बुधवार, सितंबर 18, 2013

रक्तअल्प महिलाएं


महिलाओं में कुपोषण की स्थिति गंभीर है। देश में पचास प्रतिशत से अधिक महिलाएं एनिमिक हैं। यह खानपान और चिकित्सा से जुड़ा गंभीर मसला है और हमारे प्रयास बेहद सीमित।

संसद की महिलाओं के पोषण से संबंधित काम काज देखने वाली केंद्रीय महिला एवं बाल विकास मंत्रालय पर लोकसभा की प्राक्कलन समिति ने सरकार को इस बात के लिए पटकारा है कि देश में आज भी 70 प्रतिशत बच्चे और 60 प्रतिशत महिलाएं कुपोषण का शिकार हैं। देश तमाम प्रौद्योगिक विकास कर रहा है, संचार और तकनीकी के इस युग में इतना कुपोषण शर्म का विषय है। कुपोषण रोकने के लिए विश्व स्वास्थ्य संगठन के नए ग्रोथ चार्ट  के बाद भी देश में बच्चों एवं महिलाओं की स्थिति जस की तस है। इससे लगता है िक हमारे सरकारों और उनके विभागों के बीच समन्वय का भारी अभाव है। कुपोषण खत्म करने के लिए जो योजनाएं लागू की गई हैं वे जमीनी स्तर पर प्रभावी नहीं हो पा रही हैं। आंगनवाड़ियों और स्वास्थ्य विभाग में व्यापक समन्वय की कमी है। अधिकांश बच्चों का वजन नहीं लिया जाता है। ऐसे में वास्तविकता का पता नहीं चल पाता। एक समय प्रधानमंत्री ने भी कुपोषण को देश के लिए राष्ट्रीय शर्म बताया था। लेकिन देश के लोगों के सामने एक यही नहीं, ऐसी न जाने कितनी राष्ट्रीय शर्में पानी भर रही हैं। सरकार और समाज दोनों के बीच कोई चेतना और समस्याओं के प्रति जुझारूपन देखने नहीं मिलता।
इसी समिति ने यह भी बताया है कि देश में बच्चों में कुपोषण 1998-99 के मुकाबले 2005-6 में 80 प्रतिशत हो गया। यानी कुपोषण की दर बढ़ी है। यह गंभीर मामला है कि हम जिस स्तर को स्थिर नहीं रख सके तो कम से कम उसे दुर्गति की ओर तो नहीं जाने दिया जाना चाहिए।
ग्रामीण क्षेत्रों में सुदृढ़ होती स्वास्थ्य व्यवस्थाए किसी सरकारी विज्ञापन का हिस्सा हो सकता है लेकिन वास्तविकताओं से इसका बहुत वास्ता नहीं होता। हर बार बजट बढ़ता है और हर बार कुपोषण भी सामने आता है। लेकिन हर बार कुपोषण, रक्त अल्पता, निरक्षरता की शिकार महिलाओं की संख्या करोड़ों में बाकी रहती है। कुपोषण और एनिमिक होने में कम उम्र में विवाह लड़कियों के लिए अभिशाप बन जाता है। यानी बाल विवाह भी देश में जारी है। आज देश में करीब 40 प्रतिशत लड़कियों का बाल विवाह होता। जिस वक्त संयुक्त राष्ट्र बाल विवाह को रोकने की बात कर रहा था ठीक उसी वक्त हरियाणा राज्य में एक राजनैतिक पार्टी के नेता 15 वर्ष में लड़कियों के विवाह की सलाह दे रहे थे।  भारतीय समाज, यहां का शासक वर्ग अपने हितों को बनाये रखने व राजनैतिक पार्टियां अपने चुनावी गणित की दृष्टि से पिछड़े सामंती मूल्यों को बनाये रखे हुये हैं। यही कारण है कि भ्रूण हत्या, बाल विवाह, दहेज प्रथा जैसी तमाम स्त्री विरोधी प्रथाएं और परंपराएं मौजूद हंै। शासक वर्ग इनका समाधान करने में कोई दिलचस्पी नहीं रखता है। वह मात्र कुछ रस्म अदायगी करके अपने कर्तव्य की इति श्री कर लेता है। आवश्यकता इस बात की है कि नीव में चोट करने वाले, व्यापक आंदोलन की शुरूआत हो। ये समस्याएं हैं तो इसका अर्थ है कि हम विकास के वास्तविक लक्ष्य को हासिल करने में एक असफल समाज हैं।

