मंगलवार, मई 05, 2009

मेरी भाषा का गुलदस्ता

मेरी भाषा का क्या गुलदस्ता बनाओगे
मेरी भाषा के दुरूह लफ्ज कहां ले जाओगे

हरफों के बिना भाषा का मुगल गार्डन
गमलों में रोप रोप के कितना सजाओगे

रोज-रोज जो रख दिए जाते हैं बाहर
उन लफ्जों को और कितना सताओगे

माना कि कबीर ने कहा था कभी नीर
इस नीर को नदी से और कितना दूर हटाओगे

इस वक्त हर स्कूल हरा है टेम्स के पानी से
अर्थ नहीं समझते बच्चों से, आशा लगाओगे

जरा सोच के देखो-मजबूरी के नाम पर जानी
गंगा जमुना का पानी कब तक सुखाओगे


रवीन्द्र स्वप्निल प्रजापति,

1 टिप्पणी:

बेनामी ने कहा…

bhasha ka bahut sundar guldasta...