मंगलवार, दिसंबर 12, 2017

September 3, 2007

रवीन्‍द्र स्‍वप्‍निल प्रजापति






जनता में बदलता देश 



मेरा देश ४७ में जनता की तरह पैदा हुआ था
जिसे मैं प्यार नहीं करता था
दया दिखाता था या फिर गोली मार देता था
मैं इतना गतिशील था उस समय
कि हर चेहरा मेरा ही चेहरा हो जाता था


जब भी कुछ बदलने की कोशिश करता-तब
मैं गांधी हो जाता और देश हरिजन
मैं नेहरु हो जाता और देश जनता
पिछले पचास साल से मैं राजनीति होता रहा
और देश पब्लिक
समाज सेवक होता तो देश एनजीओ
लेखक बना तो देश प्रेमचन्द का होरी और गोबर
मेरे कवि के लिए देश-विमर्श और सरोकार बनता रहा


पिछले पचास सालों से सब मुझे पहचानने की कोशिश कर रहे हैं
वे नारे लगाते हुए मेरे पास से निकल जाते हैं
ठीक मेरी बालकनी के नीचे से
या कभी-कभी पांच फुट चौड़ी गली में
एक सिपाही को खड़ा करके निकल जाते हैं


उनके दूर निकल जाने के बाद
जब सायरनों की आवाजें गुम हो जाती हैं
मैं देखता हूं सन्नाटे को चीरता हुआ
कहीं यह मैं ही तो नहीं था-अन्दर महीन तार सा कांपता है
मेरा ही कोई रूप भगम-भाग में छिटका हुआ


मैं एक नागरिक की हैसियत से भी नहीं कहता
मुझे अपने देश से प्यार है
और मैं नहीं कहता पूंजीपतियों को गोली मार दूंगा
मैं नहीं कहता कि वामपंथियों की दलाली
और दोहरी मानसिकता का भंडाफोड़ कर दूंगा
आज मेरे दावे ओजोन में छेदों की तरह खतरनाक हो गए हैं
आने वाले समय में मेरे लिये देश भक्त होना
दकियानूस होने का दूसरा नाम भी हो सकता है
क्योंकि मैंने आधी सदी अपने गांव की सड़कों के गड्डे
ठीक करने में निकाल दी
और इस दौरान देश
दुनिया के लिए बाजार में बदल गया
जहां मैं अपनी ही चीजों को देश की जगह मार्केट का हिस्सा समझने लगा


मुझे नहीं मालूम था कि ऐसी कल्पना करनी होगी
कि देश से साबुन की तरह
एक ही रेस्टहाउस में
समाजवादी भी नहायेगा और पूंजीवादी भी


मैं कहना चाहता हूं देश का कुछ भी बेचो
खरीदो और किसी से भी व्यापार करो
जब पेड़ पौधों जंगलों पर्वतों में संपदा को अनुमान की आंखों में भरो
तब जंगल के पास और पहाड़ की तलहटी में जो छोटा शहर है
उसे सिर्फ जनता मत समझना
वहां देश के लोग रहते हैं
मेरे देश के लोग जिसे मैं प्यार नहीं करता।