सोमवार, नवंबर 28, 2011

बाल बंधुआ मजदूर ये देश के बच्चे हैं!



इस समय देश में  6 से14 आयुवर्ग के 1 करोड़ 20 लाख से अधिक बाल मजदूर हैं। यह आंकड़ा दुनिया में सबसे अधिक है।

वि दिशा रेलवे स्टेशन पर 14 बच्चों को एक बाल मजदूरी कराने वाले गिरोह से मुक्त कराया गया। ये बच्चे बिहार के मोतिहारी जिले के हैं। मुक्त कराए गए बच्चे अपने ही गांव के दो युवकों के साथ तमिलनाडु किसी कंपनी में अंडे बीनने के काम से ले जाए जा रहे थे। बच्चों को बंधुआ बनने से रोक लिया गया है। इस मामले में सजगता दिखाने वाली संस्था के सदस्य और रेलवे पुलिस बधाई की पात्र है। सवाल ये है कि क्या ये बच्चे पहली बार बालश्रम के लिए ले जाए जा रहे थे या इससे पहले भी ले जाए जा चुके हैं।  यह आवृत्ति कितनी बार होती है, इसका कोई लेखा जोखा हमारे पास नहीं है। देश के ऐसे कितने ही बच्चे दिल्ली, गाजियाबाद, हरियाणा और दूसरे हिस्सों में बंधक बनाए जा कर काम कर रहे हैं। इस समय देश में 6 से14 आयुवर्ग के 1 करोड़ 20 लाख से अधिक बाल मजदूर हैं। यह आंकड़ा दुनिया में सबसे अधिक है। हजारों बार दोहराया जा चुका है कि बच्चे किसी भी देश का भविष्य होते हैं। हम अपने ही देश में अपने ही बच्चों से कितना भयानक खिलवाड़ करते हैं। समाज, नेता, सामाजिक कार्यकर्ता सब उन गिरोहों के आगे असफल होते चले जाते हैं। ट्रेन में बच्चों को पकड़ा है तो जाहिर है कि इससे पहले भी बच्चों को उसमें बिठा कर ले जाया गया होगा। यह मामला कानून से अधिक सामाजिक वातावरण के निर्माण से भी जुड़ा है। क्या हम ऐसा माहौल पैदा नहीं कर सकते कि समाज में बच्चों से मजदूरी करवाना और करने देना दोनों संभव न हो सकें?

तालमेल से विकास का नया अध्याय

स्थानीय तालमेल से विकास योजनाओं को अंजाम दिया जाए तो जल संरक्षण की हजारों संरचनाएं बनाई जा सकती हैं।


य  ह  ज्ञान, समझ और अनुभव का विकेंद्रीकरण है। विदिशा जिले के छोटे से गांव कुल्हार के पूर्व सरपंच की समझ बूझ ने गांव की दशा दिशा ही बदल दी। उन्होंने देखा कि तीसरा रेलवे ट्रैक बन रहा है। इसके लिए मिट्टी यहां-वहां से खोदी जा रही है। उन्होंने संबंधित कंपनी के अधिकारियों से बात कर प्रस्ताव रखा कि वे गांव वालों द्वारा प्रस्तावित जगहों से मिट्टी खोदेंगे तो गांव के लिए ऐसी संरचनाएं बन जाएंगी जहां बरसात का पानी संजोया जा सकता है। कंपनी ने कहा कि पंचायत और प्रशासन यदि बाधा न पहुंचाएगा तो हमें कोई दिक्कत नहीं है। तत्कालीन विदिशा कलेक्टर ने इस सबंध में सहयोग किया और इस तरह टैक की मिट्टी से करीब 2 लाख वर्ग फीट के चार तालाबों का निर्माण संभव हो सका। कुल्हार गांव पिछले कई सालों से पानी की समस्या से जूझ रहा था। पहली बरसात के बाद ही उसकी रंगत बदल गई।  यह सच्ची स्थानीयता है। कंपनी के अनुसार इतने बड़े तालाबों के निर्माण पर 2 करोड़ रुपया खर्च आता। यह आपसी तालमेल से विकास के दोहरे लाभों को प्राप्त करने की स्थानीय समझ है। देश में हजारों किलोमीटर राजमार्गों का निर्माण हो रहा है। दूसरी योजनाएं भी चलती हैं। अगर इनको ऐसे तालमेल से पूरा किया जाए तो गांवों शहरों में पानी संजोने के लिए हजारों तालाब उपलब्ध होंगे। बड़ी योजनाओं में संभावनाआें को तलाश कर स्थानीय लोगों को शामिल किया जाना चाहिए। राष्ट्रीय स्तर पर इस दिशा में काम करके हम विकास के नए आयामों का निर्माण कर सकते हैं।


