अपना मास्टर प्लान
देश के अधिकांश शहरों में मास्टर प्लान नहीं है जबकि मास्टर प्लान विकास के लिए जरूरी है। शहरों में आधारभूत सुविधाओं के बिखराब और कचरे से भरे शहरों के पीछे मास्टर प्लान न होना बड़ा कारण है।
देश के 7000 हजार शहरों और कस्बों के विकास के लिए अपना मास्टर प्लान होना चाहिए, लेकिन केवल 24 प्रतिशत शहर-कस्बे ही ऐसे हैं जिनके पास मास्टर प्लान है। देश के लिए यह सबसे बड़ी अदूरदर्शिता है। स्थानीय निकायों और सरकार की यह बड़ी असफलता है। सन 2011 की जनगणना के आधार पर वर्तमान समय में देश के 7935 शहरों में 37.71 करोड़ लोग रह रहे हैं जो देश की कुल जनसंख्या का लगभग 31 प्रतिशत हैं। ऐसे में शहरों के विकास से संबंधित प्रयासों और इसके लिये आवश्यक मास्टर प्लान को बनाने की आवश्यकता पर चर्चा करने का यह सही समय भी है।
भारत में बढ़ते शहरीकरण की प्रवृत्ति का विश्लेषण करें तो यह स्पष्ट होता है कि देश के ग्रामीण क्षेत्रों में विगत वर्षों के दौरान किये गये सामाजिक व आर्थिक विकास योजनाओं का लाभ सभी लोगों तक समान रूप से नहीं पहुंचर रहा है। आर्थिक और सामाजिक विकास के विभिन्न प्रयासों का लाभ न मिलने के कारण वंचित और पिछड़े वर्ग के लोग रोजी-रोटी की तलाश में शहरों की ओर जाने को मजबूर हुये हैं। इसी प्रकार शिक्षा के क्षेत्र में किये जा रहे प्रयासों से लोगों को नये ज्ञान और दक्षताओं को पाने का अवसर तो मिला किन्तु आस-पास के क्षेत्रों में काम करने के अवसरों के न मिलने के कारण लोग शहर की ओर रूख करते रहे। शहरों में कम पढ़े-लिखे और अकुशल लोगों के लिये शारीरिक श्रम करके रोजी कमाने के अवसर हैं तो साथ ही पढ़े-लिखे और कुशल लोगों के लिये बैंकिंग, बीमा, शिक्षा, रिसर्च, व्यापार और उद्योग जैसे क्षेत्रों में काम करने के अवसर मिल रहे हैं।
आबादी के कारण शहरी क्षेत्रों में सेवाओं देने वाले संस्थानों पर निरन्तर दबाव बढ़ रहा है। इसका सबसे यादा प्रभाव स्थानीय शहरी निकायों पर पड़ा है जिनके ऊपर 74वें संविधान संशोधन के बाद से स्थानीय आर्थिक विकास और सामाजिक न्याय को बढ़ावा देने वाले कार्यक्रमों को लागू करने की जिम्मेदारी दी गयी है। बढ़ती आबादी के अनुपात में स्थानीय शहरी निकायों में संसाधनों (वित्तीय और मानवीय) में बढ़त न होने के कारण स्थानीय शहरी निकाय लोगों को मूलभूत सुविधाओं जैसे पीने का साफ पानी, चौड़ी सड़क, बिजली, साफ-सफाई, गंदे पानी के निकासी के लिये नालियां भी उपलब्ध कराने में स्वयं को सक्षम नहीं महसूस कर रहे हैं।भारत में बढ़ते शहरों के कारणों को जानने का प्रयास करें तो यह प्रतीत होता है कि शहरों का विकास प्रायº राजनीतिक नजरिये से किया जा रहा है न कि लोगों की जरूरतों और स्थानीय आवश्यकताओं के आधार पर। छोटे और मझोले शहरों में 80 प्रतिशत कचरों का अनियमित प्रबंधन और इससे जुड़े निपटान की समस्या को कभी भी और कहीं भी देखा जा सकता है। इसी प्रकार बढ़ते शहरीकरण के कारण आवागमन के साधनों की बढ़ती संख्या तो बढ़ी है कि किन्तु शहरों की संकरी सड़कें और बाजार क्षेत्र में अनधिकृत रूप से बढ़ते कब्जे के कारण अनियंत्रित यातायात और बढ़ते जाम की समस्या विकराल रूप ले रही है।