लालबत्ती: नया सामंतवाद
लालबत्ती समाज से अलग करती है। यह बयान लोकतंत्र के प्रति सच्ची भावना से पैदा हुआ है। हम सब भारतीय हैं और हमें अपने कामों से खास होना चाहिए न कि लालबत्ती लगा कर घूमने से।
ज ब किसी चीज को छुपाना होता है तो हर इंसान अपने आसपास तामझाम पैदा करता है। लालबत्ती एक ऐसा तामझाम है जिसमें जनता का प्रतिनिधित्व या सेवा करने वाला व्यक्ति खुद को छुपा लेता है। हूटर या लालबत्ती की आड़ में व्यक्ति सेवा नहीं अहंकार प्रदर्शित करता है। लाल बत्ती कार्य की सुविधा के लिए लगाई जाने वाली एक सुविधा थी लेकिन आज यह एक ऐसा प्रतीक बन गई है जिसमें विशिष्टाबोध समाया है। लोकतंत्र में औरों से खास दिखन के लिए लाल बत्ती नहीं जरूरी है कि हमारे काम खास हों। लाल बत्ती के मामले में कांग्रेस नेता ज्योतिरादित्य सिंधिया का यह बयान लोकतांत्रिक मूल्यों के अनुकूल है कि लाल बत्ती समाज से अलग करती है। एक नेता को, राजनीतिक समाज सेवा करने वाले व्यक्तित्व को लालबत्ती नहीं काम की आवश्यकता है। लालबत्ती के सदुपयोग की उतनी खबरें नहीं आतीं जितनी कि उससे मार्फत रौब गांठने महज स्टेटस सिंबल को साधने के लिए वाहनों में लालबत्ती और सायरन के दुरुपयोग पर सुप्रीम कोर्ट पूर्व में ही चिंता जता चुका है। केंद्र और राज्य सरकारों को इसके नियमों पर पुनर्विचार करने का सुझाव दिया था।  बड़े ओहदेवालों को छोड़कर इनका इस्तेमाल करने के बारे में अब वह नियम तय करेगी। कोर्ट ने कहा है कि निर्धारित नियम के मुताबिक सिर्फ एंबुलेंस, फायर बिग्रेड, पुलिस और सेना की गाड़ी में सायरन होना चाहिए बाकी सभी से इन्हें हटा दिया जाना चाहिए। लालबत्ती लगाने की अनुमति सिर्फ संवैधानिक पदों पर आसीन लोगों मसलन, राष्ट्रपति, राज्यपाल, प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री, संसद व विधानसभा के स्पीकर, मुख्य न्यायाधीश और राज्य के उच्च न्यायालयों के मुख्य न्यायाधीशों को ही होनी चाहिए। ऐसे ही किसी कार्य के लिए निश्चित वाहन को छोड़कर अन्य किसी भी सरकारी वाहन में लालबत्ती लगाने की अनुमति नहीं होनी चाहिए। लालबत्ती कल्चर पर सुप्रीम कोर्ट का यह हस्तक्षेप   स्वागतयोग्य है। गुजरते वर्षो के साथ ये संस्कृति फैलती गई है। गाड़ियों के ऊपर लगी लालबत्तियां ताकत की निशानी बन गई हैं। देखा गया है कि अक्सर सत्ताधारी राजनीतिक दल अपने असंतुष्ट नेताओं को खुश करने के लिए लालबत्ती और सुरक्षाकर्मी की सुविधाएं दे देते हैं। दिल्ली का उदाहरण लें, तो यहां संवैधानिक अधिकारियों के अतिरिक्त अन्य कथित खास लोगों की सुरक्षा पर सरकार के लगभग बीस करोड़ रुपए हर महीने खर्च होते हैं, जहां 4000 से ऊपर कर्मी ऐसे लोगों की हिफाजत में तैनात हैं। यही हाल दूसरे राज्यों का भी है। जिस देश में पुलिसकर्मियों की संख्या प्रति एक लाख की आबादी पर सिर्फ 130 है । संयुक्त राष्ट्र के मुताबिक यह 222 होनी चाहिए। वहां ये कितना महत्वपूर्ण मुद्दा है, समझा जा सकता है। वीआईपी की सुरक्षा के खास इंतजामों से जहां आमजन की सुरक्षा कमजोर होती है और राजकोष पर बेजा बोझ पड़ता है, वहीं आम नागरिक को भारी परेशानी भी झेलनी पड़ती है। यह रुझान खास और आम के बीच ऐसी खाई पैदा करता है, जो लोकतंत्र की मूल भावना के बिल्कुल खिलाफ है।
नई जिम्मेदारी अग्नि-5
अग्नि पांच के माध्यम से भारत ने फिर अपनी सामरिक वैज्ञानिक क्षमता को स्थापित किया है। मिसाइल परीक्षण सिर्फ ताकत का पर्याय नहीं हैं, ये देश को वैश्विक भूमिका के लिए आत्मविश्वास भी लेकर आते हैं।

भा रतीय मिसाइल वैज्ञानिकों ने देश की सैनिक ताकत को फिर विश्व में स्थापित किया है। मिसाइल परीक्षण का अर्थ सिर्फ सैनिक ताकत नहीं होता। यह एक देश की वैज्ञानिक प्रगति का सोपान भी है। परमाणु बम गिराने में सक्षम लांग रेंज की अग्नि-5 बैलेस्टिक मिसाइल का दोबारा सफल परीक्षण कर वैज्ञानिकों ने भारत से होड़ करने वाली ताकतों को संदेश दिया है कि हम किसी भी मिसाइली हमले का जवाब देने में पूरी तरह सक्षम हैं। बहरहाल,भारतीय मिसाइल कार्यक्रम की शुरुआत डॉ. कलाम के आने से हुई थी तो यह कहना अतिकथन नहीं होगा। कलाम 1962 में भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन में आए। उन्हें प्रोजेक्ट डायरेक्टर के रूप में भारत का पहला स्वदेशी उपग्रह एस.एल.वी. तृतीय प्रक्षेपास्त्र बनाने का श्रेय हासिल हुआ। 1980 में इसरो लांच व्हीकल प्रोग्राम को परवान चढ़ाने का श्रेय भी उनको जाता है। डॉक्टर कलाम ने स्वदेशी लक्ष्य भेदी यानी गाइडेड मिसाइल्स को डिजाइन किया। अग्नि एवं पृथ्वी जैसी मिसाइलों को स्वदेशी तकनीक से बनाया। जब वे भारतीय रक्षा अनुसंधान एवं विकास संस्थान में निदेशक के तौर पर आए तब उन्होंने अपना सारा ध्यान गाइडेड मिसाइल के विकास पर केन्द्रित किया था। आज की अग्नि और पृथ्वी मिसाइल का सफल परीक्षण का श्रेय काफी कुछ उन्हीं को है। भारत की विभिन्न मिसाइलें देश की सुरक्षा प्रणाली का बेहद अहम हिस्सा हैं। इनमें कई जमीन से जमीन तक मार करने वाली मिसाइलें हैं तो कुछ जमीन से हवा में मार करने वाली। भारत के पास समुद्र में से दागी जा सकने वाली मिसाइलें भी हैं।
अग्नि मिसाइलें भारतीय मिसाइल प्रणाली की मुख्य रीढ़ हैं। देश में जो भी मिसाइल-परीक्षण किया जाता है,उस पर देश के करोड़ों लोगों की निगाह रहती है। इन्हें भारत की रक्षा-क्षमता और वैज्ञानिक-तकनीकी क्षमता का प्रमाण माना जाता है। इसे पड़ोसी डर और आशंका की नजर से देखते रहे हैं। इस सिलसिले में पाकिस्तान का नजÞरिया थोड़ा-सा अलग है। अग्नि-5 के परीक्षण पर दुनिया भर में हुई प्रतिक्रिया ने इस तथ्य को रेखांकित किया है कि चीन और पाकिस्तान के अलावा हमने कोई नए दुश्मन नहीं बनाए हैं। यहां तक कि भारत के परमाणु तथा अन्य सुरक्षा कार्यक्रमों पर तपाक से बयान जारी करने वाले आॅस्ट्रेलिया जैसे देशों ने भी इस बार कोई नकारात्मक प्रतिक्रिया नहीं की। यह चीन के बरक्स उभरती हुई एक नई शक्ति के प्रति विश्व समुदाय की मौन स्वीकृति है। इतनी ज्यादा रेंज वाली मिसाइल की क्षमता अमेरिका, रूस, चीन, फ्रांस और ब्रिटेन के पास है। सैन्य लिहाज से तो शायद हमें इसकी जरूरत कभी न पड़े, लेकिन राजनीतिक परिप्रेक्ष्य में इस तरह का कदम बेकार नहीं जाएगा। वह हमें विश्व के शक्ति-सम्पन्न देशों की कतार में खड़ा कर सकता है। उस कतार में, जहां अभी इंग्लैंड और फ्रांस जैसे देशों की भी उपस्थिति नहीं है, यानी अमेरिका, रूस और चीन की श्रेणी में। इस परीक्षण के बाद भारत दूरगामी राजनीतिक, कूटनीतिक और सैन्य संदर्भ नए आयाम हासिल करेगा।

मंगलवार, सितंबर 03, 2013

भूमि अधिग्रहण के अर्थ

  भूमि अधिग्रहण के अर्थ
उचित या अधिक मुआवजा किसी भी तरह परिवेश और पर्यावरण की क्षतिपूर्ति नहीं हो सकता। खेती की जमीन के बाद किसान परिवारों की आजीविका और पर्यावरण को सुनिश्चित किया जाना भी जरुरी है।

भू मि अधिग्रहण एक बहुत ही संवेदनशील प्रश्न रहा है और खाद्य सुरक्षा विधेयक के बाद संप्रग सरकार ने एक महात्वाकांक्षी ‘भूमि अधिग्रहण’ विधेयक को मंजूरी दे दी। अब किसानों की भूमि का जबरदस्ती अधिग्रहण नहीं किया जा सकेगा। विधेयक में ग्रामीण इलाकों में जमीन के बाजार मूल्य का चार गुना और शहरी इलाकों में दो गुना मुआवजा देने का प्रावधान है।
यह बिल उचित मुआवजे पर जोर देता है जिसमें शहरों में दुगुना और ग्रामीण इलाकों में बाजार मूल्य का चार गुना देने की बात कही गई है। लेकिन जो असल सवाल थे उन पर इसमें खास जोर नहीं दिया है। हम आज भी प्राकृतिक संसाधनों से संबंधित बिल या नीतियां बनाते वक्त सदैव मानव और उसके भौतिक-आर्थिक विकास को ही केंद्र में रखते हैं। हम भूल जाते हैं कि कुदरत के सारे वरदान इंसानों के लिए नहीं हैं। इन पर प्रकृति के दूसरे जीवों का भी हक है। कितने ही जीव व वनस्पतियां ऐसी हैं, जो हमारे लिए पानी, मिट्टी व हवा की गुणवत्ता सुधारते हैं। उन पर ध्यान देना हमें याद नहीं रहता। सरकार या उद्योगपति भूमि अधिग्रहण कर लेंगे लेकिन वहां रहने वाले पशु पक्षी वनस्पति और भूसंरचना को खराब करने का अधिकार उसे क्यों मिलेगा? क्या फैक्ट्री और कारखाने लगाना ही विकास है। जीवन की गुणवत्ता का कोई सवाल हमारे सांसद , सरकारें और पार्टियां नहीं करती हैं। लोकसभा की स्टैंडिंग कमेटी में सर्वदलीय सहमति होने के बावजÞूद भी कमेटी की सिफÞारिशों को लागू नहीं किया गया है। इस बिल पर जो ग्रुप आॅफ मिनिस्टर्स बना जिसमें वित्त मंत्री, कृषि मंत्री और वाणिज्य मंत्री शामिल थे उन्होंने ही इस बिल को कमजÞोर किया है।  भूमि अधिग्रहण के मामले में अब तक सभी सरकारों ने अपनी-अपनी नीति को सर्वश्रेष्ठ कहा है। भूमि अधिग्रहण को लेकर सभी सरकारें उद्योगों के साथ पूरी ताकत से खड़ी रही हैं। यह गलत तो नहीं है, लेकिन नए कानूनों में खेती, जंगल, मवेशी, पानी, पहाड़ और धरती से किसी को हमदर्दी नहीं है। 
पूर्व में अधिग्रहित औद्योगिक क्षेत्र बड़े पैमाने पर खाली पड़े हैं; बंजर भूमि का विकल्प भी हमारे पास है, लेकिन उसका इस्तेमाल हम करना नहीं चाहते। ताजा अधिग्रहणों में जरूरत से ज्यादा भूमि अधिग्रहण की शिकायतें हैं। खेती व खुद को बचाना है, तो भूमि तो बचानी ही होगी। किसान खेत के माध्यम से सिर्फ अपना पेट ही नहीं भरता; वह दूसरों के लिए भी फसलें उगाता है। उसके उगाये चारे पर मवेशी जिंदा रहते हैं। जिनके पास जमीनें नहीं हैं, ऐसे मजदूर व कारीगर अपनी आजीविका के लिए  कृषि भूमि व किसानों पर ही निर्भर करते हैं। इस तरह यदि किसी अन्य उपयोग के लिए बड़े पैमाने पर कृषि भूमि ली जाती है, तो इसका खामियाजा स्थानीय पर्यावरण को भी भुगतना पड़ता है। उन्हें कौन मुआवजा देगा? सवाल कई हैं इस बिल में निजी कार्यों के लिए उपजाऊ कृषि भूमि को हतोत्साहित करने का कोई प्रावधान नहीं है, बस अधिक पैसे देकर किसानों की भूमि लेना ही प्रमुख है।






सजा के बाद निराशा
उम्र और क्रूरता के बीच सीधा रिश्ता नहीं होता लेकिन जब क्रूरता उम्र पर हावी हो तो उम्र नहीं क्रूरता ही देखी जानी चाहिए। दामिनी रेप केस में नाबालिग को तीन साल की सजा मिली है।



दि ल्ली में गैंगरेप के नाबालिग यानी जिसकी उम्र अठारह साल से कुछ कम थी, को जुबेनाइल जस्टिस कोर्ट से सजा मिल चुकी है। इस सजा से पीड़ित का परिवार और सामाजिक रूप से सक्रिय लोग निराश हैं। लोगों के निराश होने का कारण लड़के को कम सजा होना नहीं, बल्कि उसकी क्रूरता के जो किस्से सामने आए थे, उसके अनुसार सजा न मिलने से निराश हैं। लड़के ने जो क्रूरता बरती थी उससे नहीं लगता है कि वह कानून व्यवस्था से डरने वाला  किशोर था। आज लोग इस कानून को बदलने की बात कर रहे हैं। बलात्कार को लेकर  भारतीय दंड संहिता में18 साल से कम उम्र में किए गए अपराध को बाल अपराध मानता है। इस बाल अपराध की अधिकतम तीन साल की सजा के साथ आरोपी को बाल सुधार गृह भेज देता है। यही कानून इस क्रूर अपराधी के बचने का कारण है। देश में हलचल मचाने वाले इस बर्बर गैंगरेप और हत्या के केस में आरोपी को फायदा मिल चुका है। दूसरी तरफ लड़की के पिता ने बालिग और नाबालिग का भेद मिटाने की अपील की है। पीड़िता के पिता ने कहा है कि बलात्कारी सिर्फ बलात्कारी है और उसे सख्त सजा दी जानी चाहिए। फांसी के अलावा कोई रास्ता नहीं होना चाहिए। यह विचार पीड़िता के परिजनों के हैं लेकिन बहस और विचार का मुद्दा है कि ऐसे नाबालिग जो क्रूरता और हत्या में शामिल हों, उनके मामले में उनकी मानसिकता को भी शामिल करना आवश्यक है। ऐसे मामले में भौतिक उम्र के आधार पर नाबालिग न माना जाए। उनकी मानसिक उम्र से भी उनके अपराध की गंभीरता को आंका जाना चाहिए।
आज दिल्ली के सर्वेक्षणों में यह बात साबित हो रही है कि नाबालिग की बड़े अपराधों में भागीदारी बढ़ रही है। ज्यादातर गलत काम करते हुए नाबालिग जानते हैं कि वे बच जाएंगे। ऐसे में यह छूट बेमानी हो जाती है। अब दूसरा सवाल है कि मौजूदा भारतीय कानून बलात्कार या महिलाओं के खिलाफ अपराध को   लेकर संवेदनशील नहीं है। जबकि ये वो इंसान है जो भले ही नाबालिग हो लेकिन उसने काम राक्षसों का किया। लड़की को टॉर्चर करने का सबसे जघन्य अपराध उस पर साबित हो चुका है। लड़की की मौत का सबसे बड़ा जिम्मेदार ये लड़का ही है। जांच में साबित हुआ है कि खुद को नाबालिग बताने वाले इस लड़के ने गैंगरेप के दौरान लड़की पर बेतरह जुल्म ढाए। हालांकि उतने ही दोषी वो लोग भी हैं जो इसके साथ थे या यह जिनके साथ था।
नाबालिगों के लिए बने कानून की बात करें तो नाबलिग कानून तब बनाया गया था जब समाज में इतनी आक्रामकता और हिंसा नहीं थी। जिन नौनिहालों को ध्यान में रख कर पहले के कानून बनाए गए थे..जिनसे यदा-कदा ही अपराध हो जाया करते थे। बच्चे तब अबोधता में ही रहा करते थे। लेकिन आज प्मासूमियत नहीं रहीं। नई पीढ़ी निरंकुश और स्वेच्छाचारी होने के कारण अपराध की ओर तेजी से अग्रसर है। बेहद क्रूर और विकृत मानसिकता वाले नए  नाबालिगों को सजा से मुक्त नहीं किया जा सकता।


पारिवारिक कलह निजी जीवन में अशांति का बड़ा कारण बन रही है। इससे स्त्री पुरुष दोनों परेशान हैं। लेकिन ऐसा क्यों हो रहा कि यह कलह अत्यंत हिंसक होती जा रही है।
पारिवारिक कलह में


इंदौर की घटना ने एक बार फिर पारिवारिक कलह के भयावह परिमाण उजागर किए हैं। परिवारों में खासकर एकल परिवार जिन्हें आजकल न्युक्लियर परिवार कहा जाता है, इनमें आपसी कलह के चलते हिंसा और आत्महत्या के मामले बढ़ रहे हैं। सामान्य रूप से यह कोई राजनीतिक संकट नहीं है लेकिन यह एक बड़े सामाजिक संकट के रूप में उभर कर सामने आ रहा है। परिवार में पति पत्नी के अलावा कोई नहीं होता। बच्चे पति पत्नी की लड़ाई को समझते नहीं हैं। इस कलह के दौरान वे सिर्फ मानसिक प्रताड़ना ही भुगतते रहते हैं और अक्सर गुमसुम रहने लगते हैं। पति-पत्नी की रोज रोज की लड़ाई, झगड़ा और कलह से क्रोध, आवेश, कुंठा और घृणा को ऐसा जहर बनता है जिसमें व्यक्ति हत्या अथवा आत्महत्या की और अग्रसर हो जाता है। करने के बाद उसे होश आता है कि आखिर उसने क्या कर डाला। इंदौर की इस घटना में भी क्रोध की पराकाष्ठा, पूर्व में चल रही कलह से पैदा घृणा और व्यक्ति की हताशा प्रमुख है। मनोवैज्ञानिकों का मानना है कि हत्या अथवा आत्महत्या अंतर्मुखी और बहिर्मुखी व्यक्तित्व का हिस्सा होती हैं। पारिवारिक कलह में आत्म-हत्या करने का निर्णय एक ‘फ्रिक्शन आॅफÞ सेकेण्ड का निर्णय’ है, जब बच्चों अथवा बड़ों का मन बिलकुल हताश हो जाता है. हताश होने के बहुत सारे कारण हों सकते हैं लेकिन किसी भी परिस्थिति में उनका आत्म-विश्वास टूटना या फिर परिस्थितियों का सामना करने की मानसिक विफलता अधिक महत्वपूर्ण होता है. उस वकÞ्त ‘अच्छे’ या ‘बुरे’ का निर्णय करने में वे विल्कुल नाकाम होते हैं. कभी-कभी वे यह भी सोचते है हों शायद ऐसा करने से सभी परिस्थितियां ‘अनुकूल’ हों जाएंगी। लेकिन यह सिर्फ अहंकार का टकराव बन कर रह जाता है। मनोवैज्ञानिकों का कहना है कि आम तौर पर परिवार में कलह, चाहे संयुक्त परिवार ही क्यों न हों, परिवार का कोई भी सदस्य अपनी किसी एक गलती को छिपाने के लिए एक अलग तरह का व्यवहार करने लगता है, जो सामान्य नहीं होता। उसका यह असामान्य व्यवहार प्राय: शक के दायरे में आ जाता है और फिर होती है कलह। यह अक्सर पति -पत्नी के बीच ज्यादा दिखता  है, जो न केवल बच्चों की मानसिक दशा को नकारात्मक तरीके से प्रभावित करता है बल्कि अंत में आत्म-हत्या करने की ओर भी उन्मुख करता है। इनमें अधिकांशत: पुरुष ही आगे होते हैं। पिछले वर्ष 2011 में कुल 33,000 ऐसी आत्म हत्याएं हुर्इं जिसमें पुरुषों की संख्या पैसठ फीसदी से ज्यादा थी। जीवन का अंत किसी भी स्थिति में समस्याओं का समाधान नहीं हो सकता। इस मनोदशा की उत्पत्ति अधिकाशत: परिवार से होती है, जहां विभिन्न परिस्थितियों में जन्म लेती है। कार्यस्थल और परिवार के बीच समन्वय न होना भी इसका कारण है। पारिवारिक बंधनों की जकड़न, सहनशीलता की कमी, पारिवारिक अकेलापन आदि के साथ एकल परिवारों में सामाजिक लुब्रीकें ट की कमी देखी जा रही है, इससे पैदा हताशा आत्मघात की ओर धकेलती है।