भारतीयता के बिना सार्थक नहीं रंगकर्म
आलोक चटर्जी
प्रसिद्ध नाट्य निर्देशक
भारतीय मूल्य को समझे बगैर सार्थक रंगमंच वहीं साकार हो सकता है। समूचा विश्व एक ग्लोबल विलेज है, तो संस्कृति के क्षेत्र में अपसंस्कृति आ रही है शोर मचा रही है। कुछेक अनजान है कुछ बेखबर भी, तो कुछ बहती गंगा में हाथ धोने की कोशिश कर रहे हैं। परंतु भारतीय मूल्य को समझे बगैर सार्थक रंगमंच वहीं साकार हो सकता है।
ज ब मैं सार्थक रंगमंच की बात करता हूं तो यह स्पष्ट है कि मेरा अभिप्राय उस रंगमंचीय स्वरूप से हुआ, जो भारतीय हो, विश्व संवेदन की धड़कनें उसमें हो, और स्थानीयता की उसमें सुगंध हो। आज सबसे बड़ी परेशानी यह है कि रंगमंच का शोर खूब मचाया जा रहा है, परंतु उसमें मौलिकता और दर्शन बोध का स्पष्ट अभाव है। शहरों विशेषकर मेट्रो में प्रायोगिक रंगमंच का शोर है, जहां रंगकर्मी सबसे पहले यही भूल जाता है कि वो किस समाज में रह रहा है? कैसा वातावरण है? कौन दर्शन है?
यह मूल प्रश्न छोड़कर वह अपनी एक ख्याली इंटेलेक्चुअल दुनिया की रचना करता है। विदेशी प्रस्तुतियों की छाप उनके नाटक के पोस्टर डिजाइन, सेट, एक्टिंग और आलेख तक में झलकती हैं। ऐसे अधिकतर कलाकार स्वयं छोटे कस्बों, गांवों से आते हैं, और अपनी कमतरी का एक सुपीरियर कॉम्प्लेक्स को ढकता है। वो रहन-सहन भी वैसा ही अपनाता है। बेतरतीब बाल या देशज पहनावा उसकी पहचान होती है। दूसरी ओर कुछ लोग देसी रंगमंच का ढोल पीट रहे हैं। ये और भी नकली रंगकर्मी हैं जो शहरों में शहरी लोगों के साथ फोक थियेटर कर रहे हैं। दर्शक भी शहरी हैं फिर इसका क्या औचित्य? असल में विश्व एवं भारतीय साहित्य का अभाव, इनमें है, इसलिए वे स्थानीय रचना या देशज चीजÞों को रंगमंच पर एक प्रदर्शनी की भांति प्रस्तुत करके स्वयं को भारतीय संस्कृति से जुड़ा स्वयंभू घोषित कर देते हैं या किसी किसी भी नाटक में छह आठ गाने डाल देते हैं। ये संगीतकार या संगीत मर्मज्ञ नहीं होते, बल्कि हारमोनियम वादक होते हैं। विधिवत संगीत शिक्षा भी उन्होंने नहीं ली होती है, ना ही वे कारणों के व्याकरण या रंगमंचीय संगीत की सौंदर्यानुभूति को समझते हैं। वे मात्र एक रंगीन वातावरण, कुछ गाने, सुरताल, एकाध नृत्य, और सूत्रधार-समूह से कोई भी नाटक मंच पर प्रस्तुत कर देते हैं। संभ्रांत दर्शक भी जो मूल रूप से किसी छोटे शहर का ही होता है, वो इसे जड़ों से जुड़ा रंगमंच कहता है।
वास्तव में यह जड़ों से नहीं जुड़ा वरन एक जड़ रंगमंच की स्थापना करता है। अभिनय करने वालों को भी सुविधा हो जाती है कि अधिक गहराई में जाने की कोई जÞरूरत ही नहीं। तीसरी तरफ कुछ राजनीतिक आग्रह-दुराग्रह रखने वाले कलाकार भी हैं जो प्रत्येक प्रस्तुति की तुलना और व्याख्या अपने परिचित दर्शन से मिलाकर करते हैं और उसी के अनुरूप ही अपनी प्रतिक्रिया देते हैं। दर्शकों में भी अपने परिचित अधिक होने से सार्थक आलोचना की गुंजाइश ही समाप्त हो जाती है। चौथी ओर संस्कृति विभाग द्वारा दी गई अनुदान प्रस्तुतियां हैं, जो धड़ल्ले से हो रही हैं। उनमें क्या और कितना सार्थक है यह एक विचारणीय प्रश्न है।
कई लोग अखवारी कटिंग के आधार पर आलेख तैयार कर रहे हैं, और नाटककार भी बन बैठे हैं। पांच-छह लोगों के संवाद पर आधारित इन नाटकों में अधिक खर्च भी नहीं होता है, और अधिकतर राशि का व्यक्तिगत प्रयोग कर लिया जाता है। पांचवी ओर फेस्टीवल ग्रांट थियेटर का बोलबाला है। अपने शहर के दो, एक अपना, एक दूसरे शहर का नाटक ले लो और राज्य स्तरीय समारोह हो गया। इसमें भी एक गुप्त शर्त है कि तुम अपने फेस्टीवल में हमें बुलाओ, तो हम अपने फेस्टीवल में तुम्हें बुलाएंगे। कम खर्च अधिक मुनाफे का यह व्यवसाय भी जÞोरों से चल रहा है। छठी ओर कुछ लोग आउटडेटेड टीवी या रिटायर्ड फिल्म कलाकार को एक मुख्य भूमिका में लेकर मल्टीमीडिया स्टार थियेटर कर रहे हैं, और लाखों कमा रहे हैं।
सातवीं ओर अंतिम छोर पर एक धड़-रंगकर्मियों का भी है, जो सोच विचार के रंगमंच में विश्वास करते हैं। पढ़ने-लिखने और रंगमंच के व्याकरण-शास्त्र को समझने करने की ललक रखते हैं, और जिनके हृदय में रंगमंच एक आंदोलन है, निरंतर सृजन प्रक्रिया है। ये रंगकर्मी पुरस्कारों की दौड़ में भी विश्वास नहीं करते और अपने कार्य द्वारा समाज और जीवन को एक सोच प्रदान करते हैं, या एक दिशा देनें की चेष्टा अवश्य करते हैं। यह वो अल्पसंख्यक कलाकर्मियों का समूह है, जो निरंतर रंगमंच की प्रतिष्ठा एवं गौरव के लिए प्रयत्नशील है। कहा जा सकता है कि सार्थक रंगमंच की यात्रा यहां इस ऊबड़-खाबड़ क्षेत्र से प्रारंभ होती है, जहां समर्पण, निष्ठा, सजगता सर्वप्रथम है। अधिकतर रंगकर्मी यह भूल बैठे हैं कि हमारे देश में निरक्षर, गरीब, बेरोजगारों के साथ आंचलिक, जनजातीय समूह भी हैं, और सबके अपने सांस्कृतिक मूल्य हैं, समझ है और सोच है।
ऐसे में भारतीयता ही वो तत्व है जो सबको एक सूत्र में बांध सकता है, सबके मित्र मूल्यों को मोतियो की भांति पिरोकर एक सुंदर माला बना सकता है। और हमारे समाज परिवार की धड़कनें उसमें समाहित करता है। हमारे खेत, नदियों, पहाड़, जंगल और जानवर तक हमारे सांस्कृतिक मुल्यों और विरासत में शामिल है। हमारी रचना का केंद्र कभी कोई पीपल का पेड़ तो कभी गांव का पनघट, तो कभी घर का दालान, कहीं दादी की पोथी सब हमारी चेतना के केंद्र में होता है, उसी के बीच में आकर लेता है कोई विचार जो किसी घटना में किन्हीं चरित्रों द्वारा अभिव्यक्त होती है।