 पैसा सब कुछ नहीं हो सकता


कौ न बनेगा करोड़पति में 5 करोड़ रुपए जीतकर मीडिया और जनता का ध्यान आकर्षित कर कंप्यूटर आपरेटर सुशील कुमार ने एक नई मिसाल कायम की है। बिग बॉस रियलिटी शो से उन्हें कई करोड़ का आॅफर था परंतु उन्होंने इंकार कर दिया। हालांकि बिगबॉस और सुशील कुमार दोनों टीवी की व्युत्पत्ति हैं। एक को सुशील कुमार ने स्वीकार किया और दूसरे को इंकार। यहां सुशील कुमार के विवेक को समझा जा सकता है। उन्होंने  बता दिया है कि आम भारतीय ग्लैमर, फैशन और पार्टियों के माध्यम से जिस पतनशील समाज को दिखाया जा रहा है, वह उसका पिछलग्गू नहीं हो सकता। टीवी जैसे माध्यम की संभावनाएं अनंत हैं। एक समय भारत एक खोज, तमस, महाभारत जैसे धारावाहिकों ने भारतीय समाज को अपनी जड़ों से जोड़ा था। आज भी लोग उस दौर को याद करते हैं। जबकि  बिगबॉस में पतनशील, मूढ़मगज और तांकझांक करने वाली मानसिकता का प्रदर्शन किया जाता है। सुशील कुमार को यदि लोग आदर्श भारतीय कह रहे हैं तो यह वाकई उनकी अच्छी पहचान है। इसे हर भारतीय को बनाए रखना भी जरूरी है।

शुक्रवार, नवंबर 25, 2011

खुदरा किराने की दुकान भी होगी इंटरनेशनल?



 विदेशी निवेश बढ़ने से निश्चय ही भारतीय खुदरा बाजार का रंग-रोगन बदलेगा। हम उपभोग के नए युग में प्रवेश करेंगे।

वि देशी प्रत्यक्ष निवेश (एफडीआई) को प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की अध्यक्षता में हुई मंत्रीमंडल की बैठक में मंजूरी दे दी है। अब इस मामले को लेकर चल रही हायतौबा कुछ दिन और चलेगी। सरकार ने जो फैसला लेना था वह ले लिया है। आलोचकों के पास अब हायतौबा ही हाथ में रहेगी। मीडिया में जिस तरह की सरलीकृत खबरें आ रही हैं, उनका भी अध्ययन जरूरी है। कहा जा रहा है कि एफडीआई से भारत का 29.5 लाख करोड़ के खुदरा कारोबार बरबाद हो जाएगा। बताया जा रहा है कि इससे 22 करोड़ लोग बेरोजगार हो जाएंगे। लेकिन इस पूरे मामले में तहकीकात करें तो कई चीजÞें ऐसी भी हैं जिससे रोजगार के अवसरों बढ़ोतरी होगी। किसी भी पक्ष के नकारात्मक पहलू देखने से अच्छा है कि उसके दूरगामी परिणामों को भी ध्यान रखा जाना चाहिए। प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के मामले में केंद्र सरकार ने बहुत सावधानी बरती है। जैसे कि कंपनी को कम से कम 10 करोड़ डॉलर यानी लगभग 500 करोड़ रुपए का निवेश अनिवार्य होगा। इस में 25 प्रतिशत निवेश संबंधित कंपनी को शीतगृहों, प्रसंस्करण और पैकेजिंग उद्योग पर खर्च करना होगा।  इसके अलावा 30 प्रतिशत प्रसंस्कृत उत्पाद कंपनियों को लघु इकाइयों से खरीदना होंगे। इन स्टोरों में अनाज दालें, मछली पोल्ट्री आदि उत्पादों को बिना ब्रांड के बेचा जा सकेगा। निवेश बढ़ने से निश्चय ही भारतीय खुदरा बाजार का रंग-रोगन बदलेगा। हम उपभोग के नए युग में प्रवेश करेंगे। अभी नकारात्मक या सकारात्मक किसी पक्ष की वकालत संभव नहीं।
पक्षद्रोही मंत्री
किसी विभाग का मंत्री होना एक प्रादेशिक और जनसामान्य के प्रति बड़ी जिम्मेदारी है


म  ध्यप्रदेश सरकार में पीएचई मंत्री गौरीशंकर बिसेन अपने विभाग के कामों से कम तुगलकी क्रिया कलापों से अधिक जाने जा रहे हैं। कभी वे जाति सूचकटिप्पणी कर विवाद में आते हैं तो कभी पटवारी को सार्वजनिक स्थान पर उठक-बैठक लगवाते हैं। वे जिस इंजीनियर को निलंबित करते हैं वही उनको पांच लाख रिश्वत देने बंगले पर पहुंच जाता है। गुरुवार को उनके ही द्वारा निलंबित इंजीनियर को वे अदालत में पहचानने से इंकार कर देते हैं। निलंबन की यह घटना 2009 की है। इसकी थाने में रिर्पोट दर्ज कराई जाती है। मामला अदालत में गया और जब गुरुवार को आरोपी को पहचानने की बात आई तो मंत्री मुकरे ही नहीं ऐसी घटना के होने से ही इंकार कर दिया। घटना से मुकरने पर अदालत द्वारा गवाहों को पक्षद्रोही घोषित कर दिया। मंत्री पद पर बैठे जनप्रतिनिधि के लिए ऐसे घटनाक्रम जनता में उनके प्रति हिकारत की स्थितियों को जन्म देते हैं। ये विवाद जनता में मंत्री की छवि को बहुत हलकी बना देते हैं और कई लतीफों को जन्म देते हैं। किसी विभाग का मंत्री होना एक प्रादेशिक और जनसामान्य के प्रति बड़ी जिम्मेदारी है और इस तरह की घटनाएं एक मंत्रीपद के स्तर को शर्मनाक बना देती हैं।

सोमवार, नवंबर 21, 2011

शिक्षा का पश्चिम मॉडल


भारत मे शिक्षा रटा हुआ पाठ और स्मृति आधारित कुशलता बनाई जा रही है, जिसमें रचनात्मकता गायब है।

भा रत की शिक्षा व्यवस्था और नीतियां आजादी से पहले और आजादी के बाद विवादास्पद रही हैं। प्रधानमंत्री के सूचना तकनीकी सलाहकार एवं ज्ञान आयोग के पूर्व अध्यक्ष सत्यनारायण गंगाराम (सैम) पित्रोदा ने राष्ट्रीय शिक्षा सम्मेलन में कहा है कि देश में उच्च शिक्षा का विकास पश्चिमी मॉडल से नहीं हो सकता। श्री पित्रोदा का यह कथन इशारा करता है कि आज भी हम एक अच्छी और अपने देश के लिए उपयुक्त शिक्षा व्यवस्था के निर्माण में सक्षम नहीं हुए हैं। सैम अगर सही हैं तो उनके अनुसार देश में केवल 10-15 विश्वविद्यालय ही स्तरीय हैं। वे कहते हैं कि भारत में अध्यापक शोध नहीं करते और जो शोध करते हैं वे पढ़ाते नहीं हैं। देश में फोटोकॉपी करके शोध पत्र तैयार कराए जाने के मामले सामने आने का मतलब है कि शोध की बहुत कमी है। केवल शोध करना या केवल पढ़ाना दोनों ही स्थितियां अति पर जाती हैं। इससे शोध आधारित रचनात्मक शिक्षा को बढ़ावा नहीं मिल पा रहा। भारत मेेंं शिक्षा रटा हुआ पाठ और स्मृति आधारित कुशलता बनाई जा रही है, जिसमें से रचनात्मकता गायब है। इस शिक्षा की शुरुआत स्कूलों से ही हो जाती है। भारत को शिक्षा में अत्याधुनिक नवाचारों और उसमें निहित रचनात्मक संभावनाओं पर बहुत काम करने की आवश्यकता है। शिक्षा में इंटरनेट सोशल साइट्स जैसे माध्यमों की भूमिका को जगह मिलना चाहिए।                                                                                                                                                                                                                                          






मंदी ने बनाया पशुओं को आवारा
यूरोपीय देशों में पालतू जानवार का खर्च एक इंसान की तरह महंगा होता है। उनका इलाज और भोजन दोनों खर्चीले हैं।
मं  दी किस कदर लोगों को हैरान परेशान कर रही है यह भारतीय नहीं समझ सकते लेकिन ब्रिटेन में मंदी के कारण लोग पालतू पशुओं का खर्च वहन नहीं कर पा रहे हैं। वहां पालतू पशुओं को डॉग्स एंड कैट्स होम में सौंपने की दर पिछले साल की तुलना में इस साल 50 प्रतिशत अधिक है। भारत की तरह पश्चिम में पालतू पशुओं को किसी भी स्थिति में नहीं रखा जा सकता। उनके खाने, ठहरने और इलाज पर काफी खर्च होता है। भारत में कुत्ते बिल्ली पालना उतना महंगा नहीं हुआ है जबकि यूरोपीय देशों में पालतू जानवार का खर्च एक इंसान की तरह होता है। यहां न पंजीयन की आवश्यकता है और न बीमा की। चाहो तो करा लो, वरना आपकी मर्जी। यह सांस्कृतिक भिन्नता का फर्क भी हो सकता है। यहां गाय को पाला और पूजा जाता है। उसे आवारा छोड़ देना या पालना दोनों में कोई फर्क नहीं। पश्चिम की जीवन शैली में बेहद अकेलापन है जिसे पालतू पशुओं द्वारा पूरा करने की कोशिश की जाती है। वहां की जीवनशैली में पालतू जानवर पालना सामाजिक आवश्यकता की तरह देखा जाता है। आज मंदी उनका यह सुकून भी छीन रही है।