सोमवार, अप्रैल 14, 2014

भारतीय होना ‘वाइड’ होना है

 

मनोज श्रीवास्तव
विचारक एवं कवि 
यह साक्षात्कार करीब तीन साल पहले लिया गया था ब्लॉग पर आज  प्रस्तुत है।

लिखने की क्या प्रेरणाएं रही हैं?
मैं जिस तरह की दुनिया में हूं, वहां बहुत तरह की साजिशें हैं। कोई अपने कर्तव्य में कितना ही दत्तचित हो, लेकिन कुछ लोग उसके खिलाफ षड्यंत्रों की एक विकृत मन:स्थिति में रहते ही हैं। उन सबके बीच लिखने में जिंदगी की अनिश्चितताओं और अवसादों को जैसे एक आश्वस्ति सी मिलती है, लगभग वैसी ही जैसे कुछ भाग्यशाली लोगों को मेडीटेशन में मिलती है। जब आप लोगो की हिट लिस्ट में हों, यह जानकर अच्छा लगता है कि आपने किसी नए आइडिया को हिट किया है। जब वे अपनी संकीर्णताओं में ही रमे हैं, आपकी रचना आपको अर्थवत्ता की और आल्टीट्यूड्स तक ले गई है। रचना रति नहीं है, मुक्ति है। जब लोग शब्द का व्यापार कर रहे हों, जब शब्द तक पैक हो रहा हो- तब रचना का शब्द अचानक जैसे खेल-खेल में बिना किसी मोल-तोल के आप तक आ पहुंचता है, मन जैसे धन्यता के एक भाव से भर जाता है। रचना में ‘चांस’ का जो एक अनुतत्व है, वह किसी आशीष-सा लगता है। जहां पैकेज न मिलने पर शब्द भी चरित्र हत्या पर उतारू हो जाता हो, वहां शब्द की वह सारस्वत सत्ता देखना है कि वह समकक्ष सृष्टि-सा लगे, द्वितीय निर्मिति-सा लगे, एक अलग की कृतार्थता है। तात्कालिक की क्षुद्रताओं के पार जैसे कहीं लगातार ढांढस बंधाते हुए, लगातार सम्बल देते हुए, एक सनातन का उजास-सा है। लिखना जितना कोई चीज पैदा होना है, उतना ही कोई खोजना भी है। जब हम कविता लिखते हैं, तो कला को नहीं चुन रहे होते हैं। जीवन जीने की एक खास शैली को चुन रहे होते हैं।

 बहुत ‘वाइड रेंज’ है, यह कैसे हासिल किया करते रहे हैं?
रेंज का बहुत विस्तृत होना कम से कम मेरे लिए तो मेरे अपने प्रोफेशन का नतीजा है, जो किसी व्यक्ति को भिन्न-भिन्न भूमिकाओं में रखता है। मनुष्य समाज और परिस्थितियों के जितने ज्यादा आयाम इसमें दिखाई पड़ते हैं, वे तो किसी यायावर को ही उपलब्ध होते होंगे। दूसरे संभवत: भारतीय होना ही व्यापक रेंज का होना है। यह देश है ही विविधता का। दृष्टि जो व्यापकत्व भारत में है, वह न तो हिटलर को नसीब हुआ और न मुसोलिनी को, न लेनिन को और न माओ को, न गद्दाफी को और न सद्दाम हुसैन को। भारतीय होना ‘वाइड’ होना है।