मानवीय संवेदना, करुणा, मंगलकामना एवं समूचे विश्व यहां तक कि अंतरिक्ष के मंगल की कामना भी सामूहिक सपने, सामूहिक भारतीय चेतना में अजब धारा के समान प्रवाहित है। त्याग, नैतिकता, कर्त्तव्यपरायणता भारतीय दर्शन के भी मूल में है और चेतना के भी। यही वो तत्व है जिनमें मिलकर भारतीय सांस्कृतिक दृष्टि का विकास होता है, जो विभिन्न कला माध्यमों में मित्र रूपांकर प्राप्त करता है। परिवार हमारे समाज और संस्कृति के केंद्र में है। यहां एकांवासी अवसादग्रस्त व्यक्ति नहीं है उसकी त्रासदी भी नहीं है और व्यक्तिगत उल्लास भी नहीं। सब कुछ सामाजिक है, सामूहिक है इसलिए कहते भी हैं - कल्ल्िरंल्ल अ१३ ्रल्ल २ङ्मू्री३८ ङ्म१्रील्ल३ ंल्ल िूङ्म’’ीू३्रङ्मल्ल यही सामूहिकता ही विभिन्न भावों ने एक कालखंड और समाज का प्रतिनिधित्व करते हैं। यहां यूरोप की भांति मुझसे उपजÞी त्रासदी नहीं वरन् युद्ध का विचार ही त्रासदी है क्योंकि वो विध्वंस को रचता है, और रचनाशील को क्रियाहीन। ऐसे ही उल्लास भी सामूहिक है जो हमारे सभी त्योहारों में प्रमुख रूप से देखा जा सकता है। यहां तक कि मृत्यु भी पुर्नजन्म का एक द्वार है। जर्जर वस्त्र रूपी शरीर को आत्मा द्वारा छोड़ देना मात्र है। यही वो भारतीय मूल्य है जिन्होंने हमारी सांस्कृतिक मूल्यों की रचना की और एक समृद्ध सांस्कृतिक विरासत तैयार की। भारत वो देश है जो कई बार अतीत के बाहरी आकांक्षाओं से जीता गया, पर कोई भी इस देश की संस्कृति को नहीं तोड़ पाया और उसी ने भारत राष्ट्र के अखंड गौरव का गान किया। बड़ी से बड़ी सभ्यता और संस्कृतियों की रुचि भारतीय संस्कृति, रंगमंच और कला का कुछ बिगाड़ नहीं पाई वरन् इससे प्रभावित हो गई। इसके मूल्य में भारतीय मूल्य और दर्शन ही है। आज अब समूचा विश्व एक ग्लोबल विलेज है, तो संस्कृति के क्षेत्र में अपसंस्कृति आ रही है शोर मचा रही है। कुछेक अनजान है कुछ बेखबर भी, तो कुछ बहती गंगा में हाथ धोने की कोशिश कर रहे हैं। परंतु भारतीय मूल्य को समझे बगैर सार्थक रंगमंच वहीं साकार हो सकता है। मात्र अनुकरण या नकल हमें तात्कालिक लाभ अवश्य दे सकता है, परंतु समाज का दर्शकों का उससे कोई लेना-देना नहीं। ना ही वो हमारी भारतीय रंगमंच के श्रेष्ठ प्रतिमानों को छूने के भी समर्थ हैं।
कला एक साधना है, व्यवसाय नहीं और वो व्यवसाय तो बिल्कुल भी नहीं, जहां बिना सोच विचार की मंडली को मनोरंजन मान लेने की भूल होगी, वहां मनोरंजन का अर्थ यानि मन को रंजित करने वाला ही विकृत हो जाएगा और सार्थक रंगमंच की स्थापना और प्रयोग तो दूर, कल्पना में भी असाध्य हो जाएगी। हमें इस दिशा में सोचने और कुछ करने की आवश्यकता है, और वो भी अभी और तुरंत।
(आलेख में व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं)