मुलायम सिंह वर्तमान राजनीति परिदृश्य को देख कर जिस प्रकार की राजनीतिक चोटें कर रहे हैं वह किसी बड़े ऐजेंडे को लक्षित करता है। लेकिन यह भी तय है कि वे अपनी राह खुद कठिन बनाते जा रहे हैं।
कोल ब्लॉक आवंटन पर घिरी यूपीए सरकार और कांग्रेस के लिए मुलायम सिंह यादव मुश्किल की हड्डी बन गए हैं। कांग्रेस को झटका देते हुए मुलायम सिंह ने तीसरे मोर्चे की राजनीतिक खिचड़ी बनाने के लिए बीरबल की तरह बांस पर टांग दी है। यूपीए और एनडीए से बाहर के दलों को साथ लेकर मुलायम ने कोल ब्लॉक आवंटन की जांच सीधे सुप्रीम कोर्ट के जज से करवाने की मांग उठा कर सरकार को चौंका दिया है।
मुलायम सिंह यादव बदलते राजनीतिक परिदृश्य में जिस तरह की राजनीतिक चोटें कर रहे हैं, उससे लगता है कि यह प्रवृत्ति ‘मुलायम चोट’ नाम से नया राजनीति मुहावरा न गढ़ दे। तीसरे मोर्चे की सम्भावना पर उनके बयान से राजनीतिक दलों में संम्राम सा छिड़ गया है। समाजवादी पार्टी के सुप्रीमों मुलायम सिंह ने तीसरे मोर्चे की सम्भावना जता अगली सरकार बनाने का वक्तव्य क्या दिया सभी तरफ से बयानों की बौछार लग गई। कोई उन्हें दिन में प्रधानमंत्री के सपने देखने वाले मुंगेरी लाल की याद दिलाने लगा तो कोई उनके बयान से मन ही मन सशंकित हो उठा। इन सब के बीच चैनल वालों ने भी जम कर बहती हवा में खूब भूसा उड़ाया। इससे भी चारों ओर चर्चाओं का दौर शुरू हो गया। धुंआधार बहसों में आडवाणी को भुला दिया गया। कभी उन्होंने अपने ब्लॉग में लिखा था कि कांग्रेस और भाजपा को आम चुनावों में सरकार बनाने के लिए आवश्यक संख्या प्राप्त होना मुश्किल है। कुछ दिनों पूर्व ही भाजपा के वरिष्ठ नेता अडवानी ने ही कांग्रेस व भाजपा को बहुमत न मिलने व एक नए गठबंधन द्वारा केंद्र की सत्ता पर काबिज होने की सम्भावना व्यक्त की थी। उस समय उनके लेख पर सभी दलों के नेताओं ने उपहास उड़ाया था। इस समय देखा जाये तो देश में कुछ ऐसी ही परिस्थिति का निर्माण हो रहा है। 2014 में चुनावों में नई सरकार बनने तक एनडीए और यूपीए के मंचों के खंभे इधर उधर होंगे। देश में चल रही राजनीति का अध्ययन का पूर्वानुमान यही निकलता है कि 2014 के चुनावों में कांग्रेस को बहुत घाटा होगा और यदि भाजपा के एनडीए को अन्य दलों का समर्थन नहीं मिला तो वह भी सरकार बनाने के सपने को पूरा करने में असमर्थ रहेगी। ऐसे में तृणमूल कांग्रेस, एआइडीएमके, बीजू जनतादल, जगन रेड्डी की वाईएसआर कांग्रेस और नितीश कुमार आदि मिल कर केंद्र में सरकार बनाने का प्रयास कर सकते हैं और भाजपा के रूप में रिजर्व एनडीए बाहर से समर्थन देगा। इस संभावित राजनीतिक खेल में मुलायम बड़ी भूमिका निभाने में सफल होंगे, यह भविष्य कीबात है। वैसे मुलायम सिंह यूटर्न के खिलाड़ी हैं। इससे विश्वसनीयता का संकट भी उठकर सामने आया था, लेकिन राजनीति के खिलाड़ियों को हम कई बार इस तरह के खेल करते देखते रहे हैं। तीसरे मोर्चे या गठबंधन के निर्माण में वाम दलों व मुलायम के रिश्तों में दोस्ती तो नजर नहीं आती। बदली हुई परिस्थिति में सांप्रदायिक शक्तियों को सत्ता में आने से रोकने वाला पुराना हथियार कितना कारगर होगा इस पर अभी तो कुछ कहना जल्दबाजी होगी।
अपना मास्टर प्लान
देश के अधिकांश शहरों में मास्टर प्लान नहीं है जबकि मास्टर प्लान विकास के लिए जरूरी है। शहरों में आधारभूत सुविधाओं के बिखराब और कचरे से भरे शहरों के पीछे मास्टर प्लान न होना बड़ा कारण है।
देश के 7000 हजार शहरों और कस्बों के विकास के लिए अपना मास्टर प्लान होना चाहिए, लेकिन केवल 24 प्रतिशत शहर-कस्बे ही ऐसे हैं जिनके पास मास्टर प्लान है। देश के लिए यह सबसे बड़ी अदूरदर्शिता है। स्थानीय निकायों और सरकार की यह बड़ी असफलता है। सन 2011 की जनगणना के आधार पर वर्तमान समय में देश के 7935 शहरों में 37.71 करोड़ लोग रह रहे हैं जो देश की कुल जनसंख्या का लगभग 31 प्रतिशत हैं। ऐसे में शहरों के विकास से संबंधित प्रयासों और इसके लिये आवश्यक मास्टर प्लान को बनाने की आवश्यकता पर चर्चा करने का यह सही समय भी है।
भारत में बढ़ते शहरीकरण की प्रवृत्ति का विश्लेषण करें तो यह स्पष्ट होता है कि देश के ग्रामीण क्षेत्रों में विगत वर्षों के दौरान किये गये सामाजिक व आर्थिक विकास योजनाओं का लाभ सभी लोगों तक समान रूप से नहीं पहुंचर रहा है। आर्थिक और सामाजिक विकास के विभिन्न प्रयासों का लाभ न मिलने के कारण वंचित और पिछड़े वर्ग के लोग रोजी-रोटी की तलाश में शहरों की ओर जाने को मजबूर हुये हैं। इसी प्रकार शिक्षा के क्षेत्र में किये जा रहे प्रयासों से लोगों को नये ज्ञान और दक्षताओं को पाने का अवसर तो मिला किन्तु आस-पास के क्षेत्रों में काम करने के अवसरों के न मिलने के कारण लोग शहर की ओर रूख करते रहे। शहरों में कम पढ़े-लिखे और अकुशल लोगों के लिये शारीरिक श्रम करके रोजी कमाने के अवसर हैं तो साथ ही पढ़े-लिखे और कुशल लोगों के लिये बैंकिंग, बीमा, शिक्षा, रिसर्च, व्यापार और उद्योग जैसे क्षेत्रों में काम करने के अवसर मिल रहे हैं।
आबादी के कारण शहरी क्षेत्रों में सेवाओं देने वाले संस्थानों पर निरन्तर दबाव बढ़ रहा है। इसका सबसे यादा प्रभाव स्थानीय शहरी निकायों पर पड़ा है जिनके ऊपर 74वें संविधान संशोधन के बाद से स्थानीय आर्थिक विकास और सामाजिक न्याय को बढ़ावा देने वाले कार्यक्रमों को लागू करने की जिम्मेदारी दी गयी है। बढ़ती आबादी के अनुपात में स्थानीय शहरी निकायों में संसाधनों (वित्तीय और मानवीय) में बढ़त न होने के कारण स्थानीय शहरी निकाय लोगों को मूलभूत सुविधाओं जैसे पीने का साफ पानी, चौड़ी सड़क, बिजली, साफ-सफाई, गंदे पानी के निकासी के लिये नालियां भी उपलब्ध कराने में स्वयं को सक्षम नहीं महसूस कर रहे हैं।भारत में बढ़ते शहरों के कारणों को जानने का प्रयास करें तो यह प्रतीत होता है कि शहरों का विकास प्रायº राजनीतिक नजरिये से किया जा रहा है न कि लोगों की जरूरतों और स्थानीय आवश्यकताओं के आधार पर। छोटे और मझोले शहरों में 80 प्रतिशत कचरों का अनियमित प्रबंधन और इससे जुड़े निपटान की समस्या को कभी भी और कहीं भी देखा जा सकता है। इसी प्रकार बढ़ते शहरीकरण के कारण आवागमन के साधनों की बढ़ती संख्या तो बढ़ी है कि किन्तु शहरों की संकरी सड़कें और बाजार क्षेत्र में अनधिकृत रूप से बढ़ते कब्जे के कारण अनियंत्रित यातायात और बढ़ते जाम की समस्या विकराल रूप ले रही है।
