सोमवार, अगस्त 24, 2015

जो लोग जीवन या विचारधारा को एक पक्षीय देखते हैं, वे विजय बहादुर सिंह के साथ नहीं रह सकते


                                                                                                             रवीन्द्र स्वप्निल प्रजापति


जिनसे हम ताकत लेते हैं और इतना संजो लेते हैं कि वह आपको सालों या जीवनभर तक काम में आए, उन पर कुछ भी लिखना तलवार की धार पर चलना या किसी अपरिचित से संतुलन को सहेजने की तरह होता है। मैं नहीं जानता कि विजय बहादुर सिंह मेरे लिए क्या हैं, लेकिन जो हैं वह एक अव्यक्त और अपरिभाषित छांव हैं जहां उनके विचार पत्तों की तरह मेरे आसपास बिखरे होते हैं। जब भी कहीं होता हूं और जीवन का कोई न कोई पक्ष, सर के मार्फत उस स्थिति, या उस परिवेश में झलक रहा होता है। विजय बहादुर सिंह इसी तरह मेरे लिए परिभाषित होते हैं। हर जगह हर परिस्थिति में। मैंने ऐसा कभी नहीं सोचा कि उनसे नियमित मिला जाए। कई बार न मिल कर में उनके बीच में अधिक होता हूं। पिछले एक साल से यह स्थिति बनी है। कई बार मैं उनसे मिलने जाता हूं और डिपो चौराहे से यूटर्न लेकर वापस आॅफिस में बैठ जाता हूं।
आज में सोचता हूं कि विजय बहादुर सिंह सर से एक सीखा हुआ समय मैं किस प्रकार जी रहा हूं। मुझे जो मिलता उनसे, उसमें जिंदगी का हर पक्ष समाहित होता है। वह चाहे विचार हों, चाहे पक्ष या विपक्ष हो, समाज हो, परंपराएं हों या फिर लेखन हो, आज विजय बहादुर सिंह सब तरह से मेरे लिए एक व्यक्तित्व से अधिक पूरा परिवेश हैं। यहां परिवेश के रूप में वे जीवन के तमाम अनुशासन सिखाते हुए साथ होते हैं।
मेरा और विजय बहादुर सिंह का रिश्ता किसी शब्दिक परंपरा से परिभाषित नहीं होता, मेरा और उनका साथ होना एक दृष्टिकोण का निर्माण करता है।
आज मुझे लगता है कि मैं आज भी उनके साथ कई रूपों में साथ हूं। यह महसूस होना किसी भी संवाद के लिए एक जरूरी अनुशासन है।
विजय बहादुर सिंह मेरे दृष्टिकोण का निर्माण करने वाली प्रक्रिया के अभिभावक हैं। वे आलोचक अधिक हैं और मैं कवि अधिक हूं। कविता को समझने के प्रारंभिक दिनों में शब्द और अर्थ की कई परतें मैंने देखी हैं। कई साक्षात्कार किए हैं।
सर के लिए अनिवार्य शर्त है जिसे जीना है। अच्छे से जीना है। उनके लिए किसी की वैचारिक स्तर पर आलोचना करना, किसी के फरेब को नष्ट करना या उस पर हमला करना एक जरूरी प्रक्रिया है। वे मानवीय स्तर पर कुछ और सोच सकते हैं लेकिन वैचारिक स्तर पर हर किसी कवि या लेखक को नहीं बख्शते हैं। कविता पहचानने और उसमें निहित फरेब को पहचाना मैंने सर से सीखता रहा हूं।
क्योंकि वे कहते हैं कि आखिर चीजें एक परतीय नहीं होतीं। उनमें कई परतें होती हैं। इस निष्पत्ति के अनुसार कोई भी चीज एक पक्षीय नहीं हो सकती। इसमें विचार भी शामिल हैं। इस एक बात में हमारे कई दर्शन समाहित होते हैं। विजय बहादुर सिंह ने मेरे लिए लंबी यात्राएं रखीं।
मैं उनके कारण ही विविधता में चीजों को, विचारों और विचारधाराओं को देखना सीखा। जो लोग जीवन या विचारधारा को एक पक्षीय देखते हैं, वे विजय बहादुर सिंह के साथ नहीं रह सकते। क्यों? इसका कारण है वे आपकी चेतना को झकझोरते हैं, और यह बहुत कम लोगों को पसंद आता है। कई लोग बड़ी रुचि से मिलने जाते हैं और लौटते समय कहते हैं कि अरे विजय बहादुर सिंह तो बहुत मुश्किल व्यक्ति हैं। क्या मुश्किल हैं? क्योंकि वे आपके जड़ विचारों को हिला देते हैं।
ऐसा ही एक बार का उदाहरण है। दो युवा भोपाल से मिलने पहुंचे। उनमें से एक सरकारी इंजीनियर हो चुके थे और एक किसी आॅफिस में अधिकारी। दोनों साहित्य कविता में रुचि के चलते मिलने आए थे। विदिशा में विजय बहादुर वाली गली के उस घर में प्रवेश करते ही उनको अपने जूते उतारना पड़े। फिर मूंग की दाल, विदिशा वाला नमकीन और पुदीना वाली चने की दाल रिंगे ने उनकेसामने रखी। बहुत देर तक बातें होती रहीं। सर ने स्पष्ट कर दिया था कि मैं अभी कुछ नहीं खा सकता। वे इससे प्रभावित थे कि इतना स्वादिष्ट नमकीन में से डाक साहब कुछ नहीं खा रहे।
करीब तीस चालीस मिनट की बात हो चुकी थी। उस बात चीत में नमकीन भी खत्म हो रहा था लेकिन इतना खत्म नहीं हो पा रहा था कि प्लेटें साफ हो जाएं। उनमें जो नमकीन बचा है उसे पूरा खा लिया जाए। लेकिन उन युवाओं को लग रहा होगा कि प्लेटें पौंछ कर खा लीं तो अशिष्टता, और दूसरी तरफ सर को लग रहा था कि एक चम्मच नमकीन, दाल के कुछ दाने कचरे में फेंकने के लिए छोड़ना श्रम की कीमत का अपमान। बनाने वाले मजदूर की मेहनत का अपमान। अन्न का अपमान आदि।
उस समय मैं, श्रीकांत रिंगे और शैलेंद्र भावसार वहां थे। हम सर के सामने इन सब चरणों से निकल आए थे लेकिन वे दोनों युवा शिष्ट अधिकारी शायद अपने जीवन का, विजय बहादुर सिंह के सानिध्य में पहला चरण पार करने वाले थे।
बातचीत खत्म हो गई।
कुछ देर पहले जो बातचीत की जा रही थी उसमें कहा जा रहा था कि किसानों की समस्या क्या है? मजदूरों की समस्या क्या है? श्रम और पैसे का बंटबारा इतना असंगत क्यों होता जा रहा है।
उस समय किसानों और मजदूरों की बातें इस तरह होती थीं। आज तो इस तरह की बात करना आवश्यक नहीं समझा जाता, क्योंकि चमक-दमक में मजदूरों को सजा दिया गया है। कंपनी उनको ड्रेस देती है। बस अब लाखों करोड़ों युवाओं को 10 से बारह घंटे वातानुकूलित शो रूम अथवा मॉल में खड़े खड़े गुजारना होते हैं। या लाखों गार्ड दरवाजे पर   नीली-काली ड्रेस और टोप लगा कर खड़े रहते हैं। ये वो खेतीहर मजदूर हैं जो गांवों में ट्रैक्टर, थ्रेशर, हार्वेस्टर आने से बेरोजगार हुए। खेतों और खलिहानों से मानवीय श्रम  सिमट गया। खेतों की कटनई खत्म हो गई और वे सब शहर आ गए। आज उनको ही यहां खड़े रह कर प्रोडक्ट बेचना होते हैं। उनको महीने में मिलता है साढ़े पांच हजार, सात हजार या नौ हजार, किसी किसी को तेरह भी मिल जाता लेकिन किसी किसी को।
