीरता बरतना चाहिए, उस तरह से नहीं लिया गया।

भो पाल के लिए दो-तीन दिसंबर 1984 की रात काल बनकर आई थी। उस रात को याद कर के उसकी दास्ता को सुन कर लोग अजीब से डर में डूब जाते हैं। यूनियन कार्बाइड संयंत्र से गैस रिसाव होने के कारण हर तरफ मौत दिखाई देती थी। गैस के दुष्परिणाम आज भी यहां के लोग भुगत रहे हैं। आंकड़ों के मुताबिक 20 हजार से ज्यादा लोग गैस के असर के चलते अब तक जिंदगी से हाथ धो चुके हैं, वहीं साढ़े पांच लाख से ज्यादा लोग गैसे के प्रभावों से संघर्ष कर रहे हैं। इस गैस से प्रभावित लोगों के संगठनों का कहना है कि न तो उन्हें पूरा मुआवजा मिला है और न ही यूनियन कार्बाइड के कचरे को हटाया गया है। दूसरी ओर इस त्रासदी के अपराधियों को थोड़ी सी सजा दी गई थी। इसने कार्बाइड त्रासदी के अपराधियों को छूटने का मौका दिया और जो लोग इस भयानक औद्योगिक त्रासदी के भुगत भोगी हैं वे जानते हैं कि उनका जीवन इस त्रासदी के बाद एक नरक में बदल गया था। सात जून 2010 को यूनियन कार्बाइड इंडिया लिमिटेड के पूर्व अध्यक्ष केशव महेंद्रा एवं अन्य सात आरोपियों को धारा 304-ए  के तहत दो साल की सजा मिली। हजारों लोगों के मौत के लिए जिम्मेदार अरोपियों को मात्र दो साल की सजा! यह  गैस पीड़ितों के लिए दूसरी त्रासदी थी। इस सजा पर कई लोगों ने आश्चर्य व्यक्त किया था। देश और प्रदेश के नेतृत्व को यह बात पता है कि यह एक लापरवाही थी जिसे नजरअंदाज नहीं किया जा सकता था। यह सुरक्षा के प्रति उपेक्षा नहीं यह कंपनी द्वारा धन बचाने के लिए किया गया अपराध था। जिसको भोपाल के लोग आज तक भुगत रहे हैं। इस पूरी प्रक्रिया को न्याय नहीं कहा जा सकता।
भोपाल ग्रुप आॅफ इंफोर्मेशन एण्ड एक्शन के अनुसार फैक्ट्री के आसपास का भूजल यूनियन कार्बाइड के कचरे से दुष्प्रभावित हो रहा है। इन इलाकों के पानी में जहरीले कचरे के असर की पुष्टि हो चुकी है। क्या ये हजारों लोगों को कई सालों तक फिर से मरने को छोड़ देने की लापरवाही नहीं है? मुआवजे को लेकर भी शिकायतें कायम हैं। गैस त्रासदी से प्रभावित 94 फीसदी लोगों को सिर्फ 25 हजार रुपये का मुआवजा मिला है। संगठनों की मांग है कि सरकार हादसे के लिए जिम्मेदार कम्पनी से बतौर हर्जाना 44 हजार करोड़ रुपये की मांग करे। वर्तमान में साढ़े पांच हजार करोड़ रुपये की ही मांग की गई है। पीड़ितों के संगठनों का कहना है कि 11 अमेरिकी नागरिकों की मौत पर ब्रिटिश कारपोरेशन को 22 हजार करोड़ रुपए का दंड भरना पड़ा था, मगर भारत में हजारों लोगों की मौत पर सिर्फ साढ़े पांच हजार करोड़ रुपए। भारत सरकार को गैस पीड़ितों के लिए भी पर्याप्त मुआवजे की मांग करनी चाहिए। इतना ही नहीं जहरीले कचरे से प्रदूषित होने वाले पानी का भी दायरा बढ़ रहा है। आज के हालात देख कर लगता है कि यह त्रासदी वोट हासिल करने की राजनीति बन चुकी है। राजनीतिक नेतृत्व को  इस मसले पर जितनी गंभीरता बरतना चाहिए, उस तरह से नहीं लिया गया। वास्तव में हम एक देश के रूप में आज भी अपने नागरिकों के जीवन का सम्मान करना नहीं सीखे हैं।