शुक्रवार, अगस्त 22, 2014

पारिजात Night Flower

पारिजात के वृक्ष को छूने से मिटती है थकान

क्या कोई ऐसा भी वृक्ष है,जिसं छूने मात्र से मनुष्य की थकान मिट जाती है। हरिवंश पुराण में ऐसे ही एक वृक्ष का उल्लेख मिलता है,जिसको छूने से देव नर्तकी उर्वषी की थकान मिट जाती थी। पारिजात नाम के इस वृक्ष के फूलो को देव मुनि नारद ने श्री कृश्ण की पत्नी सत्यभामा को दिया था। इन अदभूत फूलों को पाकर सत्यभामा भगवान श्री कृष्ण से जिद कर बैठी कि परिजात वृक्ष को स्वर्ग से लाकर उनकी वाटिका में रोपित किया जाए। पारिजात वृक्ष के बारे में श्रीमदभगवत गीता में भी उल्लेख मिलता है। श्रीमदभगवत गीता जिसमें 12 स्कन्ध,350 अध्याय व18000 ष्लोक है ,के दशम स्कन्ध के 59वें अध्याय के 39 वें श्लोक , चोदितो भर्गयोत्पाटय पारिजातं गरूत्मति। आरोप्य सेन्द्रान विबुधान निर्जत्योपानयत पुरम॥ में पारिजात वृक्ष का उल्लेख पारिजातहरण नरकवधों नामक अध्याय में की गई है।
सत्यभामा की जिद पूरी करने के लिए जब श्री कृष्ण ने परिजात वृक्ष लाने के लिए नारद मुनि को स्वर्ग लोक भेजा तो इन्द्र ने श्री कृष्ण के प्रस्ताव को ठुकरा दिया और पारिजात देने से मना कर दिया। जिस पर भगवान श्री कृष्ण ने गरूड पर सवार होकर स्वर्ग लोक पर आक्रमण कर दिया और परिजात प्राप्त कर लिया। श्री कृष्ण ने यह पारिजात लाकर सत्यभामा की वाटिका में रोपित कर दिया। जैसा कि श्रीमदभगवत गीता के श्लोक, स्थापित सत्यभामाया गृह उधान उपषोभन । अन्वगु•र्ा्रमरा स्वर्गात तद गन्धासलम्पटा, से भी स्पष्ट है। भगवान श्री कृष्ण ने पारिजात को लगाया तो था सत्यभामा की वाटिका में परन्तु उसके फूल उनकी दूसरी पत्नी रूकमणी की वाटिका में गिरते थे। लेकिन श्री कृष्ण के हमले व पारिजात छीन लेने से रूष्ट हुए इन्द्र ने श्री कृश्ण व पारिजात दोनों को शाप दे दिया था । उन्होन् श्री क्रष्ण  को शाप दिया कि इस कृत्य के कारण श्री कृष्ण को पुर्नजन्म यानि भगवान विष्णु के अवतार के रूप में जाना जाएगा। जबकि पारिजात को कभी न फल आने का शाप दिया गया। तभी से कहा जाता है कि पारिजात हमेशा के लिए अपने फल से वंचित हो गया। एक मान्यता यह भी है कि पारिजात नाम की एक राजकुमारी हुआ करती थी ,जिसे भगवान सूर्य से प्यार हो गया था, लेकिन अथक प्रयास करने पर भी भगवान सूर्य ने पारिजात के प्यार कों स्वीकार नहीं किया, जिससे खिन्न होकर राजकुमारी पारिजात ने आत्म हत्या कर ली थी। जिस स्थान पर पारिजात की कब्र बनी वहीं से पारिजात नामक वृक्ष ने जन्म लिया। इसी कारण पारिजात वृक्ष को रात में देखने से ऐसा लगता है जैसे वह रो रहा हो, लेकिन सूर्य उदय के साथ ही पारिजात की टहनियां और पत्ते सूर्य को आगोष में लेने को आतुर दिखाई पडते है। ज्योतिश विज्ञान में भी पारिजात का विशेष महत्व बताया गया है।
पूर्व वैज्ञानिक एवं ज्योतिष के जानकार गोपाल राजू की माने तो धन की देवी लक्ष्मी को प्रसन्न करने में पारिजात वृक्ष का उपयोग किया जाता है। उन्होने बताया कि यदि ,ओम नमो मणि़•ाद्राय आयुध धराय मम लक्ष्मी़वसंच्छितं पूरय पूरय ऐं हीं क्ली हयौं मणि भद्राय नम, मन्त्र का जाप 108 बार करते हुए नारियल पर पारिजात पुष्प अर्पित किये जाए और पूजा के इस नारियल व फूलो को लाल कपडे में लपेटकर घर के पूजा धर में स्थापित किया जाए तो लक्ष्मी सहज ही प्रसन्न होकर साधक के घर में वास करती है। यह पूजा साल के पांच मुहर्त होली,दीवाली,ग्रहण,रवि पुष्प तथा गुरू पुष्प नक्षत्र में की जाए तो उत्तम है। यहां यह भी बता दे कि पारिजात वृक्ष के वे ही फूल उपयोग में लाए जाते है,जो वृक्ष से टूटकर गिर जाते है। यानि वृक्ष से फूल तोड़ने की पूरी तरह मनाही है।