ये सजे धजे लाखों करोड़ों लड़के लड़कियां, मजदूरों, शोषित किसानों के समान ही हैं। इनके चेहरे कुपोषण से पिचके होते हैं। इनके चेहरे पर कोई भाव नहीं, बस एक रोबोट की तरह शो रूमों में, बड़ी दुकानों में, मॉल और स्टोरों में व्यस्त हैं।
ये सब शहर की झुग्गियों में रहते हैं। किसी सुविधाविहीन बस्ती के किसी मकान के एक कमरे में पांच लोग शेयर करके रहते हैं। उनको श्रम का पूरा हक नहीं मिलता।
कौन जिम्मेदार है? मध्यवर्ग को सपोर्ट करने वाली सरकारी नीतियां? लिजलिजे नीतिनिर्माता, जनप्रतिनिधि और सुरक्षित शोषण में लिप्त उच्च अधिकारी। शहरों में गांवों से आने वाले इस तरह के युवाओं का सिलसिला उस समय शुरु ही हुआ था लेकिन आज गांव शहरों की तरफ बाढ़ की तरफ आ रहा है और दूसरी तरफ देश का मध्यवर्ग सबसे लिजलिजे स्वरूप में फैल रहा है। नौकरीपेशा और व्यापार धंधे में मस्त इस वर्ग को देश की कोई चिंता नहीं है। यह समस्याओं पर बहुत गंभीरता से विचार नहीं करता। यह पूरा वर्ग भेड़चाल में यकीन करता है। एक सुरक्षित और खोल में बंद जीवन बिताता है। आदि आदि। गांव के ये युवा कुछ सालों बाद मध्यवर्ग के रूप में जड़ों से कटे हुए एक परिवार के रूप में शहर की सबसे पिछड़ी बस्ती का हिस्सा हो जाता है।
इस लंबी बातचीत का अंत अभी बाकी है।
दोनों युवा अधिकारी जाने के लिए तत्पर हो रहे थे। फिर आपसे मिलेंगे, हम आपको रचनाएं दिखाएंगे जैसे अंतिम चरण के संवाद कर रहे थे।
तभी सर की नजर उन प्लेटों पर पड़ी। करीब चार चम्मच नमकीन बचा होगा। उसमें अंकुरित मूंग भी थी। सर ने उनसे पूछा- क्या आप दोनों को श्रम के सम्मान का अर्थ पता है? वो एक दम हक्का बक्का और उठते-उठते बैठ गए। कुछ क्षण के बाद झिझकते  हुए  उन्होंने कहा-‘ नहीं डाक साब।’
ये जो आप प्लेट में नमकीन छोड़ कर जा रहे हैं। वह कचरे में चला जाएगा। क्या कोई किसान इतना अन्न इस तरह प्लेट में छोड़ सकता है? वह जानता है कि उसका एक दाना कितने श्रम से पैदा होता है। कितनी मेहनत के बाद वह खाने लायक का सृजन कर पाता है। इसीलिए किसानों को देखिए एक एक दाना बीनता है। हम इस तरह इसलिए छोड़ देते हैं कि हम उसके श्रम की पूरी कीमत नहीं चुकाते।
आपको ये सब पूरा खाना चाहिए। एक प्लेट को मैंने उठा कर, उसकी अंकुरित मूंग के कुछ दाने हथेली पर रख कर खा लिए। इसके बाद दोनों ने आहिस्ता से चम्मच से नमकीन के संपूर्ण कणों को सहेज लिया। बात जाने की हुई। दोनों उठे और सर की और पांव लागू करने लगे। फिर जूते पहने और दरवाजे के बाहर खड़े होकर कुछ और बातचीत।
मैं भी उनके ही साथ अपने रुम पर बाहर जाने के लिए बाहर निकल लिया। मैं सर से जाने के लिए नहीं पूछता था। मैं उनकी आंखों में देखता और वे मेरी बॉडीलैंग्वेज से समझ जाते थे कि अब मुझे जाना है। वे या तो बोलते ठीक है तुम जाओ। जो बातें हुई हैं उन पर विचार करना। या फिर सिर हिला देते, उसका मतलब भी यही होता ठीक है जाओ।