सा त जून 2010 को फैसला देते हुए यूनियन कार्बाइड इंडिया लिमिटेड के पूर्व अध्यक्ष केशव महेंद्रा सहित सात आरोपियों को धारा 304-ए के तहत दो साल की सजा और एक लाख रुपए के जुर्माने की सजा सुनाई थी। धारा 304-ए लापरवाही से किए कृत्य से व्यक्ति या व्यक्तियों की मृत्यु होने के लिए लागू की जाती है। हजारों लोगों के मौत के लिए जिम्मेदार अरोपियों को मात्र दो साल की सजा! यह गैस पीड़ितों के लिए दोहरी त्रासदी थी। इस मामूली सजा पर दुनिया भौंचक थी और आश्चर्य है कि सीबीआई ने इस फैसले को अपनी जीत घोषित कर रही थी। इस जीत के संदर्भ क्या थे और कैसे यह जीत थी, यह सीबीआई ने किसी को नहीं बताया। जिस धारा के तहत यह मामला चल रहा था उसमें न्यायालय इससे अधिक सजा दे भी नहीं सकता था। बाद में सरकार ने उच्चतम न्यायालय में एक ‘क्यूरेटिव पिटीशन’ दायर की थी, जिसमें सभी आरोपियों को धारा 304 भाग 2 (गैरइरादतन हत्या ) के लिए सजा का प्रस्ताव था। सुप्रीम कोर्ट ने यह कह कर इस याचिका को 11 मई, 2011 को खारिज कर दिया था कि इसे सेशन कोर्ट में दायर किया जाए। इस पर सीबीआई ने भोपाल के जिला एवं सत्र न्यायालय में यह याचिका दायर की थी। अब गुनाहगारों के लिए माकूल सजा के लिए लगाई गई अर्जी भी खारिज हो गई तो ये दूसरी बड़ी त्रासदी बन गई। कुल मिला कर 27 साल गुजरने के बाद भी गैस पीड़ितों के लिए न्याय दूर होती रेगिस्तानी मरीचिका में बदलता जा रहा है।
खारिज हुई याचिका के कानूनी लूप होलों को सीबीआई ठीक तरह से नहीं भर सकी। अपराधियों को वह सजा नहीं मिली जिसकी गैसपीड़ितों को उम्मीद थी। कानून के जानकारों का भी मानना है कि सीबीआई ने इस केस के सभी चरणों में गलती पर गलती की है। ट्रायल कोर्ट में आरोप सुनिश्चित किए गए थे, उसी समय आपत्ति लेकर धारा को बढ़ाने की अर्जी दी जा सकती थी लेकिन ऐसा नहीं किया गया। इसके बाद जब सबूत प्रस्तुत हुए, उस वक्त भी सीबीआई सजा बढ़ाने के लिए अपना पक्ष रख सकती थी। इसके अलावा कई और मौके थे, लेकिन सीबीआई ने सजा बढ़ाने के लिए इनका इस्तेमाल नहीं किया। कोर्ट ने भी सीबीआई की खामियों को गिनाते हुए अर्जी खारिज की है। हालांकि यह मात्र सब्र करने जैसी बात है कि रिवीजन याचिका खारिज होने का असर आगे की जाने वाली अपील पर नहीं होगा।
लेकिन इस मामले में राज्य यानी सीबीआई की भूमिका को कम करके नहीं आंका जा सकता। न्याय के बीच में आने वाले अवरोधों पर भी गौर करना आवश्यक है। यह मामला गैस पीड़ित अधिकांश गरीबों को बांटे गए राहत के अलावा ऐतिहासिक सुधारों से भी जुड़ा है। सजा अगर अधिक मिलती तो यह साबित होता है कि औद्योगिक लापरवाही भी एक अपराध है। गैस का रिसाव दुर्घटनावश नहीं, यह पैसे बचाने की आपराधिक
देश के अधिकांश शहरों में मास्टर प्लान नहीं है जबकि मास्टर प्लान विकास के लिए जरूरी है। शहरों में आधारभूत सुविधाओं के बिखराब और कचरे से भरे शहरों के पीछे मास्टर प्लान न होना बड़ा कारण है।