इसी पारिजात वृक्ष को लेकर गहन अध्ययन कर चुके रूड़की के कुंवर हरि सिंह यादव ने बताया कि यंू तो परिजात वृक्ष की प्रजाति भारत में नहीं पाई जाती, लेकिन भारत में एक मात्र पारिजात वृक्ष आज भी उ.प्र. के बाराबंकी जनपद अंतर्गत रामनगर क्ष्ोत्र के गांव बोरोलिया में मौजूद है। लगभग 50 फीट तने व 45 फीट उंचाई के इस वृक्ष की ज्यादातर शाखाएं भूमि की ओर मुड़ जाती है और धरती को छुते ही सूख जाती है।
एक साल में सिर्फ एक बार जून माह में सफेद व पीले रंग के फूलो से सुसज्जित होने वाला यह वृक्ष न सिर्फ खुशबू बिखेरता है, बल्कि देखने में भी सुन्दर लगता है। आयु की दृष्टि से एक हजार से पांच हजार वर्ष तक जीवित रहने वाले इस वृक्ष को वनस्पति शास्त्री एडोसोनिया वर्ग का मानते हैं। जिसकी दुनियाभर में सिर्फ 5 प्रजातियां पाई जाती है। जिनमें से एक डिजाहाट है। पारिजात वृक्ष इसी डिजाहाट प्रजाति का है। कुंवर हरि सिंह यादव अपने षोध आधार पर बताते है कि एक मान्यता के अनुसार परिजात वृक्ष की उत्पत्ति समुन्द्र मंथन से हुई थी । जिसे इन्द्र ने अपनी वाटिका में रोप दिया था। कहा जाता है जब पांडव पुत्र माता कुन्ती के साथ अज्ञातवास पर थे तब उन्होने ही सत्यभामा की वाटिका में से परिजात को लेकर बोरोलिया गांव में रोपित कर दिया होगा। तभी से परिजात गांव बोरोलिया की शोभा बना हुआ है। देशभर से श्रद्धालु अपनी थकान मिटाने के लिए और मनौती मांगने के लिए परिजात वृक्ष की पूजा अर्चना करते है। पारिजात में औषधीय गुणों का भी भण्डार है। पारिजात बावासीर रोग निदान के लिए रामबाण औषधी है। पारिजात के एक बीज का सेवन प्रतिदिन किया जाये तो बावासीर रोग ठीक हो जाता है। पारिजात के बीज का पेस्ट बनाकर गुदा पर लगाने से बावासीर के रोगी   को बडी राहत मिलती है। पारिजात के फूल हदय के लिए भी उत्तम औषधी माने जाते हैं। वर्ष में एक माह पारिजात पर फूल आने पर यदि इन फूलों का या फिर फूलो के रस का सेवन किया जाए तो हदय रोग से बचा जा सकता है। इतना ही नहीं पारिजात की पत्तियों को पीस कर शहद में मिलाकर सेवन करने से सुखी खासी ठीक हो जाती है। इसी तरह पारिजात की पत्तियों को पीसकर त्वचा पर लगाने से त्वचा संबंधि रोग ठीक हो जाते है। पारिजात की पत्तियों से बने हर्बल तेल का भी त्वचा रोगों में भरपूर इस्तेमाल किया जाता है। पारिजात की कोंपल को अगर 5 काली मिर्च के साथ महिलाएं सेवन करे तो महिलाओं को स्त्री रोग में लाभ मिलता है। वहीं पारिजात के बीज जंहा हेयर टानिक का काम करते है तो इसकी पत्तियों का जूस क्रोनिक बुखार को ठीक कर देता है। इस दृश्टि से पारिजात अपनेआपमें एक संपूर्ण औषधी भी है।
इस वृक्ष के ऐतिहासिक महत्व व दुर्लभता को देखते हुए जंहा परिजात वृक्ष को सरकार ने संरक्षित वृक्ष घोषित किया हुआ है। वहीं देहरादून के राष्ट्रीय वन अनुसंधान संस्थान की पहल पर पारिजात वृक्ष के आस पास छायादार वृक्षों को हटवाकर पारिजात वृक्ष की सुरक्षा की गई। वन अनुसंधान संस्थान के निदेशक डा. एसएस नेगी का कहना है कि पारिजात वृक्ष से चंूकि जन आस्था जुडी है। इस कारण इस वृक्ष को संरक्षण दिये जाने की निरंतर आवश्यकता है। इस वृक्ष की एक विषेशता यह भी है कि इस वृक्ष की कलम नहीं लगती ,इसी कारण यह वृक्ष दुर्लभ वृक्ष की श्रेणी में आता है। भारत सरकार ने पारिजात वृक्ष पर डाक टिकट भी जारी किया। ताकि अर्न्तराष्ट्रीय स्तर पर पारिजात वृक्ष की पहचान बन सके।

श्रीगोपालनारसन एडवोकेट    

गुरुवार, अगस्त 21, 2014

अभिनेता और अभिनय


आलोक चटर्जी का यह आलेख  युवाओं के लिए आँख खोलने वाला है.
