जल संकट गांव पूरी धरती की समस्या बन चुकी है। पानी बचाने के लिए कहीं कुछ किया जाता है तो वह दुनिया के लिए किया गया काम है।
होशंगाबाद जिला पंचायत की बैठक में पेयजल की कमी पर की जा रही तैयारियों ने सबका ध्यान खींचा है। यह समस्या पूरे मध्यप्रदेश की होने जा रही है। प्रदेश में पेयजल की संघर्ष गाथा अप्रैल के आगमन के साथ कई समस्याओं के साथ सामने आ चुकी है। एक सरकारी रिपोर्ट के अनुसार प्रदेश के अधिसंख्य संभाग शहरी और ग्रामीण स्तर पर जल संकट में घिरते नजर आ रहे हैं। आज हालत ये है कि प्रदेश के 365 शहरी निकायों में से 24 प्रतिशत निकायों में पेयजल आपूर्ति गड़बड़ाने लगी है। पानी की गंभीर स्थिति के चलते कुछ ही हफ्तों में भोपाल जिला भी भूजल दोहन के आधार पर खतरनाक जÞोन में पहुंचने के करीब है। भोपाल जिले को ग्रे जोन में रखा गया है। इंदौर के कई निकायों में बहुत कम पानी की आपूर्ति हो पा रही है। प्रदेश के 90 प्रतिशत गांव पेयजल संकट की ओर जा रहे हैं। गंभीर भूजल स्तर के चलते हैंडपंप भी अपना दम तोड़ते नजर आ रहे हैं।
मध्यप्रदेश में ही नहीं पूरे देश में 1980 के दशक के शुरूआती वर्षों में पानी के संकट के संकेत नजर आने लगे थे। तब न तो सरकार ने कोई ठोस पहल की और न समाज ने इस तरफ ध्यान दिया था। कई अन्तर्राष्ट्रीय वित्तीय संस्थाएं इस संकट को इतना गंभीर बना देना चाहती थीं कि लोग पानी के निजीकरण और बाजारीकरण का समर्थन करने लगें। आज यह स्थिति बनने भी लगी है। मध्यप्रदेश में जनगणना 2011 के आंकड़ों के अनुसार प्रदेश के 36 प्रतिशत लोग पेयजल के लिए दूर-दूर तक भटकने के लिए मजबूर हैं। विडम्बना यह है कि तेज विकास के इस दौर में लोगों से पानी दूर होने लगा है। इस स्थिति में गंभीर प्रयास आवश्यक हैं। प्राकृतिक संसाधनों का प्रबंधन स्तरहीन दृष्टिकोण और दूरदशिर्ता के बिना संभव नहीं हो सकता। प्राकृतिक जल को संरक्षित करने के लिए एक उच्च स्तरीय पहल होना आवश्यक है। अदूरदर्शित वाली नीतियों से यह संभव नहीं हो सकता है। मध्यप्रदेश में वर्षा जल का 90 प्रतिशत पानी संरक्षित नहीं किया जा रहा है। पानी संरक्षण में सबसे अधिक भ्रष्टाचार है। अधिकांश स्टाप डेम संरचनागत खामियों और घटिया निर्माण के चलते अनुपयोगी पड़े हैं। सरकार भूजल प्रबंधन के नाम पर भूजल दोहन की प्रवृत्ति को बढ़ावा दे रही है। हर बार पंचवर्षीय योजनाओं में पुराने नलकूप बंद करके और गहरे नए नलकूप का निर्माण करने के लिए किया जाते रहे हैं लेकिन इससे समस्या सिर्फ तात्कालिक ढंग से दूर होती है। प्रदेश के 5400 गांवों में पानी मुश्किल से मिल पा रहा है। जल संकट से मुक्ति के लिए बारिश के पानी को व्यर्थ बहने से बचाना एक महत्वपूर्ण उपाय है किन्तु यह भी स्थानीय समाज, स्थानीय भौगोलिक स्थिति, घनत्व और बारिश की मात्रा के आधार पर निर्भर होता है। लेकिन सरकार पानी संबंर्धन को एक ही योजना के तहत लागू करती है जिसमे जल संरक्षण में स्थानीय कारकों को उपेक्षित किया जाता है। इससे योजनाएं असफल साबित होती हैं। वतर्मान जल संकट से निबटने के लिए एक दूरदशिर्ता से परिपूर्ण जल नीति की आवश्यकता है।
सोमवार, अप्रैल 15, 2013
बुधवार, अप्रैल 03, 2013
अपनी पसंद का लोकपाल बिल
