मंगलवार, जनवरी 18, 2011

मैंने प्यार किया बादल की तरह

दो नई कविताएं 

दोस्तो ये कवितायेँ मेरे जीवन का पूरा सच नहीं है ........जो सच है वो न जाने किस शक्ल में
सामने आ रहा है . 
अक्सर उदासियों से भरे एक रिश्ते कि शक्ल है इन कविताओं में 
आप पढ़ लें ये भी क्या कम है
1
मैंने प्यार किया बादल की तरह
तुमने चांद की तरह मुस्कुराया

मैं नदी में उतर कर पानी बन गया
तुम उसमें हिलती हुई चांदनी हुईं

हमने फिर खूब प्यार किया
तुम उजली रात थीं और मैं एक पुल

उस रात शहर रोशनी से भरा था
और मै टिमटिमाता आसमान था 




........



2
पिघल कर चांद का कोई हिस्सा
तुम्हारी गलियों में गिर गया है

अंधेरे का कोई फाहा
हमारी जिंदगियों मे मिल गया है

कैसे पार करें यादों के जंगल को
फासला सा राह में आ गया है

किसी से कुछ दिल चाहता नहीं 

मैंने लफजों में बहुत रख दिया है

तुम बहुत दूर हो चुके हो
हमने अब ये मंजूर कर लिया है






रवीन्द्र स्वप्निल प्रजापति,
टॉप 12, क्रिसेंट स्कूल के सामने, हाईलाईफ कॉम्लेक्स, चर्च रोड, जहांगाीराबाद, भोपाल मध्यप्रदेष मो-9826782660

सोमवार, जनवरी 17, 2011

एक पत्र
जब में कुछ नहीं था तब तू आई .........तू मुझ में मिल गई .... तू हवा थी ... और
 एक दिन तुने मुझे बादल  बना दिया .... सच सा  बादल .... हम दोनों अब इस आसमान के
एक हिस्से की तरह है ....
वक्त के साथ चल रहे है .........तू कुछ कहती है और मै सुनता रहता हूँ

मुझे तेरा कुछ कहना अच्छ लगता है .... कभी  कभी तू दोनों हो जाती है कभी में दोनों हो के
 बोल उठता हूँ .... हम दोना कभी कभी एक दुसरे से भागते है
फिर कभी में तेरी गोद में सिर रख देता हूँ कभी तू मेरे सीने में दुबक जाती है
कुछ देर ठहरती है तू हवा है
तू मुझे आसमान बना कर उड़ने लगती है.....जाने कहाँ कहाँ ...........

मैं बादल हूँ ........... तू हवा ...........
चल अपने ही शहर पर उड़ते हैं

कुछ दिन और मैं

दोस्तो मैने ये कविता कुछ दिन पहले लिखी थी 
आज ये एक सच सा है ....पर अभी 

कुछ दिन और मैं

मैंने दिनों को स्ट्रीट लाइट बना दिए
मैंने अपने दिन प्यार से रंगे
मैंने शहर में हर तरफ अपने दिन टांग दिए

मेरे दिन जो नीले लाल थे

मेरे दिन चमक रहे हैं चारो ओर
सारा शहर गुजर रहा है उनके साये में 

दिनों में चमक रहा है मेरा प्यार
बरस रहा है शहर पर

मेरे दिन प्यार कर रहे हैं ...
manas ji ke in savalo ke javab likh raha hoon

हमारी त्रैमासिक पत्रिका ‘पाण्डुलिपि’ हेतु परिचर्चा के अंतर्गत इस बार ‘अंतिम दशक के कवियों का समय और उनकी कविता’ बिषय पर विमर्श प्रस्तावित है । हम चाहते हैं कि आप अपनी बात विस्तार से रखें ताकि अंतिम दशक के कवियों और उसकी कविताओं का वास्तविक मूल्याँकन हो सके । उम्मीद है आप परिचर्चा के विषय एवं महत्व की देखते हुए इस विषय पर अवश्य लिखना चाहेंगे । विश्वास है - आप अपनी सामग्री हमें 10 दिवस अर्थात् 25 जनवरी, 2011 तक ई-मेल से भेज देंगे । सादर
जयप्रकाश मानस
कार्यकारी संपादक


अंतिम दशक के कवियों का समय और उनकी कविता
प्रश्नावली
01. अंतिम दशक की कविता की शुरूआत सोवियत संघ के विघटन से हुई, भूमंडलीकरण व बाज़ारवाद जैसी अवधारणायें भी इसी दशक से प्रारंभ हुई । क्या इसका कुछ-बहुत प्रभाव अंतिम दशक के कवियों की कविताओं की वैचारिकता पर पड़ा ?
02. वैसे अंतिम दशक के कवियों का समय, अपने पूर्ववर्ती कवियों, विशेषकर नवें दशक के स्थापित कवियों से किन अर्थों में भिन्न है ?
03. नयी कविता की बिम्ब प्रधानता, अकविता की सपाटबयानी तथा समकालीन कविता के उक्ति आधारित पंक्तियों की आवृत्तियाँ व प्रतीक-ब्यौरों आदि कला के बाद अंतिम दशक के कवियों का शिल्प कितना कुछ अलहदा दिखलाई पड़ता है ?
04. क्या हिन्दी कविता के भीतर अकविता की मनःस्थिति पुनः अंतिम दशक के कवियों की कविता में परिलक्षित की जा सकती है ? ऐसा मैं आर. चेतनक्रांति की ‘हम क्रांतिकारी नहीं थे’, या वसंत त्रिपाठी की ‘कालाहांडी’ जैसी कविताओं को पढ़कर भी कह रहा हूँ ?
05. वैसे आप अंतिम दशक के कवियों में किन किन कवियों के नामों का उल्लेख करना चाहेंगे और क्यों ?
06. इस दशक के ज्यादातर कवियों की कविताओं का काव्य शिल्प, काव्य-संप्रेषण पर हावी रहता है । यदि आप भी ऐसा मानते हैं, तो यह स्थिति हिन्दी कविता के विकास के लिए कितना उचित लगती है ?

मै एक दरवाजा हूँ

मै एक दरवाजा हूँ , मुझमे से अभी अभी एक सूरत गुजरी है
मै जहाँ जहाँ हूँ गुजरता है कोई मुझ में से


गुजरती है कोई खुशबू, गुजरती है कोई सूरत

गुजरने से पहले कोई मेरे इस तरफ था
गुजरने के बाद वह  उस तरफ दिख रहा है

मेरे दोनों तरफ है  दुनिया
वही इस तरफ दिखता है वही  उस तरफ है

दोपहर १२ . ४४

रविन्द्र स्वप्निल