 मैं उनके पीछे गली के मोड़ पर आ गया था। वे आपस में बतिया रहे थे, साला ये कोई बात है प्लेटें खाली करवा लीं। ये तो इंसल्ट है। उन्होंने मुझे देखा और फिर वे दूर चले गए।
सर ने मुझसे आज तक नहीं पूछा कि वे बाद में क्या कह रहे थे और न मैंने कभी इसकी चर्चा की। मैंने उनको कभी फिर सर के यहां नहीं देखा।
सर का यह जो शिक्षण है, यह कमाल का है। बार बार सर के घर या उनसे मिलने वालों ने ऐसे कई चरण पार किए हैं।

रवीन्द्र स्वप्निल प्रजापति
101, आरएमपी नगर, फेस- 1, विदिशा मप्र
9826782660


गुरुवार, जनवरी 29, 2015

 
भारतीयता के बिना सार्थक नहीं रंगकर्म 
आलोक चटर्जी
प्रसिद्ध नाट्य निर्देशक


भारतीय मूल्य को समझे बगैर सार्थक रंगमंच वहीं साकार हो सकता है। समूचा विश्व एक ग्लोबल विलेज है, तो संस्कृति के क्षेत्र में अपसंस्कृति आ रही है शोर मचा रही है। कुछेक अनजान है कुछ बेखबर भी, तो कुछ बहती गंगा में हाथ धोने की कोशिश कर रहे हैं। परंतु भारतीय मूल्य को समझे बगैर सार्थक रंगमंच वहीं साकार हो सकता है।

ज ब मैं सार्थक रंगमंच की बात करता हूं तो यह स्पष्ट है कि मेरा अभिप्राय उस रंगमंचीय स्वरूप से हुआ, जो भारतीय हो, विश्व संवेदन की धड़कनें उसमें हो, और स्थानीयता की उसमें सुगंध हो। आज सबसे बड़ी परेशानी यह है कि रंगमंच का शोर खूब मचाया जा रहा है, परंतु उसमें मौलिकता और दर्शन बोध का स्पष्ट अभाव है। शहरों विशेषकर मेट्रो में प्रायोगिक रंगमंच का शोर है, जहां रंगकर्मी सबसे पहले यही भूल जाता है कि वो किस समाज में रह रहा है? कैसा वातावरण है? कौन दर्शन है?
यह मूल प्रश्न छोड़कर वह अपनी एक ख्याली इंटेलेक्चुअल दुनिया की रचना करता है। विदेशी प्रस्तुतियों की छाप उनके नाटक के पोस्टर डिजाइन, सेट, एक्टिंग और आलेख तक में झलकती हैं। ऐसे अधिकतर कलाकार स्वयं छोटे कस्बों, गांवों से आते हैं, और अपनी कमतरी का एक सुपीरियर कॉम्प्लेक्स को ढकता है। वो रहन-सहन भी वैसा ही अपनाता है। बेतरतीब बाल या देशज पहनावा उसकी पहचान होती है। दूसरी ओर कुछ लोग देसी रंगमंच का ढोल पीट रहे हैं। ये और भी नकली रंगकर्मी हैं जो शहरों में शहरी लोगों के साथ फोक थियेटर कर रहे हैं। दर्शक भी शहरी हैं फिर इसका क्या औचित्य? असल में विश्व एवं भारतीय साहित्य का अभाव, इनमें है, इसलिए वे स्थानीय रचना या देशज चीजÞों को रंगमंच पर एक प्रदर्शनी की भांति प्रस्तुत करके स्वयं को भारतीय संस्कृति से जुड़ा स्वयंभू घोषित कर देते हैं या किसी किसी भी नाटक में छह आठ गाने डाल देते हैं। ये संगीतकार या संगीत मर्मज्ञ नहीं होते, बल्कि हारमोनियम वादक होते हैं। विधिवत संगीत शिक्षा भी उन्होंने नहीं ली होती है, ना ही वे कारणों के व्याकरण या रंगमंचीय संगीत की सौंदर्यानुभूति को समझते हैं। वे मात्र एक रंगीन वातावरण, कुछ गाने, सुरताल, एकाध नृत्य, और सूत्रधार-समूह से कोई भी नाटक मंच पर प्रस्तुत कर देते हैं। संभ्रांत दर्शक भी जो मूल रूप से किसी छोटे शहर का ही होता है, वो इसे जड़ों से जुड़ा रंगमंच कहता है।