ऐसा लगता है कि नरेंद्र मोदी मर्यादा से शक्ति ग्रहण करने की जगह, अपने अति आग्रहों से शक्ति ग्रहण करने की कोशिश कर रहे हैं। इस कोशिश ने उन्हें कमतर साबित किया है।
सु प्रीम कोर्ट में केस हारने के बाद गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपनी पसंद का लोकपाल बिल अपनी विधानसभा में पास करवा लिया है और शायद वे अब खुश हैं। लेकिन क्या यह काम एक नीतिज्ञ राजनेता के लिए उचित की श्रेणी में होगा? भारत का सर्वोच्च न्यायालय अब तक के अपने बेखौफ और शानदार न्यायिक फैसलों के लिए जाना जाता रहा है। उस सर्वोच्च न्यायालय में हारने के बाद नरेंद्र मोदी ने जो कदम उठाया वह गरिमा से युक्त नहीं कहा जा सकता। गुजरात में लोकायुक्त विवाद पुराना है। वहां 2003 से लेकर 2011 तक लोकायुक्त का पद खाली रहा। आठ साल बाद जब राज्यपाल कमला बेनीवाल ने सेवानिवृत्त जस्टिस आरए मेहता को गुजरात का लोकायुक्त बनाया तो मोदी को यह कदम पसंद नहीं आया। गुजरात सरकार ने हाईकोर्ट से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक राज्यपाल के फैसले को चुनौती दी। लेकिन नरेंद्र मोदी सुप्रीम कोर्ट से भी लौटना ही पड़ा। आज मोदी ने विधेयक पारित करवा कर जो कदम उठाया है, वे यह कदम सुप्रीम कोर्ट में जाने से पहले उठाते तो बात कुछ और हो सकती थी। सुप्रीम कोर्ट से लौटने के बाद यह कदम देश की संवैधानिक संस्थाओं के प्रति उनके दृष्टिकोण में कितना सम्मान है, इसका परिचायक भी है। गुजरात राज्य विधानसभा द्वारा पारित इस विधेयक के आने के बाद लोकायुक्त की नियुक्ति में राज्यपाल की कोई भूमिका नहीं रह जाएगी। गुजरात में लोकायुक्त की नियुक्ति का अंतिम दारोमदार नरेंद्र मोदी या जो भी मुख्यमंत्री होगा उसका होगा। इस विधेयक ने मोदी के दृष्टिकोण को भी जनता के सामने रख दिया है। इससे पहले राज्यपाल द्वारा नियुक्त जस्टिस आरए मेहता की नियुक्ति को गुजरात सरकार दो बार हाई कोर्ट में और सुप्रीम कोर्ट में तीन बार चुनौती दे चुके हैं। एक बार फिर वे क्यूरेटिव बेंच में अपील करने जा रहे हैं। एक सवाल ये भी है कि एक चाकचौबंद ईमानदार सरकार के लिए लोकायुक्त कोई भी हो क्या फर्क पड़ने वाला है? अपनी पसंद के प्रमुख को संवैधानिक संस्था में नियुक्ति का अति आग्रह किसी कमजोरी की ओर भी इशारा करता है। ऐसे में क्या यह माना जाए कि नरेंद्र मोदी अपनी बादशाहत में आड़े आ रहे सभी कांटे दूर करने की तैयारी में जुट गए हैं? क्या लोकायुक्त की नियुक्त पर सुप्रीम कोर्ट से पटखनी खा चुके मोदी अब हिसाब बराबर करने कर रहे हैं। मोदी सरकार के नए विधेयक से लोकायुक्त की नियुक्ति प्रक्रिया में आमूलचूल बदलाव हो चुका है। नए विधेयक में राज्यपाल की विवेकाधीन शक्तियों को खत्म कर दिया गया है। अब लोकायुक्त की नियुक्ति एक खास चयन समिति की सिफारिशों के आधार पर होगी। इस समिति में राज्य के मुख्यमंत्री अध्यक्ष की भूमिका में होंगे। अब लोकपाल की नियुक्ति में राज्यपाल की भूमिका नहीं रह जाएगी। लेकिन यह एक दूरगामी प्रभाव पैदा करने वाला कदम है। इस तरह के प्रयास देश को संवैधानिक रुक्षता की ओर ले जा सकते हैं। राजनीतिक पक्ष विपक्ष एक मुद्दा हो सकता है लेकिन देश की संवैधानिक व्यवस्था में सरकार हो या फिर व्यक्ति अति आग्रही होकर उठाए गए कदम उसके ढांचे को आहत करते हैं।
सु प्रीम कोर्ट में केस हारने के बाद गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपनी पसंद का लोकपाल बिल अपनी विधानसभा में पास करवा लिया है और शायद वे अब खुश हैं। लेकिन क्या यह काम एक नीतिज्ञ राजनेता के लिए उचित की श्रेणी में होगा? भारत का सर्वोच्च न्यायालय अब तक के अपने बेखौफ और शानदार न्यायिक फैसलों के लिए जाना जाता रहा है। उस सर्वोच्च न्यायालय में हारने के बाद नरेंद्र मोदी ने जो कदम उठाया वह गरिमा से युक्त नहीं कहा जा सकता। गुजरात में लोकायुक्त विवाद पुराना है। वहां 2003 से लेकर 2011 तक लोकायुक्त का पद खाली रहा। आठ साल बाद जब राज्यपाल कमला बेनीवाल ने सेवानिवृत्त जस्टिस आरए मेहता को गुजरात का लोकायुक्त बनाया तो मोदी को यह कदम पसंद नहीं आया। गुजरात सरकार ने हाईकोर्ट से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक राज्यपाल के फैसले को चुनौती दी। लेकिन नरेंद्र मोदी सुप्रीम कोर्ट से भी लौटना ही पड़ा। आज मोदी ने विधेयक पारित करवा कर जो कदम उठाया है, वे यह कदम सुप्रीम कोर्ट में जाने से पहले उठाते तो बात कुछ और हो सकती थी। सुप्रीम कोर्ट से लौटने के बाद यह कदम देश की संवैधानिक संस्थाओं के प्रति उनके दृष्टिकोण में कितना सम्मान है, इसका परिचायक भी है। गुजरात राज्य विधानसभा द्वारा पारित इस विधेयक के आने के बाद लोकायुक्त की नियुक्ति में राज्यपाल की कोई भूमिका नहीं रह जाएगी। गुजरात में लोकायुक्त की नियुक्ति का अंतिम दारोमदार नरेंद्र मोदी या जो भी मुख्यमंत्री होगा उसका होगा। इस विधेयक ने मोदी के दृष्टिकोण को भी जनता के सामने रख दिया है। इससे पहले राज्यपाल द्वारा नियुक्त जस्टिस आरए मेहता की नियुक्ति को गुजरात सरकार दो बार हाई कोर्ट में और सुप्रीम कोर्ट में तीन बार चुनौती दे चुके हैं। एक बार फिर वे क्यूरेटिव बेंच में अपील करने जा रहे हैं। एक सवाल ये भी है कि एक चाकचौबंद ईमानदार सरकार के लिए लोकायुक्त कोई भी हो क्या फर्क पड़ने वाला है? अपनी पसंद के प्रमुख को संवैधानिक संस्था में नियुक्ति का अति आग्रह किसी कमजोरी की ओर भी इशारा करता है। ऐसे में क्या यह माना जाए कि नरेंद्र मोदी अपनी बादशाहत में आड़े आ रहे सभी कांटे दूर करने की तैयारी में जुट गए हैं? क्या लोकायुक्त की नियुक्त पर सुप्रीम कोर्ट से पटखनी खा चुके मोदी अब हिसाब बराबर करने कर रहे हैं। मोदी सरकार के नए विधेयक से लोकायुक्त की नियुक्ति प्रक्रिया में आमूलचूल बदलाव हो चुका है। नए विधेयक में राज्यपाल की विवेकाधीन शक्तियों को खत्म कर दिया गया है। अब लोकायुक्त की नियुक्ति एक खास चयन समिति की सिफारिशों के आधार पर होगी। इस समिति में राज्य के मुख्यमंत्री अध्यक्ष की भूमिका में होंगे। अब लोकपाल की नियुक्ति में राज्यपाल की भूमिका नहीं रह जाएगी। लेकिन यह एक दूरगामी प्रभाव पैदा करने वाला कदम है। इस तरह के प्रयास देश को संवैधानिक रुक्षता की ओर ले जा सकते हैं। राजनीतिक पक्ष विपक्ष एक मुद्दा हो सकता है लेकिन देश की संवैधानिक व्यवस्था में सरकार हो या फिर व्यक्ति अति आग्रही होकर उठाए गए कदम उसके ढांचे को आहत करते हैं।
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