 लिखने में व्यस्तता के बाद भी इतनी निरंतरता, यह किस स्तर पर मैनेज करते हैं, यह कैसे संभव बनाते हैं?
लिखना जितना इल्युमिनेशन है- चमकना है, उतना ही वह कहीं इंक्युबेशन भी है। कुछ भीतर ही भीतर पकता-सा रहता है। लोगों का ध्यान उस ‘चमकने’ पर जाता है और वे उसे ही रचना कहते हैं- लेकिन थोड़ा तवज्जो इस ‘पकने’ पर दें। हो सकता है, यह फल का पकना न हो, घाव का पकना हो। ‘दुनिया ने तजुर्बातो- हवादिस की शकल में/ जो कुछ दिया है मुझे वही लौटा रहा हूं मैं। इसलिए व्यस्तता निरन्तरता की दुश्मन नहीं है। व्यस्तता निरंतरता को मुमकिन बनाती है। यदि लिखना सिर्फ एक फ्लैश है, तब तो उसमें वक्त लगता ही नहीं है। लेकिन यदि लिखना अनुभवों का परिपाक है, तो वह इस व्यस्तता के कारण ही संभव हो पाता है। हर तरह के लोग मिलते हैं, देवता भी कि जिनके पास जाकर मन को मलिनता भी काई की तरह छंट जाती है और वे भी जो किसी दूसरे को उठता हुआ देखना बर्दाश्त ही नहीं कर पाते। लिखना इन तरह-तरह के तजुर्बों के बीच किसी तरह की व्यवस्था या ‘आर्डर’ ढूंढने की कोशिश है।
लेकिन हो सरकता है कि यह खुद अपने आप में ‘डिस्आर्डर’ हो, व्याधि हो, रोग- सा हो लगा हुआ। एलिस फ्लाहर्टी ने जिसे ‘मिडनाइट डिसीज’ कहा है: ‘मध्यरात्रि की बीमारी’। कई बार जब मैं देर से सोने के बावजूद बीच रात में उठकर लिखने बैठ जाता हूं तो यह बात सच भी लगने लगती है। तो एक तरफ वर्कोहलिज्म और दूसरी तरफ लिखने की यह असाध्य बीमारी जिसे हाइपरग्राफिया कहते हैं। यह आदमी तो गया काम से। ये तो क्रॉनिक बीमारियों से ग्रस्त है। लेकिन बीमारियां बस इतनी ही। एजरा पाउंड की तरह स्किजोफ्रेनिया नहीं, राबर्ट लुई स्टीवेंसन की तरह कौकेन लेकर लिखना नहीं, कॉलरिज की तरह मैनिक डिप्रेशन नहीं, गुस्ताब फ्लाबेर की तरह मिर्गी नहीं। उन सबने असाधारण बीमारियों के साथ असाधारण कुछ लिखा। लेकिन जहां लिखने को ही बीमारी समझा जाए, वह समाज स्वयं कितना बीमार हो गया है, यह कौन पता लगाएगा।

 कई बार लगता है लेखन आपके सोच का भी विस्तार है, ऐसे में अपनी रचना प्रक्रिया  बताएं?
जिसे विशेषज्ञता कहा जाता है, उस अर्थ में दर्शन- शास्त्र या विचारणा का अध्ययन मेरा नहीं है। यह तो क्षेत्रज्ञ लोगों का काम है। क्षेत्र के क्षेत्रपों का। मैं न तो धर्म और अध्यात्म के ‘डॉमेन’ में कोई विशेषज्ञ गति रखता हूं, न ‘लॉजिक’ के। बल्कि साहित्य या आलोचना को भी ‘स्वत्व’ के भाव से नहीं देख पाता। वहां तो इतने जमींदार हो गये हैं कि मेरी हैसियत भूमिहीन मजदूर जैसी है। आई.ए.एस. हो जाना लेखन की इस दुनिया में जर्बदस्त परायापन पैदा करता है। हालांकि जितने भी आई.ए.एस. लेखक हुए हैं, वे पहले लेखक थे और बाद में आई.ए.एस. बने। प्राय: सभी ने उस बचपन में लिखना शुरू किया जिस पर सभी का समान हक होता है। लेकिन आई.ए,एस. में आते ही वे ‘‘हैव्स’’ में शुमार कर दिये गये। उसका   प्रतिशोध उसे साहित्य में भूमिहीन मजदूर बनाकर ले लिया जाता है। कई लोग इसी दूसरपन से उबरने के लिए रचना के स्तर पर कॉमरेड हो जाते हैं अऔर एक जमींदारी के नागरिक बन जाते हैं। मैं अनागरिक ही रहा। किसी खेमेमें शमिल होा या कोई खेमा खड़ा करना दोनों में ही मेरी अरुचि थी। शिविरों में चिंतन-कक्ष होते हैं और वे वहां चिंतन- मनन करते भी होंगे। लेकिन मुझे लगता रहा कि चिंतन से कहीं अलग एक चिन्ता भी है जो हमें जिंदगी के मायने समझने का मौका देने के लिए एक दरवाजा भी खोलती है। उस चिंता में लगता है कि कुछ लिखे जाने की जरूरत है।  लोग चिन्ता को साइकोथिरेपी से जोड़ते हैं, मैंने लेखन से जोड़ा। शिविरों के चिंतन-कक्ष में दूसरे से युद्ध की रणनीति बनती है, लेकिन रचना तो बहुत हद तक अरण्य में छूट जाने का साहस है।

 सामाजिक संदर्भों पर भी आप काफी गौर करते हैं, ये कैसे... आपकी विचार-प्रक्रिया का स्रोत- बिन्दु क्या है...?
ये सामाजिक संदर्भ अपने किस्म का अरण्य है। अरण्य कोई पिछले जमाने की प्रकृति की क्रोड़ नहीं जिसमें ऋषियों की ऋचाएं संपन्न हुर्इं। यह जंगल तो जैसे प्रतिदिन हम पर हल्ला बोलता है। यह जंगल किसी तरह का असमाप्त शून्य नहीं है। यह तो कांक्रीट का जंगल है। यहां सियारों की आवाजें भी हैं और गीदड़ों की भी। यह अरण्य औपनिवेशिक लेखकों के द्वारा कार्बनाइज्ड जंगल है। कैसा- कैसी घात लगाकर यहां भारतीय आत्मविश्वास का शिकार किया गया है, किया जा रहा है। बात इसकी नहीं है कि दुनिया भारतीय और गैर- भारतीय के बाइनरी भेदों में बांटी जा सकती है। बात इसकी है कि शिकार कौन है, तीर किसे लग रहे हैं, खून किसका बह रहा है और आप शिकारी के साथ क्यों हैं?


 कई बार आप (कई रचनाओं में) जवाब दे रहे होते हैं। ऐसा किस कारण से होता है?
एक न एक दिन तो उन्हें जवाब मिलना ही था। मंैने जवाब न दिया होता, किसी और ने दिया होता। एकतरफा ट्रेफिक था। एकांगी मार्ग। जैसे कि भारतीय मनीषा सिर्फ झेलने के लिये ही बनी हो। मैंने पशुपति, वंदेमातरम्, कुरान, शक्ति, तुलसी, हनुमान आदि पर लिखा है क्योंकि इन सबके खिलाफ औपनिवेशिक और उलटपंथी लेखकों ने क्या- क्या नहीं कहा? ‘सेक्रेड’ को पवित्र को अतिक्रमित करना, अपने तरह का शौर्य हो सकता है, लेकिन जब वह चयन करके हो तब क्या। बकरा बुद्धि के लोग जब हमारे देश की प्रतिष्ठा- पुस्तकों को गड़रियों के गीत बतलायें और हमारे थाती- पुरूषों को कवि- कल्पना, तो उन्हें अनुत्तरित क्यों जाने दिया जाये? इतिहास सिर्फ वही सवाल नहीं करेगा जो हमारे विद्वान इतिहासकार करते हैं, वह उस तरह के सवाल भी करेगा जो उनकी विद्वता के बावजूद नहीं किये जा रहे।
( साक्षात्कार : मनोज श्रीवास्तव से रवीन्द्र स्वप्निल प्रजापति)

रविवार, अप्रैल 06, 2014

ओशा के विचार रोने की जो कला है,

  मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि बच्चे के रोने की जो कला है, वह उसके तनाव से मुक्त होने की व्यवस्था है और बच्चे पर बहुत तनाव है। बच्चे को भूख लगी है और मां दूर है या काम में उलझी है। बच्चे को भी क्रोध आता है। और अगर बच्चा रो ले, तो उसका क्रोध बह जाता है और बच्चा हलका हो जाता है, लेकिन मां उसे रोने नहीं देगी। मनसविद् कहते हैं कि उसे रोने देना; उसे प्रेम देना, लेकिन उसके रोने को रोकने की कोशिश मत करना। हम क्या करेंगे? बच्चे को खिलौना पकड़ा देंगे कि मत रोओ। बच्चे का मन डाइवर्ट हो जाएगा। वह खिलौना पकड़ लेगा, लेकिन रोने की जो प्रक्रिया भीतर चल रही थी, वह रुक गई और जो आंसू बहने चाहिए थे, वे अटक गए और जो हृदय हलका हो जाता बोझ से, वह हलका नहीं हो पाया। वह खिलौने से खेल लेगा, लेकिन यह जो रोना रुक गया, इसका क्या होगा? यह विष इकट्ठा हो रहा है।
मनसविद् कहते हैं कि बच्चा इतना विष इकट्ठा कर लेता है, वही उसकी जिंदगी में दुºख का कारण है। और वह उदास रहेगा। आप इतने उदास दिख रहे हैं, आपको पता नहीं कि यह उदासी हो सकता था न होती; अगर आप हृदयपूर्वक जीवन में रोए होते, तो ये आंसू आपकी पूरी जिंदगी पर न छाते; ये निकल गए होते। और सब तरह का रोना थैराप्यूटिक है। हृदय हलका हो जाता है। रोने में सिर्फ आंसू ही नहीं बहते, भीतर का शोक, भीतर का क्रोध, भीतर का हर्ष, भीतर के मनोवेश भी आंसुओं के सहारे बाहर निकल जाते हैं। और भीतर कुछ इकट्ठा नहीं होता है। तो स्क्रीम थैरेपी के लोग कहते हैं कि जब भी कोई आदमी मानसिक रूप से बीमार हो, तो उसे इतने गहरे में रोने की आवश्यकता है कि उसका रोआं-रोआं, उसके हृदय का कण-कण, श्वास-श्वास, धड़कन-धड़कन रोने में सम्मिलित हो जाए; एक ऐसे चीत्कार की जरूरत है, जो उसके पूरे प्राणों से निकले, जिसमें वह चीत्कार ही बन जाए। हजारों मानसिक रोगी ठीक हुए हैं चीत्कार से। और एक चीत्कार भी उनके न मालूम कितने रोगों से उन्हें मुक्त कर जाती है। लेकिन उस चीत्कार को पैदा करवाना बड़ी कठिन बात है। क्योंकि आप इतना दबाए हैं कि आप अगर रोते भी हैं तो रोना भी आपका झूठा होता है। उसमें आपके पूरे प्राण सम्मिलित नहीं होते। आपका रोना भी बनावटी होता है। ऊपर-ऊपर रो लेते हैं। आंख से आंसू बह जाते हैं, हृदय से नहीं आते। लेकिन चीत्कार ऐसी चाहिए, जो आपकी नाभि से उठे और आपका पूरा शरीर उसमें समाविष्ट हो जाए। आप भूल ही जाएं कि आप चीत्कार से अलग हैं; आप एक चीत्कार ही हो जाएं। तो कोई तीन महीने लगते हैं मनोवैज्ञानिकों को आपको रुलाना सिखाने के लिए। तीन महीने निरंतर प्रयोग करके आपको गहरा किया जाता है। करते क्या हैं इस थैरेपी वाले लोग? आपको छाती के बल लेटा देते हैं जमीन पर। आपसे कहते हैं कि जमीन पर लेटे रहें और जो भी दुºख मन में आता हो, उसे रोकें मत, उसे निकालें। रोने का मन हो रोएं; चिल्लाने का मन हो चिल्लाएं।
तीन महीने तक ऐसा बच्चे की भांति आदमी लेटा रहता है जमीन पर रोज घंटे, दो घंटे। एक दिन, किसी दिन वह घड़ी आ जाती है कि उसके हाथ-पैर कंपने लगते हैं विद्युत के प्रवाह से। वह आदमी आंख बंद कर लेता है, वह आदमी जैसे होश में नहीं रह जाता, और एक भयंकर चीत्कार उठनी शुरू होती है। कभी-कभी घंटों चीत्कार चलती है। आदमी बिलकुल पागल मालूम पड़ता है, लेकिन उस चीत्कार के बाद उसकी जो-जो मानसिक तकलीफें थीं, वे सब तिरोहित हो जाती हैं।
यह जो ध्यान का प्रयोग मैं आपको कहा हूं, ये आपके जब तक मनावेग-रोने के, हंसने के, नाचने के, चिल्लाने के, चीखने के, पागल होने के- इनका निरसन नहो जाए, तब तक आप ध्यान में जा नहीं सकते। यही तो बाधाएं हैं। आप शांत होने की कोशिश कर रहे हैं और आपके भीतर वेग भरे हुए हैं, जो बाहर निकलना चाहते हैं। आपकी हालत ऐसी है, जैसे केतली चढ़ी है चाय की। ढक्कन बंद है। ढक्कन पर पत्थर रखे हैं। केतली का मुंह भी बंद किया हुआ है और नीचे से आग भी जल रही है। वह जो भाप इकट्ठी हो रही है, वह फोड़ देगी केतली को। विस्फोट होगा। दस-पांच लोगों की हत्या भी हो सकती है। इस भाप को निकल जाने दें। इस भाप के निकलते ही आप नए हो जाएंगे और तब ध्यान की तरफ प्रयोग शुरू हो सकता है।

ओशा के विचार