गुरुवार, अगस्त 09, 2012

चार टिप्पणियां

  चार  टिप्पणियां 

  क्रूरता की सजा

उस दम्पत्ति को अपनी क्रूरता की सजा न्यायालय ने सुना दी है। निश्चित ही वे इस क्रूरता के लिए सजा के हकदार हो चुके थे। समाज में ऐसे कई मामले और हो सकते हैं।
अपने मासूम बेटे शौर्य पर तरह-तरह के अत्याचार करने वाले मां-बाप को दिल्ली की एक कोर्ट ने 10-10 साल कैद की सजा  सुना दी है। क्रूरता की अति करने के बाद दोनों ने यह भी नहीं सोचा कि आखिर वे क्यों यातनाएं एक मासूम पर कर रहे हैं। वास्तव में यह एक गंभीर और कभी-कभी घटने वाली घटना है। हो सकता है कि ऐसी और भी घटनाएं इस देश में हो रही हों लेकिन हम उन तक न पहुंच पा रहे हों।
खैर जो हुआ और अदालत को शौर्य के नाना-नानी गए, उनकी भी सराहना करना होगी। क्रूरता के इस मामले में अदालत ने बेहद गंभीर माना है। इसलिए सजा भी दस साल की दी है। यह मामला गंभीर इसलिए  भी है कि ये हमारे शिक्षित और उच्च पदों पर आसीन रहे लोगों से जुड़ा है। शौर्य के पिता ललित बलहारा आर्मी में मेजर जैसे वरिष्ठ पद पर रह चुके हैं। ललित बलहारा और उनकी दूसरी पत्नी यानी शौर्य की सौतेली मां प्रीति बलहारा ने मासूम पर इतने अत्याचार किए थे कि वह शारीरिक रूप से विकलांग हो गया। शौर्य इस समय 13 साल का है। लेकिन 3 साल की उम्र से ही वह इस कदर जुल्म का शिकार हुआ कि वह अभी भी उस डर से मुक्त नहीं हो पा रहा है।
3 साल के शौर्य को कई-कई दिन तक भूखा-प्यासा कमरे में बंद रखा जाता था। इसकी वजह से उसकी हालत विकलांगों की तरह हो गई। उसे  बुरी तरह मारा-पीटा जाता था। उसकी हालत अधमरे की तरह हो जाती थी। शौर्य की हालत ऐसी थी कि करीब 2 साल तक ज्यादातर समय वह हॉस्पिटल में ही रहा। उसे कभी हड्डी टूटने की वजह से तो कभी मस्तिष्क में खून के रिसाव की वजह से और कभी दांत टूटी हालत में तो कभी अधमरी स्थिति में हॉस्पिटल में एडमिट कराया गया। बीते सोमवार कोर्ट ने शौर्य के सगे पिता आर्मी में मेजर रह चुके ललित बलहारा और उनकी दूसरी पत्नी प्रीति बलहारा को हत्या की कोशिश और जूवेनाइल जस्टिस एक्ट के तहत दोषी ठहराया था और इस मामले में अब उन्हें 10-10 साल की सजा सुनाई गई है। इस केस में देश की सामाजिक संवेदना को उस तरह नहीं झकझोरा है जिस तरह नुपुर हत्याकांड को सामाजिक संघर्ष द्वारा न्याय दिलाने की पहल की जाती रही थी। लेकिन यह पहल भी उतनी ही महत्वपूर्ण है। यहां न्यायालय ने शौर्य पर हुए अत्याचारों को उतनी ही गंभीरता से स्वीकार किया। देश में बालक्रूरता के और भी कई केस हैं जो हमारी व्यवस्था और सामाजिक संवेदना के लिए कलंक की तरह लगते रहे हैं। आज न्यायालय द्वारा दी गई बाल क्रूरता की इन हदों को पार करने के बाद यह सजा एक सबक है, उन लोगों के लिए, जो इस देश में बच्चों को प्रताड़ित करते रहे हैं। ऐसे कई केस हैं। होटलों, ढाबे, घरेलू नौकर, फैक्ट्री और अन्य छोटे मोटे कारोबारों में लगे बच्चों को इस तरह की प्रताड़नाओं से गुजरना पड़ता है। हमें अपने कानूनों की सख्ती के अलावा निगरानी प्रक्रिया में भी आमूल चूल परिवर्तन करना होंगे ताकि इस तरह की प्रताड़नाओं को दोहराया न जा सके।
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 सपा के अराजक सिपाही

समाजवादी पार्टी का शासन अराजक होता है। मायावती की मूर्ति तोड़ने से अराजक शासन का पता चलता है, आखिर यूपी में राजनीतिक अनुशासन भंग क्यों होता है?

अखिलेश यादव को मायावती का शुक्रगुजार होना चाहिए कि उन्होंने अपनी प्रतिमाएं बनवाकर रख छोड़ी थीं और मूर्ति तोड़ने की खबर आने के बाद भी अपने समर्थकों को संयम रखने की सलाह दी वरना उत्तर प्रदेश में सामाजिक अशांति में जल रहा होता। उत्तरप्रदेश की राजनीति की समीक्षा करने वाले ये विचार बहुत गहरी बात कहते हैं। यह भी अच्छा ही हुआ कि तुरत फुरत समाजवादी पार्टी के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने मूर्ति को पुन: स्थापित करवा दिया। इस संवेदनशील मामले में अगर कुछ और देर होती तो सपाबसपा समर्थकों में राजनीतिक झड़पें भी हो सकती थीं। ऐसा लगता है कि समाजवादी पार्टी की मूल प्रवृत्ति बन गई है अराजक होना। सपाईयों ने जीत का जश्न किस तरीके से मनाया था, यह भी देश को याद है।
इस मामले में अखिलेश यादव के द्रुत कार्रवाई के आदेशों ने जन जीवन को अराजक होने से बचा लिया। मायावती कि प्रतिमा के तोड़े जाने की खबर मिलते ही जिस तरह से अखिलेश ने प्रशासन को शरारती तत्वों के खिलाफ कार्यवाही और प्रतिमा को उसी रूप में वापस बहाल करने के निर्देश दिए, उससे अधिकारियों और समाजवादी पार्टी के समर्थकों में भी संदेश चला गया कि समाजवादी पार्टी ने टकराव का पुराना रवैया छोड़ दिया है। अब समाजवादी पार्टी के समर्थक दबी जुबान से इस विडंबना को बर्दाश्त करने की बात कर रहे हैं कि सत्ता में आने से पहले मूर्तियों को बुलडोजर से तोड़ने की बात कहने वाले स्वयं मायावती की मूर्ति लगा रहें हैं। समाजवादी पार्टी और सरकार में कई लोग इस राय के थे कि नई मूर्ति लगवाने के बजाय तोड़ी गयी मूर्ति की ही मरम्मत करवा दी जाए। लेकिन मुख्यमंत्री ने उनकी नहीं सुनी और प्रशासन को स्पष्ट निर्देश दिए कि नई मूर्ति लगाई जाए। हालांकि कोई शिल्पकार दो महीने से पहले नई प्रतिमा बनाकर देने को तैयार नहीं था। मगर इसी बीच लखनऊ के जिला मजिस्ट्रेट अनुराग यादव ने अम्बेडकर सामाजिक परिवर्तन स्थल के समीप ही रखी मायावती की दूसरी मूर्ति को खोज   निकलवाया और कारीगर बुलाकर उसे रातोंरात क्षतिग्रस्त प्रतिमा की जगह खड़ी करवा दिया।
मगर मुद्दा यहीं समाप्त नहीं हो गया। यूपी नव निर्माण सेना के अमित जानी नाम के जिस व्यक्ति ने मूर्ति तोड़ने की योजना को अंजाम दिया वह मेरठ में समाजवादी पार्टी का जाना पहचाना नेता है। इसलिए इस घटना ने मायावती को यह मौकÞा दिया है कि वह इस मुद्दे को दलित समुदाय की अस्मिता से जोड़ें। मायावती ने अपनी, अपने नेता कांशी राम और अन्य दलित महापुरुषों की प्रतिमाएं इसी आधार पर सार्वजनिक स्थानों पर लगवाई थीं कि सदियों से दबे कुचले दलित समुदाय का सामाजिक स्वाभिमान बढ़ेगा। यह मायावती का अपनी तरह का अनूठा प्रयास था। एक चुनी हुई सरकार के फैसले को अराजकता से नष्ट नहीं किया जा सकता। सपा अगर खुद को अनुशासित नहीं करती है तो मुलायम जिस बड़ी भूमिका की बात करते हैं वह उनकी ही पार्टी द्वारा फैलाई अराजकता की भेंट चढ़ जाएगी।


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मंगल से आगे

विज्ञान का विकास ही आधुनिकता का आधार है। तकनीक  मनुष्य को क्षमतावान बनाती चली जा रही है। मंगल पर क्यिूरियोसिटी का उतरना, विज्ञान व मनुष्य के रिश्ते को नई परिभाषा देगा।

कु छ बुरे उदाहरणों के कारण विज्ञान को कोसा जाता रहा है। दूसरे विश्व युद्ध में हिरोशिमा और नागाशाकी में परमाणु बम गिरा कर कुछ ही मिनटों में लाखों लोगों को मार दिया गया था और दो शहर सदा के लिए नष्ट कर दिए गए थे। यह विज्ञान के विकास के साथ उससे जुड़े बीसवीं सदी के सबसे क्रूर उदाहरण हैं। लेकिन सबकुछ ऐसा नहीं है। विज्ञान और तकनीक ने अपना सब कुछ मानवीय सभ्यता को नई ऊंचाइयां देने में योगदान दिया है। जिस प्रकार आज हम मंगल तक पहुंचे हैं, यह भविष्य की संभावना है कि मनुष्य किसी दिन उससे भी आगे जाएगा। आंतरिक्ष में मनुष्य की गतिशीलता का यह नया चरण विकास के नए आयामों का सृजन करेगा।
 6 पहियों वाला क्यूरियोसिटी मंगल की सतह पर उतर कर चलने  लगा है। यह आंतरिक्ष विज्ञान की बड़ी सफलता है। अत्याधुनिक उपकरणों और सेंसरों से लैस ये लैंड रोबर निश्चय ही मंगल के बारे में उल्लेखनीय सूचनाएं उपलब्ध कराएगा। उसने अपना काम भी शुरू कर दिया है। छह पहिए जैसे कह रहे हैं अब विकास के आयामों में दो  से चार और चार से छह पहिए लगाए जा चुके हैं। ऊंचाई 3 मीटर, स्पीड औसतन 30 मीटर प्रति घंटा और 900 किलो भारी का यह रोवर मंगल पर 2 साल काम करेगा। इस दौरान यह कम से कम 19 किलोमीटर की दूरी तय करेगा।
रोवर नासा ने 26 नवंबर 2011 को केप कैनेवरल स्पेस स्टेशन से लगभग 5 करोड़ 70 लाख किलोमीटर की यात्रा 253 दिन में पूरी कर मंगल तक पहुंचा है। रोवर मंगल पर रेडियोआइसोटॉप जेनरेटर से मिलने वाली बिजली से चलेगा। इस मिशन में मंगल के मौसम, वातावरण और भूगोल की जांच होगी। इनसे मिले आंकड़ों से तय होगा कि क्या मंगल पर जीवन की क्या संभावनाएं हैं? नासा साइंटिस्टों और इंजिनियरों में कई भारतीय मूल के हैं। यही नहीं, रोवर में लगाए गए एक माइक्रोचिप पर 59,041 भारतीयों के नाम भी दर्ज हैं।
 1960 से अब तक अंतरराष्ट्रीय स्तर पर 39 मार्स मिशन हो चुके हैं। इनमें से 17 को आंशिक या पूर्ण सफलता मिली है। कामयाब होने वाले मिशनों में ज्यादातर अमेरिकी मिशन रहे हैं। इस दिशा में भारत भी प्रयास कर रहा है। केंद्र सरकार की मंजूरी के बाद स्पेस एजेंसी इसरो नवंबर 2013 में एक मार्स आॅर्बिटर लॉन्च करेगा। 450 करोड़ रुपये के इस मिशन में एक सैटलाइट मंगल की सतह के 100 किलोमीटर ऊपर चक्कर काटेगा। यह भविष्य के मंगल अभियानों के लिए जरूरी आंकड़े, नक्शे और जानकारियां जुटाएगा। फिलहाल टीम क्यूरियोसिटी अपने रोबर पर लगातार नजर जमाए है। अब आने वाले वक्त में और इससे मिले आंकड़ों से तय होगा कि क्या मंगल पर जीवन की कोई संभावना है या नहीं। इन आंकाड़ों का मानवीय जीवन की समृद्धि और विकास के लिए क्या इस्तेमाल होगा? यही चीज इसकी सफलता का निर्धारित करेगी? विज्ञान सबके लिए है और क्या सबको इसके लाभ मिलेंगे? उम्मीद है ऐसा ही होगा और ये सफर आगे भी जारी रहेगा।

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आतंकी तमाचा?

पुणे में चार ब्लास्ट हुए। हताहत कोई नहीं हुआ। यह हमारी सुरक्षा एजेंसियों और सरकारों की प्रशासनिक दक्षता पर किए गए विस्फोट तो हैं ही, तमाचे भी हैं।

मुं ह तोड़ जवाब जब नहीं दिए जाते तो निष्ठुरता तमाचा भी मारने लगती है। आतंक के प्रति नरम और बचाव का रुख सरकारी तामझाम पर भारी पड़ रहा है। पुणे में हुए चार विस्फोटों ने इस हकीकत से देश को रूबरू करा दिया है। बार बार विस्फोट होते हैं फिर जांच का तामझाम फैलाया जाता है और आखिर में एक लंबा वक्त। देशवासी शांति का अहसास करने वाले होते हैं कि अचानक फिर विस्फोट हो जाते हैं। हल्की तीव्रता के यह धमाके  मौजूदगी का एहसास कराने के लिए किए गए माने जा रहे हैं। एक पक्ष ये भी है कि ये शरारतन भी हो सकता है। यह पुलिस की गंभीरता भी बताता है कि कोई शरारती चार विस्फोट क्यों करेगा? वास्तव में यह आतंक के खिलाफ हमारी लडाÞई को मारे गए तमाचे हंै। सरकार की रणनीति बचाव की रही है। जबकि उसे समय रहते यह सीख लेना चाहिए ऐसे मामलों में जवाबी कार्रवाई प्रहार की होनी चाहिए, यदि यह एक आतंकी हमला है तो देश को जवाब देना होगा।
देश के नए गृह   मंत्री को पदभार संभाले एक दिन भी नहीं बीता था, कि उन्हीं के गृह राज्य में एक के बाद एक चार धमाके होने की खबर आ गई। पुणे में हुए सिलसिलेवार धमाकों को केंद्र सरकार ने अभी तक आतंकी हमला या धमाका नहीं कहा है। हालांकि इंटेलिजेंस ब्यूरो ने इसे आतंकी वारदात बताया है।
इन विस्फोटों के बाद समूचे देश में और खासकर महानगरों में सतर्कता बढ़ा दी गई है। लेकिन ऐसी सतर्कता का क्या मतलब है जो वक्त से पहले अपने काम को अंजाम न दे पाए। अन्य देशों का उदाहरण दें तो वहां सालों से कोई विस्फोट नहीं हो सका। साजिशें तार तार कर दी गर्इं। इस देश को, इस देश के नेतृत्व की निर्लज्जता का कोई अंत नहीं।
पुणे में जहां धमाके हुए थे, वहां एनएसजी की टीम ने कुछ सबूत इकट्ठा किए हैं। खबर आ रही है कि एफएसएल की शुरुआती जांच में पता चला है कि धमाके में अमोनियम नाइट्रेट और डेटोनेटर का इस्तेमाल किया गया। साथ ही इन धमाकों में इस्तेमाल की गई सभी साइकिलें नई थीं। अब इन साइकिलों को खरीदने वाले शख्स की तलाश की जा रही है। हमारे आपसी विरोधाभासों के हालात भी बहुत बदतर हैं। पुणे के कमिश्नर कह रहे हैं कि विस्फोटों में आतंकियों के हाथ नहीं है। पुलिस के अनुसार विस्फोटों में पेंसिल बमों का इस्तेमाल किया गया। कमिश्नर ने चार विस्फोटों की पुष्टि की है। एक जिंदा बम मिलने की भी खबर है। इससे पहले कहा जा रहा था कि शहर में पांच या फिर छह विस्फोट हुए हैं। आईबी के अनुसार ये धमाके आतंकी साजिश के तहत रखे गए हैं।  बम धमाकों में घायल शख्स दयानंद पाटील को पुलिस ने क्लीन चिट दे दी है।  पाटील का बम धमाकों से कोई ताल्लुक नहीं हैं और उसने बम का बैग महज कौतूहलवश खोला था।
इस मामले में किसी निष्कर्ष पर पहुंचने से पहले  जांच रिपोर्ट का इंतजार करना होगा। ये सवाल भी सामने है कि देश की एजेंसियां अब भी किसी साजिश का पता लगाने में सक्षम क्यों नहीं हो पा रही हैं?

                                                                                                                      -रविन्द्र स्वप्निल प्रजापति 

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