PHOTO Aanil Dixit BHOPAL |
य ह बात उस समय की है जब नेताजी सुभाषचंद्र बोस ने देश को ब्रिटिश गुलामी से मुक्त कराने के लिए आजाद हिंद फौज की स्थापना की थी। उन्होंने इसमें सभी संप्रदायों के लोगों को शामिल होने का न्योता दिया था। उनका विचार था कि भारत में रहने वाले सभी हिंदू, मुस्लिम, सिख आदि पहले भारतीय हैं फिर कुछ और। यह विचार नेता जी का तो था ही, गांधी जी भी इसी विचार पर आधारित अपना आंदोलन चला रहे थे।
यह विचार समाज की सामूहिकता और मनुष्यत्व की महानता के लिए स्वीकार करता है। यही विचार है जो इसलिए वे आजाद हिंद फौज के दरवाजे सभी के लिए खुले रखते थे। जिसके भी सीने में देश को आजाद करने की आग हो, वह उनकी फौज में शामिल हो सकता था। इसलिए आजादी की इस सेना में सभी तरह के लोग थे।
कैप्टन शाहनवाज खान भी फौज में शामिल थे। एक बार अंग्रेजों ने उनकी देश की आजादी से संबंधित गतिविधियों को देख कर उन पर एक मुकदमा दायर कर दिया। इस मुकदमे से उनके लिए कई कष्ट प्रारंभ हो गए। उनकी मदद के लिए कई लोग आए। इस केस के लिए कैप्टन शाहनवाज को एक योग्य वकील की आवश्यकता थी। उनके वकील बने- भूलाभाई देसाई। तभी मुहम्मद अली जिन्ना ने कैप्टन को संदेश भिजवाया कि यदि आप आजाद हिंद फौज के साथियों से अलग हो जाएं तो आपका मुस्लिम भाई होने के नाते मैं आपका मुकदमा फ्री लड़ने को तैयार हूं।
शाहनवाज खान ने तत्काल जवाब भिजवाया- हम सब हिंदुस्तानी कंधे से कंधा मिलाकर आजादी की लड़ाई लड़ रहे हैं। हमारे कई साथी इसमें शहीद हो गए और हमें उनकी शहादत पर नाज है। आपकी पेशकश के लिए शुक्रिया। हम सब साथ-साथ ही उठेंगे या गिरेंगे, परंतु साथ नहीं छोड़ेंगे। उनके इस सटीक जवाब से उनके सभी साथी और सैनिक खुश थे। उन्हीं में से उस समय एक सिपाही बोला- धर्म और जाति की संकीर्णता से ऊपर रहने वाला देश ही उन्नति करता है। इसलिए हमें समानता की दृष्टि से सबको देखते हुए सामूहिकता में विश्वास रखना चाहिए।
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पुरस्कार के लिए सत्पात्र कौन है?
मंत्री ने अपना मत प्रकट करते हुए कहा, ‘यदि ये आपस में एकता कायम कर लेते तो सहारा देकर किसी एक को ऊपर चढ़ा सकते थे, पर वे ईर्ष्यावश वैसा नहीं कर सके और असफल हो गए।
एक राजा ने अपने मंत्री से कहा- ‘मैं अपने प्रजाजनों में से किसी वरिष्ठ को कुछ बड़ा उपहार देना चाहता हूं। बताओ, ऐसे योग्य व्यक्ति कहां से और किस प्रकार ढूंढे जाएं?’
मंत्री ने कहा- ‘महाराज! सत्पात्रों की तो कोई कमी नहीं पर उनमें एक ही कमी है कि परस्पर सहयोग करने की अपेक्षा वे एक दूसरे की टांग पकड़कर खींचते हैं। यानी वे एक दूसरे से ईर्श्या करते हैं और एक दूसरे की बुराई भी करते हैं। हालांकि वे भले लोग होते हैं लेकिन वे सब भले होते हैं।’
राजा के गले यह बात उतरी नहीं। वह समझ गया कि मंत्री उसे कुछ उलझाना चाहता है।
राजा मंत्री से कहा- यह इतने विश्वास के साथ कैसे कह सकते हो तुम? मंत्री ने कहा कि वह इसे साबित कर दिखाएगा। एक छह फुट गहरा गड्ढा बनाया गया। उसमें बीस व्यक्तियों के खडेÞ होने की जगह थी। घोषणा की गई कि जो इस गड्ढे से ऊपर चढ़ आएगा, उसे आधा राज्य पुरस्कार में मिलेगा। बीसों सबसे पहले चढ़ने का प्रयास करने लगे। जो थोड़ा सफल होता दिखता, उसकी टांग पकड़ कर शेष उन्नीस नीचे घसीट लेते। वह औंधे मुंह गिर पड़ता। इसी प्रकार सवेरे आरंभ की गई प्रतियोगिता शाम को समाप्त हो गई। बीसों को असफल ही घोषित किया गया और रात होते-होते उन्हें सीढ़ी लगाकर ऊपर खींच लिया गया। पुरस्कार किसी को भी नहीं मिला।
मंत्री ने अपना मत प्रकट करते हुए कहा, ‘यदि ये आपस में एकता कायम कर लेते तो सहारा देकर किसी एक को ऊपर चढ़ा सकते थे, पर वे ईर्ष्यावश वैसा नहीं कर सके। वे एक दूसरे की टांग खींचते रहे और खाली हाथ रहे। अगर उनमें एकता होती तो वे यह तय कर सकते थे कि किसी एक को जीतने दिया जाए और उसकी पुरस्कार राशि सब बराबर-बराबर बांट लें। पर वे ऐसा नहीं कर सके। मंत्री ने बताया - ‘चारों दिशाओं में प्रतिभावानों के बीच ऐसी ही प्रतिस्पर्धा चलती है और वे खींचतान में ही सारी शक्ति गंवा देते है। इसलिए उन्हें निराश हाथ मलते ही रहना पड़ता है।’ राजा मंत्री के विचारों से सहमत हो गया।’
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