वास्तव में यह जड़ों से नहीं जुड़ा वरन एक जड़ रंगमंच की स्थापना करता है। अभिनय करने वालों को भी सुविधा हो जाती है कि अधिक गहराई में जाने की कोई जÞरूरत ही नहीं। तीसरी तरफ कुछ राजनीतिक आग्रह-दुराग्रह रखने वाले कलाकार भी हैं जो प्रत्येक प्रस्तुति की तुलना और व्याख्या अपने परिचित दर्शन से मिलाकर करते हैं और उसी के अनुरूप ही अपनी प्रतिक्रिया देते हैं। दर्शकों में भी अपने परिचित अधिक होने से सार्थक आलोचना की गुंजाइश ही समाप्त हो जाती है। चौथी ओर संस्कृति विभाग द्वारा दी गई अनुदान प्रस्तुतियां हैं, जो धड़ल्ले से हो रही हैं। उनमें क्या और कितना सार्थक है यह एक विचारणीय प्रश्न है।
कई लोग अखवारी कटिंग के आधार पर आलेख तैयार कर रहे हैं, और नाटककार भी बन बैठे हैं। पांच-छह लोगों के संवाद पर आधारित इन नाटकों में अधिक खर्च भी नहीं होता है, और अधिकतर राशि का व्यक्तिगत प्रयोग कर लिया जाता है। पांचवी ओर फेस्टीवल ग्रांट थियेटर का बोलबाला है। अपने शहर के दो, एक अपना, एक दूसरे शहर का नाटक ले लो और राज्य स्तरीय समारोह हो गया। इसमें भी एक गुप्त शर्त है कि तुम अपने फेस्टीवल में हमें बुलाओ, तो हम अपने फेस्टीवल में तुम्हें बुलाएंगे। कम खर्च अधिक मुनाफे का यह व्यवसाय भी जÞोरों से चल रहा है। छठी ओर कुछ लोग आउटडेटेड टीवी  या रिटायर्ड फिल्म कलाकार को एक मुख्य भूमिका में लेकर मल्टीमीडिया स्टार थियेटर कर रहे हैं, और लाखों कमा रहे हैं।
सातवीं ओर अंतिम छोर पर एक धड़-रंगकर्मियों का भी है, जो सोच विचार के रंगमंच में विश्वास करते हैं। पढ़ने-लिखने और रंगमंच के व्याकरण-शास्त्र को समझने करने की ललक रखते हैं, और जिनके हृदय में रंगमंच एक आंदोलन है, निरंतर सृजन प्रक्रिया है। ये रंगकर्मी पुरस्कारों की दौड़ में भी विश्वास नहीं करते और अपने कार्य द्वारा समाज और जीवन को एक सोच प्रदान करते हैं, या एक दिशा देनें की चेष्टा अवश्य करते हैं। यह वो अल्पसंख्यक कलाकर्मियों का समूह है, जो निरंतर रंगमंच की प्रतिष्ठा एवं गौरव के लिए प्रयत्नशील है। कहा जा सकता है कि सार्थक रंगमंच की यात्रा यहां इस ऊबड़-खाबड़ क्षेत्र से प्रारंभ होती है, जहां समर्पण, निष्ठा, सजगता सर्वप्रथम है। अधिकतर रंगकर्मी यह भूल बैठे हैं कि हमारे देश में निरक्षर, गरीब, बेरोजगारों के साथ आंचलिक, जनजातीय समूह भी हैं, और सबके अपने सांस्कृतिक मूल्य हैं, समझ है और सोच है।
ऐसे में भारतीयता ही वो तत्व है जो सबको एक सूत्र में बांध सकता है, सबके मित्र मूल्यों को मोतियो की भांति पिरोकर एक सुंदर माला बना सकता है। और हमारे समाज परिवार की धड़कनें उसमें समाहित करता है। हमारे खेत, नदियों, पहाड़, जंगल और जानवर तक हमारे सांस्कृतिक मुल्यों और विरासत में शामिल है। हमारी रचना का केंद्र कभी कोई पीपल का पेड़ तो कभी गांव का पनघट, तो कभी घर का दालान, कहीं दादी की पोथी सब हमारी चेतना के केंद्र में होता है,   उसी के बीच में आकर लेता है कोई विचार जो किसी घटना में किन्हीं चरित्रों द्वारा अभिव्यक्त होती है।
