शुक्रवार, मार्च 30, 2012

  धीमे जहर पर प्रतिबंध ऐतिहासिक फैसला



तंबाखू से जुड़े उत्पादों की सहज उपलब्धि से समाज में प्रतिरोध कम हो जाता है। प्रतिबंध के बाद इस पर नियंत्रण आसान होगा।


मध्यप्रदेश सरकार ने 1 अप्रैल से गुटखा पाउच बंद करने का एतिहासिक फैसला लिया है। प्रदेश में होने वाले कुल मुंह के कैंसर में 91 प्रतिशत  कैंसर तंबाखू के सेवन से होते हैं। यह फैसला स्वागत योग्य है और सरकार के वास्तविक कर्तव्य का अनुपालन भी है। किसी भी लोककल्याणकारी राज्य के लिए अपने नागरिकों के स्वास्थ्य को प्राथमिकता देना ही चाहिए। मध्यप्रदेश ने यह कदम उठाकर बड़ी पहल की है।  अब डर इस बात का है कि गुटखा खाने वाले और बेचने वाले इस प्रतिबंध को प्रभावहीन बनाने में पूरा जोर लगाएंगे। वे नहीं चाहेंगे कि करोड़ों रूपए की आया देने वाला यह उद्योग बंद हो जाए। हो सकता है कि कुछ दिनों तक गुटखा पाउच चोरी छिपे या कालाबाजारी के तहत बिकें लेकिन इसके प्रभाव दूरगामी होंगे। फिलहाल हालत ये है कि 7 साल के कई बच्चों को गुटखे पाउच खाते देखा जा सकता है। जब कोई चीज बच्चों तक पहुंचती है तो उसके असर बेहद विनाशकारी ही होते हैं। आने वाले समय में गुटखा चबाने की प्रवृत्ति इसकी सहज उपलब्धता के कारण बेहद चिंता जनक तरीके से फैल रही थी। तंबाखू से जुड़े उत्पादों की सहज उपलब्धि से समाज में  प्रतिरोध कम हो जाता है। प्रतिबंध के बाद इस पर नियंत्रण आसान होगा। समाज में भी सजगता बढ़ेगी। मध्यप्रदेश सरकार इस कठोर निर्णय लेने के लिए बधाई की पात्र है।


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गरीबी की धुंध में धनुष

भारतीय तीरंदाजी में अपनी चमक बिखेरने वाली और देश के लिए कई मेडल जीत चुकीं झारखंड की 21 साल की निशा रानी को गरीबी से तंग आकर अपना धनुष बेचना पड़ा। जमशेदपुर जिले के पथमादा गांव की निशा की कहानी सैंकड़ों खिलाड़ियों की तरह है जो गरीबी की धुंध में खो गए। निशा 2006 में वह ओवरआॅल सिक्किम चैंपियन बनीं। झारखंड में हुई साउथ एशियन चैंपियनशिप में उन्होंने सिल्वर मेडल जीता। 2006 में बैंकाक में हुई ग्रां प्री चैंपियनशिप में ब्रांज मेडल जीतने वालीं निशा भारतीय टीम की मेम्बर रहीं। 2007 में ताइवान में हुई एशियन ग्रां प्री में उन्हें बेस्ट प्लेयर अवॉर्ड से नवाजा गया। भारतीय तीरंदाजी फेडरेशन और इंडियन ओलिंपिक एसोसिएशन उनके बारे में एक बार भी सोचता तो निशा इतना मजबूर नहीं होना पड़ता। एक धनुर्धर को अपना कीमती धनुष बेचना कितना तकलीफदेह हो सकता है इसकी कल्पना की जा सकती है। निशा रानी ने चार लाख रुपए का कमान मणिपुर की खिलाड़ी को 50 हजार रुपए में बेच दिया। ऐसा लगता है कि देश सिर्फ क्रिकेट को ही जानता है। इसमें सरकारों और खेल संगठनों की लापरवाही उजागर होती है। वे खेलों को लोकप्रियता से तौल कर देखते हैं। खेल एक संस्कृति है। जिम्मेदारों को हर खेल और उसके खिलाड़ी को बराबर महत्व देना चाहिए।

रविवार, मार्च 25, 2012

Paintig : Shashank, BHOPAL

 


  तकनीक ने कला को स्पीड दी है
 

 आपने दिल्ली लखनऊ, भोपाल को देखा जिया है। इन तीनों की सांस्कृतिक हवा कैसी क्या है? इस कला त्रिकोण के बारे में क्या कहना चाहेंगे?
इन तीनों में मूल बिंदु ये बनता है कि इन तीनों में संस्कृति का विकास हो रहा है। आठवें दसक वाली स्थितियां अब नहीं रहीं। पहले की तुलना में अब सांस्कृतिक गतिविधियों का विस्तार हुआ है। दिल्ली, भोपाल और लखनऊ-पटना को भी जोड़ लें तो हिंदी भाषी संस्कृति कभी आश्रित नहीं रही। जनपद आरा से हिंदी की अच्छी पत्रिका निकलती है तो विदिशा जैसे छोटे शहर से हिंदी के कई महत्वपूर्ण कवि आए हैं। पेंटिंग और गायक भी छोटी जगहों से आ रहे हैं। भोपाल, दिल्ली में साहित्य, रंगकर्म, संगीत ही नहीं है। ये कलाएं अब कस्बों में भी पनप रही हैं। आप देख सकते हैं अधिकांश कलाकार, साहित्यकार छोटे कस्बों से दिल्ली जा रहे हैं।
इन सभी संस्कृतिकर्मियों पर महानगरीय दबाव नहीं है। न उसका अवसाद है। यह शुभ लक्षण है। कहें कि इसमें मीडिया का योगदान भी है, तब यह और मौजूं हो जाता है। इसलिए आप देखेंगे कि आने वाले कुछ वर्षो में हिंदी भाषी क्षेत्र का चेहरा बदल जाएगा।

*कला और संस्कृति के रूप किस प्रकार बदल रहे हैं? नई तकनीक, शहरी व्यस्तता, जीवन में फुरसत की कमी जैसी स्थितियों के बीच कला कौन से आकार ग्रहण करेगी?
कला संस्कृति के रूप आधुनिक तकनीक के समर्थन के कारण बदल रहे हैं। तकनीक ने इसमें बहुत बदलाव किए हैं। नाटकों में, शास्त्रीय नृत्यों में, संगीत में तकनीक का बहुत इस्तेमाल होने लगा है। अधिकांश अब प्री रिकॉर्डिड किया जाता है। उपकरणों का महत्व बढ़ गया है। लेजर, फोम और फोग का प्रयोग तकनीक का हिस्सा हैं। ये हम अपने यहां देख सकते हैं। अच्छे बुरे में नहीं बल्कि नवाचार की तरह। कई नई चीजें आ रही हैं। कभी जो काम महीने भर में हो रहा था वह अब एक दिन में हो जाता है। सेट निर्माण के लिए अगर किसी कलाकृति के  लिए या मंदिर के लिए हम पेंटर को नहीं बुलाते। गूगल की ओर जाते हैं। वहां से मंदिर का चित्र निकालते हैं और उसी दिन फ्लेक्स निकलवाते हैं। इस तरह तकनीक ने पूरी प्रक्रिया बदल दी है।

*नई तकनीक को आप अपनी पेंटिंग में इस्तेमाल कर रहे हैं?
पेंटिंग में डिजीटल का प्रयोग बढ़ रहा है। मैंने भी कई पेंटिंग डिजिटल स्केनिंग के माध्यम से तैयार की हैं। इस पर लोगों ने आपत्ति भी दर्ज की है। मेरा कहना है कि जो एचिंग की जाती थी वह भी तो यही है। एचिंग भी डिजिटल है। तकनीक ने कला को स्पीड दी है। तीव्रता दी है। चीजें बदलेंगी। थर्ड डायमेंशन दिया है। अब आगे हाई डेफिनेशन में आपको और अच्छा करना होगा। वहां घटिया चीजो ंको आप इस्तेमाल नहीं कर सकते। हाई डेफिनेशन ने गुणवत्ता की परिभाषा भी बदल दी है।
वर्तमान में प्रिंटिंग में तकनीक को पूरा इस्तेमाल नहीं कर पा रहे हैं। फांट साइज को हम जिस तरह से बदल सकते हैं, उसका इस्तेमाल कहां है? पढ़ने की सुविधा के हिसाब से चीजों को प्रस्तुत होना चाहिए। इसी तरह हाई स्पीड बाईक आई है। वह आपका परफॉर्म भी मांगेगी। अगर आप परफॉर्म नहीं कर सके तो आप गिर जाएंगे। सभी तरफ चीजों के रूपाकार बदल रहे हैं। हमें उनके साथ योजना बना कर चलना होगा।

* पाठक और प्रकाशन के संदर्भ में बात करें तो वर्तमान में हिंदी साहित्य की स्थिति क्या है?
हिंदी में प्रकाशन बढ़ा है। 10 सालों में साहित्य की पत्रिकाओं का आकलन करें तो 40 गुणा  बढ़ोतरी हुई है। लेकिन पाठक बनाने का जो अभ्यास हमारे यहां है, वह नहीं है। हम पाठक नहीं बना पा रहे हैं। इसमें एक और स्थिति आ रही है। अब पुस्तकों की पाठ की समयावधि कम हो रही है। कविता 3 माह, उपन्यास 6 माह की हो रही है। जब प्रोडक्शन ज्यादा होगा तो आदर्श नहीं बचेगा। इसलिए पिछले दस सालों में मध्यप्रदेश में चार कवि बड़े नहीं हैं। भीड़ अधिक है। यह सब मास प्रोडक्शन के कारण हुआ है।

*साहित्य संगठनों की भूमिका अब क्या है? वे बिखराव और ठहराव का शिकार हो रहे हैं। सक्रियता कम हुई है?
अब यह तो महसूस हो रहा है कि सबको एक हो जाना चाहिए। लेकिन वे एक होने से झिझक रहे हैं। इस झिझक को तोड़ना होगा। व्यवहारिक दृष्टिकोण से युवा लेखकों कलाकारों को मानवीयता के नए पाठ को इन सबमें जोड़ना होगा।

Arti Paliwal, BHOPAL



हम ग्लोबल डेस्टनी के कलाकार हैं


 मैं कामों में ग्लोबल डेस्टनी को संभालती हूं। मैं अपने काम में दुनिया के नेचर के बारे में बताती हूं। इसी से इसमें मानवीयता जुड़ जाती है। जैसे मैं जब अपने घर से, जहां बहुत सी हरियाली है भारत भवन तक आती हूं तो दो चीजें दिखती हैं। क्रांक्रीट के जंगल और भीड़ से भरी हुई सड़कें। यह सारे दृश्य मेरे मन में जुड़ गए। ये दो धु्रव हो गए हैं। मेरे घर पर हरियाली और भारत भवन की हरियाली। प्राकृतिक वातावरण। कई दिन जब यूं ही निकल गए तो मैंने महसूस किया कि शहर का यातायात है सडकें हैं। वे उतनी सुहानी प्राकृतिक नहीं हैं। बस यहीं से सीरीज मन में आई। मैंने इसके कई शिल्पों को आकार दिया।
इस शहरी भीड़भाड़ से महसूस किया कि हमारे समाज का मानवीय जीवन कांक्रीट के जंगल में कितना बिजी हो गया है। उसका कितना बोझा लिए रहता है। सब कांसियस माइंड में यह तो है कि डेली जीवन में मॉडर्न लाइव बोझ लिए है। मैं मानती हूं कि अगर नेचर है तो ही मनुष्य सर्वाइव करेगा। जैसे सफर के लिए हेलमेट कितना जरूरी है वैसे ही ध्यान में रखना जरूरी है कि प्रकृति है तभी हम बचेंगे। इसे मैं ग्लोबल डेस्टनी कहती हूं।
हम प्रभावित होते हैं
इंसान हमेशा दो तरह से प्रभावित होता है। एक या तो वह एकदम गलत चीजों से प्रभावित होता है या बहुत अच्छी चीजों से। मैं इस बात से प्रभावित हुई कि मुझे काम करना है। मैं चाहती हूं कि निरंतर काम में इंपू्रवमेंट आना चाहिए। इसके लिए मैं सीनियर आर्टिस्ट से डिसकस करती हंू। पेंडिंग डाइंग बहुत सारी विधाएं सोच विचार में आती हैं लेकिन वे एक साथ प्रभावित नहीं करतीं।
मैं सभी तरह के भावों को स्वीकार करती हूं देखती हूं ओर फिर अपना शिल्प लेकर आती हूं। यूं कहें कि मैं एकला चलो का भाव लेकर काम करती हूं। मैं किसी शिल्प के ऊपर कितना काम कर सकती हूं तो वह मैं करती हूं। मैंने एक फिल्म देखी थी उसमें एप्पल और आई दिखा तो वह मैं उसे शिल्प में लेकर आई। इस तरह से चीजें आती हैं।
सबके लिए काम
मैं जो काम कर रही हूं वह पूरी दुनिया के लिए होता है। मैं उसे सबके लिए करती हूं। यह नहीं सोचती कि यह सिर्फ मेरे लिए है। जब मैं शिल्प बनाती हूं तो सोचती हूं यह पूरी दुनिया के लिए है। सब तरफ से सीख सबके लिए काम करना एक गतिशीलता देता है।
मैंने एक बार भारत भवन में सोलो नाटक देखा था, उस के भावों को शिल्प में दिखाने की कोशिश की थी। मुझे दूसरी चीजों को देखकर भाव आते हैं।
पढ़ना-लिखना
यह कम ही होता है। हां जब मन करता है तो पढ़ती हूं। काफी सारी किताबें हैं। पॉजिटिव थिंकिंग खास तौर से पढ़ती हूं।
मन की परिभाषा
मन की परिभाषा मेरे लिए अभी देना कठिन है। मैं मन से ही काम करती हूं। जब काम कर रही होती हूं तो अपने विचारों के साथ काम कर रही होती हूं। मैं अलग अलग नहीं कर पाती ये सब। सोचना विचारना और करना सब एक साथ ही होता है।
खोजती हूं
हर कलाकृति में मैं अपने आप को खोजती हूं। उसमें खुद को देखने की कोशिश करती हूं। कलाकृतियों में मेरा मन और मेरा समाज सब होता है।
निजी जीवन और कला
कलाकार के रूप में निजी जीवन बहुत सा प्रभावित करता है लेकिन मेरी कोशिश रहती है कि मैं अपना काम करती रहूं। कोइ आए कोई जाए मेरा काम जारी रहे। आसपास वाले कभी बोलते हैं ये करो तो अभी ये मत करो। मुझे लगता है कि हां मैं मान जाऊं । मैं एक बार काम करना प्रारंभ करती हूं तो फिर भूलती नहीं हूं। मुझे कुछ सोचना है काम करना है। मैं कैसे कर सकती हूं। दस दिन काम नहीं किया तो लगता है जैसे काम नहीं हो पा रहा है। जब मैं काम नहीं कर रही होती हूं तो सबसे अधिक बुरा लगता है और सोसायटी की बातें सोचने समझने में आती हैं।


सहयोग के भाव
प्रेम मेरे लिए कोई अलग से नहीं है। बस जिसके साथ हों उससे ट्युनिंग अच्छी हो। उससे बातचीत करना डिस्कस करना अच्छा लगे। अब इसमें घर के मेंबर भी होते हैं।  सहयोग प्रेम और साहचर्य के  भाव हमारी लाइफ का हिस्सा हंै। जो अच्छा लगता है वह काम के बीच में बाधा नहीं बनता है।