                                                   पीपुल्स समाचार से साभार                          - रवीन्द्र  स्वप्निल प्रजापति
    अभिनय की दुनियां में इन दिनों नये युवाओं की भरमार है। बाहर से देखें तो यह सुखद लगता है, कि इतनी बड़ी संख्या में युवा अभिनय के क्षेत्र में आ रहे हैं, और इसे संभावनाओं के रूप में देख रहे हैं, परन्तु मुझे एक अभिनेता, अभिनय-शिक्षक और रंग निर्देशक के तौर पर लगातार यह महसूस होता रहा है कि दरअसल इसमें बहुत कुछ छद्म है, जैसे उदाहरण के लिये मैं पाता हूं कि अधिकतर युवा अपने शैक्षणिक सत्रों की छुटटियों के दौरान इसे समय बिताने और नये लोगों से परिचय का एक अच्छा अवसर मानते हैं। परन्तु नाटक के दूसरे या तीसरे प्रदर्शन में ही वे कोई न कोई बहाना बनाकर नदारत हो जाते हैं। कुछ युवा मात्र सिनेमाई व्यक्तित्वों की छाआएं लेकर आते हैं और जब पाते हैं कि यहां कठोर अनुशासन, समर्पण, निरन्तरता, प्रतिभा को निखारने के लिये बहुत आवश्यक है, तो वे अपनी दमित इच्छाओं को लिये शनैः शनैः रंगमंच से दूर हो जाते हैं। कुछ युवा इसलिए भी आते हैं कि पर्सनलिटी ग्रूमिंग की क्लासेस के लिये बिना कोई शुल्क चुकाये ये एक अच्छा माध्यम है। इसके बाद कुछ युवा अवश्य ऐसे होते हैं जो अपने कार्य में निरन्तरता रखते हैं और कुछेक वर्षों तक रंगमंच में बने रहते हैं। उसके बाद विवाह, पिताजी का रिटार्यमेंट, मां की बीमारी आदि का सहारा लेकर वह अभिनय और रंगमंच से तौबा कर लेता है। जो युवा अपने कैरियर के रूप में इसे अपनाना चाहते हैं, वे अवश्य रूके रहते हैं, परन्तु उनके साथ कार्य करते हुये यह स्पष्ट होता है कि हमारे युवा सुबह का अखबार भी शायद ही पड़ते हों, साहित्य कविता, दर्शन और मनोविज्ञान की पढ़ाई-लिखाई तो दूर, आज के समाज की जानकारियों का अभाव तक दिखायी देता है। यह अधिकतर युवाओं को ऐसे अभिनेता बनने के लिये प्रेरित करता है, जो मात्र अपने संवाद रटकर और बोलकर, अभिनय हो गया, ये मान लेता है, या तो वो बाजार में एक उत्पाद की तरह स्वयं को प्रस्तुत करने की कोशिश करता है। समस्या ये है कि यदि अभिनेता का आंतरिक जगत संवेदनहीन है, भावना शून्य है, कल्पनाशीलता का आधार नहीं है, तो वह मात्र मंच पर मेकअप और काॅस्ट््यूम में आयेगा और अपने संवाद बोलकर चला जायेगा। वो कोई अनुभूतियों का संसार, चरित्र का द्वंद और भावना की तीव्रता दर्शकों तक पहुंचाने में नितांत असमर्थ होगा। ऐसा अभिनय और प्रस्तुति निर्जीव ही कही जा सकती है, और ऐसे अभिनेता को मैकेनिकल, हैम ऐक्टर कहना उचित होगा। दर्शक भी ऐसी प्रस्तुतियों से जल्दी ही ऊबकर या थियेटर के बारे में यही एक धारणा लेकर, मनोरंजन का कोई दूसरा माध्यम चुन लेता है। महानगरों और मैट्रो शहरों में प्रयोगवादी अभिनय का बोलवाला है, जहां अभिनेता आधे समय वीडियो पर दिखता है, अर्थपूर्ण संवाद बहुत कम होते हैं, भारी भरकम बजट खर्च करके सेट और लाइटिंग का साउण्ड के साथ ऐसा भ्रम जाल तैयार किया जाता है, जो दर्शकों को भ्रमित कर सके। एन्वायरमेंटल थियेटर के नाम पर दर्शकों को दस जगह घुमा-घुमाकर एक ही प्रस्तुति के अलग-अलग दृृश्य दिखलाये जाते हैं, जाहिर है यह मात्र बौद्धिक कलावाजी और बौद्धिक विलासिता का ही परिचायक है। हमारा देश, एक ऐसा देश है, जहां निरक्षर लेकिन समझदार दर्शक हैं, तो कस्बाई और शहरी लोग भी, हम सब बचपन में संगीत सुनते थे। भारतीय संस्कृति में अभिनय को यज्ञकर्म माना गया है, जहां हवन करने वाला अभिनेता है, हवन कुंड अभिनय-स्थल है, हवन सामग्री आलेख है, और उसमें पड़ती आहुतियां अभिनेता के मनोभाव हैं, इससे उत्पन्न अग्नि, प्रस्तुति है और हवन सामग्री के धुएं से वहां बैठे दूसरे व्यक्ति को जो मिल रहा है, वही रस है, रसानुभूति है। हमारे देश में जहां लोग पढ़ना-लिखना नहीं जानते, वहां भी सदियों से लोक परंपराएं अपनी अनगढ़ शैली और और रूप में उपस्थित हैं। सांस्कृृतिक बहुलता वाले हमारे देश में किसी प्रांत के भाषा-भाषी को कभी भी निरक्षर होने के मात्र से ही पंडवानी, कुडिआट््म, यक्षगान, भागवतकथा, रामलीला आदि के प्रसंग प्रस्तुति देखकर समझ, ना आते हों, ऐसा नहीं है, वरन्् इसके विपरीत ही है। आज भी चमकते महानगर की सड़कों, ऊंची अट््टालिकाओं और गाड़ियों के शोर में भी जो लोग शामिल हैं वे किसी ग्रामीण या कस्बाई क्षेत्र से ही वहां काम करने आये हैं। आधुनिकता और प्रयोगशीलता की परिभाषा गढ़ते हुये हमें इसे ध्यान में रखना होगा। मात्र विदेशी प्रस्तुतियों की नकल और उनके गढ़े सत्य को अपना सत्य समझ लेने की भूल ही यह विरोधाभास पैदा कर रही है। ज़ाहिर है, एक अभिनेता और रंगमंच समाज से ही आता है, समाज का ही उत्पाद है, और समाज के लिये ही है। इसीलिए अभिनेता को चिरंतर अध्ययनशील, घूमन्तू, निरन्तर कुछ नया सीखने की ललक मन में रखकर ही इस यात्रा पर अपना पहला कदम बढ़ना होगा। वह समस्त संस्कृतियों का अध्ययन करे, विश्व प्रसिद्ध साहित्य को पढ़े लेकिन पहले अपनी संस्कृति को जान ले, अपने भारतीय रचनाकारों को पढ़ ले और देश के भिन्न प्रांतों में खाना भी खाना चाहिये, और वहां का पहनावा भी, तभी वह जीवन्त, संवेदनशील, आधुनिक भारतीय व्यक्ति बनेगा, जिसके पास अपनी सोच होगी, अपनी संस्कृति की महक होगी, और विश्व की जानकारी भी, तभी वह अपने अभिनय को अधिक यूनिर्वसल या सार्वभौमिक बना सकेगा। इन सब बातों के लिये कड़ी मेहनत, लंबा अभ्यास और निरन्तर समर्पण चाहिये, इनके अभाव में हम एक जीवनहीन अभिनय, की रचना करने वाले अभिनेता होंगे, जो चाहे तो लाउडस्पीकर लगाकर भी अपना संवाद बोल दे, दर्शकों पर इसका कोई सार्थक प्रभाव नहीं पड़ेगा। आज हमारे देश में दिल्ली, बंबई, चेन्नई, कोलकाता से लेकर शाहजहांपुर, अलीगढ़, इलाहाबाद, लखनऊ, पटना, भोपाल, जबलपुर कहां