देश के 7000 हजार शहरों और कस्बों के विकास के लिए अपना मास्टर प्लान होना चाहिए, लेकिन केवल 24 प्रतिशत शहर-कस्बे ही ऐसे हैं जिनके पास मास्टर प्लान है। देश के लिए यह सबसे बड़ी अदूरदर्शिता है। स्थानीय निकायों और सरकार की यह बड़ी असफलता है। सन 2011 की जनगणना के आधार पर वर्तमान समय में देश के 7935 शहरों में 37.71 करोड़ लोग रह रहे हैं जो देश की कुल जनसंख्या का लगभग 31 प्रतिशत हैं। ऐसे में शहरों के विकास से संबंधित प्रयासों और इसके लिये आवश्यक मास्टर प्लान को बनाने की आवश्यकता पर चर्चा करने का यह सही समय भी है।
भारत में बढ़ते शहरीकरण की प्रवृत्ति का विश्लेषण करें तो यह स्पष्ट होता है कि देश के ग्रामीण क्षेत्रों में विगत वर्षों के दौरान किये गये सामाजिक व आर्थिक विकास योजनाओं का लाभ सभी लोगों तक समान रूप से नहीं पहुंचर रहा है। आर्थिक और सामाजिक विकास के विभिन्न प्रयासों का लाभ न मिलने के कारण वंचित और पिछड़े वर्ग के लोग रोजी-रोटी की तलाश में शहरों की ओर जाने को मजबूर हुये हैं। इसी प्रकार शिक्षा के क्षेत्र में किये जा रहे प्रयासों से लोगों को नये ज्ञान और दक्षताओं को पाने का अवसर तो मिला किन्तु आस-पास के क्षेत्रों में काम करने के अवसरों के न मिलने के कारण लोग शहर की ओर रूख करते रहे। शहरों में कम पढ़े-लिखे और अकुशल लोगों के लिये शारीरिक श्रम करके रोजी कमाने के अवसर हैं तो साथ ही पढ़े-लिखे और कुशल लोगों के लिये बैंकिंग, बीमा, शिक्षा, रिसर्च, व्यापार और उद्योग जैसे क्षेत्रों में काम करने के अवसर मिल रहे हैं।
आबादी के कारण शहरी क्षेत्रों में सेवाओं देने वाले संस्थानों पर निरन्तर दबाव बढ़ रहा है। इसका सबसे यादा प्रभाव स्थानीय शहरी निकायों पर पड़ा है जिनके ऊपर 74वें संविधान संशोधन के बाद से स्थानीय आर्थिक विकास और सामाजिक न्याय को बढ़ावा देने वाले कार्यक्रमों को लागू करने की जिम्मेदारी दी गयी है। बढ़ती आबादी के अनुपात में स्थानीय शहरी निकायों में संसाधनों (वित्तीय और मानवीय) में बढ़त न होने के कारण स्थानीय शहरी निकाय लोगों को मूलभूत सुविधाओं जैसे पीने का साफ पानी, चौड़ी सड़क, बिजली, साफ-सफाई, गंदे पानी के निकासी के लिये नालियां भी उपलब्ध कराने में स्वयं को सक्षम नहीं महसूस कर रहे हैं।भारत में बढ़ते शहरों के कारणों को जानने का प्रयास करें तो यह प्रतीत होता है कि शहरों का विकास प्रायº राजनीतिक नजरिये से किया जा रहा है न कि लोगों की जरूरतों और स्थानीय आवश्यकताओं के आधार पर। छोटे और मझोले शहरों में 80 प्रतिशत कचरों का अनियमित प्रबंधन और इससे जुड़े निपटान की समस्या को कभी भी और कहीं भी देखा जा सकता है। इसी प्रकार बढ़ते शहरीकरण के कारण आवागमन के साधनों की बढ़ती संख्या तो बढ़ी है कि किन्तु शहरों की संकरी सड़कें और बाजार क्षेत्र में अनधिकृत रूप से बढ़ते कब्जे के कारण अनियंत्रित यातायात और बढ़ते जाम की समस्या विकराल रूप ले रही है।
दो साल की सजा
सा त जून 2010 को फैसला देते हुए यूनियन कार्बाइड इंडिया लिमिटेड के पूर्व अध्यक्ष केशव महेंद्रा सहित सात आरोपियों को धारा 304-ए के तहत दो साल की सजा और एक लाख रुपए के जुर्माने की सजा सुनाई थी। धारा 304-ए लापरवाही से किए कृत्य से व्यक्ति या व्यक्तियों की मृत्यु होने के लिए लागू की जाती है। हजारों लोगों के मौत के लिए जिम्मेदार अरोपियों को मात्र दो साल की सजा! यह गैस पीड़ितों के लिए दोहरी त्रासदी थी। इस मामूली सजा पर दुनिया भौंचक थी और आश्चर्य है कि सीबीआई ने इस फैसले को अपनी जीत घोषित कर रही थी। इस जीत के संदर्भ क्या थे और कैसे यह जीत थी, यह सीबीआई ने किसी को नहीं बताया। जिस धारा के तहत यह मामला चल रहा था उसमें न्यायालय इससे अधिक सजा दे भी नहीं सकता था। बाद में सरकार ने उच्चतम न्यायालय में एक ‘क्यूरेटिव पिटीशन’ दायर की थी, जिसमें सभी आरोपियों को धारा 304 भाग 2 (गैरइरादतन हत्या ) के लिए सजा का प्रस्ताव था। सुप्रीम कोर्ट ने यह कह कर इस याचिका को 11 मई, 2011 को खारिज कर दिया था कि इसे सेशन कोर्ट में दायर किया जाए। इस पर सीबीआई ने भोपाल के जिला एवं सत्र न्यायालय में यह याचिका दायर की थी। अब गुनाहगारों के लिए माकूल सजा के लिए लगाई गई अर्जी भी खारिज हो गई तो ये दूसरी बड़ी त्रासदी बन गई। कुल मिला कर 27 साल गुजरने के बाद भी गैस पीड़ितों के लिए न्याय दूर होती रेगिस्तानी मरीचिका में बदलता जा रहा है।
खारिज हुई याचिका के कानूनी लूप होलों को सीबीआई ठीक तरह से नहीं भर सकी। अपराधियों को वह सजा नहीं मिली जिसकी गैसपीड़ितों को उम्मीद थी। कानून के जानकारों का भी मानना है कि सीबीआई ने इस केस के सभी चरणों में गलती पर गलती की है। ट्रायल कोर्ट में आरोप सुनिश्चित किए गए थे, उसी समय आपत्ति लेकर धारा को बढ़ाने की अर्जी दी जा सकती थी लेकिन ऐसा नहीं किया गया। इसके बाद जब सबूत प्रस्तुत हुए, उस वक्त भी सीबीआई सजा बढ़ाने के लिए अपना पक्ष रख सकती थी। इसके अलावा कई और मौके थे, लेकिन सीबीआई ने सजा बढ़ाने के लिए इनका इस्तेमाल नहीं किया। कोर्ट ने भी सीबीआई की खामियों को गिनाते हुए अर्जी खारिज की है। हालांकि यह मात्र सब्र करने जैसी बात है कि रिवीजन याचिका खारिज होने का असर आगे की जाने वाली अपील पर नहीं होगा।
लेकिन इस मामले में राज्य यानी सीबीआई की भूमिका को कम करके नहीं आंका जा सकता। न्याय के बीच में आने वाले अवरोधों पर भी गौर करना आवश्यक है। यह मामला गैस पीड़ित अधिकांश गरीबों को बांटे गए राहत के अलावा ऐतिहासिक सुधारों से भी जुड़ा है। सजा अगर अधिक मिलती तो यह साबित होता है कि औद्योगिक लापरवाही भी एक अपराध है। गैस का रिसाव दुर्घटनावश नहीं, यह पैसे बचाने की आपराधिक
ठाकरे बनाम बिहारी
मानवीय समाज एक सीधी साधी संरचना नहीं है। राज ठाकरे जैसे लोग समाज में पैदा होते रहे हैं। दूसरी तरफ जब हम एक देश हैं तो अपराधी पकड़ने गई मुंबई पुलिस को नीतीश सरकार ने धमकी क्यों दी?
बिहार वालों के खिलाफ विवादास्पद बयान देकर महाराष्ट्र नव निर्माण सेना प्रमुख राज ठाकरे एक बार फिर सभी राजनीतिक पार्टियों के निशाने पर आ गए हैं। बयान ने विभिन्न पार्टियों के नेताओं के गुस्से को इतना भड़का दिया है कि उन्होंने राज के खिलाफ राजद्रोह का मामला चलाने की मांग कर डाली है। साथ ही उन्होंने राज को याद दिलाया है कि देश का संविधान देश के हर नागरिक को यह अधिकार देता है कि वह कहीं भी बस सकता है। लेकिन नेताओं की बयानबाजी में जो सामने आ रहा है राज की धमकी के निहितार्थ उससे आगे के हैं। राज ठाकरे की सीमित राजनीति को समझने के लिए उनके बयानों के क्षेत्रवाद की कई परतों को खोलने की आवश्यकता है। राज ठाकरे ने आजाद मैदान की हिंसा के बाद बड़ा मोर्चा निकाला था। उन्होंने इससे पुलिस और मीडिया की हमदर्दी हासिल की थी लेकिन उसके बाद उन्होंने फिर बिहार बनाम महाराष्ट्र की राजनीति शुरू कर दी। पहले भोजपुरी फिल्म एक बिहारी सब पर भारी के प्रदर्शन पर बवाल मचाया, हिंदी न्यूज चैनलों को टार्गेट किया। आलोचना के बाद राज ने पलटी खाते हुए कहा कि वे मराठी और अंग्रेजी मीडिया की नहीं हिंदी चैनल की बात कह रहे हैं। दूसरी तरफ उन्होंने यह भी सही ही कहा है कि अंग्रेजी चैनल तो वैसे ही आसमान में उड़ते हैं क्योंकि उन्हें यहां से ज्यादा अमेरिका और ओबामा की फिक्र रहती है। उन्होंने हिंदी चैनलों को दो-टूक कहा कि उनके खिलाफ खबरें प्रसारित करना और बहस में लोगों को बुलाकर चर्चा करना बंद करें। अन्यथा महाराष्ट्र में चैनल नहीं चलने देंगे।
मीडिया के लिए इस प्रकार की निर्देशित करने वाली धमकी एक गंभीर खतरे का संकेत भी है। इस सारी उठापटक और उनकी चारों ओर से होने वाली आलोचना के बाद राज ने कहा कि उन्होंने बिहार के बारे में जो कुछ कहा उसका गलत अर्थ लगाया गया। गलत अर्थ क्या लगाया, गलत अर्थ तब लगाया जा सकता है जब उसमें गलत अर्थ लगाने की गुंजाइश होती है। हां राज ने मनसे सम्मेलन में बिहार के मुख्य सचिव द्वारा मुंबई पुलिस को भेजे पत्र, जिसमें बिहार सरकार को सूचित किए बिना आरोपी को पकड़कर लाने पर न्यायिक कार्रवाई की बात कही गई है, को सम्मेलन में भुनाने की कोशिश की। उन्होंने कहा कि जब मैं परप्रांतियों का मामला उठाता हूं तो लोग यह तर्क देते हैं कि देश का प्रत्येक नागरिक हर प्रांत में बिना रोकटोक आ जा सकता है। मेरा उनसे सवाल है कि अगर ऐसा है तो फिर एक राज्य की पुलिस दूसरे राज्य में क्यों नहीं जा सकती। यह बातें तर्क के आधार पर सही हैं। हमें ऐसी व्यवस्थाओं के प्रति भी ध्यान देना होगा जिसमें पुलिस का काम त्वरित हो सके। यह सही है कि सूचित करना फिर अनुमति लेना त्वरित कार्रवाही पर नकेल लगाने जैसा है। कुल मिला कर राज के व्यवहार संवैधानिक प्राधिकार के लिए चुनौती बन गए हैं।
मानवीय समाज एक सीधी साधी संरचना नहीं है। राज ठाकरे जैसे लोग समाज में पैदा होते रहे हैं। दूसरी तरफ जब हम एक देश हैं तो अपराधी पकड़ने गई मुंबई पुलिस को नीतीश सरकार ने धमकी क्यों दी?
बिहार वालों के खिलाफ विवादास्पद बयान देकर महाराष्ट्र नव निर्माण सेना प्रमुख राज ठाकरे एक बार फिर सभी राजनीतिक पार्टियों के निशाने पर आ गए हैं। बयान ने विभिन्न पार्टियों के नेताओं के गुस्से को इतना भड़का दिया है कि उन्होंने राज के खिलाफ राजद्रोह का मामला चलाने की मांग कर डाली है। साथ ही उन्होंने राज को याद दिलाया है कि देश का संविधान देश के हर नागरिक को यह अधिकार देता है कि वह कहीं भी बस सकता है। लेकिन नेताओं की बयानबाजी में जो सामने आ रहा है राज की धमकी के निहितार्थ उससे आगे के हैं। राज ठाकरे की सीमित राजनीति को समझने के लिए उनके बयानों के क्षेत्रवाद की कई परतों को खोलने की आवश्यकता है। राज ठाकरे ने आजाद मैदान की हिंसा के बाद बड़ा मोर्चा निकाला था। उन्होंने इससे पुलिस और मीडिया की हमदर्दी हासिल की थी लेकिन उसके बाद उन्होंने फिर बिहार बनाम महाराष्ट्र की राजनीति शुरू कर दी। पहले भोजपुरी फिल्म एक बिहारी सब पर भारी के प्रदर्शन पर बवाल मचाया, हिंदी न्यूज चैनलों को टार्गेट किया। आलोचना के बाद राज ने पलटी खाते हुए कहा कि वे मराठी और अंग्रेजी मीडिया की नहीं हिंदी चैनल की बात कह रहे हैं। दूसरी तरफ उन्होंने यह भी सही ही कहा है कि अंग्रेजी चैनल तो वैसे ही आसमान में उड़ते हैं क्योंकि उन्हें यहां से ज्यादा अमेरिका और ओबामा की फिक्र रहती है। उन्होंने हिंदी चैनलों को दो-टूक कहा कि उनके खिलाफ खबरें प्रसारित करना और बहस में लोगों को बुलाकर चर्चा करना बंद करें। अन्यथा महाराष्ट्र में चैनल नहीं चलने देंगे।
मीडिया के लिए इस प्रकार की निर्देशित करने वाली धमकी एक गंभीर खतरे का संकेत भी है। इस सारी उठापटक और उनकी चारों ओर से होने वाली आलोचना के बाद राज ने कहा कि उन्होंने बिहार के बारे में जो कुछ कहा उसका गलत अर्थ लगाया गया। गलत अर्थ क्या लगाया, गलत अर्थ तब लगाया जा सकता है जब उसमें गलत अर्थ लगाने की गुंजाइश होती है। हां राज ने मनसे सम्मेलन में बिहार के मुख्य सचिव द्वारा मुंबई पुलिस को भेजे पत्र, जिसमें बिहार सरकार को सूचित किए बिना आरोपी को पकड़कर लाने पर न्यायिक कार्रवाई की बात कही गई है, को सम्मेलन में भुनाने की कोशिश की। उन्होंने कहा कि जब मैं परप्रांतियों का मामला उठाता हूं तो लोग यह तर्क देते हैं कि देश का प्रत्येक नागरिक हर प्रांत में बिना रोकटोक आ जा सकता है। मेरा उनसे सवाल है कि अगर ऐसा है तो फिर एक राज्य की पुलिस दूसरे राज्य में क्यों नहीं जा सकती। यह बातें तर्क के आधार पर सही हैं। हमें ऐसी व्यवस्थाओं के प्रति भी ध्यान देना होगा जिसमें पुलिस का काम त्वरित हो सके। यह सही है कि सूचित करना फिर अनुमति लेना त्वरित कार्रवाही पर नकेल लगाने जैसा है। कुल मिला कर राज के व्यवहार संवैधानिक प्राधिकार के लिए चुनौती बन गए हैं।
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