(यह कविता तब लिखी थी जब मेरा पेमेंट कम था और मै एक बड़े मॉल के सामने से गुजर रहा था । आशा है आप भी कुछ कविता के बारे मै कहेंगे। धन्यबाद सहित । )
बाजार ! मैं आक्रांत नहीं हूं इस शब्द से
मैं परेशान नहीं हूं कि इसमें सब कुछ मिलता है
शापिंग मालों को देख कर मेरे मन में कुछ नहीं आता
मेरे मन में नहीं चमकती चीजें विज्ञापन की तरह
मैं यूं ही देखता निकल जाता हूं सब कुछ
थोड़ा आगे निकल कर अजीब सा लगता है
प्लास्टिक और धातु दूसरे पदार्थों से बना सामान
चुम्बकीय तरीके से पीछे खिचुड़ता चला आ रहा है
मैं डरता हूं ऐसा क्या है मुझमें
पूरा बाजार पीछे क्यों आ रहा है
मैं अपनी पे पर हाथ रखता और परेशान होता
बाजार आंखों के सामने चीजों के जहाज की तरह बहता हुआ
खाली पाउच की तरह किनारे करता मुझे
मुझसे आगे निकलने के लिए चमकीली लहरें पैदा करता
सड़क चीजों की रंगीन नदी की तरह चमकती
मुझे इसकी चमक में चीजों का बाजार दिखता
जो मीलों लम्बे चीजों के बांध से जुड़ा है
मेरा मतलब यह बांध चीजों के महाद्वीपों से जुड़ा होगा
उसी समय मेरे मन में आता है -
इन समुद्रों और महाद्वीपों का पानी मेरे बच्चों के कपड़े सूखने
मुंह धोने और ठण्डे होते चावलों की भाप से बना हुआ होगा
सिंचाई का पानी और खेतों में फसलों के सूखने से
कारखानों और बसों में पसीना बनने और सूखने पर
उड़ी भाप से सभी बाजार जुड़े होंगे
मिनी बसों में चढ़ते उतरते मैंने
दुनिया के बाजारों का नेटवर्क खोज लिया
मैं खुश था कि एक रहस्य का पता लगा लिया है
कुछ ही देर में रहस्य माल की बाउंड्री की तरह दिखने लगा
एक रहस्य का खुलना दूसरे का जन्म देना हो गया
पागल और चकराए व्यक्ति की तरह सोचते हुए
मैं अपने स्टाप पर उतर रहा था
मैं गली के मुहाने पर आया
मुझे अपना घर दिखा और थोड़ा होश आया
पीछे चली आ रही चीजें आ ही गईं तो
मेरे एक कमरे और एक किचिन वाले घर का क्या होगा
सोचने लगा शायद एक दूसरे पर चढ़ जाएंगी
और मेरा घर चीजों के पहाड़ में खो रहा होगा
अब मैंने मुड़ कर देखना जरूरी समझा और जैसे ही देखा
चीजें हड़बड़ा कर होर्डिंग पर चली गईं कुछ दुकानों में जा भरीं
कुछ पोस्टरों और विज्ञापनों में चित्र बन गईं
कुछ को मैंने अखबारों में चिपकते और छुपते हुए देखा
कुछ पालीथीन बन कर मेरे ही पैरों में उड़ने लगीं .....
रवीन्द्र स्वप्निल प्रजापति
111, आर एम पी नगर ,
विदिशा (म.प्र.)
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