दो साल की सजा
सजा अगर अधिक मिलती तो यह साबित होता है कि औद्योगिक लापरवाही भी एक अपराध है।
सा त जून 2010 को फैसला देते हुए यूनियन कार्बाइड इंडिया लिमिटेड के पूर्व अध्यक्ष केशव महेंद्रा सहित सात आरोपियों को धारा 304-ए के तहत दो साल की सजा और एक लाख रुपए के जुर्माने की सजा सुनाई थी। धारा 304-ए लापरवाही से किए कृत्य से व्यक्ति या व्यक्तियों की मृत्यु होने के लिए लागू की जाती है। हजारों लोगों के मौत के लिए जिम्मेदार अरोपियों को मात्र दो साल की सजा! यह गैस पीड़ितों के लिए दोहरी त्रासदी थी। इस मामूली सजा पर दुनिया भौंचक थी और आश्चर्य है कि सीबीआई ने इस फैसले को अपनी जीत घोषित कर रही थी। इस जीत के संदर्भ क्या थे और कैसे यह जीत थी, यह सीबीआई ने किसी को नहीं बताया। जिस धारा के तहत यह मामला चल रहा था उसमें न्यायालय इससे अधिक सजा दे भी नहीं सकता था। बाद में सरकार ने उच्चतम न्यायालय में एक ‘क्यूरेटिव पिटीशन’ दायर की थी, जिसमें सभी आरोपियों को धारा 304 भाग 2 (गैरइरादतन हत्या ) के लिए सजा का प्रस्ताव था। सुप्रीम कोर्ट ने यह कह कर इस याचिका को 11 मई, 2011 को खारिज कर दिया था कि इसे सेशन कोर्ट में दायर किया जाए। इस पर सीबीआई ने भोपाल के जिला एवं सत्र न्यायालय में यह याचिका दायर की थी। अब गुनाहगारों के लिए माकूल सजा के लिए लगाई गई अर्जी भी खारिज हो गई तो ये दूसरी बड़ी त्रासदी बन गई। कुल मिला कर 27 साल गुजरने के बाद भी गैस पीड़ितों के लिए न्याय दूर होती रेगिस्तानी मरीचिका में बदलता जा रहा है।
खारिज हुई याचिका के कानूनी लूप होलों को सीबीआई ठीक तरह से नहीं भर सकी। अपराधियों को वह सजा नहीं मिली जिसकी गैसपीड़ितों को उम्मीद थी। कानून के जानकारों का भी मानना है कि सीबीआई ने इस केस के सभी चरणों में गलती पर गलती की है। ट्रायल कोर्ट में आरोप सुनिश्चित किए गए थे, उसी समय आपत्ति लेकर धारा को बढ़ाने की अर्जी दी जा सकती थी लेकिन ऐसा नहीं किया गया। इसके बाद जब सबूत प्रस्तुत हुए, उस वक्त भी सीबीआई सजा बढ़ाने के लिए अपना पक्ष रख सकती थी। इसके अलावा कई और मौके थे, लेकिन सीबीआई ने सजा बढ़ाने के लिए इनका इस्तेमाल नहीं किया। कोर्ट ने भी सीबीआई की खामियों को गिनाते हुए अर्जी खारिज की है। हालांकि यह मात्र सब्र करने जैसी बात है कि रिवीजन याचिका खारिज होने का असर आगे की जाने वाली अपील पर नहीं होगा।
लेकिन इस मामले में राज्य यानी सीबीआई की भूमिका को कम करके नहीं आंका जा सकता। न्याय के बीच में आने वाले अवरोधों पर भी गौर करना आवश्यक है। यह मामला गैस पीड़ित अधिकांश गरीबों को बांटे गए राहत के अलावा ऐतिहासिक सुधारों से भी जुड़ा है। सजा अगर अधिक मिलती तो यह साबित होता है कि औद्योगिक लापरवाही भी एक अपराध है। गैस का रिसाव दुर्घटनावश नहीं, यह पैसे बचाने की आपराधिक लालसा का कुपरिणाम था जिसको भोपाल के लोग आज तक भुगत रहे हैं।
रविन्द्र स्वप्निल प्रजापति
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