पर रंगमंच नहीं हो रहा है ? पिछले वर्षों में संस्क्ृति के क्षेत्र में आर्थिक अनुदानों की एक सुनामी भी आयी हुयी है, जिसने संस्कृति के कुछ दुकानदारों को संस्कृति का राष्ट्रीय रोजगार कार्यक्रम बना लिया है। परन्तु न तो नया दर्शक वर्ग बन रहा है, न ही मील का पत्थर कहे जाने वाली प्रस्तुतियां हो रही हैं। इसके मूल में है, कमज़ोर और असंवेदनशील अभिनेता, और उसका अभिनय। आज आवश्यकता इस बात की है कि सबसे पहले अभिनेता सुबह जल्दी उठना सीखे, उसके पास अपनी फिजीकल फिटेनस का एक कार्यक्रम होना चाहिये, उसके बाद बौद्धिक तैयारी और फिर निरंतर अभ्यास। नींद आने तक पढ़ना, सतत्् सीखने को तैयार रहना, रोज़ नयी-नयी जानकारियां जुटाना, जब तक यह उसके दैनिक कार्यक्रम में शामिल नहीं होना, समस्याएं बनी रहेंगी। यदि हम चाहते हैं कि रंगकर्म का वास्तविक विकास हो, तो हमें अभिनेता और उसके प्रशिक्षण कार्यक्रम पर ध्यान देना ही होगा। शौकिया रंगमंच में काम करने वाले रंगमंच का समर्पण सराहनीय है, परन्तु मात्र उससे काम चलने वाला नहीं है। इसे एक व्यवसायिक और प्रोफेशनल कार्यक्रम की भांति लेना ही होगा, आप स्वयं ही सोचें, क्या आप अपने बच्चे को ऐसे स्वीमिंग पूल में छोड़ना पसंद करेंगे ? जहां बचाने वाला व्यक्ति स्वयं ही तैरना न जानता हो ? क्या आप बिना जांच किये किसी से भी अपना महंगा इलैक्ट्रानिक उपकरण सही करवाते हैं ? जो इस काम में नितांत असमर्थ हो या फिर आप हंसी मजाक करते हुये बतियाते हुये, बिजली या गैस के उपकरणों से छेड़खानी करना पसंद करेंगे, तो फिर अभिनय को ऐसे हल्के में लेने का अर्थ आखिर क्या है ? यह तो अत्यन्त ही सुसंस्कृत सभ्य और आधुनिक विचारों वाले व्यक्ति का ही कार्य हो सकता है, कि वो अभिनय के क्षेत्र में आये और स्वयं को एक अभिनेता के रूप में स्थापित करे। जयसुंदरी, बाल गंधर्व, उत्पल दत्त, शंभू मित्रा, मनोहर सिंह, नसीरूद््दीन शाह, ओमपुरी ऐसे ही अभिनेता हैं, जिन्होंने मात्र अभिनय ही नहीं किया, उसे इतना विस्तारित किया कि वो समूची विश्व संस्कृतियों में अनुगुंजित होने लगा। उनके अभिनय ने समाज को संदेश भी दिया, तो चेतावनियां भी, मनोरंजक हंसने के क्षण भी दिये तो कहीं बरवस रूला भी गये। मानव मन पर अपनी अमिट छाप होड़ देते हैं ये लोग, जो किसी साधारण स्तर के अभिनेता या किसी मीडियोकर के लिये कभी संभव नहीं होता, कि वो उस स्तर को जान ले, समझा ले, छू ले, जहां अभिनय के ये ऋषि, महर्षि, ब्रह्मश्री बैठे हैं। अब हम सब बहुत समय गंवा चुके, अवसर आ गया है कि तुरंत ही प्रेरणा लेकर कार्य करना प्रारंभ किया जाये, क्योंकि जब प्रारंभ होगा तभी अभिनेता का स्वयं के व्यक्तित्व से भी साक्षात्कार होगा, क्योंकि अभिनय अपने मूल रूप में व्यक्ति अभिनेता की आंतरिक जगत की खोज है।

दिनांक 21.8.2014  
- आलोक चटर्जी, भोपाल में नाट्य विद्यालय से जुड़े हैं