राजनीति के राष्ट्रपति
शिवसेना ने अब प्रणव मुखर्जी का समर्थन कर दिया है।यह समर्थन नीति और विचारों के आधार पर नहीं, अवसरवाद और राजनीतिक नफे नुकसान के गणित पर आधारित है।
शि वसेना ने अपना पाला बदल लिया है। वैचारिक असहमतियों और विरोधों को राजनीतिक अवसरवाद किस प्रकार अलग रख देता है, यह शिवसेना के उदाहरण से साफ हो जाता है। भाजपा की वैचारिक सहयोगी शिवसेना की इस पलटी से देश का राजनीतिक विश्लेषण करने वाला वर्ग चकित है। एक प्रकार से सभी क्षेत्रीय दलों का कुछ ऐसा ही रुझान होता है। वे अपने अस्तित्व के लिए अवसरवाद के टट्टू पर जब तब सवार हो जाते हैं। चाहे वह राष्ट्रपति चुनाव हो या कोई दूसरा।
राष्ट्रपति चुनाव को लेकर एनडीए में असमंजस की स्थिति अभी भी बनी है, लेकिन उसके घटक दल शिवसेना ने अपना रुख जता दिया है। शिवसेना पार्टी राष्ट्रपति चुनाव में यूपीए के उम्मीदवार प्रणव मुखर्जी का समर्थन करेगी। अपनी वैचारिक छवि के मुखौटे को एक तरफ रख दिया है। शिवसेना ने अपना रुख पहले साफ नहीं किया था। उसने अपना रुख उस वक्त साफ किया जब मुखर्जी ने पार्टी प्रमुख बाल ठाकरे और उनके बेटे उद्धव ठाकरे से बातचीत की। दूसरी तरफ यह भी कहा जा रहा है कि भाजपा की वैचारिक सहयोगी शिवसेना ने राष्ट्रपति चुनाव मेें एनडीए द्वारा अपना उम्मीदवार नहीं चुने जाने पर भी निराशा जताई है। शिवसेना की निराशा जायज भी है। वह क्षेत्रीय दल होने के नाते सर्वप्रथम अपने हितों को प्राथमिकता देती है। शिवसेना की यह निराशा इसलिए बढ़ रही थी कि राष्ट्रपति का नाम तय नहीं होने से अपने रिश्तों को लेकर कोई राजनीतिक मोलभाव नहीं कर पा रही थी। 2007 के राष्ट्रपति चुनाव में भी शिवसेना ने एनडीए के उम्मीदवार भैरों सिंह शेखावत का समर्थन नहीं किया था। तब पार्टी ने यूपीए उम्मीदवार प्रतिभा पाटिल का समर्थन किया था क्योंकि वह महाराष्ट्र की हैं।
दूसरी तरफ भाजपा कोर समूह की बैठक में संगमा का समर्थन करने की संभावना बनी है। राष्ट्रपति पद की दौड़ में ए.पी.जे अब्दुल कलाम के शामिल होने से इनकार किए जाने के बाद भाजपा के कोर ग्रुप की बैठक में संगमा के नाम पर विचार किया गया। इस बैठक में यूपीए उम्मीदवार प्रणव मुखर्जी का विरोध नहीं करने और जेडीयू के रुख समेत पार्टी की रणनीति पर भी बातचीत की गई। लेकिन बीजेपी की यह कसरत कमजोर संकल्प के कारण देखने दिखाने भर की साबित हो रही है। पूरे घटनाक्रम को देखें तो भाजपा फैसले न ले पाने वाली पार्टी बनती लग रही है।
भाजपा की दूसरी दिक्कत 2014 के लोकसभा चुनावों को देखते हुए है। वह एआईडीएमके और बीजेडी जैसे दलों को अपने साथ लाने की संभावना को नजर में रखते हुए राष्ट्रपति चुनाव में मुकाबला होना चाहिए। कलाम दौड़ से बाहर हो चुके हैं। पूर्व लोकसभा अध्यक्ष पी.ए. संगमा को समर्थन दिए जाने की संभावना है। यह संभावना तभी कारगर होगी जब भारतीय जनता पार्टी अपने चरित्र को एक स्थिरता दे। फिलहाल भाजपा इतने जोड़-घटाने में उलझी है कि उत्तर लिखने से पहले ही उसके पेपर का समय पूरा हो जाएगा।
बेलगाम ताकत के दुख
पुलिस जैसी ताकतवर संस्था जब अनियंत्रित और विवेकहीन हो जाती है तो वह अपनों को मारने लगती है। राजनीतिक कार्यकता और समाज सेवक की हत्या इसका उदाहरण बन कर सामने आई है।
पुलिस द्वारा नरसिंहपुर के एक गांव में समाजसेवी की हत्या कर दी गई। यह घटना पुसिल के बेलगाम होने के कई उदाहरणों में से एक है। कहीं पुलिस ने शांतिपूर्ण किसानों पर गोलियां बरसार्इं हैं तो कहीं संवेदनशील प्रदर्शनों को असंवेदनशील नजरिये से निबटने की कोशिश में उसे हिंसक बना दिया है। यदि इस तरह की समस्याओं और घटनाओं को समाधानों की ओर गंभीरता से विचार करें तो, यह मामला सीधे न तो राजनीतिक कहा जा सकता है और न ही गैर राजनीतिक। मध्यप्रदेश में पुलिस द्वारा प्रताड़ना और गोली से मृत्यू होने की घटनाओं की कई शिकायतें हैं। जनसुनवाई और मानवअधिकार के आंकड़ों में सबसे अधिक शिकायत पुसिल प्रताड़ना की होती हैं। ये प्रताड़नाएं बड़ कर जनता की मौत का पैगाम भी बन जाती हैं। यह समस्या सभी राज्यों की पुलिस की है। लगभग सभी राज्यों में पुलिस द्वारा जनता के मौत के आंकड़ों में बढ़ोतरी हुई है।
पुलिस के बेलगाम होने, असंवेनशील होने और विवेकपूर्ण तरीकों को न अपनाए जाने के पीछे कुछ न कुछ कारण रहे होते हैं। स्थानीय राजनीतिक दबाव और संरक्षण इसमें प्रमुख हैं। दूसरे कारणों पर गौर करें तो पुलिस को अच्छा प्रशिक्षण न मिलना भी है। पुलिस अधिकारी और पुलिस कर्मी पुरानी मानसिकता से ग्रस्त हैं। वे समझते हैं कि वे जनता को नियंत्रित करने, उसे सबक सिखाने के लिए तैनात किए गए हैं। उनमें जिम्मेदारी की भावना नहीं है कि वे जनता के ही प्रहरी हैं। ह्यूमन राइट्स वॉच के एशिया क्षेत्र निदेशक ब्रैड एडम्स कहते हैं, ‘भारत तेजÞी से आधुनिक हो रहा है लेकिन पुलिस अभी भी पुराने तरीकों से काम करती है। वो गालियों और धमकी से काम चलाते हैं।
अब समय आ गया है कि सरकार बात करना बंद करे और पुलिस प्रणाली में सुधार किया जाए।’ दिल्ली के पूर्व आयुक्त अरूण भगत का कहना है कि ‘जो ऊपर के रैंक पर हैं उनका भविष्य बेहतर है लेकिन जो कांस्टेबल है हेड कांस्टेबल है उसका फ्रस्ट्रेशन तो देखिए। उससे गÞलतियां होगीं ही। इसे बदलने की जÞरुरत है।’रिपोर्ट के अनुसार कई पुलिसकर्मियों ने बातचीत के दौरान माना कि वो आम तौर पर गिरफ्Þतार लोगों को प्रताड़ित करते हैं। कई पुलिसकर्मियों का कहना था कि वो कÞानून की सीमाएं जानते हैं लेकिन वो मानते हैं कि अवैध रूप से हिरासत में किसी को रखना और प्रताड़ित करना जÞरूरी होता है। रिपोर्ट का कहना है कि जब तक पुलिसकर्मियों को चाहे वो किसी भी पद पर हों, मानवाधिकार उल्लंघन के लिए सजÞा नहीं दी जाएगी तब तक पुलिस कभी भी जिÞम्मेदार नहीं हो सकती है।
इसमें राज्यों की पुलिस की असफलताओं का भी जिÞक्र है। रिपोर्ट के अनुसार पुलिसवाले कÞानून की परवाह नहीं करते, पुलिसकर्मियों की संख्या कम है और उनके प्रोफेशनल मानदंड भी अच्छे नहीं हैं। पुलिसकर्मी कई मौकों पर लोगों की उम्मीदों पर पूरे नहीं उतरते हैं। पुलिस सुधार इसलिए जरूरी हैं क्यो कि जनता बदल रही है। समाज बदल रहा है।
ravindra swapnil prajapati