मानवीय संवेदना, करुणा, मंगलकामना एवं समूचे विश्व यहां तक कि अंतरिक्ष के मंगल की कामना भी सामूहिक सपने, सामूहिक भारतीय चेतना में अजब धारा के समान प्रवाहित है। त्याग, नैतिकता, कर्त्तव्यपरायणता भारतीय दर्शन के भी मूल में है और चेतना के भी। यही वो तत्व है जिनमें मिलकर भारतीय सांस्कृतिक दृष्टि का विकास होता है, जो विभिन्न कला माध्यमों में मित्र रूपांकर प्राप्त करता है। परिवार हमारे समाज और संस्कृति के केंद्र में है। यहां एकांवासी अवसादग्रस्त व्यक्ति नहीं है उसकी त्रासदी भी नहीं है और व्यक्तिगत उल्लास भी नहीं। सब कुछ सामाजिक है, सामूहिक है इसलिए कहते भी हैं - कल्ल्िरंल्ल अ१३ ्रल्ल २ङ्मू्री३८ ङ्म१्रील्ल३ ंल्ल िूङ्म’’ीू३्रङ्मल्ल यही सामूहिकता ही विभिन्न भावों ने एक कालखंड और समाज का प्रतिनिधित्व करते हैं। यहां यूरोप की भांति मुझसे उपजÞी त्रासदी नहीं वरन् युद्ध का विचार ही त्रासदी है क्योंकि वो विध्वंस को रचता है, और रचनाशील को क्रियाहीन। ऐसे ही उल्लास भी सामूहिक है जो हमारे सभी त्योहारों में प्रमुख रूप से देखा जा सकता है। यहां तक कि मृत्यु भी पुर्नजन्म का एक द्वार है। जर्जर वस्त्र रूपी शरीर को आत्मा द्वारा छोड़ देना मात्र है। यही वो भारतीय मूल्य है जिन्होंने हमारी सांस्कृतिक मूल्यों की रचना की और एक समृद्ध सांस्कृतिक विरासत तैयार की। भारत वो देश है जो कई बार अतीत के बाहरी आकांक्षाओं से जीता गया, पर कोई भी इस देश की संस्कृति को नहीं तोड़ पाया और उसी ने भारत राष्ट्र के अखंड गौरव का गान किया। बड़ी से बड़ी सभ्यता और संस्कृतियों की रुचि भारतीय संस्कृति, रंगमंच और कला का कुछ बिगाड़ नहीं पाई वरन् इससे प्रभावित हो गई। इसके मूल्य में भारतीय मूल्य और दर्शन ही है। आज अब समूचा विश्व एक ग्लोबल विलेज है, तो संस्कृति के क्षेत्र में अपसंस्कृति आ रही है शोर मचा रही है। कुछेक अनजान है कुछ बेखबर भी, तो कुछ बहती गंगा में हाथ धोने की कोशिश कर रहे हैं। परंतु भारतीय मूल्य को समझे बगैर सार्थक रंगमंच वहीं साकार हो सकता है। मात्र अनुकरण या नकल हमें तात्कालिक लाभ अवश्य दे सकता है, परंतु समाज का दर्शकों का उससे कोई लेना-देना नहीं। ना ही वो हमारी भारतीय रंगमंच के श्रेष्ठ प्रतिमानों को छूने के भी           समर्थ हैं।
कला एक साधना है, व्यवसाय नहीं और वो व्यवसाय तो बिल्कुल भी नहीं, जहां बिना सोच विचार की मंडली को मनोरंजन मान लेने की भूल होगी, वहां मनोरंजन का अर्थ यानि मन को रंजित करने वाला ही विकृत हो जाएगा और सार्थक रंगमंच की स्थापना और प्रयोग तो दूर, कल्पना में भी असाध्य हो जाएगी। हमें इस दिशा में सोचने और कुछ करने की आवश्यकता है, और वो भी अभी और तुरंत।
(आलेख में व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं)